मैंग्रोव पारितंत्र (Mangrove Ecosystem)
मैंग्रोव सामान्यतः वे वृक्ष होते हैं जो उष्णकटिबंधीय और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के तटों, ज्वारनदमुखों, ज्वारीय कीक्र, पश्चजल (Backwater), लैगून एवं पंक जमावों में विकसित होते हैं। मैंग्रोव शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द 'मैग्यू' तथा अंग्रेजी शब्द 'ग्रोव' से मिलकर हुई है। ऐसा समझा जाता है कि मैंग्रोव वनों का सर्वप्रथम उद्गम भारत के मलय क्षेत्र में हुआ और आज भी इस क्षेत्र में विश्व के किसी भी स्थान से अधिक मैंग्रोव प्रजातियाँ पाई जाती हैं।यह धारणा कि मैंग्रोव केवल खारे पानी में उग सकते हैं सही नहीं है। ये ताजे पानी वाले स्थानों पर भी उग सकते हैं लेकिन तब इनकी वृद्धि सामान्य से कम होती है। किसी मैंग्रोव क्षेत्र में पौधों की प्रजातियों की संख्या तथा उनके घनत्व को नियन्त्रित करने वाला मुख्य कारक उस क्षेत्र की वनस्पतियों के खारे पानी को सहन करने की क्षमता तथा तापमान है।
मैंग्रोव की विशेषताएँ (Features of Mangroves)
- मैंग्रोव प्रजातियाँ बहुत अधिक सहनशील होती हैं और प्रतिदिन खारे पानी के बहाव को झेलती हैं।
- सभी मैंग्रोव पौधे अपनी जड़ों से पानी का अवशोषण करते समय नमक की कुछ मात्रा को अलग कर देते हैं, साथ ही ये पौधे दूसरे पौधों की अपेक्षा नमक की अधिक मात्रा अपने ऊतकों में सहन कर सकते हैं। कुछ पौधे अपनी पत्तियों पर पाई जाने वाली विशेष कोशिका से अतिरिक्त नमक को बाहर कर देते हैं।
- मैंग्रोव पौधे अस्थिर भूमि में उगते हैं। इनकी विलक्षण जड़ें इन्हें न केवल स्थायित्व प्रदान करती हैं बल्कि धाराओं के तेज बहाव और तूफानों में भी मजबूती से खड़ा रखती हैं और श्वसन में सहायता करती हैं। मैंग्रोव पौधों में विशेष श्वसन जड़ों का विकास होता है जिनके माध्यम से ये पौधे ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान करते हैं। इन जड़ों को 'न्यूमेटोफोर्स' कहते हैं।
- इन पौधों में पाई जाने वाली वायवीय जड़ें कई रूप ले सकती हैं। एक तीन मीटर लंबे ऐविसेनिया वृक्ष पर लगभग 10,000 श्वसन जड़ें पाई जा सकती हैं।
- बहुत-सी प्रजातियों के नव अंकुरित पौधों में पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ संचित होते हैं और पानी पर तैरने के लिये विशेष संरचनाएँ पाई जाती हैं जो उन्हें जीवित रहने में सहायक होती हैं। जरायुजता (विविपैरी)- मैंग्रोव की कुछ प्रजातियाँ जैसे एविसीनिया एल्बा (Avicennia alba) क्रिप्टोविविपैरी (गुढ़जरायुजता) दर्शाता है। क्रिप्टोविविपैरी प्रक्रिया के अंतर्गत भ्रूण विकास की प्रक्रिया पेड़ से फलों के गिरने के पहले ही प्रारंभ हो जाती है।
- वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी के उत्सर्जन को रोकने के लिये इन पौधों में मोटी चिकनी पत्तियाँ होती हैं।
- मैंग्रोव पौधों में ऐसी जड़ें पाई जाती हैं जो गुरुत्वाकर्षण के विपरीत बढ़ती हैं और सतह के ऊपर आ जाती हैं।
- जिन स्थानों पर मैंग्रोव उगते हैं वहाँ ऑक्सीजन की कमी रहती है। इस समस्या से निपटने के लिये मैंग्रोव पौधों में अतिरिक्त जड़ें पाई जाती हैं जो अनुकूलन जड़ें कहलाती हैं।
