मुद्रास्फीति क्या है?, अर्थ, प्रकार, कारण, प्रभाव, उपाय | mudra sfiti

मुद्रास्फीति

अन्य सभी क्षेत्रों की तरह की अर्थ जगत और उसके सारे पहलू निरंतर बदलते और घटते-बढ़ते रहते हैं। यदि किसी विशेष परिस्थितिवश कोई पहले थोड़े समय के लिए अपरिवर्तित रह जाता है तब भी इस प्रथम दृष्टया 'अपरिवर्तित' पहले के सापेक्ष अथवा तुलनात्मक स्थिति बदल जाती है। अतः आर्थिक प्रबंधकारों और नीतिकारों के सामने विभिन्न दरों से परिवर्तनशील पहलुओं के बीच कई दृष्टियों से उपयुक्त, न्यायपूर्ण तथा टिकाऊ संबंध बनाए रखने की चुनौती बनी रहती है। यह स्थिति कीमतों के बारे में खासतौर पर नजर आती है।
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आर्थिक जीवन में स्थिरता के साथ-साथ आर्थिक विकास के लिए वस्तुओं के मूल्य में स्थिरता का होना एक आवश्यक शर्त है। इसके विपरीत वस्तुओं के मूल्यों का लगातार ऊपर चढ़ना लोगों के आर्थिक जीवन ही नहीं बल्कि संपूर्ण अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कीमतों में उतार-चढ़ाव से अनिश्चितता का वातावरण बनता है जो विकास कार्य के लिए उपयुक्त नहीं है।
अर्थव्यवस्था की एक खास बात यह होती है कि सीधे-सीधे या घुमा-फिराकर, कमोवेश हर बात, हर पहलू एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। कीमतें, चाहे वे किसी एक वस्तु, सेवा, उत्पादन में संसाधन आदि किसी भी वस्तु या सेवा की हों या सब कीमतों का प्रतिनिधित्व या प्रतिबिंबन करता उनका सूचकांक हो, आर्थिक पहलुओं के पारस्परिक प्रभावों के कारण ये प्रभावित होते रहते हैं। कुछ स्वैच्छिक प्रक्रियाओं के द्वारा भी इन कीमतों को प्रभावित होने से रोका जा सकता है। उदाहरण के लिए जनसंख्या, प्राकृतिक प्रभाव, लोगों की पंसद-नापसंद, उत्पादन, तकनीकी जानकारियां, राजकीय नीतियां, लोगों की प्ररेणा के स्रोत तथा उनके बीच के सापेक्ष अहमियत के रिश्ते बदलते रहते हैं। इनमें देश के बाहर से आए प्रभावों को भी शामिल करना पड़ता है। विभिन्न प्रकार के लेन-देन में विभिन्न किस्म की कीमतें निर्धारित होती हैं। प्रादेशिक स्तरों पर भी कीमतों में विविधता आती रहती है। इन सब प्रभावों को केवल मांग तथा पूर्ति नामक दो पक्षों में बांधना आमतौर पर प्रचलित रहता है किन्तु कई प्रभाव अल्पकालिक और सतही तो कई बहुत गहरे और दीर्घकालिक होते हैं। ये कई बार खासकर एक गतिमय संदर्भ में मांग और पूर्ति दोनों पक्षों को प्रभावित करते हैं। उपर्युक्त बातों पर ध्यान देने की जरूरत बढ़ रही है। कारण स्पष्ट है आजकल भारत में कीमतों का सवाल आम आदमी के स्तर पर शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

मुद्रास्फीति का अर्थ

किसी भी वस्तु का मूल्य प्रशासित कीमतों को छोड़कर जिनका मूल्य बाह्यरूप से सरकार या किसी संस्था द्वारा निर्धारित होता है। सामान्यतया मांग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है, इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि मूल्य स्तर मांग एवं पूर्ति कारकों की क्रियाशीलता तथा गहनता प्रदर्शित करता है। मूल्य स्तर के बढ़ने का मतलब हुआ कि या तो वस्तुओं की पूर्ति या उत्पादन कम है, तथा अर्थव्यवस्था में उनकी जनित मांग अधिक है, या यह भी हो सकता है कि पूर्ति तथा मांग दोनों बढ़ रही है पर मांग अधिक तेजी से बढ़ रही है या यह भी हो सकता है कि है वस्तुओं की उत्पादन लागत बहुत तेजी से बढ़ रही है इसलिए मूल्य स्तर तेजी से बढ़ रहा है।
अर्थव्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन तथा उसकी लागत पूर्ति के पक्ष को प्रदर्शित करेगा जबकि वस्तुओं पर किया जाने वाला व्यय मांग प्रदर्शित करेगा जो मुद्रा की पूर्ति का वह भाग होगा जो वस्तुओं पर व्यय होगा।
इस प्रकार मूल्य स्तर मांग, पूर्ति तथा लागत को प्रभावित करने वाले कारकों पर निर्भर करेगा।
मूल्य स्तर को व्यक्त करने के लिए आप कहते हैं कि एक किलोग्राम गेहूं का मूल्य 8 रुपया है। इसके आधार पर आ भी कह सकते हैं कि एक रुपये की क्रय शक्ति 1/8 किलोग्राम गेहूं है। कहने का आशय यह हुआ कि मुद्रा की क्रय शक्ति मूल्य स्तर की व्युत्क्रम होती है और मूल्य स्तर का बढ़ना मुद्रा की क्रय शक्ति का गिरना प्रदर्शित करेगा (क्योंकि इस स्थिति में पहले की अपेक्षा मुद्रा से कम ही क्रय किया जा सकेगा) तथा मूल्य स्तर की कमी मुद्रा के मूल्य में वृद्धि प्रदर्शित करेगी।
जब हम मुद्रा की पूर्ति की बात करते हैं तो केवल मुद्रा की संख्या नहीं लेते हैं बल्कि उसकी चलन गति भी लेते हैं। चलन गति से आशय यह है कि कोई मुद्रा कितनी बार वस्तुओं के क्रय-विक्रय में प्रयोग आ रही है।
मूल्य स्तर की वृद्धि मुद्रास्फीति की सूचक हो सकती है पर मूल्य स्तर की प्रत्येक वृद्धि आवश्यक रूप से स्फीतिक नहीं होगी। सामान्यतया मुद्रास्फीति उस स्थिति को कहते हैं जबकि पूर्ति में वृद्धि न हो पाने के कारण मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में मांग आधिक्य के कारण मूल्य स्तर में लगातार तेज संचयी तथा स्थायी वृद्धि हो रही है। इस प्रकार मूल्य स्तर में वृद्धि मुद्रास्फीति की आवश्यक दशा है।
मुद्रा प्रसार या मुद्रास्फीति वह अवस्था है जिसमें मुद्रा का मूल्य गिर जाता है और कीमतें बढ़ जाती हैं। आर्थिक दृष्टि से सीमित एवं नियंत्रित मुद्रास्फीति अल्पविकसित अर्थव्यवस्था हेतु लाभदायक होती है, क्योंकि इससे उत्पादन में वृद्धि को प्रोत्साहन में मिलता है, किन्तु एक सीमा से अधिक मुद्रास्फीति हानिकारक है।
प्रो. पीगू के अनुसार जब आय-सृजन करने वाल क्रियाओं की अपेक्षा मुद्रा आय अधिक तेजी से बढ़ती है, तब मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न होती है। मुद्रा-मांग और वास्तविक आपूर्ति के बीच के अंतराल को 'मुद्रा अंतराल' कहा जाता है। जैसे-जैसे यह अंतराल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे कीमतों के सामान्य स्तर में वृद्धि होती रहती है।
अर्थशास्त्री प्राय: यह तर्क देते हैं कि मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के लिए बुरी नहीं है। जब कीमतें 2-3 प्रतिशत वार्षिक दर पर बढ़ती हैं तो निवेश के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार होता है और इससे आय बढ़ने के साथ-साथ पूर्ण रोजगार का स्तर प्राप्त होता है। लेकिन जब कीमतें लगातार दीर्घकाल तक बढ़ती हैं तो आय और संपत्ति की असमानताएं बढ़ती हैं और निश्चित आय वाले वर्गों की क्रय शक्ति लगातार कम होती जाती है। वस्तुत: एक ओर देश की अर्थव्यवस्था नाजुक मोड़ पर पहुंच जाती है और दूसरी ओर जनसाधारण का आर्थिक जीवन कष्टप्रद हो जाता है।

