मिश्रित अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं? | mishrit arthvyavastha kise kahate hain

मिश्रित अर्थव्यवस्था किसे कहते हैं?

बाजार के पास खुद को सही करने के गुण और एडम स्मिथ के अदृश्य हाथ वाली अर्थव्यवस्था को 1929 की आर्थिक महामंदी में बड़ा झटका लगा। अमेरिका ही नहीं पश्चिम यूरोप के कई देशों को भी इस महामंदी ने अपनी चपेट में ले लिया था, जिसके चलते भारी बेरोजगारी, मांग और आर्थिक गतिविधियों में कमी और उद्योग-धंधों पर तालाबंदी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
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इन समस्याओं से स्मिथ के विचार उबरने में नाकाम रहे। ऐसे समय में एक नए नजरिए ने जन्म लिया, जो मशहूर किताब 'द जनरल थ्योरी - ऑफ एप्लायमेंट, इंटरेस्ट और मनी' (1936) में शामिल है। इसे देने वाले मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री एवं कैम्ब्रिज - यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन मेनार्ड कैंस (1883-1946) थे।
कैंस ने सरकारी अहस्तक्षेप के मूल सिद्धांतों और अदृश्य हाथों की प्रवृति पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि अदृश्य हाथ संतुलन की स्थिति पैदा भी करेगी, लेकिन वह गरीबों का गला घोंटकर ही संभव होगा। उन्होंने कहा मूल्य और मजदूरी में इतना लचीलापन नहीं होगा कि सबको नौकरी मिल पाएगी। उनके मुताबिक पूजीवादी अर्थव्यवस्था के पूर्ण रूप से लागू होने के बाद भी कुछ लोग बेरोजगार रहेंगे। ऐसे में मांग में गिरावट के साथ बाजार में मंदी का दौर शुरू हो सकता है, जिस पर अगर अंकुश नहीं लगा तो वह 1929 की तरह महामंदी के दौर में परिवर्तित हो सकता है।
बाजार की अर्थव्यवस्था की सीमाओं पर कैंस ने सवाल उठाते हुए सुझाव दिया कि अर्थव्यवस्था में सरकार का मजबूत दखल होना जरूरी है।
मंदी से अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने के लिए केंस ने सरकारी खर्चे बढ़ाने, विवेकाधीन मौद्रिक नीति (राजकोषीय घाटा, ब्याज दर में कटौती, मुद्रा की सस्ती आपूर्ति इत्यादि) और उत्पाद और सेवाओं की मांग को मजबूत करने का सुझाव दिया क्योंकि यह सब मंदी के अहम कारक थे। जब केंस आर्थिक मंदी के कारकों की तलाश कर रहे थे और उससे बचाव के रास्ते तलाश रहे थे तब पूरे यूरोप अमेरिका में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का चलन छाया हुआ था।
उन्होंने सुझाव दिया कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में समाजवादी अर्थव्यवस्था (पूर्व सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था) को अपने में पचाना चाहिए। उस दौर में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सभी सामान और सेवा बाजार व्यवस्था अधीन थी। इसका मतलब यह हुआ कि आम लोगों की जरूरत की हर चीज की आपूर्ति प्राइवेट इंटरप्राइजेज द्वारा की जाती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि पैसे और धन का प्रवाह (आम आदमी से उत्पादन और आपूर्ति संभालने वाले चंद लोगों की ओर) होने लगा और इस प्रक्रिया में आम आदमी की क्रय शक्ति लगातार गिरती गई। आखिर में, इससे मांग बुरी तरह प्रभावित हुई और आर्थिक महामंदी का दौर आ गया।
कैंस की सलाह के मुताबिक कई पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में नई आर्थिक नीतियों को शुरू किया गया। इनमें बेहद महत्वपूर्ण बदलाव हुए, जिसके मुताबिक अर्थव्यवस्था में सरकार की सक्रिय भूमिका की शुरुआत भी हुई। सरकार ने कुछ आधारभूत उत्पाद और सेवाओं का उत्पादन और उसका वितरण शुरू किया, जिसे पब्लिक गुड्स कहा गया। इन उत्पादों का लक्ष्य सभी लोगों को न्यूनतम पोषण, स्वास्थ्य सुविधा, सफाई, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना था। जरूरत पड़ने पर इन उत्पादों पर होने वाला खर्च आम लोगों के कर पर डाला जा सकता था।
1930 से लेकर 1950 तक यूरोप और अमेरिका में कुल जीडीपी का 50 फीसदी हिस्सा सरकार द्वारा सार्वजनिक उत्पादों के उत्पादन पर खर्च किया गया, जो सोशल सेक्टर के नाम से भी मशहूर है। अत्यधिक आवश्यकता वाले उत्पाद और सेवा को आज तक लोग प्राइवेट गुड्स के नाम से खरीदते हैं। इसे कुछ ही दिनों के भीतर सरकार को मुफ्त में मुहैया कराना पड़ा ताकि आम जनता बाजार में मौजूद सुविधा और सामान पर खर्च कर सके ताकि उनकी मांग कायम हो।
