मोहम्मद बिन तुगलक के कार्य | muhammad bin tughlaq ke karya

मोहम्मद बिन तुगलक के कार्य

गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जूना खाँ मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से 1325 ई. में सिंहासन पर बैठा। मुहम्मद तुगलक एक कठोर परिश्रमी एवं नवीन अन्वेषण करने वाला महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था। उसे नवीन प्रयोग करने एवं नई-नई योजनाएँ बनाने का शौक था। परन्तु दुर्भाग्य से उसे अपनी विभिन्न योजनाओं में असफलता का मुँह देखना पड़ा।

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मोहम्मद बिन तुगलक के कार्य निम्नलिखित है-
  • दोआब में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
  • कृषि - सुधार की योजना
  • राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
  • सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
  • खुरासान विजय की योजना
  • कराचिल पर आक्रमण ( 1337-38 ई.)

दोआब में कर वृद्धि (1326-27 ई.)

मुहम्मद तुगलक ने सर्वप्रथम दोआब में कर वृद्धि करने का निश्चय किया। दोआब में कर वृद्धि के निम्नलिखित कारण थे-
  • दोआब का उपजाऊ प्रदेश होना - गार्डनर ब्राउन के अनुसार दोआब साम्राज्य का सबसे अधिक उपजाऊ तथा धन-सम्पन्न प्रदेश था। अतः यहाँ से अधिक कर वसूल किया जा सकता था।
  • रिक्त राजकोष को भरने हेतु धन की आवश्यकता - सुल्तान को रिक्त राजकोष को भरने के लिए धन की आवश्यकता थी, जो दोआब में अधिक कर लगा कर पूरी की जा सकती थी।
  • विद्रोही लोगों को दण्डित करना - बरनी के अनुसार यह कर दोआब के विद्रोही लोगों को दण्ड देने के लिए लगाया गया था।
  • सैन्य शक्ति बढ़ाने आदि के लिए विपुल धन की आवश्यकता - सुल्तान को सेना की शक्ति को बढ़ाने तथा अन्य महत्त्वपूर्ण योजनाओं को लागू करने के लिए विपुल धन की आवश्यकता थी। यह धन दोआब से प्राप्त हो सकता था।
जहाँ तक दोआब में कर वृद्धि की मात्रा का प्रश्न है, इस पर विद्वानों में तीव्र मतभेद है। बरनी के अनुसार दोआब में दस से बीस गुना करों में वृद्धि की गई। बदायूँनी के अनुसार कर में दोगुनी वृद्धि की गई। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी का मत है। कि यह कर वृद्धि सम्भवतः पाँच से दस प्रतिशत तक की गई। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का कथन है कि "संभवतः सुल्तान का उद्देश्य पाँच से दस प्रतिशत तक आय में वृद्धि करना था और इसके लिए वह भूमि-कर नहीं, बल्कि मकानों, चरागाहों आदि अन्य कर बढ़ाना चाहता था।"
मुहम्मद तुगलक ने इन बढ़े हुए करों को कठोरतापूर्वक वसूल करने के आदेश दे दिये। परन्तु दुर्भाग्यवश इसी समय दोआब में भीषण अकाल पड़ गया जिससे किसानों की दशा दयनीय हो गई। परन्तु अकाल के बावजूद राजस्व कर्मचारियों ने कर वसूल करने का कार्य जारी रखा और लोगों पर अत्याचार किये। इससे किसानों में असन्तोष उत्पन्न हुआ तथा वे अत्याचारों से बचने के लिए अपने खेत व गाँव छोड़कर जंगलों में भाग गये। इससे क्रुद्ध होकर सुल्तान ने विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिये जब सुल्तान को दोआब के अकाल तथा जनता की दयनीय दशा के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, तो उसने किसानों को हल, बीज, पशु आदि खरीदने के लिए ऋण दिया तथा सिंचाई के लिए कुँए और तालाब खुदवाये परन्तु इनसे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये सहायता कार्य बहुत देर से शुरू किये गये थे। इस प्रकार दोआब में कर वृद्धि की योजना असफल हो गई। इसके फलस्वरूप हजारों किसान उजड़ गए। सुल्तान को इससे बहुत आर्थिक हानि उठानी पड़ी और इससे सुल्तान की बहुत बदनामी हुई।