मुद्रास्फीति के प्रकार

1. मांग जनित मुद्रास्फीति
जब मांग में वृद्धि कीमत स्तर में वृद्धि का प्रमुख कारण हो तो इसे मांग जनित मुद्रास्फीति कहते हैं। इसके अनेक प्रकार हैं:
  • वस्तु मुद्रास्फीति - जब वस्तुओं की आपूर्ति में होने वाली कमी के कारण कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है तो इसे वस्तु मुद्रास्फीति कहते हैं।
  • करेंसी मुद्रास्फीति - जब करेंसी (नकदी) की मात्रा में होने वाली वृद्धि के परिणामस्वरूप मांग में वृद्धि होती है तथा कीमत स्तर में वृद्धि होती है, तब इसे करेंसी मुद्रास्फीति कहते हैं।
  • साख मुद्रास्फीति - जब केन्द्रीय बैंक की साख नीति में होने वाले परिवर्तन के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में करेंसी का प्रवाह बढ़ता है तथा जिससे मांग में व अन्ततः कीमत स्तर में वृद्धि होती है, इसे साख मुद्रास्फीति कहते हैं। 
  • घाटा जनित मुद्रास्फीति - जब बजट में उपस्थित घाटे के कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा की अतिरिक्त पूर्ति हो जिसके परिणामस्वरूप कीमत स्तर में वृद्धि हो उसे घाटा जनित स्फीति कहते हैं।
  • ब्रांड जनित मुद्रास्फीति -  भारतीय अर्थव्यवस्था में यह उदारीकरण पश्चात् की एक अवस्था है। जब भारत में विदेशी ब्रांड की कंपनियों ने प्रवेश किया तो उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के आधार पर ऊंची कीमतें वसूलने में सफलता पायी। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप घरेलू ब्रांड के उत्पादकों द्वारा भी कीमतों में वृद्धि की गई ताकि उन्हें घटिया न मान लिया जाय। उससे एक उत्पाद की औसत कीमत में वृद्धि हो गई। जब यह स्थिति अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न हुई तो इससे औसत कीमत स्तर में भी वृद्धि हो गई।

2. लागत जनित मुद्रास्फीति
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लागत से संबंधित मुद्रास्फीति को नई मुद्रास्फीति की संज्ञा दी गई अर्थात् जब लागत में वृद्धि कीमत स्तर में वृद्धि का प्रमुख कारण होती है तब इसे लागत जनित मुद्रास्फीति कहते हैं।
  • मजदूरी जनित मुद्रास्फीति - जब मजदूरी में वृद्धि के परिणामस्वरूप लागत में और अंततः कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है तब उसे मजदूरी जनित मुद्रास्फीति कहते हैं। 
  • लाभ जनित मुद्रास्फीति - जब लाभ में वृद्धि के परिणामस्वरूप लागत में और अंतत: कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है तब इसे लाभ जनित मुद्रास्फीति कहते हैं।
  • मजदूरी कीमत चक्र - जब मजदूरी में वृद्धि के  परिणामस्वरूप लागत में, कीमत में तथा जीवन निर्वाह की लागत में वृद्धि होती है तो इसकी क्षतिपूर्ण के लिए मजदूरी में पुनः वृद्धि की जाती है और यह चक्रीय संबंध निरंतर जारी रहता है जिसे मजदूरी कीमत चक्र कहा जाता है।
  • अदृश्य मुद्रास्फीति - जब किसी वस्तु की बिक्री अपरिवर्तित कीमत पर किन्तु पहले से कम मात्रा के साथ की जाती है। तब इसे अदृश्य मुद्रास्फीति कहा जाता है।
  • आयातित मुद्रास्फीति - जब आयातित वस्तुओं की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में होने वाली वृद्धि के परिणामस्वरूप घरेलू लागतों एवं कीमत स्तर में वृद्धि होती है तब इसे आयातित मुद्रास्फीति कहते हैं।

3. प्रमुख मुद्रास्फीति
मापी गई मुद्रास्फीति / शीर्षक मुद्रास्फीति - को सामान्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है
  1. अस्थायी घटक 
  2. स्थायी घटक
अस्थायी घटक के अंतर्गत प्राकृतिक आपदाओं, युद्ध, अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में होने वाली सहसा वृद्धि आदि कारण सम्मिलित होते हैं जिनका प्रभाव अस्थायी होता है। दूसरी ओर स्थायी घटक के अंतर्गत साधन लागतों में होने वाली वृद्धि सम्मिलित होती है, जैसे- पूंजी लागत, ब्याज, मजदूरी दर आदि।
इनमें से मापी गई मुद्रास्फीति के स्थायी घटक को प्रमुख मुद्रास्फीति कहा जाता है। केन्द्रीय बैंक प्रमुख मुद्रास्फीति के प्रति अधिक चिंतित होता है क्योंकि मुद्रास्फीति के अस्थायी घटक के आधार पर मौद्रिक नीति में निरंतर परिवर्तन करना संभव नहीं होता है।

4. मंदीगत मुद्रास्फीति
मंदीगत मुद्रास्फीति के दो चिंताजनक भाग होते हैं- उच्च व बढ़ती हुई मुद्रास्फीति की दर तथा उच्च व बढ़ती हुई बेरोजगारी की दर। यह दो शक्तियों का परिणाम होता है- आगतों की लागतों में वृद्धि अर्थात् लागत जनित मुद्रास्फीति तथा उत्पादन की क्षमता की तुलना में समग्र मांग का अभाव।
मंदीगत मुद्रास्फीति एक गंभीर अवस्था है क्योंकि इसके दो विरोधाभाषी अवयव होते हैं- उच्च कीमतों के साथ-साथ आर्थिक क्रियाकलापों में मंदी ।
विश्व के अनेक तेल आयातक देशों में 1970 के दशक के मध्य में तथा 1980 के दशक के प्रारंभ में मंदीगत मुद्रास्फीति एक गंभीर चुनौती थी जिसका कारण 1973 का प्रथम तेल आघात तथा 1979 का द्वितीय तेल आघात था।

5. मार्क-अप मुद्रास्फीति
यह प्रशासित कीमत प्रणाली का एक हिस्सा है, जहां कीमत का निर्धारण बाजार शक्तियों द्वारा नहीं बल्कि सरकार के हस्तक्षेप से होता है। इसका उद्देश्य निवेशकों को सुनिश्चित प्रतिफल प्रदान करना है। लागत पर इस लक्षित लाभ को जोड़ने से कीमत प्राप्त होती है। यदि इस मार्क-अप हिस्से में कोई वृद्धि होती है तो कीमत में वृद्धि होती है जिसे मार्क-अप मुद्रास्फीति कहा जाता है। 

6. खुली मुद्रास्फीति
एक ऐसी स्थिति जब कीमत स्तर में वृद्धि हो रही हो किंतु उस पर अंकुश लगाने के लिए सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही हो। यह रणनीति अर्थव्यवस्था को मंदी की स्थिति से बाहर निकालने के लिए अपनाई जाती है। इसके लिए अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा अतिरिक्त मुद्रा का प्रसार किया जाता है जिनका परिणाम कीमतों की वृद्धि के रूप में होता है तथा सरकार जानबूझकर कीमतों को बढ़ने देती है।