मैंग्रोव क्षेत्रों का वर्गीकरण (Classification of Mangrove Areas)
मैंग्रोव वनों के भौगोलिक वितरण को नियन्त्रित करने वाला मुख्य कारक वहाँ का तापमान है। विषुवत् रेखा के आस-पास के क्षेत्रों में जहाँ जलवायु गर्म और नम होती है, वहाँ मैंग्रोव वनस्पतियों की लगभग सभी प्रजातियाँ पाई जाती हैं। मैंग्रोव वनस्पति विश्व के लगभग 118 देशों में पाई जाती है, जिनमें से अधिकतर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में स्थित हैं। विश्व में पाए जाने वाले 4 मुख्य प्रकार के मैंग्रोव पौधों का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है।लाल मैंग्रोव (Red Mangrove)
लाल मैंग्रोव की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जो बहुत अधिक खारे पानी को सहन करने की क्षमता रखते हैं तथा समुद्र के नज़दीक उगते हैं। इनमें भी अन्य मैंग्रोव पौधों की तरह विशेष रूपान्तरित जड़ें होती हैं जो तने के निचले भाग से निकल कर धरती तक पहुँचती हैं और पौधे को स्थिरता प्रदान करती हैं। इसलिये इन्हें स्थिर जड़ें कहते हैं। ये जड़ें पौधे को ऐसे स्थान पर उगने की क्षमता प्रदान करती हैं जहाँ भूमि में ऑक्सीजन कम होती है। इन्हीं जड़ों से पौधा वातावरण से हवा का आदान-प्रदान व भूमि से पोषक तत्त्वों को प्राप्त करता है।काली मैंग्रोव (Black Mangrove)
काली मैंग्रोव वनस्पति (कच्छ वनस्पति) की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जिनकी खारे पानी को सहने की क्षमता अधिक होती है। इन पौधों में विशेष प्रकार की श्वसन जड़ें पाई जाती हैं जो दलदल में उगने वाले पौधों में देखी जाती हैं। इन जड़ों में गैसों के आदान-प्रदान के लिये विशेष प्रकार की संरचनाएँ होती हैं जिन्हें वातरंध्र (लैन्टिकल्स) कहत हैं। इनमें हवा का प्रवेश वायवमूलों (न्यूमेटोफोर्स) से होता है।सफेद मैंग्रोव (White Mangrove)
सफेद मैंग्रोव का नाम इनकी चिकनी सफेद छाल के कारण पड़ा है। इन पौधों को इनकी जड़ों तथा पत्तियों की विशेष प्रकार की बनावट के कारण अलग से पहचाना जाता है।बटनवुड मैंग्रोव (Buttonwood Mangrove)
ये झाड़ी के आकार के पौधे होते हैं तथा इनका यह नाम इनके लाल-भूरे रंग के तिकोने फलों के कारण है। यह सफेद मैंग्रोव के परिवार का ही अंग है एवं कुछ वैज्ञानिक इसे वास्तविक मैंग्रोव नहीं मानते।भारत में मैंग्रोव वनस्पति (Mangroves in India)
वन रिपोर्ट 2015 के अनुसार, मैंग्रोव वन भारत में 4,740 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में फैला है जो विश्व मैंग्रोव का 3 प्रतिशत है। भारत के कुल मैंग्रोव क्षेत्रफल का लगभग आधा भाग सुंदरवन में अवस्थित है। भारत का मैंग्रोव क्षेत्रफल कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 0.14 प्रतिशत है। अधिक सघन मैंग्रोव 1,472 वर्ग किमी. (31.05 प्रतिशत), मध्यम सघन मैंग्रोव 1,391 वर्ग किमी. (29.35 प्रतिशत) तथा खुला मैंग्रोव क्षेत्रफल 1,877 वर्ग किमी (39.60 प्रतिशत) है। 2013 की वन रिपोर्ट की तुलना में मैंग्रोव क्षेत्रफल में 112 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है। इसमें से सबसे ज़्यादा क्षेत्रफल महाराष्ट्र (36 वर्ग किमी.) में बढ़ा है।कुछ प्रमुख राज्यों का विवरण नीचे की तालिका में दिया गया है-