दोआब में कर-वृद्धि की योजना की समीक्षा
दोआब में जो कर वृद्धि की गई थी, वह अधिक नहीं थी परन्तु दुर्भाग्य से यह कर वृद्धि ऐसे समय पर की गई, जब दोआब में भीषण अकाल फैला था । यदि सुल्तान अकाल प्रारम्भ होते ही बढ़े हुए करों की वसूली के कार्य को स्थगित कर देता और पीड़ित लोगों की सहायता के लिए तुरन्त आवश्यक कदम उठाता, तो जनता को इतने अधिक कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता। परिस्थितियाँ तथा सुल्तान दोनों ही इस योजना की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।

कृषि - सुधार की योजना

मुहम्मद तुगलक ने कृषि सुधार की एक नवीन योजना बनाई। उसने कृषि विभाग (दीवान-ए-कोही) की स्थापना की तथा कृषि मंत्री ( अमीर-ए-कोही) की नियुक्ति की। अमीर-ए-कोही के अधीन 100 शिकदार नियुक्त किये गए। कृषि योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का प्रमुख उद्देश्य था। इस कार्य के लिए पहले 60 वर्गमील का भू-क्षेत्र चुना गया और उसको उपजाऊ बना कर उसमें बारी-बारी से विभिन्न फसलें बोई गई। इस योजना के अन्तर्गत सरकार ने दो वर्ष में 70 लाख टंके खर्च किये।
परन्तु सुल्तान की कृषि सुधार की यह योजना विफल हो गई। इस योजना की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
  • इस प्रयोग के लिए चुनी गई भूमि उपजाऊ नहीं थी।
  • इस योजना के लिए निर्धारित तीन वर्ष की अवधि बहुत कम थी।
  • इस योजना के लिए निर्धारित धन का दुरूपयोग किया गया। भ्रष्ट कर्मचारी अधिकांश धन डकार गए ।
  • सुल्तान ने इस योजना की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय के अनुसार, "सुल्तान ने कृषि की दशा सुधारने तथा राज्य की आय बढ़ाने के लिए जो उद्योग किए, वे प्रकृति के कोप, कर्मचारियों के विश्वासघात तथा जनता के अविश्वास के कारण सफल नहीं हुए। "

राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)

मुहम्मद तुगलक की एक अन्य महत्त्वपूर्ण योजना राजधानी परिवर्तन की थी। उसने दिल्ली के स्थान पर देवगिरी (दौलताबाद) को राजधानी बनाने का निश्चय किया।