7. दबी हुई मुद्रास्फीति
यदि कीमत स्तर में वृद्धि होती है किंतु सरकार कुछ नीतिगत उपायों के द्वारा एक वांछित स्तर से ऊपर न बढ़ने देती हो, तब इसे दबी हुई मुद्रास्फीति कहते हैं।
 
8. व्यापक मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति की एक ऐसी स्थिति - जब कीमतों में वृद्धि की प्रवृत्ति लगभग सभी वस्तुओं, सभी क्षेत्रों में व लगभग संपूर्ण अर्थव्यवस्था में दिखाई देती है।

9. बिखरी हुई मुद्रास्फीति
मुद्रास्फीति की एक ऐसी स्थिति जब कीमतों में वृद्धि की प्रवृत्तियां कुछ चुनी हुई वस्तुओं में कुछ क्षेत्रों व अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से में दिखाई देती है। 
फिलिप्स कर्व ( Phillips Curve) फिलिप्स वक्र मजदूरी जनित मुद्रास्फीति की दर तथा बेरोजगारी की दर के मध्य के संबंध को स्पष्ट करता है। इनके मध्य व्युत्क्रमानुपाती संबंध पाया जाता है।
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इसका ये निष्कर्ष है कि इन दोनों समस्याओं का समाधान एक साथ संभव नहीं है क्योंकि जहां बेरोजगारी में गिरावट (A से B) से रोजगार की मांग में वृद्धि के कारण मजदूरी में वृद्धि होती है जिससे पूर्णयोग (Aggregate) मांग में वृद्धि होती है फलस्वरूप मुद्रास्फीति में वृद्धि (C से D) होती है, वहीं बेरोजगारी में वृद्धि (B से A) से रोजगार की मांग में गिरावट के कारण मजदूरी में कमी होती है जिससे पूर्णयोग मांग में गिरावट होती है, फलस्वरूप मुद्रास्फीति में कमी (D से C) होती है। अतः इन दोनों के मध्य एक वांछित स्थिति का निर्धारण सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था की स्थितियों के अनुसार करना होता है। मूलत: यह विकसित अर्थव्यवस्था के संदर्भ में दी गई है।

मुद्रास्फीति का संरचनात्मक मॉडल

विकासशील देशों में विकास के प्रारंभिक चरणों में अपेक्षाकृत औद्योगिक क्षेत्रों के क्रियाकलापों में अधिक तेजी देखी जाती है।
इसके परिणामस्वरूप गैर-कृषि आय में वृद्धि होती है। इसके साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर में भी तेजी पाई जाती है। इन सबके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादों की मांग वृद्धि होती है, किंतु कृषि क्षेत्र में उपस्थित जड़ताओं के कारण कृषि उत्पादों की आपूर्ति में लोचहीनता की स्थिति देखी जाती है।
अतः कृषि उत्पादों की आपूर्ति इनकी मांग से पिछड़ जाती है। इसका परिणाम कृषि - कीमतों में वृद्धि के रूप में होता है। इससे कृषि क्षेत्र में जीवन निर्वाह की लागत में वृद्धि होती है तथा उसके कारण कृषि क्षेत्र में मजदूरी की दर में भी वृद्धि होती है।
श्रृंखलाबद्ध संबंध के कारण इससे शहरी क्षेत्रों में जीवन निर्वाह की लागतें बढ़ती हैं तथा औद्योगिक उत्पादों की लागतें बढ़ती हैं, साथ ही औद्योगिक क्षेत्र की मजदूरी में भी वृद्धि होती है।
इस स्थिति का परिणाम कृषि तथा औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरी की दर में वृद्धि कृषि तथा औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में वृद्धि तथा अंततः सामान्य कीमत स्तरों में भी वृद्धि होती है।
संरचनात्मक मॉडल के समर्थकों का दृष्टिकोण यह है कि जब अर्थव्यवस्था में संवृद्धि होती है तो विभिन्न प्रकार की जड़तायें उत्पन्न होती हैं जिसके कारण संरचनात्मक मुद्रास्फीति उत्पन्न होती है। यह मॉडल विकासशील देशों के लिए अधिक उचित है।

आंशिक मुद्रास्फीति (Reflation)

यह धारणा जे. एम. कींस ने है। कींस के अनुसार, आंशिक मुद्रास्फीति पूर्ण रोजगार पूर्व की अवस्था है। जब मुद्रा की मात्रा में वृद्धि के कारण रोजगार तथा उत्पादन स्तर में वृद्धि होती है तथा परिणामस्वरूप कीमत स्तर में धीमी वृद्धि होती है। उनके अनुसार मुद्रास्फीति पूर्ण रोजगार पश्चात् की स्थिति है। जब मुद्रा की मात्रा में वृद्धि मांग में वृद्धि लाती है किंतु रोजगार और उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होती तथा परिणामस्वरूप कीमत स्तर में वृद्धि तीव्र होती है।

मुद्रास्फीति मापन के सूचकांक

मुद्रास्फीति ऐसी स्थिति है जिससे कोई खुश नहीं होता। यह ऐसी स्थिति है जिसका गरीबों पर सबसे बुरा और सबसे कड़ा प्रहार होता है। मुद्रास्फीति का मतलब है एक हफ्ते या एक महीने किसी तय समयावधि के दौरान कीमतों में वृद्धि की दर इसे आवश्यक वस्तुओं, ईंधन और निर्माता वस्तुओं तथा खाद्य सामग्री के संदर्भ में आंका जाता है। अगर कोई कहता है कि मुद्रास्फीति दर कम हो रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि कीमतों में गिरावट आ रही है। इसका मतलब यह है कि कीमत वृद्धि की दर कम हुई है। लेकिन विकसित देशों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की मुद्रास्फीति मापने का आधार बनाया जाता है, जिसमें कीमत फुटकर कीमतों का महत्व झलकता है। विकासशील अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति का थोड़ा बहुत समावेश होता है। भले ही परंपरागत आर्थिक सिद्धांतों के संदर्भ में मुद्रास्फीति की दर कम हो तो उसे अर्थव्यवस्था के लिए ठीक समझा जाता है क्योंकि इससे विकास की गति तेज होती है।
मूल्य स्तर में परिवर्तन की दर ही मुद्रास्फीति की दर प्रदर्शित करती है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जो पूर्ण रोजगार में है, ( अर्थात् उत्पादन की वृद्धि अधिकतम हो चुकी है), मात्रा में प्रत्येक वृद्धि मूल्य स्तर में आनुपातिक वृद्धि लाती है अर्थात् यदि मुद्रा की पूर्ति में 5% की वृद्धि हो तो मूल्य स्तर में मुद्रा की भी 5% की वृद्धि होगी, ऐसी अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति की वृद्धि दर स्फीति की दर प्रदर्शित करेगी।
किसी भी अर्थव्यवस्था में स्फीति की दर को मापने के सामान्यतया दो तरीके प्रयोग में लाये जाते हैं-
  • क. मूल्य सूचकांक ( PIN Price Index Number) में विभिन्न वर्षों में प्रतिशत परिवर्तन।
  • ख. जी.डी.पी. अवस्फीतक (Deflator) में परिवर्तन।

क. मूल्य सूचकांक (PIN) - मूल्स स्तर में परिवर्तन की माप के लिए मूल्य सूचकांक का प्रयोग करते हैं इसलिए यह कह सकते हैं कि मूल्य सूचकांक स्फीति की दर के माप का तरीका है। 
मूल्य सूचकांक कुछ चरों में होने वाले परिवर्तन के स्तर का एक निष्कर्ष माप है। यह एक सांख्यिकीय माप है जो समय के सापेक्ष कुछ मदों के समूह में होने वाले परिवर्तनों को मापने के उपयोग में लाया जाता है। सामान्यतः इन परिवर्तनों को प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। स्फीति दर को मापने के लिए हम विभिन्न अवधियों में मूल्य सूचकांक में होने वाले परिवर्तन ज्ञात करते हैं। इसके अनुसार-
स्फीति की दर =
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भारत में सामान्यतः दो प्रकार के मूल्य सूचकांकों को उपयोग में लाया जाता है थोक मूल्य सूचकांक (Whole sale Price Index) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Con sumer Price Index-CPI)