भारतीय वन रिपोर्ट 2015 के अनुसार
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राज्य/केन्द्र
शासित प्रदेश
|
कुल
मैंग्रोव
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2013
की वन रिपोर्ट के अनुसार परिवर्तन
|
आंध्र
प्रदेश
|
367
|
15
|
गोवा
|
26
|
4
|
गुजरात
|
1,107
|
4
|
कर्नाटक
|
3
|
0
|
केरल
|
9
|
3
|
महाराष्ट्र
|
222
|
36
|
ओडिशा
|
231
|
18
|
तमिलनाडु
|
47
|
8
|
पश्चिम
बंगाल
|
2,106
|
9
|
अंडमान
और निकोबार
|
617
|
13
|
दमन
एवं दीव
|
3
|
1
|
पुदुच्चेरी
|
2
|
1
|
कुल
|
4740
|
112
|
भारत का मैंग्रोव वन -
भारत में चिह्नित मैंग्रोव वनस्पति स्थलों
की सूची
|
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राज्य/संघ
राज्य
क्षेत्र
|
कच्छ
वनस्पति स्थल
|
पश्चिम
बंगाल
|
सुन्दरबन
|
ओडिशा
|
भीतरकनिका,
महानदी, स्वर्णरेखा,
देवी, धामरा,
कच्छ वनस्पति आनुवंशिकी संसाधन केन्द्र,
चिल्का
|
आंध्र
प्रदेश
|
कोरिंगा,
पूर्वी गोदावरी, कृष्णा
|
तमिलनाडु
|
पिचवरम,
मुथुपेट, रामनद,
पुलीकट, काजूवेली
|
अंडमान
एवं निकोबार
|
उत्तरी
अंडमान, निकोबार
|
केरल
|
वेम्बनाड,
कन्नूर (उत्तरी केरल)
|
कर्नाटक
|
कुंडापुर,
दक्षिण कन्नड/होनावर, कारवार,
मंगलौर वन प्रभाग
|
गोवा
|
गोवा
|
महाराष्ट्र
|
अचरा-रत्नागिरि,
देवगढ़-विजय दुर्ग, वेलदूर,
कुंडालिका-रेवदानदा, मुंबरा
दिवा, विकरौली, श्रीवर्द्धन,
वेतरना, वसई
मनोरी, मालवन
|
गुजरात
|
कच्छ
की खाड़ी, खम्भात की खाडी
|
मैंग्रोव वनस्पति एवं प्राणिजात -
खारा पानी और दलदल क्षेत्र होने पर भी मैंग्रोव वनों में विभिन्न प्रकार के पौधों और जीव-जन्तुओं की अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ये क्षेत्र अन्य प्रकार के पौधों के लिये भी भोजन तथा आवास प्रदान करते हैं। मैंग्रोव वनों में पौधों के अतिरिक्त कवक, शैवाल और जीवाणु भी पाए जाते हैं। मैंग्रोव क्षेत्रों के आस-पास समुद्री घास की मात्रा तथा उसमें वृद्धि अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक होती है।मैंग्रोव की वनस्पति (पादप वर्ग)-
राइजोफोरा प्रजाति, एकेन्थस, एक्रोस्टिकम, एजियनिटिज, ऐजिसिरस, ब्रूगेरिया, सेरिओरस ऐक्सोकेरिया, नाइपा, पेम्किम, एविसिनिया, कैरलोप्स, लेगुनकुलेरिया आदि।मैंग्रोव प्राणिजात-
केकड़े (कार्डिसोमा कार्निफैक्स, सिसर्मा विडेन्स), ऊका लैक्टेल, ऊका बोकान्स, मेढक, मगरमच्छ, साँप, छिपकली, ग्रे हेरोन, इग्रेट, किंग फिशर (क्लोरिस, हेल्सियेन), द्विलिंगी किलीफिस, बन्दर, लोमड़ी, खाराई ऊँट, ऊदबिलाव, हिरन, जंगली सूअर।मैंग्रोव प्रजातियों का महत्त्व (Significance of Mangrove Species)
प्राकृतिक शरण स्थल-