राजधानी परिवर्तन के कारण - दिल्ली के स्थान पर देवगिरी को राजधानी बनाने के निम्नलिखित कारण थे-
  • देवगिरी का महत्त्व - बरनी के मतानुसार साम्राज्य के केन्द्र में होने के कारण देवगिरी को राजधानी बनाने का निश्चय किया।
  • मंगोलों के आक्रमण से सुरक्षा - कुछ विद्वानों के मतानुसार मुहम्मद तुगलक ने देवगिरी को इसलिए राजधानी बनाने का निश्चय किया क्योंकि यह मंगोलों के आक्रमण से सुरक्षित थी।
  • दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का प्रसार - डॉ. मेंहदी हुसैन का कथन है कि मुहम्मद तुगलक दौलताबाद को मुस्लिम संस्कृति का केन्द्र बनाने के लिए उसे राजधानी बनाना चाहता था। डॉ. हबीबुल्ला का कथन है कि मुहम्मद तुगलक दक्षिण भारत में मुस्लिम धर्म एवं संस्कृति के विकास के लिए देवगिरी को राजधानी बनाना चाहता था ।
  • दिल्ली के नागरिकों को दण्डित करना - इब्नबतूता का कथन है कि दिल्ली के नागरिक सुल्तान को गाली भरे पत्र लिखते थे। अतः सुल्तान ने उन्हें दण्डित करने के लिए देवगिरी को राजधानी बनाने का निश्चय किया। परन्तु अधिकांश इतिहासकार इब्नबतूता के कथन को स्वीकार नहीं करते।
  • योजना की असफलता - दौलताबाद पहुँचकर लोगों के कष्टों का अन्त नहीं हुआ। उन्हें अपना पैतृक घर छोड़ने के कारण बड़ा दुःख था। दूसरी ओर साम्राज्य के उत्तरी भागों में अशान्ति एवं अराजकता फैल गई। अतः कुछ समय बाद ही सुल्तान ने दिल्ली को पुनः राजधानी बनाने का निर्णय किया और लोगों को वापस दिल्ली लौट जाने की आज्ञा दी। इस प्रकार सुल्तान की यह महत्त्वर्ण योजना विफल हो गई।

राजधानी परिवर्तन के परिणाम- राजधानी परिवर्तन के निम्नलिखित परिणाम हुए-
  • अपार धन का व्यय - इस योजना को लागू करने में सुल्तान को अपार धन खर्च करना पड़ा। इससे राजकोष रिक्त हो गया।
  • जनता को कष्ट और असुविधाएँ - दिल्ली से दौलताबाद जाने और पुनः वहाँ से दिल्ली लौटने में जनता को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा और अनेक व्यक्ति मौत के मुँह में चले गए।
  • दिल्ली का उजड़ना - राजधानी परिवर्तन से दिल्ली काफी उजड़ गई। दिल्ली अपने पूर्व गौरव को काफी समय तक पुनः प्राप्त न कर सकी।
  • प्रजा में असन्तोष - इस योजना के कारण लोगों को अपार कष्ट उठाने पड़े थे। इससे जनता सुल्तान से असन्तुष्ट हो गई और उसकी कटु आलोचना करने लगी।
यद्यपि राजधानी परिवर्तन की योजना विवेकपूर्ण तथा महत्त्वपूर्ण थी, परन्तु सुल्तान अपनी अदूरदर्शिता के कारण इसे सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सका। यदि वह प्रारम्भ में केवल प्रमुख कार्यालयों तथा दरबारियों को दौलताबाद ले जाता तथा धीरे-धीरे अन्य लोगों को वहां बसाने का प्रयास करता, तो यह योजना असफल नहीं होती। इसके अतिरिक्त दौलताबाद को राजधानी बनाना भी उपयुक्त नहीं था। इस योजना में सुल्तान को अपनी प्रजा का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ।

सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)