1. थोक मूल्य सूचकांक (WPI) - यह थोक बाजार में होने वाले कीमतों में परिवर्तन को मापता है। अतः यह सूचकांक उद्योगपतियों, उत्पादकों, थोक भंडारकर्ताओं तथा समग्र अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है।
थोक मूल्य सूचकांक की माप के लिए भारत सरकार के उद्योग मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार कार्यालय द्वारा 19 अगस्त, 1939 को समाप्त हुए सप्ताहांत को आधार के रूप में चुना गया था तथा इसके आधार पर थोक मूल्य सूचकांक द्वारा मुद्रास्फीति की माप 10 जनवरी, 1942 को प्रारंभ होने वाले सप्ताह से प्रारंभ हुई। उस समय यह 23 चुनी गई वस्तुओं पर आधारित था तथा सभी को समान भार प्रदान था और साथ ही प्रत्येक वस्तु के लिए केवल एक ही कीमत संदर्भ प्रत्येक स्थानों के थोक बाजारों के मूल्यों में अन्तर होता है। जैसे गेहूं के थोक बाजार की पंजाब व उत्तर प्रदेश में कीमतें भिन्न होगी लिया गया। 1947 से इस सूचकांक में परिवर्तन आरंभ हुए तथा इसमें 78 वस्तुएं शामिल की गयीं जिनके लिए 215 कीमत संदर्भ एकत्र किये जाते थे। इन वस्तुओं को 5 भिन्न भागों में बांटा जाता था खाद्य वस्तुएं, कच्चा माल, अर्धनिर्मित वस्तुएं, विनिर्मित वस्तुएं तथा विविध वस्तुएं।
थोक मूल्य सूचकांक के संशोधन पर कार्यदल का गठन अभिजीत सेन की अध्यक्षता में गठित हुआ जिसने अपनी रिपोर्ट मई, 2008 में सौंपी रिपोर्ट के बाद नया थोक मूल्य सूचकांक एक अप्रैल, 2010 से शुरू हुआ।
अभिजीत सेन कार्यदल ने यह अनुशंसा की थी कि मुख्य स्फीति की साप्ताहिक माप सांख्यिकी भ्रम उत्पन्न करती है तथा इसमें किये जाने वाले संशोधन बड़े होने के कारण इनकी विश्वसनीयता भी कम होती है। अभिजीत सेन कार्यदल ने यह अनुशंसा की थी कि मुद्रास्फीति की साप्ताहिक माप के स्थान पर इसके मासिक माप की प्रणाली अपनायी जाये ताकि अल्प अवधि किन्तु कम विश्वसनीय आंकड़ों के स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी अवधि किन्तु अधिक विश्वसनीय आंकड़े प्राप्त हो सकें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मुद्रास्फीति के आंकड़े मासिक अवधि के आधार पर जारी किये जाते हैं।
थोक मूल्य सूचकांक की इस नयी शृंखला को अपनाये जाने के साथ ही भारत भी मुद्रास्फीति की माप की मासिक प्रणाली को अपना चुका है।
14 जनवरी, 2012 को समाप्त हुए इन दो समूहों के लिय साप्ताहिक आधार पर की जाती थी किन्तु अब इनकी माप मासिक आधार पर की जा रही है।
थोक मूल्य सूचकांक की नयी श्रृंखला में सम्मिलित वस्तुओं के लिए 5482 संदर्भ लिये गये। इससे पूर्व की श्रृंखला में केवल 1918 संदर्भ सम्मिलित किये जाते थे। कीमत संदर्भों में हुई यह बड़ी वृद्धि अखिल भारतीय स्तर पर कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को बेहतर रूप से व्यक्त करने में समर्थ है। वाणिज्य तथा उद्योग मंत्रालय का आर्थिक सलाहकार कार्यालय थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े जारी करता है। कीमतों के आंकड़े इस कार्यालय द्वारा ऑनलाइन प्राप्त किये जाते हैं तथा जिनका स्वतः प्रसंस्करण राष्ट्रीय सूचना केन्द्र द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर के द्वारा किया जाता है।

भारत में मुद्रास्फीति

थोक मूल्य सूचकांक के आधार वर्ष अभी तक 7 बार संशोधित हो चुके हैं, जो निम्नलिखित हैं
  • 1952-53 आधार वर्ष -112 वस्तुएँ 
  • 1961-62 आधार वर्ष -139 वस्तुएँ
  • 1970-71 आधार वर्ष - 360 वस्तुएँ
  • 1981-82 आधार वर्ष - 447 वस्तुएँ 
  • 1993-94 आधार वर्ष - 435 वस्तुएँ
  • 2044-05 आधार वर्ष - 676 वस्तुएँ
  • 2011-12 आधार वर्ष - 676 वस्तुएँ
जनवरी 2015 से जारी

खाद्य मुद्रास्फीति - खाद्य पदार्थ अर्थव्यवस्था में उत्पादन का एक महत्वपूर्ण भाग निर्मित करते हैं। इसी कारण खाद्य द्वारा मुद्रास्फीति सदैव एक महत्वपूर्ण चिन्ता का विषय होती है। खाद्य मुद्रास्फीति को खाद्य सूचकांक से नापा जाता है। जो प्राथमिक खाद्य उत्पादों तथा विनिर्मित खाद्य उत्पादों से मिलकर बनता है। ये वस्तुएं थोक मूल्य सूचकांक के अंतर्गत 112 वस्तुएं शामिल है जिनमें से 55 वस्तुएं प्राथमिक खाद्य समूह की तथा 57 वस्तुएं विनिर्मित खाद्य समूह की हैं

2. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) - यह फुटकर बाजार में कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को मापता है। अतः यह उपभोक्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है। अत: इसे उपभोक्ताओं के जीवन निर्वाह का सूचकांक भी कहा जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुद्रास्फीति की माप उपभोक्ता मूल्य सूचकांक द्वारा की जाती है किन्तु भारत में शीर्षक मुद्रास्फीति / मापी गई मुद्रास्फीति के रूप में मुद्रास्फीति की आधिकारिक माप थोक मूल्य सूचकांक के द्वारा ही की जाती है। भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के चार अलग-अलग माप उपयोग में लाए जाते रहें, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए दो माप तथा नगरीय क्षेत्रों के दो माप जो इन क्षेत्रों के अलग-अलग समूहों के लिए निर्मित हैं किन्तु इनमें से कोई भी फुटकर स्तर पर अखिल भारतीय स्वरूप का नहीं था।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक

ग्रामीण
  • औद्योगिक कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW) 
  • शहरी श्रम भिन्न कर्मचारियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-UNME)