उपरोक्त उदाहरण यहां यह समझाने के लिए दिए गए हैं कि किस तरह से पूँजीवादी व्यवस्था ने खुद को नए सिरे से बदला और इसमें कुछ उपयोगी गैर-बाजारी अर्थव्यवस्था यानी सरकारी अर्थव्यवस्था को शामिल किया गया। मिश्रित अर्थव्यवस्था की शुरुआत इस तरह से हुई और इससे पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को चुनौती मिली।
अर्थव्यवस्थाओं के विकास के इस दौर में सरकारी अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति को देखना भी दिलचस्प है। पोलिश दार्शनिक ऑस्कर लांज (1904-65) ने 1950 के दशक में वही प्रस्ताव सामाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के लिए दिया था जो कैंस ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए दिया था। प्रोफेसर लांज ने समाजवादी अर्थव्यवस्था की अच्छी चीजों की प्रशंसा के साथ पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली से कुछ अच्छे तत्वों के समावेश की सलाह दी थी। उन्होंने सरकारी अर्थव्यवस्थाओं को बाजार समाजवाद (मार्केट सोशलिज्म) की तरफ अग्रसर होने की सलाह दी। (मार्केट सोशलिज्म शब्द ऑस्कर लाज की देन है)।
हालांकि सरकारी अर्थव्यवस्थाओं ने उनकी सलाहों को खारिज कर दिया, उस वक्त समाजवादी अर्थव्यवस्था में इस तरह के बदलाव को निंदनीय माना गया (हालांकि बाद में यह सुझाव कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक साबित हुआ)। केंस ने सुझाव दिया था कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर कुछ कदम बढ़ाना चाहिए जबकि प्रोफेसर लांज ने कहा कि समाजवादी अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर कुछ कदम बढ़ाना चाहिए। लोकतंत्र में इस तरह के प्रयोग की गुंजाइश होती है, जिसका परिणाम आने वाले समय में मालूम होता है। लेकिन समाजावादी और साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्थाएं अपनी प्रकृति में जड़ होती हैं लिहाजा उन्होंने कोई प्रयोग नहीं किए और इसका असर हुआ कि उनकी अर्थव्यवस्थाओं का पतन शुरू हो गया। साम्यवादी चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में पहली बार अर्थव्यवस्था में सरकार के पूर्ण नियंत्रण के खिलाफ में विचार सामने आया। अंतत: चीन ने अपनी सरकारी अर्थव्यवस्था में सीमित दायरे में बाजार की अर्थव्यवस्था को शामिल करने की शुरुआत की। इस दिशा में 1985 में चीन ने ओपन डोर (Open Door) की नीति के अंतर्गत बाजार समाजवाद को अपनाया।
यह बाजार समाजवाद (मार्केट सोशलिज्म) का पहला उदाहरण रहा। दूसरे सरकारी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन की तरह प्रयोग करने में नाकाम रहे क्योंकि उन्होंने इसके लिए पूरी तैयारी नहीं की। हालांकि दूसरी सरकारी अर्थव्यवस्थाओं के लिए बाजार की अर्थव्यवस्था को शामिल करना उतना आसान भी नहीं था। सोवियत संघ में भी बाजार की अर्थव्यवस्था को शामिल करने की कोशिश हुई। सोवियत संघ में ग्लासनोस्ट (Glasnost) और परेस्त्रोइका (Prestroika) नामक विचारों को अपनाया गया। रूसी शब्द ग्लासनोहत का मतलब खुलापन होता है जबकि पेरेस्त्रोइका से तात्पर्य पुनर्संरचना से है। इसके परिणाम के चलते ही सोवियत संघ का बंटवारा हो गया। विशेषज्ञों के मुताबिक बंटवारे की वजह आर्थिक कुप्रबंधन के चलते राजनीतिक व्यवस्था का चरमरा जाना रहा। दूसरी सरकारी अर्थव्यवस्थाओं ने जब मार्केट सोशलिज्म को अपनाने की कोशिश की तो बदलाव के दौर में उन्हें गंभीर आर्थिक संकट के दौर से गुजरना पड़ा। दरअसल बाजार समाजवाद की दिशा में अग्रसर होने से पहले कई मापदंडों पर उसकी तैयारी करनी होती है। चीन ने माओत्से के समय से ही (खासकर 1975 के बाद से) इस दिशा में काफी होमवर्क शुरू कर दिया था। इसके चलते ही वह अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने में कामयाब रहा।
सरकारी अर्थव्यवस्था से बाजार की बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का चीन सबसे आदर्श उदाहरण है।