सुल्तान ने सोने और चाँदी के सिक्कों के स्थान पर ताँबे और पीतल के सिक्के प्रचलित किये। सांकेतिक मुद्रा प्रचलन के निम्नलिखित कारण थे-
  • राजकोष का रिक्त होना - राजधानी परिवर्तन के भारी व्यय कर वृद्धि की योजना की असफलता तथा सुल्तान द्वारा उदारतापूर्वक धन बांटने आदि के कारण कोष खाली हो गया था। अतः इस कारण सुल्तान को सांकेतिक मुद्रा प्रचलित करनी पड़ी।
  • साम्राज्य का विस्तार करना - सुल्तान एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। अतः साम्राज्य विस्तार हेतु एक विशाल सेना तैयार करने के लिए सुल्तान को प्रचुर धन की आवश्यकता थी। इस कारण भी उसने सांकेतिक मुद्रा प्रचलित करने का निश्चय किया ।
  • चाँदी का अभाव - गार्डनर ब्राउन का कथन है कि मुहम्मद तुगलक के शासन काल में भारत में ही नहीं, अपितु समस्त विश्व में चांदी का अभाव था। अतः सुल्तान ने चांदी के अभाव के कारण सांकेतिक मुद्रा चलाने का निश्चय किया।
  • सुल्तान की नवीन प्रयोगों में रूचि - मुहम्मद तुगलक को सिक्कों में सुधार और नवीन प्रयोग करने का बड़ा शौक था। उसने 'दीनार' नामक सोने का सिक्का तथा 'अदली' नामक चाँदी का सिक्का भी प्रचलित किया था। अतः उसने मुद्रा प्रणाली में एक नवीन प्रयोग करने का निश्चय किया।
  • चीनी और फारसी शासकों का अनुकरण - तेरहवीं शताब्दी में चीन और फारस के शासकों ने अपने देशों में सांकेतिक मुद्राएँ प्रचलित की थीं। मुहम्मद तुगलक ने उनका अनुसरण करके सांकेतिक मुद्राएँ प्रचलित करने का निश्चय कर लिया।
उपर्युक्त कारणों से प्रेरित होकर मुहम्मद तुगलक ने तांबे तथा पीतल के सिक्कों को कानूनी घोषित कर दिया और मूल्य की दृष्टि से उन्हें सोने चाँदी के सिक्कों के समान माना गया। सुल्तान ने तांबे और पीतल के सिक्कों का सोने-चाँदी के सिक्कों के समान सभी व्यवहारों में प्रयोग करने के आदेश दिए। परन्तु सुल्तान ने सरकारी टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित रखने के लिए प्रभावशाली कदम नहीं उठाये। अतः लोगों ने घरों में बड़ी संख्या में ताँबे के जाली सिक्के बना लिए। बरनी का कथन है कि "हर हिन्दू का घर टकसाल बन गया और विविध प्रान्तों के हिन्दुओं ने लाखों, करोड़ों तांबे के सिक्के बना लिए। " परन्तु अनुमान है कि मुसलमानों ने भी जाली सिक्कों के निर्माण में हिस्सा लिया था। लोगों ने सोने-चाँदी के सिक्कों को छिपाकर घरों में रख लिया तथा राज करों का भुगतान ताँबे के सिक्कों में करने लगे। विदेशी व्यापारी देश में भारतीय वस्तुएँ खरीदते समय ताँबे के सिक्कों का प्रयोग करते थे परन्तु अपना माल बेचते समय सोने चाँदी के सिक्कों की माँग करते थे। इससे व्यापार चौपट हो गया और देश में अशान्ति एवं अव्यवस्था फैल गई।
अन्त में विवश होकर सुल्तान ने अपनी सांकेतिक मुद्रा की योजना को त्याग दिया। उसने आदेश दिया कि लोग तांबे और पीतल के सिक्के राजकोष में जमा करा दें तथा वहाँ से ताँबे के सिक्कों के बदले में सोने चाँदी के सिक्के ले जायें। इसके परिणामस्वरूप राजकोष रिक्त हो गया।

सांकेतिक मुद्रा की योजना की असफलता के कारण
सुल्तान की सांकेतिक मुद्रा की योजना की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
  • मुहम्मद बिन तुगलक ने सरकारी टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित नहीं किया, जिससे लोगों ने ताँबे पीतल के जाली सिक्के बनाना शुरू कर दिया।
  • जनता सांकेतिक मुद्रा के महत्त्व को नहीं समझ सकी और इस योजना को सफल बनाने में सुल्तान को कोई सहयोग नहीं दे सकी।
यद्यपि सांकेतिक मुद्रा के प्रचलन की योजना साहसपूर्ण और महत्त्वपूर्ण थी, परन्तु वह अपनी अदूरदर्शिता के कारण इस योजना को सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सका। सुल्तान की यह गलती थी कि उसने सरकारी टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित नहीं किया, जिससे लागों ने अपने घरों में ताँबे के जाली सिक्के बनाना शुरू कर दिया। इसके अतिरिक्त यह योजना समय से बहुत आगे थी। अतः जनता इस योजना के महत्त्व को समझ नहीं सकी और इस योजना को सफल बनाने में कोई सहयोग नहीं दे सकी।