नगरीय
  • कृषि श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) 
  • ग्रामीण श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-RL)
इस प्रकार, अब तक चार उपभोक्ता कीमत सूचकांकों का प्रयोग किया जाता रहा है किन्तु इनमें से कोई भी फुटकर स्तर पर अखिल भारतीय स्वरूप का नहीं था। अतः केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन ने 18 फरवरी, 2011 को तीन नये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक प्रारंभ किये-
  1. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (ग्रामीण)
  2. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (नगरीय)
  3. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (संयुक्त) 
ये जनवरी, 2011 से प्रभावी हुआ। इन तीनों का आधार वर्ष जनवरी - दिसम्बर 2010 मिला गया। यदि आधार वर्ष एन. एस. एस. ओ. द्वारा पारिवारिक उपभोग व्यय के लिए किए गए 61 वें चक्र पर आधारित है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अंतर्गत वस्तुओं के साथ-साथ सेवाओं को भी शामिल किया गया है जिससे कीमतों में होने वाली परिवर्तनों का एक बेहतर स्वरूप प्रस्तुत होता है। इन मदों को पांच प्रमुख वर्गों में बांटा गया है:
  1. ईंधन और बिजली समूह
  2. वस्तु एवं जूते-चप्पल, इत्यादि
  3. आवास
  4. भोजन, पेय पदार्थ एवं तम्बाकू
  5. विविध (शिक्षा, परिवहन, संचार, चिकित्सा इत्यादि)
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (नगरी) के अंतर्गत 250 मदें सम्मिलित की गई हैं जिसके अंतर्गत सभी राज्य तथा केन्द्र शासित प्रदेश सम्मिलित हैं। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (ग्रामीण) में 225 मदें शामिल हैं जिसके लिए संपूर्ण देश में 1181 गांवों के कीमत संदर्भों को एकत्र किया जाता है। प्रत्येक जिले में कम से कम दो गांवों को सम्मिलित किया जाता है।
अभिजीत सेन कार्यदल ने यह अनुशंसा की थी कि एक बार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का स्वरूप स्थिर हो जाने पर मुद्रास्फीति के अधिकाधिक स्तर के लिए थोक मूल्य सूचकांक के स्थान पर उसका उपयोग किया जाना चाहिए। विश्व के अधिकांश देशों के केन्द्रीय बैंक मौद्रिक नीति के निर्धारण के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़ों पर निर्भर करते हैं जबकि भारतीय रिजर्व बैंक थोक मूल्य सूचकांक के द्वारा मापी जाने वाली मुद्रास्फीति को ही अपनी नीति का आधार बनाता है। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस बात को स्वीकार किया है कि मुद्रास्फीति के प्रबंधन में थोक मूल्य सूचकांक आधारित आंकड़े बाधाएं उत्पन्न करते हैं। चूंकि थोक मूल्य सूचकांक द्वारा कीमतों का परिवर्तन व दबाव मुख्यतः उद्योगपतियों, उत्पादकों तथा थोक विक्रेताओं के संदर्भ में ही व्यक्त होता है। अत: थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित होने के कारण फुटकर उपभोक्ताओं के स्तर पर कीमतों में कमी ला सकने में मौद्रिक नीति कम प्रभावी होती है। थोक मूल्य सूचकांक के स्थान पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को अपनाये जाने से इस तकनीकी समस्या का समाधान निश्चय ही हो सकेगा।

मूल्य
अप्रैल- दिसम्बर, 2018 के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक समिश्र (सीपीआई-सी) पर आधारित मुद्रास्फीति का औसत 3.7 प्रतिशत रहा। जुलाई, 2018 से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक समिश्र (सीपीआई-सी) मुद्रास्फीति लगातार नरम रही है। यह नवम्बर, 2018 में 2.3 प्रतिशत से गिरकर दिसम्बर, 2018 में 2.2 प्रतिशत पर आ गई। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक समिश्र (सीपीआई-सी) 2017-2018 में 3.6 प्रतिशत, 2016-17 में 4.5 प्रतिशत थी। अप्रैल-दिसम्बर, 2018 के दौरान खाद्य मुद्रा स्फीति (उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक) का औसत 0.5 प्रतिशत है। यह दिसम्बर, 2018 में (-) 2.5 प्रतिशत था। खाद्य मुद्रास्फीति 2017-18 में 1.8 प्रतिशत और 2016-17 में 4.2 प्रतिशत थी।
अप्रैल - दिसम्बर, 2018 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति का औसतन 4.8 प्रतिशत था। थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति 2017-18 में 3.0 प्रतिशत और 2016-17 में 1.7 प्रतिशत थी। थोक मूल्य सूचकांक में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में खाद्य एवं पेय पदार्थों का भारांश अधिक रहा है। कच्चे तेल के मूल्यों में वृद्धि होने के साथ 2016-17 से थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में वृद्धि होने लगी। अप्रैल-दिसम्बर, 2018 के दौरान, थोक मूल्य सूचकांक खाद्य मुद्रास्फीति का औसत (-) 0.2 प्रतिशत रहा। थोक मूल्य सूचकांक खाद्य मुद्रास्फीति 2017-18 में 1.9 प्रतिशत और 2016-17 में 5.8 प्रतिशत थी। सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक के साथ परामर्श करके 5 अगस्त, 2016 से 31 मार्च, 2021 की अवधि के लिए वहनीय स्तर (+/-) 2 प्रतिशत के साथ मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4 प्रतिशत निर्धारित किया है।

जी.डी.पी. अवस्फीतक (GDP Deflator)
जब हम बाजार में प्रचलित मूल्य पर जी.डी.पी. ज्ञात करते हैं तो इसे चालू मूल्य पर व्यक्त जी.डी.पी. या मौद्रिक जी.डी.पी. कहते हैं और जब इसे हम किसी आधार वर्ष के स्थिर मूल्य के आधार पर व्यक्त करते हैं, जिसमें जी.डी.पी. पर पड़ने वाला स्फीतिक प्रभाव समाप्त हो जाता है तो इसे हम वास्तविक जी.डी.पी. या स्थिर मूल्य पर व्यक्त जी.डी.पी. कहते हैं। इस प्रकार मौद्रिक जी. डी.पी. को बदलते हुए मूल्यों के आधार पर व्यक्त करते हैं जबकि वास्तविक जी.डी.पी. को व्यक्त करने के लिए मूल्य में परिवर्तन को ही समाप्त कर दिया जाता है। मौद्रिक जी.डी.पी. में वृद्धि तथा वास्तविक जी.डी.पी. की वृद्धि का अन्तर ही जी.डी. पी. की कीमत में वृद्धि है और इसे ही हम जी.डी.पी. डिफ्लेटर कहते हैं। इस प्रकार यह मौद्रिक जी.डी.पी. को वास्तविक जी.डी. पी. में परिवर्तित करने का तरीका है और इसे ही हम अर्थव्यवस्था में मूल्य स्तर में परिवर्तन की माप के लिए प्रयोग में लाते हैं। इसलिए यह अर्थव्यवस्था में मूल्य स्तर में वृद्धि या स्फीति की दर नापने का तरीका है। इस प्रकार,
जी.डी.पी. अवस्फीतक=
mudra-sfiti
एक अन्य प्रकार के जी.डी.पी. अवस्फीतक को जिसे हम 'गर्भित जी.डी.पी. अवस्फीतक' (Implicit Deflator) भी कहते हैं जिसे सामान्यतया मुद्रास्फीति को नापने के महत्वपूर्ण यंत्र के रूप के प्रयोग करते हैं, इस प्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं।
जी.डी.पी. अवस्फीतक=
mudra-sfiti
जी.डी.पी. अवस्फीतक स्फीति की माप का अत्यन्त ही व्यापक तथा महत्वपूर्ण मापक है क्योंकि इसमें किसी अर्थव्यवस्था में किसी वर्ष में सभी उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं के सभी मूल्यों में परिवर्तन को लेते हैं जबकि मूल्य सूचकांक विधि में केवल कुछ चुनी हुई वस्तुओं के मूल्यों को ही लेते हैं।

उत्पादक कीमत सूचकांक
अभिजीत सेन कार्यदल ने यह अनुशंसा भी की थी कि भारत में एक उत्पादक कीमत सूचकांक अपनाये जाने की संभावनाओं पर विचार किया जाये। उत्पादक सूचकांक द्वारा वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में आधारभूत एवं मध्यवर्ती स्तरों पर कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को देखा जाता है। इससे पूर्व कि वे अन्तिम विनिर्मित वस्तुओं के रूप में अंतिम बिक्री के लिये उपलब्ध हों। उत्पादक मूल्य सूचकांक के अंतर्गत केवल उत्पादन के स्तर पर साधनों की लागतों के आधार कीमत का आकलन किया जाता है, जबकि करों, उत्पादक के लाभ तथा परिवहन लागतों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है। उत्पादक कीमत सूचकांक का उपयोग किये जाने से मुद्रास्फीति की एक बेहतर निगरानी संभव हो सकेगी। 

