भारतीय वन तंत्र।

भारतीय वन तंत्र


प्रमुख वनस्पतियों तथा जलवायु पारिस्थितिकी के आधार पर भारतीय वनों को निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है:
  • उष्णकटिबंधीय सदाबहार एवं अर्द्ध-सदाबहार वन
  • उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन
  • उष्णकटिबंधीय काँटेदार वन
  • पर्वतीय वन
  • मैंग्रोव वन।

उष्णकटिबंधीय सदाबहार एवं अर्द्ध-सदाबहार वन (Tropical Evergreen and Semi-evergreen Forest)

ये वन अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढाल तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की पहाड़ियों पर पाए जाते हैं। ये उन उष्ण और आर्द्र प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22°C से अधिक रहता है।
उष्णकटिबंधीय वनों में सघन एवं बड़े पत्तों वाले वृक्ष पाए जाते हैं। इनमें निचले स्तर में झाड़ियाँ और बेलें होती हैं, इनके ऊपर छोटे कद वाले पेड़ और सबसे ऊपर लंबे पेड़ होते हैं। इन वृक्षों की लंबाई 60 मीटर या उससे भी अधिक हो सकती है। चूँकि इन पेड़ों में पत्ते झड़ने, फूल आने और फल लगने का समय अलग-अलग होता है इसलिये ये वर्ष भर हरे-भरे दिखाई देते हैं। इनमें पाए जाने वाले वृक्षों की प्रजातियाँ रोजवुड, महोगनी और एबनी हैं। अर्द्ध-सदाबहार वन इन्हीं क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले भागों में पाए जाते हैं। ये वन सदाबहार और आर्द्र पर्णपाती वनों के मिश्रित रूप हैं। इनमें मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ साइडर, होलक और कैल हैं।

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन (Tropical Deciduous Forest)

उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वनों को पर्णपाती वन इसलिये कहा जाता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में लगभग छह से आठ हफ्तों में इन वनों के वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। इन वनों को मानसूनी वन भी कहा जाता है। ये वन लगभग सम्पूर्ण भारत में एक प्राकृतिक आवरण का निर्माण करते हैं, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ पर 70-200 सेमी. तक वार्षिक वर्षा होती है। जल उपलब्धता के आधार पर इन वनों को आर्द्र और शुष्क पर्णपाती वनों में विभाजित किया जाता है।
आर्द्र पर्णपाती वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहाँ वर्षा 100 से 200 सेमी. होती है। ये वन उत्तर-पूर्वी राज्यों और हिमालय के गिरिपद, पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और ओडिशा में पाए जाते हैं। सागवान, साल, शीशम, हुर्रा, महुआ, आँवला, सेमल, कुसुम और चंदन आदि प्रजातियों के वृक्ष इन वनों में पाए जाते हैं।
शुष्क पर्णपाती वन देश के उन विस्तृत भागों में मिलते हैं जहाँ वर्षा 70 से 100 सेंटीमीटर तक होती है। आर्द्र क्षेत्रों की ओर ये वन आर्द्र पर्णपाती और शुष्क क्षेत्रों की ओर काँटेदार वनों में मिल जाते हैं। शुष्क ऋतु शुरू होते ही इन पेड़ों के पत्ते गिर जाते हैं और घास के मैदान में नग्न पेड़ खड़े रह जाते हैं। इन वनों में पाए जाने वाले मुख्य पेडों में तेंदू, पलास, अमलतास, बेल, खैर और अक्सलवुड इत्यादि हैं।

उष्णकटिबंधीय काँटेदार वन (Tropical Barbed Forest)

उष्णकटिबंधीय काँटेदार वन उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। इनमें दक्षिण-पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र शामिल हैं। इन वनों में कई प्रकार की घास और झाड़ियाँ पाई जाती हैं। इन वनों में पौधे लगभग पूरे वर्ष पर्णरहित रहते हैं और झाड़ियों जैसे लगते है। । इनमें पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियाँ बबूल, बेर, खजूर, खैर, नीम, खेजड़ी और पलास हैं। इन वृक्षों के नीचे लंबी घास उगती है।

पर्वतीय वन (Mountain Forest)