खुरासान विजय की योजना

खुरासान के कुछ असन्तुष्ट अमीरों ने मुहम्मद तुगलक के दरबार में शरण प्राप्त की थी। परन्तु इन अमीरों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए सुल्तान को खुरासान पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। इस समय मंगोल शासक तरमाशीरी भी खुरासान पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तथा उसे मिस्र के शासक ने सहयोग देने का आश्वासन दिया था। अतः मुहम्मद तुगलक ने खुरासन पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। उसने खुरासान की विजय के लिए 3,70,000 सैनिकों की एक विशाल सेना तैयार की और उसे एक वर्ष का अग्रिम वेतन भी दिया परन्तु इस योजना को लागू नहीं किया जा सका। इस योजना के कारण सुल्तान को काफी आर्थिक हानि उठानी पड़ी और सुल्तान की काफी बदनामी हुई। इस योजना के परित्याग का एक कारण यह था कि सुल्तान ने यह अनुभव किया कि खुरासन तथा भारत के बीच स्थित बर्फ से ढके हुए विशाल पर्वतों को पार करना तथा मार्ग के प्रदेशों की शत्रुतापूर्ण जनता से टक्कर लेकर खुरासान पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन कार्य था। दूसरा कारण यह था कि मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति भी काफी बदल चुकी थी। मंगोल नेता अपदस्थ हो चुका था तथा मिस्र के शासक ने खुरासान के शासक से मित्रता कर ली थी। अतः सुल्तान ने खुरासन पर विजय प्राप्त करने की योजना का परित्याग कर दिया।

कराचिल पर आक्रमण ( 1337-38 ई.)

कराचिल का हिन्दू राज्य हिमालय की तराई में स्थित आधुनिक कुमायूँ जिले में था। इब्नबतूता का कथन है कि मुहम्मद तुगलक के शासन काल में चीन के शासकों ने हिमालय की तराई में स्थित हिन्दू राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण किया था। इससे मुहम्मद तुगलक चिन्तित हुआ। अतः उसने कराचिल पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया ताकि वह अपने साम्राज्य की उत्तरी सीमाओं को सुरक्षित कर सके। वह हिमालय की तराई में स्थित हिन्दू राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना चाहता था। हाजी उद-बीर का कथन है कि मुहम्मद तुगलक ने कराचिल की सुन्दर स्त्रियों को प्राप्त करने के उद्देश्य से कराचिल पर आक्रमण किया था, परन्तु मुहम्मद तुगलक के उच्च नैतिक चरित्र को देखते हुए हाजी-उद-बीर के कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
मुहम्मद तुगलक ने कराचिल पर आक्रमण करने के लिए खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक लाख सैनिकों की विशाल सेना भेजी। खुसरो मलिक ने जिद्दा को जीत लिया। सुल्तान ने खुसरो मलिक को आदेश दिया था कि वह जिद्दा से आगे न बढ़े, परन्तु सुल्तान की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए खुसरो मलिक ने तिब्बत की ओर जाना जारी रखा। शीघ्र ही वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गई तथा सेना दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में फँस गई। इस प्रकार पर्वतीय मार्ग की भीषण कठिनाइयों, वर्षा ऋतु के आगमन, खाद्य पदार्थों की कमी, पहाड़ी लोगों के आक्रमण आदि के कारण मुस्लिम सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी। इब्नबतूता के अनुसार केवल तीन सैनिक ही बचकर दिल्ली लौट सके।
दिल्ली की सेना के भीषण विनाश के लिए खुसरो मलिक उत्तरदायी था और इसके लिए सुल्तान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस सैनिक अभियान के कारण मुहम्मद तुगलक की बहुत बड़ी सेना नष्ट हो गई और जनता में उसके विरूद्ध तीव्र असन्तोष उत्पन्न हुआ। फिर भी सुल्तान अपना राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने में सफल हुआ। यद्यपि पर्वतीय राजा ने सुल्तान को कर देना स्वीकार कर लिया।