सेवा कीमत सूचकांक
अभिजीत सेन कार्यदल ने यह अनुशंसा भी की है कि भारत में एक अलग सेवा कीमत सूचकांक भी प्रारंभ किया जाना चाहिए। कई विकसित देशों विशेषकर अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा जापान में सेवा कीमत सूचकांक उपयोग में लाये जाते हैं।
चूंकि भारत में वर्तमान में सेवा का जी.डी.पी. में सर्वोच्च योगदान है तथा इसमें वृद्धि भी तेजी से हो रही है अतः सेवाओं की कीमतों पर निगरानी हेतु सेवा सूचकांक आवश्यक है।
कार्यदल ने यह अनुशंसा भी की है कि प्रारंभ में कुछ चुनी हुई सेवाओं के लिए अलग-अलग सेवा सूचकांक अपनाये जा सकते हैं, जैसे-बैंकिंग सेवायें, वित्तीय सेवायें, परिवहन सेवायें (रेल, सड़क, बन्दरगाह तथा वायु सेवायें) संचार सेवायें ( डाक, दूरसंचार) जल आपूर्ति सेवायें निर्माण सेवायें  व्यापार सेवाये।
जब अलग-अलग सेवायें एक स्थिर स्वरूप प्राप्त कर लें तब इन सभी सेवाओं को मिश्रित करके एक अलग सेवा कीमत सूचकांक विकसित किया जा सकता है।
विश्व बैंक ने भारत की सांख्यिकी सशक्तिकरण परियोजना के अंतर्गत वित्तीय एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध करायी है जिससे सेवा कीमत सूचकांक विकसित किये जाने का कार्य किया जा रहा है।

आवासीय कीमत सूचकांक
नगरीकरण, आर्थिक संवृद्धि विकासात्मक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण तथा अर्थव्यवस्था में बढ़ती हुई तरलता ने भू-संपत्तियों को निजी क्षेत्र की संपदा का एक महत्वपूर्ण घटक बना दिया है। साथ ही गृह ऋण वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋणों का एक महत्वपूर्ण भाग बन गया है।
इस दृष्टि से इस बात की आवश्यकता थी कि एक ऐसी विश्वसनीय आधार निर्मित किया जाये जो भू-संपदा के क्षेत्र में कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त कर सकें। इसके लिए राष्ट्रीय आवास बैंक जुलाई 2007 में रेजिडेक्स नाम का सूचकांक प्रारंभ किया है। यह सूचकांक भारत के चुने हुए शहरों में आवासीय भवनों की कीमतों में होने वाले परिवर्तनों को मापता है। वर्तमान में इसके अंतर्गत 20 चुने हुए शहर सम्मिलित हैं।
निकट भविष्य में इसका विस्तार करके जे.एन.एन.यू.आर.एम. के अंतर्गत सम्मिलित 63 शहरों को सम्मिलित किया जायेगा।
रेजिडेक्स के आंकड़े त्रैमासिक आधार पर जारी किये जाते हैं तथा कीमतों का वर्गीकरण संबंधित शहर की श्रेणी एवं आवासीय आवासीय भवन के आकार के आधार पर किया जाता है।

मुद्रास्फीति के कारण

भारत में मुद्रास्फीति के लिए उत्तरदायी कारणों की व्याख्या समष्टिगत स्तर में समस्त मांग और समस्त आपूर्ति का विवेचन करके की जा सकती है। आयोजन काल में मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि के अलावा न केवल मांग पक्ष की ओर विविध कारकों का दबाव रहा है, बल्कि पूर्ति पक्ष की ओर से भी अनेक तत्वों का स्फीतिकारी कीमत वृद्धि में योगदान रहा है:
  • लोक व्यय में वृद्धि : आजादी के बाद लोकतंत्रीय प्रणाली के कारण नई संस्थाओं का गठन हुआ तो लोक व्यय में वृद्धि होना स्वाभाविक था। योजना काल में केन्द्रीय और राज्य सरकारों के - व्यय में निरंतर भारी वृद्धि हुई है। इस व्यय का एक बड़ा भाग विकासेत्तर मदों पर खर्च हुआ है। विकासेत्तर व्यय की वृद्धि से लोगों की मुद्रा आय में तो वृद्धि हुई, किन्तु इसके साथ उपभोग-वस्तुओं के उत्पादन या आपूर्ति में वृद्धि नहीं हुई।
  • घाटे का वित्त प्रबंधन : जब सरकार अपने खर्चे पूरे करने के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व की व्यवस्था नहीं कर पाती है तो वह बैंकिंग व्यवस्था से उधार लेकर अपने घाटे को पूरा करती है। साधन जुटाने की इस रीति को घाटे का वित्त प्रबंधन कहते हैं।
  • अनियमित कृषि संवृद्धि : पिछले 65 वर्षों में कृषि क्षेत्र में यद्यपि कोई क्रांतिकारी संवृद्धि नहीं हुई तथापि इसमें संदेह नहीं है कि इस क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है जिसकी वजह से खाद्यान्नों के उत्पादन में 2.5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई है। लेकिन प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल को छोड़कर, सामान्यतः कृषि उत्पादन उस दर से नहीं बढ़ा जिस दर से कृषि वस्तुओं, विशेषकर खाद्यान्नों की मांग बढ़ी। इस दौरान कृषि उत्पादन बढ़ने की दर स्थिर ही नहीं रही. बल्कि कुछ वर्षों में तो उत्पादन में कमी हुई। कृषि उत्पादन में अपर्याप्त वृद्धि और इसमें हो रहे उतार-चढ़ाव कीमतों की बढ़ोत्तरी में बहुत हद तक जिम्मेदार रहे हैं।
  • औद्योगिक उत्पादन में अपर्याप्त वृद्धि : यद्यपि औद्योगिक उत्पादन, समग्रत: बहुत असंतोषजनक नहीं ठहरता, फिर भी अनेक औद्योगिक वस्तुओं जैसे कि आधारमूलक उपभोग वस्तुओं तथा औद्योगिक एवं कृषिगत पदार्थों का उत्पादन पर्याप्त नहीं रहा है। 1965 से 1976 के बीच औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की दर मात्र 4.1 प्रति वर्ष तथा 1974 के बीच 6.1 प्रतिशत प्रति वर्ष रही। 1979-80 के वर्ष में तो ऋणात्मक वृद्धि दर 1.6 प्रतिशत थी। 1991 के बाद की अवधि में औद्योगिक उत्पादन में व्यापक उतार-चढ़ाव होतेS रहे जिससे अनिश्चितता का वातावरण बना रहा। औद्योगिक क्षेत्र में इस मंदी के कारण कई औद्योगिक वस्तुओं की कमी हुई जिससे कीमतों पर दबाव बढ़ा।
  • सट्टेबाजी और जमाखोरी की प्रवृत्ति : सट्टेबाजी और जमाखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति भी मुद्रास्फीति को बढ़ावा देती है। जिन वर्षों में देश में उत्पादन गिरा उस जमाखोरी से वस्तुओं का अभाव और अधिक बढ़ गया तथा कीमतें तेजी के साथ बढ़ीं। यद्यपि भारत में जमाखोरी हमेशा से होती रही है लेकिन सितंबर, 1998 में कीमतों में हुई वृद्धि में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दरअसल जमाखोरी उत्पादन और अंतिम उपभोग के बीच कई स्तरों पर पाई जाती है उत्पादन के स्तर पर, थोक वित्त्य के स्तर पर फिर फुटकर विक्रेताओं के स्तर पर और अंत में उपभोक्ताओं की संचयी प्रवृत्ति से मांग अपेक्षाकृत बढ़ जाती है जबकि अन्य वर्गों की जमाखोरी से आपूर्ति में गिरावट आती है। इससे प्रभाव से कीमत वृद्धि की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।
इन मुख्य कारणों के अलावा कुछ और भी कारण हैं, जिन्होंने सामान्य कीमत स्तर को ऊपर उठाने में योगदान दिया। इनमें से तीन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
  1. आयातित वस्तुओं की कीमतों में लगातार वृद्धि,
  2. जनसाधारण के उपभोग की वस्तुओं पर भारी कराधान तथा
  3. प्रशासित कीमतों में वृद्धि।

