आर्थिक नियोजन क्या है? - परिभाषा, अर्थ, उद्देश्य, विशेषताएं, पंचवर्षीय योजना | aarthik niyojan | arthik niyojan

आर्थिक नियोजन

राज्य के नेतृत्व में संपूर्ण अर्थव्यवस्था का ऐसा प्रबंधन जिससे राष्ट्रहित की प्राप्ति हेतु उपलब्ध संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सुनिश्चित हो सके, साथ ही दीर्घकालिक निरंतरता सुनिश्चित हो सके, आर्थिक नियोजन कहलाता है। इसे नियोजना, आर्थिक नियोजन एवं योजना निर्माण आदि नामों से भी जाना जाता है।
कल्याणकारी राज्य में आर्थिक नियोजन द्वारा समाज को विकसित करने का लक्ष्य रखा जाता है। लगभग 200 वर्षों के अंग्रेजी शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था को जान-बूझकर अल्पविकसित बनाने के उद्देश्य से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के साथ इस तरह जोड़ दिया गया था कि भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर निर्भर हो गई थी। देश के औपनिवेशिक शोषण और अल्पविकास की वजह से जो आर्थिक समस्याएं पैदा हुई उनमें बेरोजगारी और गरीबी सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
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अत: बाजार-तंत्र पर निर्भर रहकर न तो देश की समस्याओं को हल किया जा सकता था और न ही एक लम्बे समय से रूकी हुई विकास प्रक्रिया को फिर से आरंभ किया जा सकता था। अतः भारत के नीति-निर्माताओं ने प्रारंभ से ही आर्थिक नियोजन का समर्थन किया। इसी पृष्ठभूमि में भारत में सन् 1951 ई. में आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया आरंभ हुई।

आर्थिक नियोजन की परिभाषा

आर्थिक नियोजन की परिभाषा विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने  भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से दी है।
प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
  • एस० ई० हैरिस के अनुसार, “नियोजन से आशय मूल्य के सन्दर्भ में नियोजन अधिकारी द्वारा निश्चित उद्देश्यों तथा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों का आवण्टन मात्र है।”
  • एच० डिकिन्सन के अनुसार, “आर्थिक नियोजन से आशय महत्त्वपूर्ण आर्थिक मामलों में विस्तृत तथा सन्तुलित निर्णय लेना है। दूसरे शब्दों में, क्या तथा कितना उत्पादन किया जाएगा और उसका वितरण किस प्रकार होगा- इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक निर्धारित सत्ता द्वारा समस्त अर्थव्यवस्था को एक ही राष्ट्रीय आर्थिक इकाई मानते हुए तथा व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर सचेत तथा विवेकपूर्ण निर्णय द्वारा दिया जाता है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं को ध्यान में रखते हुए आर्थिक नियोजन की एक उचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है- "आर्थिक नियोजन से आशय पूर्व-निर्धारित और निश्चित सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को एकीकृत और समन्वित करते हुए राष्ट्र के संसाधनों के सम्बन्ध में सोच-विचारकर रूपरेखा तैयार करने और केन्द्रीय नियन्त्रण से है।"

आर्थिक नियोजन की आवश्यकता

ऐसे अनेक कारण थे जिन्होंने भारत में आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया को जन्म दिया। इनमें प्रमुख थे- व्यापक गरीबी, बेरोजगारी, निम्न उपयोग स्तर, गरिमाहीन जीवन शैली, उद्योगों का अभाव, व्यापार का अभाव, कौशल का अभाव, वित्तीय संसाधनों का अभाव आदि। नियोजन की प्रक्रिया को समझने के लिए पहले हमें उत्पादन ढांचे को समझना होगा। उत्पादन ढांचे का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जाता है:
  1. उत्पादन संरचना के आधार पर
  2. पेशागत संरचना के आधार पर

1. उत्पादन संरचना के आधार पर
किसी देश या किसी क्षेत्र विशेष के कुल उत्पादन में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिशत अंशदान की संरचना को उत्पादन संरचना कहा जाता है।
  • विकसित उत्पादन संरचना : यदि किसी देश की उत्पादन संरचना में कृषि क्षेत्र का प्रतिशत अंश न्यूनतम , उद्योग का उससे अधिक और सेवा क्षेत्र का अंश सर्वाधिक हो तो उसकी उत्पादन को विकसित उत्पादन संरचना कहा जाता है।
  • अविकसित उत्पादन संरचना : यदि किसी देश की उत्पादन संरचना में सेवा क्षेत्र का प्रतिशत अंश न्यूनतम, उद्योग का उससे अधिक और कृषि क्षेत्र का अंश सर्वाधिक हो तो उसकी उत्पादन संरचना को अविकसित उत्पादन संरचना कहा जाता है।
  • विकासशील उत्पादन संरचना : यदि किसी देश की उत्पादन संरचना में कृषि का प्रतिशत अंश निरंतर कम होता आ रहा हो तथा उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का प्रतिशत अंश बढ़ता जा रहा हो तो उसे विकासशील SSE उत्पादन संरचना कहा जाता है।

2. पेशागत संरचना के आधार पर
किसी देश या किसी क्षेत्र विशेष के कुल रोजगार में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिशत अंशदान की संरचना को पेशागत संरचना कहा जाता है।
  • विकसित पेशागत संरचना : यदि किसी देश के कुल उपलब्ध रोजगार में कृषि क्षेत्र में उपलब्ध रोजगार का प्रतिशत अंश न्यूनतम हो और उद्योग एवं सेवा क्षेत्र में उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा हो तो ऐसी संरचना विकसित पेशागत संरचना कहलाती है।
  • अविकसित पेशागत संरचना : यदि किसी देश के कुल उपलब्ध रोजगार में सेवा क्षेत्र में उपलब्ध रोजगार का प्रतिशत अंश न्यूनतम हो और उद्योग एवं कृषिक्षेत्र में उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा हो तो ऐसी संरचना अविकसित पेशागत संरचना कहलाती है।
  • विकासशील पेशागत संरचना : यदि किसी देश के कुल उपलब्ध रोजगार में कृषि क्षेत्र का प्रतिशत अंश कम होता जा रहा हो तथा उद्योग एवं सेवा क्षेत्र का प्रतिशत अंश बढ़ता जा रहा हो तो इस प्रकार की संरचना विकासशील पेशागत संरचना कहलाती है। किसी भी देश या किसी क्षेत्र विशेष के आर्थिक विश्लेषण के लिए उत्पादन संरचना एवं पेशागत संरचना को ही आधार बनाया जाता है और इस परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति एक विकासशील देश के रूप में है।

आर्थिक नियोजन की विशेषताएँ 

आर्थिक नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
  • नियोजित अर्थव्यवस्था आर्थिक संगठन की एक पद्धति है। 
  • आर्थिक नियोजन की समस्त क्रियाविधि एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा सम्पन्न की जाती है। 
  • आर्थिक नियोजन सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में लागू होता है। 
  • नियोजन के अन्तर्गत साधनों का वितरण प्राथमिकताओं के अनुसार विवेकपूर्ण रीति से किया जाता है। 
  • उद्देश्य पूर्व-निश्चित होते हैं। 
  • उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक निश्चित अवधि निर्धारित की जाती है। 
  • उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नियन्त्रण लगाए जाते हैं। 
  • आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए जन-सहयोग आवश्यक होता है। 
  • नियोजन एक निरन्तर दीर्घकालीन प्रक्रिया है।

आर्थिक नियोजन के प्रकार

राज्य और सरकार की भूमिका के आधार पर नियोजन दो प्रकार के होते हैं-
  • आदेशात्मक नियोजन (Imperative Planning) 
  • निर्देशात्मक नियोजन (Indicative Planning)

आदेशात्मक नियोजन
पूंजीवादी एवं समाजवादी दोनों देशों में मौजूद होता है, या वैसे देशों में भी इसे बदले हुये रूपों में देखा जा सकता है, जो मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना को लेकर चलते हैं।

विशेषताएँ
  • इस मॉडल में केन्द्रीय स्तर पर एक शीर्ष संस्था होती है, जो योजनाओं का निर्माण करती है और उसके क्रियान्वयन को सुनिश्चित करती है।
  • आदेशात्मक नियोजन में निर्णय प्रक्रिया केन्द्रीकृत होती है
  • इसमें राज्य की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, जबकि निजी क्षेत्र और बाजार को सीमित या नगण्य भूमिका प्रदान की जाती है।
  • आदेशात्मक नियोजन में लाइसेंसिंग प्रणाली और अन्य कानूनों के जरिए सरकारी आदेशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाता है।

निर्देशात्मक नियोजन
कमोबेश इसके लक्षण उन सभी जगहों पर देखे जा सकते हैं, जहाँ आदेशात्मक नियोजन मौजूद नहीं है। इसमें भी आदेशात्मक नियोजन की तरह शीर्ष पर एक नियोजन संस्था होती है। इसके द्वारा तय राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के अनुरूप लक्ष्यों का निर्धारण और उसे प्राप्त करने की रणनीति तैयार की जाती है।

विशेषताएँ
  • इसमें निर्णय प्रक्रिया विकेन्द्रीकृत होती है।
  • इसमें राज्य के द्वारा योजना के लक्ष्य का निर्धारण किया जाता है और उसे प्राप्त करने की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र और बाजार शक्तियों को सौंपी जाती है।
  • इसमें आर्थिक गतिविधियों में राज्य की भूमिका होती है। वह मुख्यतः प्रेरणादायक और प्रोत्साहन भूमिका में होती है। 
  • इसमें राज्य की भूमिका नियामक के रूप में होती है। राज्य द्वारा हस्तक्षेप तभी किया जाता है, जब बाजार में असंतुलन उत्पन्न हो जाए।
नोट : भारतीय परिप्रेक्ष्य में आठवीं योजना आदेशात्मक नियोजन से निर्देशात्मक नियोजन की ओर संक्रमण की सूचना देती है। नवीं योजना से निर्देशात्मक नियोजन को स्वीकार किया गया है।

योजना निर्माण की प्रक्रिया के आधार पर नियोजन वर्गीकरण दो श्रेणीयों में किया गया है-
  • केन्द्रीकृत नियोजन (Centralizied Planning)
  • विकेन्द्रीकृत नियोजन (Decentralizied Planning) 

केन्द्रीकृत नियोजन
केन्द्रीकृत नियोजन ऐसा नियोजन है, जिसमें एक केन्द्रीकृत संस्था होती है, जो योजना के निर्माण से उसके क्रियान्वयन तक की प्रक्रिया को सुनिश्चित करती है। तमाम निर्णय उसके द्वारा खुद ही लिये जाते है। सामान्यतः आदेशात्मक नियोजन को केन्द्रीकृत नियोजन कहा जाता है।

विकेन्द्रीकृत नियोजन
विकेन्द्रीकृत नियोजन में योजनाएँ स्थानीय आवश्यकता के अनुरूप स्थानीय स्तर पर तैयार की जाती है। योजना निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक की प्रक्रिया में स्वर संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

योजनावधि के आधार पर नियोजन का वर्गीकरण दो श्रेणियों में किया जाता है-
  • दीर्घवधिक नियोजन (Perspective Planning) 
  • अल्पकालिक नियोजन (Short Term Planning)