मैंग्रोव उस क्षेत्र में पाई जाने वाली अनेक प्रजातियों को शरण स्थल उपलब्ध कराते हैं जहाँ कि वे पाए जाते हैं। गुंथी हुई जड़ें छोटे जीवों के लिये सुरक्षा का कार्य करती हैं। पेड़ की शाखाएँ बहुत से जीवों को आश्रय स्थल प्रदान करती हैं। अकेले पिचवरम वन में झींगे की 30, केकड़े की 30, मोलस्क की 20 तथा मछली की 200 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।भोजन के स्रोत-
अनेक जीवों द्वारा मैंग्रोव की पत्तियाँ खाई जाती हैं। केकड़े तथा अन्य छोटे जीव पत्तियों को खाते हैं तथा उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों को जीवाणुओं द्वारा उपयोगी पदार्थों में अपघटित कर दिया जाता है।
प्राकृतिक जल शोधक-
पानी के अंदर जड़ों का जो जाल मैंग्रोव बनाते हैं उन पर स्पंज तथा शंख मछली चिपके रहते हैं। ये जीव पानी को छानकर उसमें से तलछट तथा पोषक तत्त्वों को अलग कर देते हैं और समुद्र में साफ पानी को प्रवाहित होने देते हैं। ये तटीय क्षेत्रों में भारी धातुओं से होने वाले प्रदूषण को कम करते हैं। मैंग्रोव वन अन्य समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
सूर्य की 'पराबैंगनी-बी किरणों से बचाव-
मैंग्रोव पौधे की पत्तियों में लेवोनाइड पैदा होता है जो पराबैंगनी किरणों को रोकने का कार्य करता है।
हरितगृह प्रभाव को कम करना-
वायु के कार्बन का स्थिरीकरण कर मैंग्रोव वन जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
औषधीय उपयोग-
मैंग्रोव वनस्पतियों का उपयोग सर्पदंश, चर्मरोग, पेचिश तथा मूत्र सम्बंधी रोगों के उपचार के लिये तथा रक्त शोधक एवं गर्भ निरोधक के रूप में किया जाता है।
तलछटी हटाने का कार्य-
मैंग्रोव वृक्ष पानी से तलछट को अलग करते हैं इसलिये वे पानी में तैरती तलछट के लिये एक कुण्ड की तरह कार्य करते हैं। मैंग्रोव वृक्ष अपनी जटिल वायवीय जड़ों की सहायता से तलछट को बांध लेते हैं। इस प्रकार ये भूमि के विस्तारक की तरह भी कार्य करते हैं।
तटीय क्षरण को रोकना-
मैंग्रोव वन लहरों की तीव्रता को कम करके तटों के क्षरण को रोकते हैं।
बाढ़ नियंत्रण-
मैंग्रोव वन ज्वारीय लहरों, भारी वर्षा तथा तूफान के साथ आने वाली बाढ़ से भी तटों की रक्षा करते हैं।
प्राकृतिक संरक्षणकारी-
मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें ज्वार तथा तीव्र जल धाराओं से होने वाले मिट्टी के कटाव को कम करती हैं।
आर्थिक लाभ-
मैंग्रोव वनों से बहुत से वानिकी उत्पाद एवं मत्स्य उत्पाद प्राप्त होते हैं। एक टन मैंग्रोव लकड़ी की ईंधन क्षमता 5 टन कोयले के बराबर है। प्रति हेक्टेयर मैंग्रोव वनों से कुल मिलाकर $12,392 का आर्थिक लाभ होता है। सुंदरवन अकेला ही 111 टन शहद उत्पादित करता है।
मैंग्रोव जैवविविधता ह्रास के कारण
- कृषि क्षेत्र का विस्तार, एक्वाकल्चर, झींगा उत्पादन
- होटल, उद्योग, हार्बर एवं पोर्ट इत्यादि का निर्माण
- औद्योगिक कचरा एवं विषैले पदार्थ
- जलवायु परिवर्तन, सुनामी, तूफान एवं बाढ़
वैश्विक स्तर पर मैंग्रोव के संरक्षण के उपाय
अनेक संस्थाएँ, जैसे- यूनेस्को, ISME (मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के लिये अन्तर्राष्ट्रीय समिति), UNDP, IUCN, रामसर कन्वेंशन UNEP, वेटलैंड इंटरनेशनल आदि ने मैंग्रोव क्षेत्रों के संरक्षण तथा प्रबन्धन के कार्यक्रमों को निर्धारित किया है।इसके अंतर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं-