मुद्रास्फीति के प्रभाव या परिणाम

किसी अर्थव्यवस्था में निरंतर तेजी से बढ़ती हुई मुद्रास्फीति का प्रभाव अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। इससे आर्थिक समृद्धि और आर्थिक विकास की प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। देश की अधिकांश जनसंख्या अथवा जनसाधारण का जीवन स्तर गिरता है।
मुद्रास्फीति के प्रभावों या परिणामों को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है:
  • मुद्रास्फीति से विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्यक्रम प्रभावित होते हैं। मूल्य वृद्धि से योजनाओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।
  • मुद्रास्फीति से केवल निवेश पर ही नहीं, बचत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, विशेषतया उस स्थिति में जब स्फीति की दर ब्याज की दर से ऊंची हो जाती है। ऐसी स्थिति में बचत करने से लाभ की बजाय हानि होती है। इसका प्रभाव अर्थव्यवस्था के संवृद्धि दर पर पड़ता है।
  • मुद्रास्फीति से घरेलू कीमतें बढ़ती हैं जिससे हमारा निर्यात महंगा हो जाता है और हमारे निर्यात में पतन आता है। दूसरी ओर घरेलू वस्तुओं के आयात में वृद्धि होती है। निर्यात में पतन के कारण विदेशी मुद्रा के प्रवाह में कमी आती है और दूसरी ओर आयात में वृद्धि के कारण विदेशी का मुद्रा बर्हिप्रवाह अर्थव्यवस्था से होता है। इससे भगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • जब मुद्रास्फीति के कारण लगातार दीर्घकाल तक कीमतें बढ़ती हैं तो आय और संपत्ति की असमानताएं बढ़ती हैं। निश्चित आय वाले वर्गों की क्रय शक्ति लगातार कम होती जाती है। इसके विपरीत उत्पादक और व्यापारी भारी मुनाफा कमाते हैं अर्थात् मुद्रास्फीति को बढ़ावा मिलता है।
  • कीमतों में वृद्धि में एकरूपता का अभाव देखने को मिलता है। कुछ खास वर्षों में कृषि वस्तुओं एवं औद्योगिक वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती है जिसका प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है। भारत में खाद्यान्न श्रमिक वर्ग द्वारा सर्वाधिक उपभोग की जाने वाली वस्तु है। खाद्यानों की क्रीमत बढ़ने से जीवन निर्वाह लागत बढ़ती है और इससे मजदूरी बढ़ने लगती है।
मजदूरी बढ़ने से औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन लागत बढ़ जाती है। इससे विनिर्मित वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं और स्फीति की दर और भी ऊंची हो जाती है। किन्तु प्राय: मजदूरी के बढ़ने की दर वस्तुओं के मूल्यों के बढ़ने की दर से कम ही रहती है। इसलिए श्रमिक वर्ग की वास्तविक आय घटती है, और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती जाती है।

मुद्रास्फीति रोकने के उपाय

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए नीतिगत उपायों के तहत तीन उपाय- मौद्रिक उपाय, राजकोषीय उपाय और प्रत्यक्ष प्रशासनिक उपाय किये जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं:

मौद्रिक उपाय
इसका संबंध देश की केन्द्रीय बैंक द्वारा मुद्रा व साख नीति के अंतर्गत किये जाने वाले उपायों से है। इसके द्वारा भारतीय रिजर्व बैंक मुख्यतः अर्थव्यवस्था में मुद्रा की मात्रा प्रवाह, दिशा, लागत आदि को प्रबंधित करने का प्रयास करता है।
मौद्रिक उपाय के अन्तर्गत रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों के साख सृजन क्षमता को कम करने का प्रयास करता है ताकि मुद्रा का अधिक प्रवाह अर्थव्यवस्था में नहीं हो। रिजर्व बैंक ने साख नियंत्रण के लिए परिणामस्वरूप और गुणात्मक दोनों ही तरह की रीतियों, जैसे- बैंक दर, नकद आरक्षित अनुपात (सी. आर. आर.) वैधानिक तरलता अनुपात (एस. एल.आर.), खुले बाजार की क्रियाएं, पुनक्रम प्रस्ताव (रेपो S एवं रिवर्स रेपो) एवं चयनित साख नियंत्रण को अपनाया है। इसके अंतर्गत रिजर्व बैंक द्वारा नकद आरक्षण अनुपात वैधानिक तरलता अनुपात तथा बैंक दर के स्तर को बढ़ाकर बैंकों के साख सृजन क्षमता को कम किया जाता है। स्फीतियों को रोकने के लिए मौद्रिक प्रयास के अंतर्गत यह सर्वोत्तम उपाय है।
कभी-कभी करेंसी का विमुद्रीकरण किया जाता है। यह कदम सामान्यतः उस स्थिति में अपनाया जाता है जब अर्थव्यवस्था में काले धन की प्रचुर मात्रा हो जो मुद्रास्फीति को तीव्र बनाने में भूमिका निभा रहा हो। इसके अंतर्गत उच्च अंकित मूल्य की मुद्रा का विमुद्रीकरण कर दिया जाता है। अर्थात् उसे भुगतान के माध्यम के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। 1978 में 1000 रुपये के नोटों का लीगल टेंडर समाप्त किया गया था। 2016 में 500 व 1000 के नोटों हटाकर 500 व 2000 के नये नोट लाए गए।
नई मुद्रा का निर्गमन एक चरम कदम है, जो सामान्यत: उस स्थिति में उठाया जाता है जब अर्थव्यवस्था में उच्चतम
अनियंत्रित मुद्रास्फीति की स्थिति हो तथा मुद्रा का मूल्य लगभग शून्य हो गया हो। इसके अंतर्गत एक निश्चित संख्या में पुरानी करेंसी के बदले में एक नयी मुद्रा प्रदान की जाती है। बैंकों की जमाओं को भी उसी अनुपात में समायोजित कर दिया जाता है।

राजकोषीय नीति
राजकोषीय नीति के माध्यम से भी मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाया जाता है। मुद्रास्फीति के कारण राजकोषीय घाटे को कम करके अर्थात् हीनार्थ प्रबंधन पर अंकुश लगाकर अनुत्पादी या विकासवादी व्यय को कम किया जाता है। हालांकि अल्पविकसित देशों में स्फीतिकारी प्रवृत्ति को रोकने में राजकोषीय नीति की प्रभावशीलता कम रही है। किन्तु पश्चिमी देशों में अर्थव्यवस्था में पाई जाने वाली लोच के कारण लोक व्यय कराधान और लोक ऋण में फेर-बदल के द्वारा वांछित परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।
करों की संरचना में परिवर्तन के अंतर्गत एक ओर प्रत्यक्ष करों में वृद्धि की जानी चाहिए ताकि व्यक्तिगत प्रयोज्य आय कम हो सके जिससे मांग के स्तर में कमी आ सके। दूसरी ओर अप्रत्यक्ष करों में सामान्यतः कटौती करनी चाहिए किन्तु सीमा शुल्क के संदर्भ में चुनी हुई वस्तुओं के आयात शुल्क में कटौती की जानी चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था में उनकी आपूर्ति अधिक हो सके और साथ ही चुनी हुई वस्तुओं के निर्यात शुल्क में वृद्धि करनी चाहिए जिनसे उनका निर्यात हतोत्साहित हो और देश में उनकी उपलब्धता बनी रहे।
बचतों को प्रोत्साहन के अंतर्गत सरकार द्वारा बचतों को प्रोत्साहित करने के लिए आकर्षण योजनाओं की घोषणा की जाती है। इसके अंतर्गत ब्याज दर में वृद्धि की जाती है। इससे बचतों में वृद्धि तथा व्यक्तिगत उपभोग व्यय में कमी लाने में सहायता होती है। इससे मांग के स्तर में कमी परिणामस्वरूप कीमतों में कमी संभव होती है।
राजकोषीय नीति के अंतर्गत सरकार द्वारा लिये गये सार्वजनिक ऋणों की वापसी का कार्य एक निश्चित अवधि के लिए टाला जा सकता है। जब तक कि अर्थव्यवस्था में उपस्थित उच्च मौद्रिक दबावों में कमी न आ जाये।