दीर्घवधिक नियोजन
एक लम्बे समय के लिए योजना के लक्ष्यों और रणनीति का निर्धारण दीर्घवधिक नियोजन कहलाता है। सामान्यत: यह अवधि 15-25 वर्षों की होती है। यद्यपि भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का प्रचलन है फिर भी 1980 से योजना के लक्ष्यों और रणनीतियों का निर्धारण पंद्रह वर्षों के लिए किया जाता है। सामान्यतः वार्षिक आधार पर योजना कहलाता है। इसकी अवधि तीन-चार वर्ष तक भी हो सकती है। योजना अपनी प्रकृति में स्थिर भी हो सकता है और आवर्ती भी।
इस आधार पर भी इसका वर्गीकरण दो श्रेणियों में किया जाता है-
  1. फिक्स्ड
  2. रॉलिंग प्लान
आवर्ती योजना (रॉलिंग प्लान) के प्रतिपादक गुन्नार मिर्डाल थे। इसके तहत दीर्घकाल के लिए योजनाओं के लक्ष्यों और रणनीतियों का निर्धारण किया जाता है और वार्षिक आधार पर उसका मूल्यांकन करते हुए संशोधित लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है ताकि निश्चित समय सीमा के भीतर तय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। भारत में छठी योजना के दौरान 1978 में आवर्ती योजना की शुरूआत की गई, लेकिन बाद में इस मॉडल को छोड़ते हुए इसे वार्षिक योजना में तब्दील कर दिया गया और 1980 से नई छठी पंचवर्षीय योजना की शुरूआत की गई।

अल्पकालिक नियोजन
भारत में दीर्घकालिक नियोजन की संकल्पना को स्वीकार किया गया है इस क्रम में प्लान हॉलीडे की संकल्पना भी सामने आती है। भारत में अब तक तीन बार पंचवर्षीय योजनाओं को स्थगित करके वार्षिक योजना चलाई गई पंचवर्षीय योजनाओं के बीच के इसी अंतराल को योजना अवकाश (Plan Holiday) कहते हैं। 1966 में पंचवर्षीय योजनाओं को स्थगित कर तीसरी और चौथी पंचवर्षीय योजनाओं के बीच तीन वार्षिक योजनाएँ चलाई गई। 1980 में जनता पार्टी की सरकार द्वारा चलाई गई छठी पंचवर्षीय योजना स्थगित कर कांग्रेस की सरकार द्वारा नई छठी पंचवर्षीय योजना चलाई गई जिससे पाँचवी और छठी पंचवर्षीय योजना के बीच 1978-80 के दौरान दो वार्षिक योजनाएँ चलाई गई। राजनीतिक अस्थिरता के कारण एक बार फिर से 1990-92 के दौरान दो वार्षिक योजनाएँ देखने को मिलती हैं।
योजना के क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर इसका वर्गीकरण दो श्रेणियों में किया गया है-
  1. राष्ट्रीय नियोजन
  2. क्षेत्रीय नियोजन 
जब शीर्ष केन्द्रीय संस्था के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर योजना के लक्ष्यों और रणनीतियों का निर्धारण किया जाता है, तो उसे राष्ट्रीय नियोजना कहते हैं। जब क्षेत्र विशेष के विकास को ध्यान में रखकर योजना के लक्ष्यों और रणनीतियों का निर्धारण किया जाता है, तो उसे राष्ट्रीय नियोजन का ही हिस्सा माना जाता है। क्षेत्रीय नियोजन को विकेन्द्रीकृत नियोजन के उदाहरण के रूप में भी देखा जा सकता है।

भारत में नियोजन का इतिहास

यद्यपि भारत में आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया प्रथम पंचवर्षीय योजना के साथ अप्रैल, 1951 को प्रारम्भ हुई, परन्तु आर्थिक विकास के साधन के रूप में नियोजन का सैद्धान्तिक प्रयास  स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही किया जाने लगा था। सर एम. विश्वेश्वरैया ने 1934 में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'दि प्लांड इकोनॉमी ऑफ इंडिया' में देश के आर्थिक विकास की एक दस वर्षीय योजना प्रस्तुत की जिससे देश की राष्ट्रीय आय को दसवें वर्ष में दुगुना किया जा सके। विश्वेश्वरैया ने अपनी योजना में कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त श्रम शक्ति को उद्योगों में लगाने पर बल दिया था।
भारत के लिये योजना बनाने का पहला प्रयत्न 1938 में किया गया, जबकि कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय नियोजन समिति (National Planning Committee NPC) की स्थापना की। इस समिति ने नियोजन के विभिन्न पहलुओं पर विचार कर कई रिपोर्ट प्रकाशित की, जो परवर्ती नियोजन की आधार बनीं। राष्ट्रीय नियोजन समिति ने यह मत व्यक्त किया कि समस्त मूल उद्योगों और सेवाओं, खनिज संसाधनों, रेलों, जल-मार्गों, नौ- परिवहन और अन्य सार्वजनिक उपयोगिता वाले उद्योगों पर राज्य का स्वामित्व या नियंत्रण होना चाहिये तथा यह सिद्धान्त उन बड़े पैमाने के उद्योगों पर भी लागू होना चाहिये जिनमें एकाधिकार कायम होने की सम्भावना है। समिति की धारणा थी कि आर्थिक विकास के लिये अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण आवश्यक है, किन्तु औद्योगीकरण का अर्थ यह नहीं है कि कुटीर उद्योगों की उपेक्षा की जाये।
विभिन्न अर्थशास्त्रियों की एक समिति ने 1941 में राधास्वामी मुदालियर के नेतृत्व में परिवहन, बैंकिंग, उद्योग, वाणिज्य, मुद्रा एवं विदेशी मुद्रा के विकास से सम्बन्धित सैद्धान्तिक नीतियों के निर्धारण हेतु सुझाव प्रस्तुत किये जनवरी 1944 में मुम्बई के आठ उद्योगपतियों ने देश के आर्थिक विकास हेतु एक योजना 'ए प्लान ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट' नाम से प्रकाशित की, जो बम्बई योजना (Bombay Plan) के नाम से प्रसिद्ध है।
भारतीय श्रमसंघ की ओर से विश्व प्रसिद्ध क्रांतिकारी एम. एन. राय ने अप्रैल, 1945 में एक वृहत दस वर्षीय 'जनता योजना' (People's plan) प्रतिपादित किया जहाँ बम्बई योजना में कृषि की तुलना में उद्योगों को अधिक प्राथमिकता दी गई थी वहीं रूसी नियोजन के अनुभव से प्रेरित जनता योजना में सामूहिक या सरकारी खेती पर बल दिया गया और इसके लिये भूमि के राष्ट्रीयकरण की सिफारिश की गई। जनता योजना में लोगों के जीवन स्तर को शीघ्र - उन्नत करने के लिये उपभोग-वस्तु उद्योग के विकास पर बल दिया गया था। इसके अतिरिक्त 1994 में ही महात्मा गांधी के अनुयायी आचार्य श्रीमन्नानारायण ने 'गांधीवादी योजना में दस वर्ष की अवधि में न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा। इस योजना में कृषि और उद्योग के एक साथ एवं संतुलित विकास पर बल दिया गया तथा कुटीर एवं लघु उद्योगों को प्रोत्साहित करने का विशेष रूप से उल्लेख किया गया। इन सभी योजनाओं का सिर्फ ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि ये सभी कागजी योजनाएँ थीं जिन्हें वास्तविक रूप में क्रियान्वित नहीं होना था।
सितम्बर, 1946 में देश में अंतरिम सरकार की स्थापना के तुरन्त बाद ही के. सी. नियोगी की अध्यक्षता में एक सलाहकार योजना बोर्ड की स्थापना हुई, जिसने अपना प्रतिवेदन दिसम्बर, 1946 में ही प्रस्तुत कर दिया तथा सिफारिश की कि देश में नियोजन की आवश्यकता को देखते हुये एक स्थायी स्वतंत्र योजना आयोग एवं सलाहकार समिति की स्थापना की जाये। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जनवरी, 1950 में जयप्रकाश नारायण ने एक योजना 'सर्वोदय योजना' के नाम से प्रकाशित की, जिसके कुछ अंशों को सरकार ने अपनाया। भारत सरकार ने मार्च, 1950 में योजना आयोग की स्थापना की ताकि देश की भौतिक पूंजी एवं मानवीय संसाधनों की आवश्यकता का अनुमान लगाया जाये और इनका अधिक संतुलित एवं प्रभावी प्रयोग किया जाये। योजना आयोग ने देश के आर्थिक विकास के लिये प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) को 1 अप्रैल, 1951 से आरम्भ किया और इसके बाद पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला चालू हो गई।

भारत में नियोजन के उद्देश्य

भारत के आर्थिक नियोजन के लक्ष्यों और सामाजिक उद्देश्यों का आधार भारतीय संविधान में वर्णित राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त हैं। संविधान के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में यह उल्लेख किया गया है कि "राज्य अपनी नीति का संचालन विशेष तौर पर निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये करेगा-
  • नागरिकों (स्त्री-पुरुष दोनों) को समान रूप से जीवन निर्वाह के पर्याप्त साधनों का अधिकार प्राप्त होगा।
  • समाज के भौतिक साधनों के स्वामित्व का वितरण और नियंत्रण इस प्रकार किया जायेगा कि सर्वोत्तम रूप में सबका भला हो। 
  • आर्थिक प्रणाली की कार्यान्विति का परिणाम ऐसा न हो कि धन और उत्पादन के साधनों का संकेंद्रण आम जनता के हितों के विरूद्ध हो जाये। निदेशक सिद्धान्त भारत के जनसामान्य की आर्थिक विकास सम्बन्धी चेतना और प्रेरणा को अभिव्यक्त करते हैं और परिणामतः केन्द्र सरकार ने आर्थिक विकास को प्रोन्नत करने के लिये नियोजन की पद्धति को अपनाया।
  • यद्यपि भारत में प्रत्येक पंचवर्षीय योजना के अल्पकालीन उद्देश्य तत्कालीन समस्याओं को ध्यान रखते हुये भिन्न-भिन्न थे, परन्तु, समग्र नियोजन प्रक्रिया सामान्य रूप में चार मौलिक या दीर्घकालिक उद्देश्यों से प्रेरित रही है।
भारत में आर्थिक नियोजन के मुख्य उद्देश्य
  • भारत में आर्थिक नियोजन के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
  • राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में दीर्घकालीन वृद्धि। 
  • निर्धनता के दुश्चक्र की समाप्ति। 
  • देश को आत्मनिर्भर बनाना। 
  • प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का उचित विदोहन। 
  • देश का योजनाबद्ध एवं सन्तुलित आर्थिक विकास। 
  • देश में रोजगार के अवसरों का विस्तार। 
  • सामाजिक एवं आर्थिक आधारिक संरचना का निर्माण। 
  • शिक्षा, प्रशिक्षण एवं तकनीक के उच्च स्तर की प्राप्ति। 
  • संविधान के निदेशक सिद्धान्तों का क्रियान्वयन। 
  • समाजवादी ढंग से लोकतान्त्रिक समाज की स्थापना।

योजना आयोग
योजना आयोग का भारतीय संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। अतः उसका गठन परामर्शदात्री और विशेषज्ञ संस्था के रूप में सरकार के एक प्रलेख द्वारा हुआ। योजना आयोग का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता था। उसका दिन-प्रतिदिन का कार्य पूर्णकालिक उपाध्यक्ष देखता था। केंद्रीय वित्त मंत्री आयोग का पदेन सदस्य होता था। हालांकि सदस्य के रूप में समय-समय पर इसमें अन्य मंत्रियों और विद्वानों को मनोनीत किया जाता था। इसके सदस्यों एवं उपाध्यक्ष का कोई निश्चित कार्यकाल नहीं होता था। सरकार की इच्छा से सदस्य नियुक्त होते था। इसके सदस्यों की संख्या भी सरकार की इच्छानुसार परिवर्तित होती रहती थी।