मुहम्मद तुगलक के कार्यों की असफलता के कारण

मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
  • हठी और उतावला सुल्तान - मुहम्मद तुगलक एक हठी और उतावला सुल्तान था। अपने हठी स्वभाव और उतावलेपन के कारण वह किसी भी योजना पर गम्भीरता से विचार-विमर्श नहीं करता था। वह अपनी योजनाओं को सम्पूर्ण होने से पहले ही उन्हें छोड़ दिया करता था। वह बिना पूरी तैयारी के योजनाओं को लागू करने में जुट जाता था जो उसकी असफलता का एक प्रमुख कारण था।
  • उग्र और क्रोधी - मुहम्मद तुगलक उग्र और क्रोधी था। जब लोग उसकी आज्ञाओं का उल्लघंन करते थे, तो वह बहुत उग्र और क्रोधी हो जाता था तथा लोगों को कठोर दण्ड दिया करता था। इससे लोगों में सुल्तान के प्रति तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।
  • धैर्य, संयम तथा दूरदर्शिता का अभाव - मुहम्मद तुगलक में धैर्य, समझ, सामान्य बुद्धि तथा दूरदर्शिता का अभाव था । वह अपनी योजनाओं के गुण-दोषों की विवेचना किये बिना उन्हें पूरा करने में जुट जाता था। वह परिस्थितियों के अनुसार आचरण नहीं करता था। उसमें अवसर को पहचानने तथा योग्य व्यक्तियों को अपना बनाकर उनसे सलाह लेने की क्षमता नहीं थी।
  • कठोर दण्ड नीति- अपनी निरन्तर असफलताओं से सुल्तान अपना धैर्य तथा सन्तुलन खो बैठा तथा साधारण अपराधों पर भी कठोर दण्ड देने लगा, वह साधारण अपराध पर भी मृत्यु दण्ड देने में संकोच नहीं करता था। अपने निर्दयतापूर्ण कार्यों से सुल्तान जनता में बदनाम हो गया तथा उसे जनता से सहयोग नहीं मिल सका।
  • मानव-चरित्र का पारखी न होना- मुहम्मद तुगलक में व्यक्तियों को परखने तथा उनकी योग्यता का सदुपयोग करने की क्षमता का अभाव था। अतः वह प्रशासन में योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं कर सका। जिन लोगों पर उसने विश्वास किया, उन्हीं व्यक्तियों ने उसे धोखा दिया। उसके अधिकांश अधिकारी भ्रष्ट तथा स्वार्थी थे। अतः सुल्तान को अपनी योजनाओं में असफलता का मुँह देखना पड़ा।
  • उलेमा-वर्ग का विरोध - मुहम्मद तुगलक उदार विचारों का व्यक्ति था। उसमें संकीर्णता तथा धर्मान्धता नहीं थी। उसने उलेमा- वर्ग के हाथों की कठपुतली बनने से इंकार कर दिया और अपराधी पाये जाने पर उन्हें भी कठोर दण्ड दिया करता था। अतः कट्टरपंथी उलेमा सुल्तान से नाराज हो गए और उसका विरोध करने लगे ।
  • परामर्शदाताओं की उपेक्षा- मुहम्मद तुगलक एक निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी सुल्तान था । उसे अपनी योग्यता तथा प्रतिभा पर इतना गर्व था कि वह अपने अमीरों, अधिकारियों आदि से परामर्श लेना अपमानजनक समझता था। परिणामस्वरूप उसे अपनी योजनाओं में घोर असफलता का सामना करना पड़ा।
  • प्रजा का असहयोग- सुल्तान को अपनी योजनाओं में अपनी प्रजा से सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। सुल्तान के प्रति लोगों में अविश्वास बना रहा। उसकी राजधानी परिवर्तन और सांकेतिक मुद्रा की योजनाओं में उसकी प्रजा ने उसे सहयोग नहीं दिया जिसके फलस्वरूप ये योजनाएँ बुरी तरह से विफल हुईं।
  • विदेशी अमीरों द्वारा विश्वासघात- यद्यपि सुल्तान ने विदेशी अमीरों को अपने दरबार में आश्रय दिया तथा उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त किया, परन्तु उन्होंने सुल्तान को धोखा दिया। उन्होंने अवसर पाकर विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया और उसके मार्ग में कठिनाइयाँ उत्पन्न कीं।
  • योजनाओं का समय से आगे होना- मुहम्मद तुगलक की कुछ योजनाएँ उस युग से बहुत आगे थीं और इससे लोग उसकी योजनाओं को भली-भाँति नहीं समझ सके। अतः जनता सुल्तान को सहयोग नहीं दे सकी। सांकेतिक मुद्रा की योजना समय से आगे होने के कारण विफल हो गई।
  • प्रतिकूल परिस्थितियाँ- प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण भी सुल्तान की कुछ योजनाएँ विफल हो गई। अकाल के कारण दोआब में कर वृद्धि की योजना असफल हो गई। कराचिल - विजय की योजना में पर्वतीय मार्गों की कठिनाइयाँ, भीषण वर्षा आदि के कारण शाही सेना को विनाश लीला का सामना करना पड़ा।