प्रत्यक्ष प्रशासनिक उपाय
ये उपाय प्रत्यक्ष रूप से या तो आपूर्ति में वृद्धि करने में या मांग में कमी लाने में सहायक होते हैं। भारत में मुद्रास्फीति के उच्च स्तरों को देखते हुए प्रधानमंत्री के सुझाव पर वित्त मंत्रालय के प्रमुख आर्थिक सलाहकार की अध्यक्षता में एक अन्तर मंत्रालय समूह का गठन फरवरी, 2011 में किया गया ताकि समग्र मुद्रास्फीति की स्थिति पर विशेषकर प्राथमिक खाद्य पदार्थों की कीमतों पर विचार किया जाये तथा मुद्रास्फीति में नियंत्रण के लिए आवश्यक उपाय सुझाये जाये। समिति के सुझाव दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों से संबंधित हैं- कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम (APMC- Agricultural Product Marketing Committee) और बहु ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश।
इस अंतर मंत्रालय समूह ने राज्यों के कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में परिवर्तन के सुझाव दिये। इन अधिनियमों के अंतर्गत विभिन्न राज्यों को यह अधिकार है कि वे अधिसूचित कृषि उत्पादों की बिक्री पर व्यापारियों तथा क्रेताओं से एक निश्चित शुल्क वसूल सकते हैं। इन वसूलियों का प्रभाव अंततः कीमतों में वृद्धि के रूप से होता है। इन अधिनियमों में वांछित परिवर्तन कृषि व सहभागिता विभाग के सम्मुख वर्तमान में विचारार्थ है।
इस समूह की एक अन्य सिफारिश बहुब्रांड फुटकर व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बाहुल्य देना है। इससे खाद्य मुद्रास्फीति की उच्च दर की समस्या का समाधान करने में मदद मिलेगी साथ ही भारतीय किसानों को प्राप्त होने वाली कम कीमतों का भी समाधान हो सकेगा। इससे खेत से ग्राहकों के घर तक कृषि उपजों के पहुंचने के मार्ग में उपस्थित मध्यस्थों की समाप्ति हो सकेगी जो केवल उपजों की कीमतों में ही वृद्धि करते हैं न कि उनके गुणवर्धन में समूह का यह भी तर्क है। कि विदेशी निवेश से कृषि के लिए अत्यन्त आवश्यक आधारभूत संरचना में निवेश भी प्रोत्साहित हो सकेगा। वर्तमान में औद्योगिक नीति व कार्यक्रम विभाग इस मुद्दे पर विभिन्न घटकों के मध्य आम सहमति विकसित करने का कार्य कर रहे हैं।
इस उपाय के अंतर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक व्यापक व प्रभावशाली बनाना भी शामिल है। भारत एक कृषि प्रधान देश है इसलिए खाद्य वस्तुओं की कीमतों में स्थिरता लाना सामान्य कीमत स्तर में स्थिरता के लिए जरूरी होता है। लेकिन इस देश में खाद्यान्नों की पूर्ति में भारी अनिश्चितता बनी रहती है इसलिए उनकी कीमतें खुले बाजार में निरंतर बढ़ती हैं। चूंकि अल्पकाल में खाद्यान्नों की आपूर्ति को नहीं बढ़ाया जा सकता, इसलिए सरकार ने खाद्यान्नों के सार्वजनिक वितरण की व्यवस्था की है। इस प्रणाली के अंतर्गत उचित मूल्य दर पर दुकानें खोली गई हैं जो खाद्यान्नों और अन्य जरूरी वस्तुओं को सस्ते दर पर उपलब्ध कराती हैं। गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को खाद्यान्न की न्यूनतम मात्रा की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सरकार ने 1997 से लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली की शुरूआत की है।
प्रत्यक्ष प्रशासनिक उपाय के अंतर्गत जमाखोरी विरोधी संबंधी उपाय शामिल हैं। आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के अंतर्गत सरकार द्वारा आवश्यक वस्तुओं के भण्डारण की अधिकतम सीमा का निर्धारण 6 माह की अवधि के लिए घोषित किया जा सकता है। इस अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकारों / केन्द्र शासित प्रदेशों को अधिकार है कि वे जमाखोरों के विरूद्ध उचित कदम उठाकर जमा किये गये भण्डारों को बाहर निकालें ताकि बाजार में उन वस्तुओं की उचित कीमत पर उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
उपरोक्त प्रत्यक्ष प्रशासनिक उपायों के अलावा निम्नलिखित उपाय भी किये जाते हैं:
चुनी हुई वस्तुओं के भावी बाजार पर प्रतिबंध लगाना। 
ऐसी वस्तुओं के निर्यातों पर प्रतिबंध लगाना जिनकी उपलब्धता बाजार में अल्प हो ।
सरकार द्वारा खुले बाजार बिक्री योजना के अंतर्गत गेहूं व चावल की बिक्री करना। सरकार कालेधन को बाहर निकालने के लिए विभिन्न योजनाएं व आवश्यक कदम उठा सकती है ताकि कालेधन द्वारा मुद्रास्फीति पर पड़ने वाले दबावों पर अंकुश लगाया जा सके।

मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण

मुद्रास्फीति (CPI) के लिए सरकार ने 2021 तक +2 सीमा के साथ 4% का लक्ष्य अधिसूचित किया है। मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण वस्तुतः मौद्रिक नीति रणनीति को संदर्भित करता है, जहां मुद्रास्फीति का एक लक्ष्य निर्धारित किया जाता है और उसका उपरोक्त नीति निर्माण इस तरह से किया जाता है ताकि निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।
RBI ने आधिकारिक तौर पर फरवरी 2015 में मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण को मौद्रिक नीति रणनीति के रूप में अपनाया। इसके तहत मुद्रास्फीति लक्ष्य को प्रत्येक 5 वर्षों में एक बार संशोधित किया जाएगा।
मुद्रास्फीति लक्ष्य हासिल करने के लिए RBI ब्याज दरों में बढ़ोतरी या कमी करेगी।
मौद्रिक नीति का यह लचीला दृष्टिकोण वस्तुत: RBI को अल्पावधि में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में सहायक होगा। प्रस्तावित मौद्रिक नीति समिति के साथ-साथ इस नये मौद्रिक नीति ढांचे में वर्तमान दृष्टिकोण एक महत्वपूर्ण घटक है।

मौद्रिक नीति समिति
  • एक 6 सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति का गठन प्रमुख नीतिगत दरों को निर्धारित करने के लिए किया जाएगा। पैनल में भारतीय रिजर्व बैंक से 3 सदस्य होंगे जिसमें गवर्नर, डिप्टी गवर्नर और एक अन्य अधिकारी शामिल होगा। 
  • अन्य 3 सदस्यों की नियुक्ति केंद्रीय कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में गठित एक पैनल की सिफारिशों के आधार पर की जाएगी। मौद्रिक नीति समिति में मतों की बराबरी की स्थिति में RBI के गवर्नर के पास एक मत होगा।

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