योजना आयोग के कार्य
योजना आयोग द्वारा निम्नलिखित कार्य किये जाते थे-
  • देश में उपलब्ध संसाधनों (मानवीय एवं भौतिक संसाधनों) का अनुमान लगाना तथा उनके समुचित दोहन के लिए योजना बनाना।
  • योजना के प्रत्येक चरण का निर्धारण करना और उनकी आवश्यकता के अनुसार संसाधनों के आवंटन का सुझाव देना।
  • आर्थिक विकास में बाधक तत्वों एवं परीस्थितियों को चिन्हित करना, जो वर्तमान की सामाजिक, राजनीतिक परीस्थितियों में योजना के लिए आवश्यक है।
  • योजना के प्रत्येक चरण की सफलतम असफलतम का मूल्यांकन करना तथा उसमें सुधार के उपाय बताना।
  • केन्द्र एवं राज्य को किसी समस्या के सन्दर्भ में मांगे जाने पर सलाह देना ताकि वे अपनी नीतियों में सुधार कर सकें।

योजना आयोग ने वित्त आयोग को आच्छादित कर दिया है-
  • वित्त आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसके गठन हेतु अनुच्छेद 280 के तहत प्रावधान किये गये हैं जबकि योजना आयोग एक गैर-वैधानिक एवं गैर-संवैधानिक संस्था है। इसका गठन मंत्रिमंडल के सिफारिश के आधार पर किया गया है।
  • वित्त आयोग का मुख्य कार्य केन्द्र और राज्यों के बीच संसाधनों का बटवारा करना है। वित्त आयोग के इन कार्यों को संविधान में ही स्पष्ट कर दिया गया है योजना आयोग का मुख्य कार्य देश के सामाजिक आर्थिक विकास हेतु आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राथमिकता के क्रम में योजना का निर्माण करना है।
  • वर्तमान में वित्त आयोग केन्द्र एवं राज्यों के बीच संसाधनों के बटवारे के अंतर्गत केवल कर राजस्व के बटवारे में अपना योगदान देता है। योजना आयोग राज्यों के विकासात्मक व्यय हेतु अनुदान की सिफारिश करता है। इसी के सिफारिश के आधार पर केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों को दिए जाने वाले विकास संबंधी अनुदान की राशि को स्वीकृत करता है।
  • इस प्रकार केन्द्र के द्वारा राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण में 33% योगदान वित्त आयोग का होता है जबकि 67% योगदान योजना आयोग का होता है। अर्थात् केन्द्र द्वारा राज्यों को दिए जाने वाले अनुदान का 33% भाग वित्त आयोग की सिफारिश पर दिया जाता है एवं 67% भाग योजना आयोग है की सिफारिश पर दिया जाता है।
  • वित्त आयोग एवं योजना आयोग के संगठन में भी तुलनात्मक अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि योजना आयोग का संगठन सत्ता एवं प्राधिकार के दृष्टिकोण से वित्त आयोग की तुलना में उच्च है। इससे स्पष्ट होता है कि कैसे योजना आयोग, वित्त आयोग को आच्छादित कर देता है।

नीति आयोग
राष्ट्रीय भारतीय परिवर्तन संस्था (नीति आयोग) की स्थापना 2015 में की गई थी। इसकी स्थापना 1950 में बने योजना आयोग के स्थान पर की गई नीति आयोग, योजना आयोग की उत्तराधिकारी संस्था है। इस नई संस्था की परिकल्पना भारत सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के सीमित दायरे से परे पूर्णतावादी दृष्टिकोण के जरिए विकास प्रक्रिया के उत्प्रेरक के रूप में चहुंमुखी विकास के लिए की गई थी। इसे सहकारिता संघवाद के सिद्धांत के तहत राष्ट्रीय विकास के समान भागीदारों के तौर पर राज्यों की सशक्त भूमिका के मूल सिद्धांत के जरिए हासिल किया जाना है। यह संस्था सार्वजनिक क्षेत्र के सीमित दायरे से परे जाकर विकास प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम करती है। विकास की समग्र पहल से है। इस Sउसके लिए उपयुक्त वातावरण के निर्माण का कार्य करती है। अवधारणा का आधार है, सहकारी संघवाद के सिद्धांत के राष्ट्रीय विकास में राज्यों की सशक्त और समान भागीदारी आंतरिक और बाह्य संसाधनों के ज्ञान भंडार से सभी स्तरों पर सुशासन और उत्कृष्ट कार्यों हेतु सरकार को सहयोग देना, ज्ञान और नीतिगत विशेषज्ञता प्रदान कर थिंक टैंक (विचार केंद्र) के रूप में काम करना, विकास के संयुक्त लक्ष्य की प्राप्ति में प्रगति की निगरानी कर, खामियों को दूर कर और केंद्र तथा राज्यों को साथ लाकर कार्यक्रम क्रियान्वयन हेतु एक साझा मंच तैयार करना।

उद्देश्य
  • 2015 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय परिवर्तन आयोग अर्थात नीति आयोग का सृजन भारत सरकार के थिंक टैंक के रूप में किया गया है। प्रधानमंत्री इस संस्था के अध्यक्ष हैं।
  • यह संस्था केंद्र सरकार की नीतियों के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाती है, राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करती है। ज्ञान के भंडार के रूप में काम करती है और भारत सरकार की नीतियों तथा कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की प्रगति पर नजर रखती है।
  • यह संस्था केंद्र और राज्य सरकारों के सभी क्षेत्रों में नीतिगत तत्वों पर रणनीतिगत और तकनीकी सलाह देने का काम करती है। इनमें आर्थिक मोर्चे पर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मामले देश के अंदर से और विदेश की सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों का प्रसार और नए नीतिगत विचारों और समस्या आधारित विशिष्ट सहयोग का अनुप्राणन शामिल है।
  • वह परामर्श के रूप में या अन्य किसी व्यवस्था के जरिए एक या अधिक राज्यों या विश्व के अन्य भागों में अपनायी जाने वाली सर्वोत्तम पद्धति के बारे में सभी राज्यों को उपलब्ध कराता है ताकि वे भी उन्हें अपना सकें। यह आयोग संरचनाबद्ध और सहयोग और नीति निर्देशन के माध्यम से सहयोगी संघवाद को निरंतर बढ़ावा देता है।
  • यह संस्था महत्वपूर्ण एवं दीर्घकालिक नीति और कार्यक्रम की संरचना और क्रियान्वयन की रूपरेखा तैयार करती है और उनकी प्रगति तथा प्रभावी व्यापकता पर नियमित रूप से नजर रखती है। निगरानी और फीडबैक से सीखे सबक का उपयोग यह संस्था नवाचारी सुधार के लिए करती है। प्राय: नीतियों / कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बीच में भी सुधार किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त, नीति आयोग आवश्यक संसाधनों की पहचान सहित कार्यक्रमों और प्रयासों के क्रियान्वयन की सक्रियता से निगरानी और मूल्यांकन करता है ताकि कार्यक्रमों की सफलता की संभावना सुदृढ़ हो सके।
  • आयोग समसामयिक विषयों पर नीति संबंधी शोध-प्रपत्रों का प्रकाशन करता है, सर्वोत्तम पद्धतियों पर पुस्तक प्रकाशित करता है, नीतियों में सुधार लाने के लिए राज्यों के आदर्श कानून का प्रारूप तैयार करने के लिए सुशासन पर शोध के आधार के रूप में काम करता है और यह अनुसंधान संबंधित पक्षों को उपलब्ध कराता है।

संरचना
नीति आयोग का गठन इस प्रकार है- भारत के प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष हैं। संचालन परिषद् में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री, विधायिका वाले सभी केंद्रशासित राज्यों यथा- दिल्ली पुडुचेरी के मुख्यमंत्री और अन्य केंद्रशासित प्रदेशों के उप-राज्यपाल शामिल होते हैं।
विशिष्ट क्षेत्रों के विशेषज्ञों को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में बुलाया जाता है। प्रधानमंत्री इनको मनोनीत करते हैं। अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री के अलावा पूर्णकालिक संगठनात्मक ढांचा इस प्रकार है-
  • उपाध्यक्ष : प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त
  • पूर्णकालिक सदस्य : अधिकतम दो सदस्य, जो प्रमुख विश्वविद्यालयों से पदेन सदस्य के रूप में चुने जाएंगे। अंशकालिक सदस्य बारी-बारी से बदलते रहेंगे।
  • पदेन सदस्य : अधिकतम चार सदस्य जिनका मनोनयन प्रधानमंत्री केंद्रीय मंत्रिपरिषद् से करेंगे।
  • मुख्य कार्यकारी अधिकारी : भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी होंगे। इनकी नियुक्ति प्रधानमंत्री एक निश्चित अवधि के लिए करेंगे।

योजना आयोग एवं नीति आयोग : तुलनात्मक अध्ययन
1 जनवरी, 2015, समष्टि आर्थिक नीति के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना के रूप चिह्नित किया जायेगा जब 66 वर्षों में से चले आ रहे योजना आयोग को, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक तथा सामाजिक विकास में अपनी एक जगह बना ली थी, को नयी सरकार ने वैसी ही एक असंवैधानिक नयी संस्था से प्रतिस्थापित किया। इस नयी संस्था की स्थापना के साथ सरकार ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से बाजार व्यवस्था, जिसमें निजी क्षेत्र, विदेशी पूंजी, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, वैश्वीकरण आदि पर विशेष बल होगा।
प्रश्न यह उठता है कि NITI आयोग कहाँ तक योजना अयोग से अलग होगा, अधिक प्रभावी होगा, इसके कारण राज्यों के साथ केन्द्र की भेदभाव की नीति कम होगी तथा कहाँ तक इसका क्रियाशीलन सहकारी संघवाद या केन्द्र राज्य साझेदारी को मजबूती प्रदान करेगा? भारतीय अर्थव्यवस्था के बदलते हुए परिवेश वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण तथा निजीकरण में योजना आयोग एक जर्जर, निष्प्राण तथा सरकार के इशारे पर कार्य करने वाली संस्था है इसलिए नयी सरकार की कार्यविधि में इसके लिए कोई स्थान नहीं है पर ध्यान से देखने में यही बात सामने आती है कि दोनों में कोई ऐसा विशिष्ट अन्तर नहीं उभर कर आता जो नीति आयोग को योजना आयोग से हटकर किसी उत्तम धरातल पर ला दे।
नीति आयोग तथा योजना आयोग दोनों ही अलग-अलग क्षेत्रों से चयनित विशेषज्ञों का समूह रहा है. दोनों ही सरकार के थिंक टैंक के रूप में कार्य करने वाली संस्थायें हैं, योजना आयोग में अधिक स्वायत्तता की झलक मिलती है यह बात दूसरी है कि सरकारों ने योजना आयोग का अपने हित में विवेकहीन प्रयोग किया हो पर इससे तो आप नीति आयोग को गठन की बात नीति आयोग के साथ अभी हाल में की गयी, ऐसे कार्यदल तथा समूह • योजना आयोग ने भी समय-समय पर किए और ऐसा नहीं है कि सरकार योजना आयोग की स्ट्रीमलाइनिंग नहीं कर सकती थी।
योजना आयोग के दो कार्य थे पहला, केन्द्रीय योजना का प्रारूप तैयार करना तथा संसाधनों का राज्यों में बटवारा, दूसरा योजना का क्रियान्वयन मानीटरिंग तथा मूल्यांकन करना तथा सरकार को सलाह देना। नीति आयोग केन्द्रीय योजनाओं का प्रारूप नहीं तैयार करेगा, इसे केवल प्रोग्राम के क्रियान्वयन, मानीटरिंग तथा सलाहकारी कार्य की ही जिम्मेदारी दी गयी है।
इस प्रकार सरकार ने अपने लिए एक आर्थिक सलाहकार के स्थान पर सलाहकारों का एक समूह नियुक्त किया है। नीति आयोग के साथ दो बहुत अच्छी बातें जुड़ी हैं एक तो यह कि नीति आयोग में राज्यों की भागीदारी होगी तथा योजना का निर्माण नीचे से ऊपर की ओर होगा, ऊपर से नीचे की ओर नहीं। नीति आयोग सहकारी संघवाद के सिद्धान्त पर आधारित होगा। दूसरा, ऐसा माना जाता है कि नीति आयोग सहकारी संघवाद की परिकल्पना पर आधारित है। पर ये सभी बातें योजना आयोग में भी जोड़ी जा सकती थीं। वास्तविकता यह है कि योजना का अस्तित्व इस बात का स्पष्ट संकेत दे रहा था कि हम बाजार व्यवस्था की ओर स्पष्ट रूप से नहीं बढ़ रहे हैं दुर्भाग्य यह है कि बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ने को ही हम आर्थिक सुधार मानते हैं।
योजना आयोग की समाप्ति की समीक्षा करते हुए राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के अध्यक्ष प्रनॉब सेन कहते हैं कि योजना आयोग के साथ हमने एक स्वतंत्र आवाज खो दिया। योजना आयोग का प्रमुख कार्य संसाधनों का आबंटन नहीं था बल्कि वह एक संतुलक का कार्य करता था।

राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) 
राष्ट्रीय विकास परिषद (NDC) की स्थापना नियोगी समिति को संस्तुति पर सरकार के एक प्रस्ताव द्वारा 6 अगस्त 1952 को एक गैर-सांविधानिक निकाय के रूप में किया गया। प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष तथा नीति आयोग का सचिव इसका भी सचिव होता है। इसके सदस्य में सभी राज्यों के मुख्यमंत्री केन्द्रशासित प्रदेशों के प्रशासक केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् के सदस्य शामिल होते हैं। इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित है- 
  • राष्ट्रीय योजना के संचालन का समय-समय पर मूल्यांकन करना।
  • राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली आर्थिक एवं सामाजिक नीतियों की समीक्षा करना।
  • योजनाओं का अध्ययन एवं विचार-विमर्श के बाद अंतिम रूप प्रदान करना, क्योंकि योजना आयोग द्वारा निर्मित योजना का प्रकाशन NDC की स्वीकृति के बाद ही किया जाता है।
  • राष्ट्रीय योजना में जन सहयोग प्राप्त करना, प्रशासनिक दक्षता को सुधारना तथा निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के प्राप्ति के लिए सुझाव देना।
  • राष्ट्रीय विकास के लिए संसाधनों का निर्धारण करना तथा आवश्यक परियोजना सुझाव देना ताकि अल्पविकसित एवं पिछड़े वर्गों तथा क्षेत्रों का समुचित विकास हो सके।

भारत में आर्थिक नियोजन के मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ
यद्यपि ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ एवं सात एकवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं तथापि भारत नियोजन के लक्ष्यों को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर पाया है। देश के आर्थिक नियोजन के मार्ग में निम्नलिखित कठिनाइयाँ हैं-
  • जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की गति धीमी रही है। 
  • श्रम शक्ति में वृद्धि के अनुपात में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हो पाई है।
  • लगभग सभी योजनाएँ विशाल आकार की रही हैं। इनका निर्माण भी गलत धारणाओं पर आधारित रहा है और योजनाओं की सफलता को आँकड़ों के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया गया है।
  • आर्थिक विषमताओं की बढ़ती हुई खाई ने 'सामाजिक न्याय के लक्ष्य को गलत ठहरा दिया है।
  • मूल्यों में तीव्र और निरन्तर वृद्धि ने योजनाओं की लागत को तेजी से बढ़ा दिया है। 
  • सरकार की नियन्त्रण नीति दोषपूर्ण ही नहीं, अपितु एकांगी रही है।
  • सार्वजनिक उपक्रमों का कार्य करने का ढंग घटिया और अकुशल रहा है। इनके निरन्तर बढ़ते घाटे ने सरकार के सम्मुख वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है।
  • देश में दुर्लभ संसाधनों का अपव्यय हुआ है। 
  • देश आन्तरिक व बाह्य ऋणों के जाल में फंसा हुआ है।
  • बढ़ते भ्रष्टाचार, लालफीताशाही एवं जमाखोरी ने योजनाओं के सफल क्रियान्वयन में बाधा डाली है।

भारतीय योजनाओं पर एक दृष्टि


पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56)
1951 में बड़े पैमाने पर खाद्यान्नों के आयात और मुद्रास्फीति को ध्यान में रखकर पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई, जिसमें सिंचाई और बिजली परियोजनाएँ प्रमुख थीं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के कुल व्यय 2,069 करोड़ रुपये (जो बाद में बढ़कर 2,378 करोड़ रुपये हो गया) का 44.6 प्रतिशत आवंटित किया गया। योजना का लक्ष्य निवेश की दर को राष्ट्रीय आय के पांच प्रतिशत से बढ़ाकर लगभग सात प्रतिशत करने का रखा गया।

पहली पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
परिणाम की दृष्टि से पहली पंचवर्षीय योजना में प्राप्ति निर्धारित लक्ष्यों से अधिक थी। इसमें कोई संदेह नहीं है की कृषि, सिंचाई तथा सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में पहली योजना सफल सिद्ध हुई। पहली योजना की सफलता ने यह विश्वास पैदा किया है कि द्रुत आर्थिक विकास तथा सामान्य न्याय प्राप्त करने के लिये नियोजन ही एक मात्र साधन है। वस्तुतः पहली योजना एक पुनरूत्थान योजना थी जिसका मूल उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को तीव्र आर्थिक विकास के लिये आधार प्रदान करना था।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)
दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-1957 से 1960-1961) का लक्ष्य विकास के प्रारूप को बढ़ावा देना था। इसका उद्देश्य अंततः भारत में एक समाजवादी समाज का प्रारूप स्थापित करना था। इसका प्रमुख लक्ष्य था
  • राष्ट्रीय आय में 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करना 
  • आधारभूत और भारी उद्योगों पर विशेष जोर देकर औद्योगीकरण को तीव्र करना,
  • रोजगार के अवसरों का बड़े पैमाने पर विस्तार तथा 
  • आय और धन की असमानता कम करना और आर्थिक शक्ति के वितरण में और समानता लाना।
  • योजना का लक्ष्य 1960-61 तक पूंजी निवेश की दर को बढ़ाकर राष्ट्रीय आय के लगभग सात प्रतिशत से बढ़ाकर 11 प्रतिशत करना था। इसमें औद्योगीकरण, लौह एवं इस्पात के उत्पादन में बढ़ोत्तरी, नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों सहित भारी रसायनों तथा भारी इंजीनियरिंग एवं मशीन निर्माण उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
दूसरी पंचवर्षीय योजना एक उच्चाकांक्षी योजना थी, जो वास्तविक रूप में असफल सिद्ध हुई। वस्तुतः दूसरी योजना अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था को आंतरिक तथा बाह्य समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिससे कीमतों और विदेशी मुद्रा की स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
अर्थव्यवस्था में असंतुलन के मुख्य कारण थे मानसून की असफलता चावल के उत्पादन में कमी, स्वेज नहर संकट, विदेशी विनिमय की समस्या और विश्व में व्याप्त स्फीति प्रवृत्तियाँ। अर्थव्यवस्था में असंतुलन के कारणों से परियोजना की लागत बढ़ गई और खाद्य आयात अनिवार्य होने के कारण देश की विदेशी मुद्रा निधि में भारी कमी आई। राष्ट्रीय आय में लक्ष्य की प्राप्ति न होने का आंशिक कारण योजना में परिकल्पिक आशावादी पूंजी-उत्पाद अनुपात था। योजना की असफलता पर आलोचकों ने आरोप लगाया कि आयोजकों ने समय से पूर्व ही कृषि के स्थान पर उद्योगों को वरीयता देना प्रारम्भ कर दिया था। इस योजना की जो एक बड़ी उपलब्धि थी, उसमें देश के आर्थिक विकास हेतु तीव्र औद्योगीकरण की नींव रखी।

तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66)
तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-62 से 1965-66) का लक्ष्य आत्मनिर्भर विकास को प्राप्त करने में उल्लेखनीय प्रगति हासिल करना था। इसके तात्कालिक उद्देश्य-
  1. राष्ट्रीय आय को 5 प्रतिशत वार्षिक से अधिक करना और इसी के साथ यह सुनिश्चित करना कि निवेश का यह तरीका आगामी पंचवर्षीय योजना में भी जारी रह सके।
  2. खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना और उद्योग तथा आ3ात की जरूरतों को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाना। 
  3. इस्पात, रसायन, ईंधन और ऊर्जा जैसे आधारभूत उद्योगों का प्रसार और मशीन निर्माण की क्षमता का विकास करना ताकि 10 वर्षों के भीतर देश के अपने संसाधनों से औद्योगीकरण की जरूरतों को पूरा किया जा सके।
  4. देश के श्रम शक्ति संसाधनों का उपयोग करना और रोजगार के अवसरों में पर्याप्त विस्तार करना।
  5. अधिक से अधिक अवसरों की समानता का उत्तरोत्तर विकास करना और आय व धन की असमानता में कमी लाना तथा आर्थिक शक्ति का समान वितरण करना था।
इस योजना में राष्ट्रीय आय में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि कर इसे 1960-61 के 14.500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1965-66 तक लगभग 19,000 करोड़ रुपये (1960-61 की दर पर) करने और इसी अवधि में प्रतिव्यक्ति आय में 17 प्रतिशत की वृद्धि कर इसे 330 रुपये से बढ़ाकर 386 रुपये करने का लक्ष्य रखा गया था।

तीसरी पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
1962 के चीनी आक्रमण और 1965 के पाकिस्तानी आक्रमणों जैसे दो मुख्य कारणों से तीसरी योजना में उत्पादन की प्राथमिकताओं को युद्ध की आवश्यकताओं के अनुकूल परिवर्तित करना पड़ा, जिससे योजना अपना लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही। योजना की असफलता के कारण सरकार को खाद्यान्न आपूर्ति के लिये | अमेरिका के साथ PL-480 स्कीम के अंतर्गत गेहूँ का आयात करने और 10 जून, 1966 को भारतीय मुद्रा का 36.5% तक अवमूल्यन करने का कष्टदायक निर्णय लेना पड़ा।

वार्षिक योजनाएं ( 1966-69)
चौथी पंचवर्षीय योजना के बदले 1966 और 1969 के मध्य तीन वार्षिक योजनाएं बनाई गई थीं। पंचवर्षीय योजना नहीं चलाए जाने के कारण इस अवधि को योजना अवकाश भी कहते हैं। इन योजनाओं में पैकेज कार्यक्रम को अपनाया गया। पैकेज कार्यक्रमों में सुनिश्चित वर्षा और सिंचाई वाले चयनित क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाले बीज, उर्वरक, पीड़कनाशी एवं ऋण की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। इसे गहन कृषि जिला कार्यक्रम के नाम से जाना जाता है। इस पैकेज कार्यक्रम के द्वारा ही तथाकथित हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ। परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि होने लगी। औद्योगिक विकास में भी मामूली सा परिवर्तन हुआ।

चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-74)
चौथी पंचवर्षीय योजना (1969-1974) में कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव के साथ-साथ विदेशी सहायता की अनिश्चितता के प्रभाव को कम करने के लिए विकास की गति को तीव्र करने का लक्ष्य रखा गया। इसमें समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए तैयार कार्यक्रमों के माध्यम से जीवन स्तर को ऊपर उठाने की बात कही गई थी। इस योजना में विशेषतौर पर रोजगार और शिक्षा के प्रावधानों के जरिये कम सुविधा प्राप्त और दुर्बल वर्ग की स्थिति में सुधार लाने पर विशेष जोर दिया गया। समानता को बढ़ावा देने के लिए धन, आय और आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण में कमी लाने के लिए प्रयास किए जाने पर जोर दिया गया था। योजना में शुद्ध घरेलू उत्पाद (1968-1969 के फैक्टर कॉस्ट पर) को 1969-1970 में 29.071 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1973-74 में 38306 करोड़ रुपये करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। विकास की परिकल्पना औसत वार्षिक चक्रवृद्धि दर 5.7 प्रतिशत थी।

चौथी पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
यह योजना भी अपने उद्देश्यों में अधिक सफल नहीं हुई। बांग्लादेश से भारी संख्या में शरणार्थियों के आने और मुक्तवाहिनी के रूप में बांग्लादेश में प्रत्यक्ष लाभ से सहायता पहुंचाने के कारण देश का काफी धन व्यय हुआ। यद्यपि निर्यात आय में तीव्र वृद्धि हुई लेकिन विश्वव्यापी ऊर्जा संकट के कारण तेल निर्यातक देशों द्वारा तेल कीमतों में भारी वृद्धि कर दी गई जिससे तेल पर आयात बहुत अधिक बढ़ गया। परिणामस्वरूप चौथी योजना में व्यापार शेष में 1,564 करोड़ रूपये तथा भुगतान सन्तुलन में 2,221 करोड़ रूपये का घाटा हुआ सरकार ने इसी योजना के दौरान क्रांतिकारी नीतिगत फैसले के तहत 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया तथा उसने नवाबशाही, प्रिवीपर्स आदि को समाप्त कर दिया एवं औद्योगिक क्षेत्र में नियंत्रण हेतु MRTP आयोग की स्थापना की। आम जनता को सीधे लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से गरीबी हटाओ का प्रसिद्ध नारा दिया गया लेकिन श्रमिक असंतोष तथा मुद्रास्फीति के कारण जनता में भारी असंतोष फैला और 1974 में देश में आपातकाल लागू हो गया।

पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79)
पांचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) गंभीर मुद्रास्फीति के दबावों की पृष्ठभूमि में तैयार की गई थी। इसके प्रमुख उद्देश्यों में आत्मनिर्भरता हासिल करना तथा गरीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के खपत मानक में वृद्धि करने के उपायों को अपनाना था। इस योजना में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और आर्थिक स्थिति में स्थायित्व लाने को भी उच्च प्राथमिकता दी गई थी। इसमें राष्ट्रीय आय में 5.5 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर का लक्ष्य भी तय किया गया था। पांचवीं पंचवर्षीय योजना के संदर्भ में चार वार्षिक योजनाएँ पूर्ण की गई। इसके उपरांत पंचवर्षीय योजना को 1978-79 के वार्षिक योजना के अंत के साथ ही समाप्त करने का निर्णय लिया गया।

पांचवीं पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
पांचवीं योजना में गरीबी उन्मूलन पर विशेष बल दिया गया तथा त्वरित विकास एवं कम असमानता प्राप्त करने के लिये उत्पादक रोजगार के अवसरों के विस्तार को महत्व दिया गया। गरीब जनता को न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु 'राष्ट्रीय न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम' चलाया गया, जो अधिक सफल सिद्ध नहीं हुआ। फिर भी इस योजना का महत्व है कि इसमें सामाजिक आर्थिक और क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के संस्थानात्मक, राजकोषीय एवं अन्य उपाय किये गये तथा सामाजिक कल्याण के विस्तृत कार्यक्रम चलाये गये।

छठीं पंचवर्षीय योजना (1980-85)
छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) का सबसे प्रमुख उद्देश्य गरीबी उन्मूलन था। इसमें कृषि एवं औद्योगीकरण के लिए एक साथ अवसंरचना को मजबूत करने की रणनीति अपनाई गई थी। सभी क्षेत्रों में वृहत प्रबंधन कार्यक्षमता और व्यापक निगरानी के साथ व्यवस्थित दृष्टिकोण से अंतसंबंधित समस्याओं के निराकरण पर बल दिया गया था। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर विकास की विशेष योजनाएँ बनाने में जन भागीदारी तथा योजनाओं के तीव्र और प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने को प्रमुखता दी गई थी। छठी योजना का वास्तविक खर्च, कुल सार्वजनिक क्षेत्र के परिव्यय 97500 करोड़ रुपये (1979-80 के मूल्य) की तुलना में 1.09.291.7 करोड़ रुपये ( वर्तमान मूल्य) था। इस प्रकार इसमें सामान्य अवधि में 12 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। योजना के लिए औसत वार्षिक विकास दर का लक्ष्य 5.2 प्रतिशत निर्धारित किया गया था।

छठी पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
छठी पंचवर्षीय योजना देश के विकास, आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय के लक्ष्य को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई। औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन लक्ष्य को छोड़कर इस योजना के अधिकांश लक्ष्यों को प्राप्त कर लिया गया। पेट्रोलियम के आयात को यथासम्भव घटाने के प्रयास के तहत वास्तव में ऊर्जा नीति का सही विकास छठी योजना में ही हो सका।
रोजगार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये विशेष कार्यक्रमों यथा आईआरडीपी, एनआरईपी आरएलईजीवी, ट्राइसेम आदि का सहयोग लिया गया। लेकिन विनिर्माण उद्योग में खराब प्रगति और अंतिम वर्ष में कृषि उत्पादन में कमी के कारण निर्धनता निवारण और रोजगार विस्तार कार्यक्रमों में प्रभावी सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। सिंचाई सुविधाओं के दृष्टिगोचर से कई योजनाएं चलाई गई लेकिन इस योजना में दालों का उत्पादन बहुत कम था। इसके अतिरिक्त कोयला, बिजली और इस्पात का उत्पादन लक्ष्य से कम ही रहा। अतः यह योजना भी आंशिक रूप से ही सफल सिद्ध हुई।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90)
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में उन नीतियों और कार्यक्रमों पर बल दिया गया था, जो खाद्यान्न, रोजगार के अवसरों में बढ़ोत्तरी और विकास आधुनिकीकरण आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय आदि नियोजन के बुनियादी सिद्धांतों की संरचना में उत्पादकता पर केंद्रित थे। खाद्यान्न उत्पादन की विकास दर 1967-68 और 1988-89 के बीच की अवधि में 2.68 प्रतिशत की तुलना में सातवीं योजना के दौरान 3.23 प्रतिशत पर पहुंच गई। कुल मिलाकर अनुकूल मौसम, प्रोत्साहित करने वाले विभिन्न कार्यक्रमों के क्रियान्वयन और सरकार तथा किसानों के सम्मिलित प्रयासों के कारण अस्सी के दशक में विकास दर 2.55 प्रतिशत हो गई। बेरोजगारी और उसके परिणामस्वरूप गरीबी की स्थिति में कमी लाने के लिए उपलब्ध कार्यक्रमों के अलावा जवाहर रोजगार योजना जैसे विशेष कार्यक्रम शुरू किए गए। पहचान कायम कर चुके संगठनों को भूमिका दी गई, लघु स्तरीय और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग इस संबंध में भूमिका निभा सकते थे। सातवीं योजना का कुल खर्च कुल सार्वजनिक क्षेत्र के परिकल्पित परिव्यय 1,80,000 करोड़ रुपये की तुलना में 2,18,729.62 करोड़ रुपये ( वर्तमान मूल्य) रहा, इस प्रकार इसमें सामान्य अवधि में 21.52 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। इस योजना के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 5.8 प्रतिशत की औसत दर से बढ़ा। यह निर्धारित विकास दर से 0.8 प्रतिशत अधिक था। 

सातवीं पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
इस योजना में नियोजन की प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण का तथा विकास में जनता की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। बेरोजगारी तथा निर्धनता को कम करने की मौजूदा योजनाओं के अलावा 'जवाहर रोजगार योजना' जैसे विशेष कार्यक्रम चलाये गये निष्कर्षतः सातवीं योजना अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में काफी हद तक सफल सिद्ध हुई।

वार्षिक योजनाएं ( 1990-92)
तात्कालीन राजनीतिक दबावों के तहत सातवीं योजना के बाद दो वार्षिक योजना शुरू की गई। सामाजिक परिवर्तन एवं रोजगार के अधिक से अधिक अवसर जुटाने के लिए इन योजनाओं में विशेष जोर दिया गया।

आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97)
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-97) की शुरूआत 1990-91 के दौरान भुगतान संतुलन की स्थिति और महंगाई की स्थिति में विकृति आ जाने के बाद उसकी भरपाई के लिए शुरू की गई ढांचागत समायोजन नीतियों और दीर्घ स्थिरीकरण नीतियों के तुरंत बाद की गई थी। उसके बाद विभिन्न संरचनात्मक समायोजन नीतियों को लाया गया ताकि अर्थव्यवस्था को उच्च विकास दर के पथ पर लाया जा सके और इसे सुदृढ़ किया जा सके तथा इस प्रकार से भविष्य में भुगतान संतुलन और महंगाई के संकट की स्थिति को रोका जा सके। इन सुधारों के कारण आने वाले नीतिगत बदलावों में से कुछ का आठवीं योजना में जायजा लिया गया। इस योजना में औसत वार्षिक वृद्धि दर 5.6 प्रतिशत और औसत औद्योगिक विकास दर 7.5 प्रतिशत तय की गई। इन विकास लक्ष्यों को सापेक्ष मूल्य स्थिरता और देश के भुगतान संतुलन में ठोस सुधार करके पाने की योजना बनाई गई। आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान आर्थिक प्रदर्शन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ थीं-
  • तीव्र आर्थिक विकास,
  • निर्माण क्षेत्र और कृषि व सहायक क्षेत्र का तीव्र विकास, 
  • आयात और निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि दर, व्यापार और चालू खाता घाटे में सुधार तथा केंद्र सरकार के वित्तीय घाटे में उल्लेखनीय कमी।
हालांकि, केंद्रीय क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) एवं विभिन्न विभागों द्वारा आंतरिक और अतिरिक्त बजटीय संसाधनों के अनुचित वितरण के कारण केंद्रीय क्षेत्र में व्यय की कमी रही। राज्यों के मामले में वर्तमान राजस्व के संतुलन में कमी, राज्य विद्युत बोर्डों तथा राज्य सड़क परिवहन निगमों के अनुदान में कमी नकारात्मक शुरूआती संतुलन, गैर-योजनागत व्यय में बढ़ोत्तरी और लघु बचतों के संग्रह में कमी होने से उचित संसाधनों को जुटाने में विफल, राज्यों में धन की कमी बड़ा कारण था। आठवीं योजना का कुल खर्च कुल सार्वजनिक क्षेत्र के परिव्यय 434.100 करोड़ रुपये (1991-92 के मूल्य) की तुलना में 1996-1997 (संशोधित अनुमान) को लेते हुए वर्तमान मूल्य पर 495,669 करोड़ रुपये रहा तथा 14.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। आठवीं योजना में औसत वार्षिक विकास दर 5.6 प्रतिशत परिकल्पित की गई थी। इसके स्थान पर इस योजना के दौरान 6.8 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर हासिल हुई।

