जैव विकास (Organic Evolution)।
जैव विकास (Organic Evolution) -
प्राणियों में होने वाला वह परिवर्तन, जिसके फलस्वरूप जटिल एवं अति संगठित प्राणियों का विकास साधारण संरचना वाले प्राणियों से हुआ, जैव विकास कहलाया।
समजात अंग (Homologous Organ) : वे अंग, जिनकी मौलिक रचना तथा उद्भव समान होते हैं, किन्तु कार्य के अनुसार वाह्य रचना भिन्न-भिन्न होती है, समजात अंग कहलाते हैं। जैसे–मनुष्य का हाथ, घोड़े का अगला पैर, पक्षी के पंख तथा चमगादड़ (एक स्तनधारी) के पंख, आदि।
संवृत्ति अंग (Analogour Organ) : वे अंग, जिनके कार्यों में समानता, किन्तु मौलिक रचना व उद्भव में अन्तर होता है, संवृत्ति अंग कहलाते हैं। जैसे चमगादड़ तथा कीटों के पंख।
अवशेषी अंग (Vestigial Organ) : वे अंग, जो अक्रियाशील और बेकार हो जाते हैं, किन्तु शरीर में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चले आ रहे हैं, अवशेषी अंग कहलाते हैं। जैसे- निमेषक पटल, क्रीमीरूप परिशेषिका, कण पल्लव, त्वचा के बाल, पूँछ कोशिकाएं, अकिल दाढ़ (Wisdom Teeth) आदि 180 अवशेषी अंग मानव में हैं।
संयोजी जीव (Intergrading Animal) : ये जन्तु 2 वर्गो या 2 समुदायों को आपस में जोड़ते हैं। जैसे- पेरीपेटस-आर्थोपोडा और एनीलीडा के बीच, निओपिलाइना- एनीलीडा और मोलस्का के बीच, प्रोटाप्टेरस- मछली तथा उभयचर के बीच, आर्किओप्टेरिक्स- सरीसृप और पक्षीवर्ग के बीच तथा एकीडना- सरीसृप और स्तनधारी के बीच संयोजी जीव का कार्य करते हैं।
इसी प्रकार मानव शरीर में 100 से भी अधिक अवशेषी अंग पाए जाते हैं, जैसे निमेषक झिल्ली, कर्ण पल्लवों की पेशियाँ, पुच्छ कशेरुकाएँ, वर्मीफॉर्म एपेन्डिक्स, अक्लदाढ़ आदि।
लैमार्कवाद के अन्तर्गत लैमार्क ने 1809 ई. में फिलोस्फी जूलोनिक नामक पुस्तक में उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के अनुसार नई आदतों के कारण कुछ अंगों का प्रयोग बढ़ता है, जिससे उनका अधिक विकास होता है तथा कुछ का घटता है, जिससे उनका ह्रास होता है, जिसे उपार्जित लक्षण कहते हैं। यह उपार्जित लक्षण प्रजनन द्वारा नई पीढ़ी में चले जाते हैं। लैमार्क ने अपने सिद्धांत को समझाने के लिए जिराफ की गर्दन लंबी होने का उदाहरण दिया।
परंतु 1886 ई. में वीजमान ने जननद्रव्य की निरन्तरता का सिद्धांत के द्वारा अपने प्रयोग में 21 पीढ़ियों तक चूहों की पूँछ काटकर आपस में प्रजनन कराया लेकिन किसी भी पीढ़ी में पूँछ विहीन चूहे उत्पन्न नहीं हुए।
डार्विनवाद के अन्तर्गत डार्विन के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को प्राकृतिक चयन का सिद्धांत कहा जाता है। डार्विन ने अपने विचार 1859 ई. में 'द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज (The Origin of species) में प्रकाशित किए। इनके अनुसार प्रकृति ऐसे व्यक्तियों को चुनती है, जिनमें उपयोगी रूपान्तरण होता है और वह जीवन संघर्ष में लाभ देता है। ऐसे जीन प्रजनन के द्वारा दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते हैं, जो धीरे-धीरे नई जाति को जन्म देते हैं।
हेकल ने बायोजेनेटिक नियम अथवा पुनरावृत्ति सिद्धांत (Recapitulation theory) के अनुसार व्यक्ति वृत्त में जातिवृत्त की पुनावृत्ति होती है अर्थात् जन्तु अपनी भ्रुणावस्था में पूर्वजों की अवस्थाओं को दोहराते हैं।
जीवों में अकस्मात् कोई ऐसा लक्षण विकसित हो जाता है, जो वर्तमान जातीय लक्षण न होकर किसी निम्न वर्गीय पूर्वज जाति का होता है, जिसे प्रत्यावर्तन (Atavism) कहा जाता है।
विकासवाद का सबसे आधुनिक सिद्धांत संश्लेषण-सिद्धांत है जिसमें आधुनिक आनुवंशिकता का उपयोग किया गया है,
जैसे-
उत्परिवर्तन (Mutation), संयोजन (Recombination), जीन अभिगमन (Gene migration), आनुवंशिक प्रवाह (Genetic drin) तथा प्राकृतिक चयन (Natural Selection) आदि।