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ-साथ तापमान घटने के कारण ही प्राकृतिक वनस्पति में भी बदलाव आता है। इन वनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- उत्तरी पर्वतीय वन और दक्षिणी पर्वतीय वन।
ऊँचाई बढ़ने के साथ हिमालय पर्वत श्रृंखला में उष्णकटिबंधीय वनों से लेकर टुंड्रा क्षेत्रों में मिलने वाली प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। यहाँ हिमालय के गिरिपद पर पर्णपाती वन पाए जाते हैं। उत्तर-पूर्वी भारत की उच्चतर पहाड़ी श्रृंखलाओं, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में चौड़े पत्तों वाले ओक और चेस्टनट जैसे सदाबहार वृक्षों वाले वन पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में 1,500 से 1750 मीटर की ऊँचाई पर व्यापारिक महत्त्व वाले चीड़ के वन पाए जाते हैं। ब्लूपाइन और स्पूस 2,225 से 3,048 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इस ऊँचाई पर कई स्थानों पर शीतोष्ण कटिबंधीय घास भी उगती है। इससे अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वन और चरागाह पाए जाते हैं। 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई पर सिल्वर फर, जूनिपर, पाइन, बर्च और रोडोडेन्ड्रॉन आदि वृक्ष मिलते हैं। ऋतु प्रवास करने वाले समुदाय, जैसे- गुज्जर, बकरवाल, गद्दी और भूटिया इन चारागाहों का पशुचारण के लिये भरपूर प्रयोग करते हैं। शुष्क उत्तरी ढालों की तुलना में अधिक वर्षा वाले हिमालय के दक्षिणी ढालों पर अधिक वनस्पति पाई जाती है। अधिक ऊँचाई वाले भागों में टुंड्रा वनस्पति, जैसे- मॉस व लाइकेन आदि पाए जाते हैं।

दक्षिणी पर्वतीय वन मुख्यतः प्रायद्वीप के भागों में मिलते हैं, जैसेपश्चिमी घाट और नीलगिरि पर्वत श्रृंखलाएँ। यहाँ ऊँचाई वाले क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबंधीय और निचले क्षेत्रों में उपोष्ण कटिबंधीय प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। नीलगिरि, अन्नामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वनों को 'शोलास' के नाम से जाना जाता है। इन वनों में पाए जाने वाले वृक्षों मगनोलिया, लॉरेल, सिनकोना
और वैटल का आर्थिक महत्त्व है। ये वन सतपुडा और मैकाल श्रेणियों में भी पाए जाते हैं।


मैंग्रोव वन (Mangrove Forest)

भारत में विभिन्न प्रकार के आर्द्र व अनूप आवास पाए जाते हैं। इसके 70 प्रतिशत भाग पर चावल की खेती की जाती है। भारत में लगभग 39 लाख हेक्टेयर भूमि आर्द्र है। ओडिशा में चिल्का और भरतपुर में केवलादेव राष्ट्रीय पार्क अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमियों के अधिवेशन (रामसर अधिवेशन) के अंतर्गत रक्षित जलकुक्कुट आवास हैं।
हमारे देश में आर्द्रभूमि को 8 वर्गों में रखा गया है, जो इस प्रकार हैं:
  • दक्षिण में दक्कन पठार के जलाशय और दक्षिण-पश्चिमी तटीय क्षेत्र की लैगून व अन्य आर्द्र भूमि।
  • राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खारे पानी वाली भूमि।।
  • गुजरात-राजस्थान से पूर्व (केवलादेव) और मध्य प्रदेश की ताजे जल वाली झीलें व जलाशय।
  • भारत के पूर्वी तट पर डेल्टाई आर्द्र भूमि व लैगून (चिल्का झील आदि)।
  • गंगा के मैदान में ताज़ा जल वाले कच्छ क्षेत्र।
  • ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ के मैदान व उत्तर-पूर्वी भारत और हिमालय गिरिपद के कच्छ एवं मैंग्रोव क्षेत्र।
  • कश्मीर और लद्दाख की पर्वतीय झीलें और नदियाँ।
  • अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के द्वीप चापों के मैंग्रोव वन और दूसरे आर्द्र क्षेत्र।
मैंग्रोव वन लवण, ज्वारीय सँकरी खाड़ी, पंक मैदानों और ज्वारनदमुख के तटीय क्षेत्रों पर पाए जाते हैं। इसमें बहुत से लवण से न प्रभावित होने वाले पेड़-पौधे होते हैं। बंधे जल व ज्वारीय प्रवाह की सँकरी खाड़ियों से आड़े-तिरछे ये वन विभिन्न किस्म के पक्षियों को आश्रय प्रदान करते हैं। ये वन चक्रवातों से तटीय क्षेत्रों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
भारत में मैंग्रोव वन 4,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं, जो विश्व के मैंग्रोव क्षेत्र का 3 प्रतिशत है। ये अंडमान और निकोबार द्वीप समूह व पश्चिम बंगाल के सुंदरबन डेल्टा में अत्यधिक विकसित हैं। इसके अलावा ये महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टाई भाग में पाए जाते हैं। इन वनों में बढ़ते अतिक्रमण के कारण इनका संरक्षण करना आवश्यक हो गया है।

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