आठवीं पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
आठवीं योजना अवधि के दौरान घरेलू बचत दर महत्वपूर्ण रूप में बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद में 24% तक पहुंच गई, जबकि लक्ष्य मात्र 21.6% रखा गया था। यह एक सकारात्मक उपलब्धि थी, और इसका भावी विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ा। आठवीं योजना की मुख्य कमजोरी कृषि तथा आधार संरचना क्षेत्रों के बचाव के लिये पर्याप्त साधन उपलब्ध न करना थी। आठवीं योजना में सेवा क्षेत्रक में सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रगति व्यापार, होटल, परिवहन तथा संचार के क्षेत्र में हुई। यह बात अत्यंत निराशाजनक है कि आयोजक माननीय संसाधन विकास को उत्पादकता का स्तर उन्नत करने के लिये अनिवार्य तत्व नहीं मान सकें, जबकि उन्होंने मानव संसाधन विकास को मूलभूत उद्देश्य घोषित किया था।
आठवीं योजना में कुछ विशेष कार्यकलापों (विशेष रूप से सामाजिक स्वरूप वाले कार्यकलापों) तक ही सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित कर दिया गया और निजी क्षेत्र को व्यापक भूमिका सौंपी गई। लाइसेंस प्रणाली, नियंत्रण, विदेशी मुद्रा विनियमन आदि उपकरणों के स्थान पर कार्यकलापों को संचालन एवं अभिप्रेरण प्रदान करने के लिये इस योजना के अंतर्गत प्रमुखतः बाजार तंत्र को आधार बनाया गया। केन्द्र सरकार व योजना आयोग के कार्यक्षेत्र को सीमित करके नियोजन प्रक्रिया को विकेन्द्रित रूप प्रदान किया गया। इन मूलभूत परिवर्तनों के बावजूद क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि हुई तथा उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश जैसे बड़ी आबादी वाले एवं पिछड़े राज्यों में विकास दर राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी नीची रही।

नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002)
नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) भारत की आजादी के 50 वर्ष पूरे होने पर शुरू की गई थी। इस योजना में जीडीपी की सात प्रतिशत वार्षिक दर हासिल करने का लक्ष्य रखा गया और सात केंद्रीय आधारभूत न्यूनतम सेवाओं (बेसिक मिनिमम सर्विसेज- बीएमएस) पर जोर दिया गया था। समयबद्ध तरीके से जनसंख्या को पूर्ण रूप से शामिल करने हेतु इन सेवाओं के लिए अतिरिक्त केंद्रीय सहायता निश्चित की गई। इसके तहत स्वच्छ पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की सुविधाएँ, प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण, बेघर गरीब परिवारों के लिए सार्वजनिक आवास सहायता, बच्चों को पोषण सहायता, सभी गांवों और बस्तियों के लिए सड़कें और गरीबों को ध्यान में रखकर जन वितरण प्रणाली को सुव्यवस्थित करना शामिल था। इस योजना में सुदृढ़ राजस्व संग्रह और विशेषकर छूट संबंधी अनावश्यक खर्चा को नियंत्रित कर, उपभोक्ता शुल्क की प्राप्ति कर, राज्यों और पंचायती राज संस्थाओं पर और अधिक विश्वास रखते हुए नियोजन एवं क्रियान्वयन का विकेंद्रीकरण कर केंद्र, राज्यों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) सहित सरकार के राजस्व घाटे में कमी लाने के लिए राजकोषीय समेकन की नीति अपनाई गई थी।

नौवीं पंचवर्षीय योजना के विशेष उद्देश्य थे
  • पर्याप्त उत्पादक रोजगार उत्पन्न करने और गरीबी उन्मूलन को ध्यान में रखकर कृषि एवं ग्रामीण विकास को प्रमुखता 
  • स्थिर मूल्य के साथ आर्थिक विकास की दर को तीव्रतर करना
  • सभी के लिए खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना, विशेषकर समाज के कमजोर वर्ग पर ध्यान दिया गया था 
  • निश्चित समय सीमा में सुरक्षित पेयजल, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की सुविधा सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा, सभी के लिए आश्रय और संपर्क की आधारभूत न्यूनतम सेवा मुहैया कराना
  • जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करना
  • सभी स्तरों पर लोगों को लामबंद करना और जनभागीदारी सुनिश्चित करना
  • महिलाओं और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ी जातियों, सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों तथा अल्पसंख्यकों को सामाजिक आर्थिक बदलाव और विकास - का वाहक बनाकर सशक्त करना
  • पंचायती राज संस्थाओं, सहकारी और स्व-सहायता समूहों जैसी जन भागीदारी वाली संस्थाओं को बढ़ावा देना और विकसित करना
  • आत्मनिर्भर बनाने वाले प्रयासों को मजबूत करना नौंवी योजना के लिए जीडीपी वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष S तय की गई, पहले दृष्टि पत्र में यह 7 प्रतिशत तय की गई थी। ST विकास दर के लक्ष्य में यह कटौती नौंवी योजना के पहले दो वर्ष में राष्ट्रीय और वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए की गई थी। निर्धारित लक्ष्य की तुलना में औसत वार्षिक विकास दर 5.5 प्रतिशत रही।
नौवीं पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
नौवीं योजना का मूलमंत्र 'सामाजिक न्याय' के प्रमुख उद्देश्य के साथ आर्थिक संवृद्धि अर्थात् नौवीं योजना का केन्द्र बिन्दु 'न्यायपूर्ण वितरण एवं निष्पक्षता के साथ विकास निर्धारित किया गया था। इस मौलिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये नौवीं योजना राज्य नीति के चार महत्वपूर्ण आयामों के संदर्भ में विकसित की गई, और इसमें विकास का 15 वर्षीय परिप्रेक्ष्य दिया गया। ये चार मुख्य आयाम थे जीवन की गुणवत्ता, उत्पादक रोजगार का सृजन, क्षेत्रीय संतुलन और आत्मनिर्भरता। इसी योजना के दौरान भारतीय स्टेट बैंक द्वारा इंडिया मिलेनियम डिपॉजिट का निर्गम काफी सफल रहा और इसने विदेशी मुद्रा में 5.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की धनराशि जुटाई।

दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07)
  • योजना काल में प्रतिवर्ष 8 प्रतिशत वृद्धि दर प्राप्त करना।
  • प्रतिवर्ष 7.5 अरब डॉलर का FDI प्राप्त करना।
  • 5 वर्ष में 78000 करोड़ रूपये का विनिवेश।
  • योजनाकाल में 5 करोड़ रोजगार अवसरों का सृजन
  • 2007 तक साक्षरता दर 75 प्रतिशत करना।
  • 2007 तक शिशु मृत्युदर 45 प्रति हजार करना।
  • 2007 तक वनाच्छादन को 25 प्रतिशत करना।
  • विनिवेश दर GDP का 28.4 प्रतिशत करना।
  • 2007 तक निर्धनता को 21 प्रतिशत तक करना।
  • प्रमुख नदियों के प्रदूषित भागों को साफ करना। 
  • मातृ मृत्युदर को घटाकर 2007 तक 2 करना।
10वीं योजना की कुछ प्रमुख विशेषताएं
  • 10वीं योजना वर्ष 2006-07 में सकल देशीय उत्पाद की वृद्धि दर 9% के स्तर तक ले जाने में सफल रही।
  •  इसके साथ बचत दर को 32% तथा निवेश दर को 34% तक बढ़ाने में सफल रही।
  • इसके साथ ही विकास का लाभ निचले स्तर तक तथा गरीब एवं कमजोर तक नहीं पहुंच पाया। योजना आयोग के अनुमान के अनुसार 2004-05 में 30 करोड़ व्यक्ति (कुल जनसंख्या का 27.5%) गरीबी रेखा के नीचे था।
  • दैनिक स्थिति बेरोजगारी दर 2004-05 में 8.3% के ऊँचे स्तर पर थी।
  • कृषि क्षेत्र में भयंकर असफलता वार्षिक कृषि वृद्धि दर 4% के लक्ष्य की तुलना में 2.10% रही। 
  • क्षेत्रीय असमानता में कोई कमी नहीं आयी, क्योंकि 5 गरीब राज्यों कुल में गरीबों का 55% निवास करता था।
  • अतः उपर्युक्त आधारों पर यह प्रश्न उभरा कि विकास किसके लिए समृद्ध वर्गों, अमीरों या अरबपतियों के लिए या आम आदमी के लिए निष्कर्षतः समावेशी विकास की धारणा आयी जिसे 11वीं योजना में लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया।
दसवीं पंचवर्षीय योजना का मूल्यांकन
दसवीं पंचवर्षीय योजना एक महत्वाकांक्षी योजना थी, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार हुआ। इस योजना में अर्जित 7.9% की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर, जो अभी तक की किसी भी योजना अवधि के लिये उच्चतम थी 8% के लक्ष्य से केवल मामूली कम थी। योजना के अंतिम वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर 9.2% के उच्च स्तर तक पहुंच गई। दसवीं योजना के दौरान वृद्धि की एक उल्लेखनीय विशेषता विनिर्माण का पुनरूत्थान था।
भारतीय अर्थव्यवस्था अपने बचत के उच्च स्तर की ओर बढ़ रही है। इस योजना में विभेदक विकास रणनीति अपनाई गई। प्रथम बार राज्यवार विकास तथा अन्य निगरानी रखे जाने वाले लक्ष्य राज्यों के साथ परामर्श के बाद तय किये गये। इसमें माना गया कि योजना की परिकल्पना को प्राप्त करने में शासन पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः इस योजना में केन्द्र और राज्यों दोनों के लिये न केवल मध्यावधि वृद्ध आर्थिक नीति का खाका दिया गया, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र के लिये आवश्यक संस्थागत सुधारों की नीति का खुलासा भी किया गया।
इस योजना में कृषि को केन्द्रीय महत्व दिया गया। योजना में तय किये गये लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये शासन पद्धति में सुधार, में कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधार, श्रम कानूनों में सुधार, ऋण व्यवस्था प्रौद्योगिकी, विपणन तथा दक्षता की उपलब्धता में सुधार आदि पर विशेष ध्यान दिया गया।

ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) 
गतिमान एवं समवेशी विकास इस योजना के दृष्टिकोण पत्र को - राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा 9 दिसंबर, 2006 को मंजूरी मिली और इसे 1 अप्रैल, 2007 से पूरे देश में लागू कर दिया गया। 

योजना के प्रमुख लक्ष्य
  • GDP वृद्धि दर 9 प्रतिशत प्राप्त करना तथा 2011-12 के अंत तक इसे बढ़ाकर 10 प्रतिशत तक ले जाना। इसे 10 प्रतिशत से 12 प्रतिशत के बीच बनाए रखना ताकि 2016-17 तक प्रति व्यक्ति आय को दोगुना किया जा सके, 
  • कृषि विकास दर को 4 प्रतिशत करना ताकि उच्च विकास के लाभों का क्षैतिज विस्तार हो सके, 
  • रोजगार के 70 मिलियन नए अवसर सृजित करना,
  • शैक्षिक बेरोजगारी को 4 प्रतिशत से नीचे लाना,
  • प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की दर को 2003-04 के 52.2 प्रतिशत के स्तर से घटाकर वर्ष 2011-12 तक 20 प्रतिशत तक लाना।
  • शिशु मृत्यु दर को घटाकर 28 तथा मातृत्व मृत्यु दर को घटाकर 1 प्रति एक हजार जीवित जन्म पर करना। 
  • 0-6 आयु वर्ग में शिशु लिंगानुपात को 2011-12 तक बढ़ाकर 935 एवं 2016-17 तक 950 करना ।
  • नवंबर 2007 तक सभी गांवों तक टेलीफोन पहुंचाना तथा 2012 तक सभी गांवों में ब्राडबैंड सेवा उपलब्ध कराना।
  • 2012 तक सभी को घर बनाने हेतु भूमि उपलब्ध कराना।
योजना की उपलब्धि
  • 11वीं पंचवर्षीय योजना में GDP वृद्धि दर 8.2% की प्राप्ति हुई जो अबतक किसी भी योजना में प्राप्त सर्वाधिक वृद्धि दर है। 
  • इस योजना में कृषि वृद्धि दर 3.2% रही तथा कृषि क्षेत्र में 58.2% लोगों को रोजगार मिला।
  • कृषि क्षेत्र का GDP में योगदान 15.7% तथा निर्यात में 10. 23% रहा (2004-05 की कीमतों पर)।
  • बेरोजगारी की दर 8.2% (2004-05) की तुलना में 2009-10 में 6.6% रही अर्थात इसमें गिरावट का रूख रहा।
  • 11वीं पंचवर्षीय योजना में उद्योग की वृद्धि दर 4.2% रही। 
  • 11वीं योजना में सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 9.1% रही।
  • 11वीं योजना में हरित न्यायाधिकरण की स्थापना की गयी। चालू खातों पर 2011-12 में निवेश की दर 35% थी जबकि बचत दर 30.8% रही तथा बचत निवेश अन्तराल 4.2% रहा।
  • वर्ष 2011-12 में भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में (FDI) में 34% की वृद्धि हुयी जो 46.8 अरब डालर रही वहीं FII (विदेशी संस्थागत निवेशक) में 436 की कमी आयी।
  • कुल कर राजस्व में वर्ष 2011-12 में प्रत्यक्ष कर की भागीदारी 56.3% से अधिक रही, जो 525151 करोड़ हो गया।
  • वर्ष 2006-07 में प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर 8.02% रही जो 1991-92 के बाद से सर्वोच्च है।