- प्रशिक्षण
- संरक्षण तथा सूचीबद्ध करना
- पर्यावरण तथा पर्यटन की वस्तुस्थिति का अध्ययन
- मैंग्रोव क्षेत्रों में पौधशाला निर्माण तथा वृक्षारोपण
- सुरक्षित क्षेत्रों की स्थापना
- वैश्विक मानचित्रावली का प्रकाशन
मैंग्रोव एक्शन प्रोजेक्ट
इस संस्था की स्थापना संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1992 में 50 देशों के 300 गैर सरकारी संगठनों, 200 वैज्ञानिकों तथा शिक्षावेत्ताओं को जोड़कर की थी। इस संस्था का उद्देश्य विश्व भर में मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र को हुए हानि को प्रतिस्थापित करना तथा स्थानीय उपभोक्ताओं द्वारा संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करना है।भारत सरकार द्वारा मैंग्रोव संरक्षण के उपाय
भारतीय मैंग्रोव समिति-
1976 के संविधान संशोधन के अनुसार, "पर्यावरण का संरक्षण करना प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य है।" सरकार ने 1976 में ही भारतीय मैंग्रोव समिति का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य मैंग्रोव के संरक्षण एवं विकास के लिये सरकार को सलाह देना था। इसमें वैज्ञानिक, शोध स्कॉलर तथा मैंग्रोव विशेषज्ञों को शामिल किया गया। भारतीय मैंग्रोव समिति ने 15 क्षेत्रों को संरक्षण के लिये चिह्नित किया। इस संस्था द्वारा ‘मंगल वन' नाम से एक सूचना पत्र भी प्रकाशित किया जाता है।
एम.एस. स्वामीनाथन शोध संस्थान, चेन्नई-
इस संस्थान ने राज्य सरकार के वन विभाग के सहयोग से तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा में स्थानीय समुदाय की भागीदारी से मैंग्रोव वनों के प्रबन्धन में सफलता प्राप्त की है। इस संस्थान ने सर्वप्रथम यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि मैंग्रोव पौधों के जीन तथा DNA तकनीक का प्रयोग कर पौधों की ऐसी प्रजातियाँ विकसित की जा सकती हैं जो खारे पानी के लिये अनुकूल हों।
भविष्य के लिये मैंग्रोव (MFF) [IUCN-UNDP] भारतीय कार्यक्रम-
भारत अत्यधिक जैव विविधता वाले क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। भारतीय तट बहुत से स्थानीय समुदायों को संसाधन व सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं। मैंग्रोव का उद्देश्य भविष्य के लिये तटीय पारितंत्र की सुरक्षा, विकास व पुनर्स्थापना करना है जो मुख्यतः तीन स्तंभों पर आधारित हैं- आजीविका, सुरक्षा और स्थिरता (Livelihood, Security and Sustainability), तटीय एवं समुद्री जैवविविधता अनुसंधान तथा सूचना और ज्ञान का प्रसार। इसके लिये यह एनजीओ के माध्यम से उन्हें अनुदान देकर अपने उद्देश्यों को पूरा करता है।
- UNDP/UNESCO द्वारा मैंग्रोव संरक्षण व जागरूकता के लिये विभिन्न परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
- HOPE (Here On Project Environment)- यह मुम्बई की एक एनजीओ है जो मैंग्रोव बागान-महाराष्ट्र में योजना चला रही है।