मुहम्मद तुगलक के कार्यों का मूल्यांकन

दिल्ली के मध्यकालीन सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक का विशिष्ट स्थान है। वह एक महत्त्वाकांक्षी और आदर्शवादी शासक था। उसे 'असफलताओं का बादशाह' भी कहा जाता है। अनेक व्यक्तिगत एवं चारित्रिक गुणों के बावजूद वह दिल्ली सल्तनत का सबसे विवादास्पद सुल्तान था। अनेक विद्वानों ने उसे 'अंतर्विरोधों का विस्मयकारी मिश्रण', पागल या विक्षिप्त, रक्त पिपासु, 'आदर्शवादी और स्वप्निल', अधर्मी और अविश्वासी, 'परोपकारी एवं उदार', शासक माना है। निष्पक्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत रूप से सुल्तान में अनेक गुण थे। वह विद्याप्रेमी एवं कर्मठ व्यक्ति था। उसमें सैनिक एवं प्रशासनिक क्षमता भी थी। उसने धर्म और राजनीति को अलग करने का प्रयास किया एवं हिन्दू-मुसलमानों को समान दृष्टिकोण से देखा । वह सदैव जनता के हित की कामना करता था, इसलिए उसने नई-नई योजनाएं बनाई । यद्यपि उसकी योजनाएं विफल हो गई. तथापि इससे उन योजनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता। उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यही थी कि वह किसी भी कार्य को धैर्य के साथ नहीं करता था। उसकी असफलता के लिए बहुत सीमा तक उसका उतावलापन भी जिम्मेदार माना जा सकता है। उसे योग्य व्यक्तियों का साथ नहीं मिला। भाग्य ने भी उसे धोखा दिया। परिणामस्वरूप उसके राज्यकाल में ही साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो गई। दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए बहुत हद तक मुहम्मद बिन तुगलक की नीतियां एवं उसके कार्य उत्तरदायी थे, परंतु उसे पागल, विक्षिप्त या आदर्शवादी शासक कहना उचित नहीं होगा। वस्तुतः उसके चरित्र में विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था, जिससे वह असफल शासक सिद्ध हुआ ।

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