12 वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 के लक्ष्य
योजना आयोग द्वारा जारी मसौदा दस्तावेज के अनुसार 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 का लक्ष्य 8% की वृद्धि दर है। प्रारंभिक दृष्टिकोण पत्र की तुलना में यह संशोधित दर है। विभिन्न क्षेत्रों में बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अन्य लक्ष्य नीचे सूचीबद्ध हैं।

12वीं पंचवर्षीय योजना का विजन (2012-17)
बारहवीं पंचवर्षीय योजना सतत विकास पर केंद्रित है।

12 वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के 25 मुख्य निगरानी योग्य लक्ष्य

आर्थिक विकास
  • 8% पर वास्तविक जीडीपी विकास।
  • 4% पर कृषि विकास।
  • 10% पर विनिर्माण वृद्धि।
  • 11 वीं योजना के दौरान प्राप्त दर से प्रत्येक राज्य को उच्च विकास दर प्राप्त करनी चाहिए।

गरीबी और रोजगार
  • 11 वीं योजना के अंत में दर की तुलना में गरीबी दर 10% तक कम हो सकती है। 
  • गैर-कृषि क्षेत्र में 5 नए काम के अवसर और कौशल प्रमाणपत्र।

शिक्षा
  • स्कूल की पढ़ाई का मतलब 7 साल तक बढ़ाना।
  • उच्च शिक्षा में प्रत्येक आयु वर्ग के लिए 20 लाख सीटें।
  • स्कूल नामांकन में लिंग अंतर और सामाजिक अंतर।

स्वास्थ्य
  • कम करें: IMR से 25 एमएमआर 1 बाल लिंग अनुपात को बढ़ाकर 9501
  • कुल प्रजनन दर को घटाकर 2.1
  • एनएफएचएस-3 के स्तर के 0-3 आयु वर्ग के बच्चों के पोषण में कमी।

भूमि का रूप व्यवस्था
  • जीडीपी के 9% पर इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश
  • सकल सिंचित क्षेत्र 103 मिलियन हेक्टेयर (90 मिलियन हेक्टेयर से )
  • सभी गाँवों को बिजली ( एटी एंड सी नुकसान को 20% तक कम करें।
  • ऑल वेदर रोड्स के साथ गांवों को जोड़ें
  • न्यूनतम 2 लेन मानक के लिए राष्ट्रीय और राज्य उच्च मार्ग। 
  • पूरा पूर्वी और पश्चिमी समर्पित फ्रेट कॉरिडोर।
  • ग्रामीण टेली- घनत्व 70%।
  • प्रति दिन 40 लीटर प्रति व्यक्ति ग्रामीण आबादी का 50% पेयजल, निर्मल ग्राम का दर्जा सभी ग्राम पंचायतों का 50%।

पर्यावरण और स्थिरता
  • हर साल 1 मिलियन हेक्टेयर तक ग्रीन कवर बढ़ाएं।
  • पंचवर्षीय अवधि में 30,000 मेगावाट नवीकरणीय ऊर्जा।
  • 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता 2005 के 20-25% तक कम हो सकती है।

सेवा प्रदान करना
  • 90% भारतीय घरों में बैंकिंग सेवाएँ।
  • आधार आधारित डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम के माध्यम से सब्सिडी और कल्याण से संबंधित भुगतान।

12 वीं योजना का मूल्यांकन
नीति आयोग द्वारा तैयार 12वीं पंचवर्षीय योजना मूल्यांकन दस्तावेज ने स्पष्ट कर नीतियों और विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक मजबूत मामला बनाया है, यहां तक कि यह भी विश्वास दिलाया कि 2016-17 में विकास योजना का अंतिम वर्ष 7 प्रतिशत से 7.75 प्रतिशत होगा।
12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के लिए मूल्यांकन दस्तावेज, जो एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के अनुसार नीति आयोग द्वारा विमुद्रीकरण के प्रभाव को ध्यान में रखे बिना तैयार किया गया था, ने भी आशावादी परिदृश्य के तहत 8 प्रतिशत वृद्धि के बारे में बात की थी, लेकिन यह हो सकता है अब संभव नहीं है।
12वीं योजना अंतिम योजना है क्योंकि सरकार ने अप्रैल 2017 से शुरू होने वाली तीन वर्षीय कार्य योजना के साथ पंचवर्षीय योजनाओं को बदलने का फैसला किया है।
'नई सरकार द्वारा पदभार ग्रहण करने के बाद से शुरू की गई नीतिगत बदलाव और शासन में सुधार के साथ 2016-17 में बारहवीं योजना के अंतिम वर्ष के अनुसार, 2016-17 में 7 से 7.75 प्रतिशत तक त्वरण, परिकल्पित है। आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16, पहुंच के भीतर अच्छी तरह से है, अधिकारी ने 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए मूल्यांकन दस्तावेज के हवाले से कहा।
उन्होंने कहा, "2016-17 में 8 प्रतिशत से अधिक वृद्धि की संभावनाओं के बारे में सावधानीपूर्वक आशावादी होने के कारण हैं।"
हालांकि, अधिकारी ने कहा कि सावधानी जरूरी है क्योंकि कई क्षेत्रों में सुधार जैसे कौशल विकास, बुनियादी ढांचे, श्रम कानूनों और 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में सुधार पूरी तरह से दूर है।
यह देखते हुए कि वर्तमान सरकार की पूर्वव्यापी कर देयता में कोई नई पूछताछ शुरू करने की प्रतिबद्धता भारत की प्रतिष्ठा, मूल्यांकन दस्तावेज की ओर बहुत स्वागत योग्य कदम नहीं है, “यह स्पष्ट रूप से वर्तनी के लिए महत्वपूर्ण है कि कर अधिकारियों की ओर से विवेक को कम से कम किया जाए।"
दस्तावेज के अनुसार, DIPP और नीति आयोग कई व्यवसायिक क्षेत्रों में भारतीय शहरों और राज्यों में सर्वोत्तम प्रथाओं को लाने के लिए एक सहयोगी प्रयास में लगे हुए हैं।
कृषि का जिक्र करते हुए, नीति आयोग के दस्तावेज ने कहा कि कृषि में उत्पादकता बढ़ाना तात्कालिक साधन है जिससे बड़ी संख्या में गरीबों को राहत मिलती है। 
"लेकिन लंबे समय में उनके लिए वास्तविक समृद्धि लाने से उद्योग और सेवाओं में अच्छी नौकरियों के निर्माण की आवश्यकता होगी," यह जोर दिया।
दस्तावेज में कहा गया है कि भारत की चुनौती केवल सामान्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र में तेजी से विकास नहीं है, बल्कि श्रम-गहन क्षेत्रों जैसे कपड़ों, चमड़े के विनिर्माण, खाद्य प्रसंस्करण और इलेक्ट्रॉनिक विधानसभा में स्वस्थ विकास सुनिश्चित करना है, अधिकारी ने कहा।
“इन क्षेत्रों में विकास सीमित कौशल वाले श्रमिकों के लिए अच्छी नौकरियों का सृजन करने में मदद करेगा, जिससे कृषि और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को औपचारिक क्षेत्र में पलायन करने में मदद मिलेगी।"
दस्तावेज के अनुसार, “इसके साथ ही, कृषि से श्रमिकों के प्रवास के साथ क्षेत्र में प्रति श्रमिक भूमि क्षेत्र बढ़ेगा, प्रति श्रमिक उत्पादन बढ़ेगा"।
आगे बढ़ते हुए भारत को कृषि को पुनर्जीवित करने और बनाए रखने के लिए कई कदम उठाने की आवश्यकता है।
इसने कहा कि बागवानी, मछली पालन और पशुधन जैसे उच्च मूल्य वाले वस्तुओं की ओर रुख करने की आवश्यकता है। दस्तावेज में कृषि विपणन समितियों (APMC) में सुधार की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया।
विशिष्ट सामाजिक खेलों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सामाजिक योजनाओं का उल्लेख करते हुए, नीति आयोग का मूल्यांकन दस्तावेज कहता है कि एकीकृत बाल विकास सेवा (ICDS) कार्यक्रम, मध्याह्न भोजन योजना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन को एक बारीकी से जांच की आवश्यकता है ताकि उन्हें और अधिक प्रभावी बनाया जा सके।

योजनाओं को सफल बनाने के लिए सुझाव 
भारत में आर्थिक नियोजन को सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं- 
  • जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
  • सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के उद्योगों में उचित समन्वय स्थापित किया जाए।
  • आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति एवं उनके मूल्यों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित किया जाना चाहिए।
  • केन्द्र एवं राज्यों के बीच उचित सम्बन्ध स्थापित किया जाने चाहिए जिससे सम्पूर्ण देश के समन्वित आर्थिक विकास को गति दी जा सके।
  • आर्थिक नीतियों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
  • गाँवों में गैर-कृषि क्षेत्रों (दुग्ध उद्योग, मुर्गीपालन, कुटीर उद्योग) का विकास किया जाना चाहिए।
  • शिक्षा प्रणाली को कार्यपरक बनाया जाना चाहिए।
  • वित्त-प्रधान योजनाओं के साथ-साथ भौतिक योजनाओं की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • योजनाओं का निर्माण साधनों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
  • प्रशासकीय व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किया जाना चाहिए।

प्रश्न- : आर्थिक नियोजन का अर्थ लिखिए। 
उत्तर- : आर्थिक नियोजन का अर्थ एवं परिभाषाएँ
नियोजन का शाब्दिक अर्थ पहले से आयोजन करना है। आर्थिक नियोजन एक ऐसी विवेकपूर्ण व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य 'न्यायपूर्ण आर्थिक विकास एवं अधिकतम सामाजिक कल्याण' के लक्ष्य को प्राप्त करना है।

प्रश्न-: भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक नियोजन का क्या महत्त्व है? 
उत्तर- :  भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक नियोजन का महत्त्व
भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में आर्थिक नियोजन का बड़ा महत्त्व है। टी० टी० कृष्णामाचारी के शब्दों में, “आर्थिक क्षेत्र में नियोजन का वही महत्त्व है, जो आध्यात्मिक क्षेत्र में ईश्वर का है।"
भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक नियोजन के महत्त्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
  1. उपलब्ध सीमित संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग किया जाता है।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा योजनाबद्ध आर्थिक विकास के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध हो जाती है।
  3. स्वतन्त्रता से पूर्व युद्धकालीन जर्जरित अर्थव्यवस्था का स्वतन्त्रता के पश्चात् पुनरुत्थान सम्भव हुआ।
  4. आर्थिक नियोजन द्वारा आर्थिक विकास की गति को तीव्र किया जा सकता है।
  5. आर्थिक नियोजन द्वारा पूँजी-निर्माण की दर और विनियोग में वृद्धि होगी। अर्थव्यवस्था को गरीबी के दुश्चक्र से भी बाहर निकाला जा सकेगा।
  6. भारत में बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी की व्यापक समस्या विद्यमान है। आर्थिक नियोजन द्वारा इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
  7. नियोजन, आर्थिक एवं सामाजिक आधारिक संरचना (सड़क, रेल, बिजलीघर, शिक्षा एवं चिकित्सालय संस्थान आदि) के निर्माण में जो निजी विनियोगों को प्रोत्साहन प्रदान करता है, में सहायक है।
  8. नियोजन द्वारा उत्पादन तकनीक में परिवर्तन की गति को तीव्र किया जा सकता है। इस प्रकार आर्थिक नियोजन देश के आर्थिक विकास में सहायक है।

प्रश्न-: पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत भारत के आर्थिक विकास पर एक लघु निबन्ध - लिखिए।
अथवा 
भारत में आर्थिक नियोजन की उपलब्धियाँ लिखिए।
अथवा 
आर्थिक नियोजन की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- :  योजनाकाल में भारत का आर्थिक विकास
पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत भारत के आर्थिक विकास (आर्थिक नियोजन) की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित रही हैं
  • विकास दर - कुछ पंचवर्षीय योजनाओं को छोडकर हम निर्धारित विकास दर को प्राप्त करने में सफल रहे हैं। पहली योजना में प्राप्त विकास दर 3.6% वार्षिक थी, जब कि लक्ष्य मात्र 2.1% वार्षिक था। इसी प्रकार आठवीं पंचवर्षीय योजना में प्राप्य आर्थिक विकास की वार्षिक वृद्धि दर 6.5% (लक्ष्य 5.6%) रही। नवीं योजना में विकास दर 5.35% रही। दसवीं योजना में 8% का लक्ष्य था जिसकी पूर्ति न हो सकी। ग्यारहवीं योजना में 9% का लक्ष्य रखा गया है।
  • राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि - योजनाकाल में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय में निरन्तर वृद्धि हुई है, किन्तु जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होने के कारण प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि दर आशा से कम रही।
  • कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन - योजनाकाल में कृषि उत्पादन की वृद्धि में अत्यधिक उच्चावचन होते रहे हैं। तृतीय योजना में तो यह दर ऋणात्मक रही। इसी प्रकार द्वितीय, चतुर्थ, छठी एवं आठवीं योजना को छोड़कर शेष योजनाओं में औद्योगिक विकास की दर बढ़ती रही।
  • परिवहन एवं संचार - परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में योजनाकाल में उल्लेखनीय प्रगति हुई। रेलवे लाइनों की लम्बाई 63,974 किमी, सड़कों की लम्बाई 38 लाख किमी तथा जहाजरानी की क्षमता 8,04,612 जी०आर०टी० हो गई है। हवाई परिवहन, बन्दरगाहों की स्थिति और आन्तरिक जलमार्गों का भी विकास किया गया है। संचार व्यवस्था के अन्तर्गत विकास के क्षेत्रों में डाकखानों, टेलीफोन, टेलीग्राफ, रेडियो स्टेशन एवं प्रसारण केन्द्रों की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है।
  • शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाएँ - योजनाकाल में शिक्षा का भी व्यापक प्रसार हुआ है। भारत में साक्षरता की दर 1951 में 16.7% थी, जो 2011 ई० में 74.04% हो गई है। इसी प्रकार योजनाकाल में देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 
  • बैंकिंग संरचना - योजनाकाल में बैंकिंग संरचना में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 30 जून, 1969 ई० को व्यापारिक बैंकों की शाखाओं की संख्या 8,262 थी, जो मार्च, 2009 ई० को बढ़कर 80,547 हो गई। राष्टीयकरण के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग शाखाओं का व्यापक विस्तार हुआ है।
  • आत्मनिर्भरता - भारत योजनाकाल में आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ा है। पहले जिन वस्तुओं का आयात किया जाता था, आज वे वस्तुएँ देश में ही बनने लगी हैं। अनाजों की पैदावार में देश लगभग आत्मनिर्भर हो चुका है। विदेशी सहायता में भी कमी आई है।
  • सामाजिक न्याय - भारत में आर्थिक नियोजन का लक्ष्य 'सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास' रहा है। योजनाकाल में समाज के निर्धन वर्ग के उत्थान तथा गरीबी व बेरोजगारी जैसी भयावह समस्याओं के समाधान के लिए सरकार द्वारा अनेक योजनाएँ चालू की गई हैं, जिनके सार्थक परिणाम सामने आ रहे हैं।

प्रश्न-: ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर-: ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल 1 अप्रैल, 2007 से 31 मार्च, 2012 ई० तक था। भारत के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह जो योजना आयोग के अध्यक्ष होने के साथ-साथ देश के लब्धप्रसिद्ध अर्थशास्त्री भी हैं, पंचवर्षीय योजनाओं की असफलता का स्वयं अनुभव करते हैं। उनका मानना है कि कृषि जो भारत का मूल आर्थिक स्रोत है, को उसकी दुरावस्था से बाहर नहीं निकाला जा सका है। अतः लम्बी योजनाओं के स्थान पर मध्यावधि तथा लघु योजनाओं को तैयार करना अधिक उपयोगी होगा, जिनका प्रभाव किसानों, उपभोक्ताओं तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को शीघ्र मिल सकेगा। कृषि क्षेत्र में सन् 1996 ई० से चली आ रही मन्दी को समाप्त करने पर सरकार का जोर है, लेकिन ऐसा किया जाना अब तक सम्भव नहीं हो पाया है। कृषि विकास दर 2 प्रतिशत से भी कम है। ग्यारहवीं योजना के लिए कृषि विकास दर को 4 प्रतिशत रखा गया था। राष्ट्रीय विकास परिषद् की सिफारिशों पर चर्चा कर उन्हें ग्यारहवीं योजना में शामिल करने का विचार प्रकट किया गया था। 

प्रश्न-: स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति कैसी थी?
उत्तर-: स्वतन्त्रता से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति दयनीय थी। द्वितीय विश्वयुद्ध एवं देश __ के विभाजन के बाद भारत की आर्थिक स्थिति अत्यधिक बिगड़ चुकी थी और भारत सरकार के सम्मुख
विभिन्न समस्याएँ एवं कठिनाइयाँ मुँह बाये खड़ी थीं। कृषि उत्पादकता का स्तर निम्न था, औद्योगिक विकास एकांगी था और आय एवं धन के वितरण में असमानताएँ बढ़ती जा रही थीं। देश के विभाजन ने जनसंख्या एवं आर्थिक साधनों के बीच असन्तुलन पैदा कर दिया था। अनेक क्षेत्रों में उद्योगों के वितरण में भी असमानताएँ पैदा हो गई थीं। 

प्रश्न-: आर्थिक नियोजन के चार उद्देश्य लिखिए।
उत्तर- : आर्थिक नियोजन के चार उद्देश्य निम्नलिखित हैं- 
  1. देश को आत्मनिर्भर बनाना। 
  2. निर्धनता के दुश्चक्र को समाप्त करना। 
  3. देश में रोजगार के अवसरों को बढ़ाना। 
  4. प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का उचित विदोहन करना। 

प्रश्न-: आर्थिक नियोजन क्या है? इसके दो महत्त्व लिखिए। 
उत्तर- : आर्थिक नियोजन न्यायपूर्ण आर्थिक विकास है। इसके महत्त्व निम्नलिखित हैं-
  1. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में दीर्घकालीन वृद्धि। 
  2. निर्धनता के दुश्चक्र की समाप्ति (गरीबी हटाओ)। 

प्रश्न-: आर्थिक नियोजन से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए। 
उत्तर-: आर्थिक नियोजन से आशय
आर्थिक नियोजन से आशय पूर्व निर्धारित और निश्चित सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को एकीकृत और समन्वित करते हुए राष्ट्र के संसाधनों के सम्बन्ध में सोच-विचार कर रूपरेखा तैयार करने और केन्द्रीय नियन्त्रण से है।
आर्थिक नियोजन के दो लाभ निम्नलिखित हैं-
  1. उपलब्ध सीमित संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग किया जाता है। 
  2. आर्थिक नियोजन द्वारा आर्थिक विकास की गति को तेज किया जा सकता है। 

प्रश्न-: भारतीय आयोजन की किन्हीं तीन कठिनाइयों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर-: भारतीय आयोजन की तीन प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं
  1. जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की गति धीमी रही है। 
  2. श्रम शक्ति में वृद्धि के अनुपात में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हो पाई है।
  3. लगभग सभी योजनाएँ विशाल आकार की रही हैं। इनका निर्माण भी गलत धारणाओं पर आधारित रहा है और योजनाओं की सफलता को आँकड़ों के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न-: भारतीय योजनाओं को सफल बनाने के लिए तीन सुझाव दीजिए। 
उत्तर-: भारतीय योजनाओं को सफल बनाने के लिए तीन सुझाव निम्नलिखित हैं-
  1. जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। 
  2. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के उद्योगों में उचित समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
  3. आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति एवं उनके मूल्यों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित किया जाना चाहिए।

प्रश्न-: भारत में योजना आयोग के किन्हीं दो कार्यों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर-: ये कार्य हैं-
  1. योजनाओं में इस प्रकार समन्वय स्थापित करना ताकि देश आत्म-निर्भर बन सके।
  2. सभी राज्यों के लिए उपलब्ध संसाधनों की आवश्यकतानुसार उपलब्धता सुनिश्चित करना। 

प्रश्न-: भारत में आर्थिक नियोजन का एक उद्देश्य लिखिए।
उत्तर- : भारत में आर्थिक नियोजन का एक उद्देश्य ‘देश का योजनाबद्ध एवं सन्तुलित आर्थिक विकास' करना है।

प्रश्न-: भारत में कितनी पंचवर्षीय योजनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं? 
उत्तर- : भारत में अब तक ग्यारह पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। 

प्रश्न-: आर्थिक नियोजन को परिभाषित कीजिए।
उत्तर- : आर्थिक नियोजन मूल्य के सन्दर्भ में नियोजन अधिकारी द्वारा निश्चित उद्देश्यों तथा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधनों का आवण्टन है।

प्रश्न-: सामाजिक न्याय से क्या आशय है?
उत्तर- सामाजिक न्याय से आशय है-विकास के लाभों को समाज के सभी वर्गों तक समान रूप से पहुँचाना। 

प्रश्न-: आर्थिक नियोजन के दो उद्देश्य लिखिए।
उत्तर-: आर्थिक नियोजन के दो उद्देश्य हैं-
  1. राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में दीर्घकालीन वृद्धि। 
  2. आर्थिक असमानताओं को कम करना। 

1. मिश्रित अर्थव्यवस्था है
  • (अ) पूँजीवादी अर्थव्यवस्था 
  • (ब) साम्यवादी अर्थव्यवस्था 
  • (स) निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का उत्पादन में सहयोग
  • (द) कृषि एवं उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था। 

2. आर्थिक नियोजन का अर्थ निम्नलिखित में से छाँटकर लिखिए
  • (अ) प्रत्येक व्यक्ति की आय का बराबर करना 
  • (ब) संसाधनों का उचित उपयोग करना 
  • (स) आर्थिक प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करना 
  • (द) साम्प्रदायिक सद्भावना उत्पन्न करना।

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