इन दो घटनाओं का दायरा कई दशकों तक फैला हुआ था, जिसके तहत अलग-अलग आर्थिक व्यवस्थाओं ने दूसरे के अनुभव और व्यवस्थाओं को अपने में समाहित किया। लेकिन 1980 के अंत तक दुनिया की कोई भी अर्थव्यवस्था सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर न तो पूँजीवादी रह गई थी और न ही समाजवादी।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद के चुंगल से निकले दुनिया के कई देशों ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। इनमें भारत, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शामिल हैं। इन देशों के राजनेताओं को भविष्यदृष्टा माना गया जो 1990 के दशक के मध्य तक आते-आते साबित भी हुआ।

वैसे व्यावहारिक तौर पर, मिश्रित अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया में कोई खास उत्साह नहीं दिखा था। इस व्यवस्था की विशेषताओं और उसके अस्तित्व को लेकर किसी ठोस विचार का सामने आना बाकी था। इस दिशा में पहला विचार विश्व बैंक का आया। विश्व बैंक ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की खासियतों के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में राज्य की दखल की जरूरत को भी स्वीकार किया। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के नजरिए में बड़ा बदलाव था क्योंकि विश्व बैंक (डब्ल्यूबी) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था का हिमायती माना जाता है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में यह राय तब बनी जब 1999 में विश्व बैंक की रिपोर्ट 21वीं सदी में प्रवेश (Entering the 21st Century) के नाम से प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने कहा, "सरकार विकास में अहम भूमिका निभाती है, लेकिन ऐसा कोई तय नियम नहीं है जो सरकार को बताए कि उन्हें क्या करना चाहिए।" विश्व बैंक ने आगे जाकर इस रिपोर्ट के माध्यम से सरकारों को सलाह दी कि अपने आर्थिक विकास, सामाजिक राजनीतिक और अन्य ऐतिहासिक कारकों को ध्यान में रखते हुए वह उन खास क्षेत्रों और उसमें खास दायरे की पहचान करे जिसमें बाजार और सरकार दोनों का दखल हो।

विश्व बैंक के इस अंतिम दस्तावेज ने एक तरह से ऐतिहासिक तौर पर चली आ रही अर्थव्यवस्थाओं के दौर यानी मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था और सरकारी अर्थव्यवस्था यानी एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स की मान्यताओं को खारिज कर दिया। ऐसा दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं के अनुभवों के आधार पर किया गया। इस अर्थव्यवस्था ने दोनों तरह की अर्थव्यवस्था के मेल से बनी मिश्रित अर्थव्यवस्था की वकालत की। इस तरह से लंबे समय से चला आ रहा वह विवाद भी समाप्त हुआ कि कौन-सी अर्थव्यवस्था बेहतर है-बाजार वाली अर्थव्यवस्था या फिर सरकारी अर्थव्यवस्था। इस दस्तावेज में दोनों अर्थव्यवस्थाओं की खासियतों को शामिल किया गया और इसके मुताबिक दोनों व्यवस्थाओं की खासियतें एक दूसरे की पूरक हैं। वास्तविक समस्या बाजार या फिर सरकार का होना भर नहीं है, बल्कि दोनों को मिलाकर बेहतर व्यवस्था बनाना है।

बाजार की अर्थव्यवस्था किसी देश की अर्थव्यवस्था के अनुकूल हो सकती है और किसी देश के लिए प्रतिकूल-यह केवल विभिन्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति के चलते संभव होगा। ठीक उसी तरह से, सरकारी अर्थव्यवस्था भी किसी एक अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी हो सकती है, किसी के लिए नहीं हो सकती है।

वैसे यह तय है कि आर्थिक व्यवस्थाओं में न तो पूँजीवाद ही सबसे अच्छा है और न ही सरकारी अर्थव्यवस्था, हां इन दोनों का मिला हुआ स्वरूप मौजूदा समय में सबसे अच्छा है। सरकार बाजार काफी हद तक किसी भी अर्थव्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर निर्भर होते हैं लिहाजा इसका कोई निश्चित प्रारूप नहीं बन पाया है, जिसे दुनिया भर में एकसमान तौर पर लागू किया जा सकता था। प्रत्येक अर्थव्यवस्था को बाजार और सरकार की हिस्सेदारी को खुद से तलाशना होता है। वैसे ये भी संभव है कि किसी अर्थव्यवस्था को बदलते समय के साथ सामाजिक आर्थिक राजनीतिक स्थितियों में बदलाव के चलते अपनी मिश्रित अर्थनीतियों में बदलाव लाना पड़ सकता है।

भारत में आर्थिक सुधार की प्रक्रिया 1991 में शुरू हुई। भारत तो स्वंतत्रता के बाद से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश रहा है। लेकिन 1991 में भारत के लिए एक नई मिश्रित अर्थव्यवस्था की तलाश शुरू हुई।
स्वतंत्रता के बाद भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया, उस दौर में मिश्रित अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया भर में भ्रम की स्थिति थी। मिश्रित अर्थव्यवस्था में कुछ आधारभूत और महत्वपूर्ण क्षेत्र की आर्थिक जिम्मेदारी केंद्र एवं राज्य सरकारों की होती है और बाकी आर्थिक गतिविधियों को बाजार के निजी समूहों के लिए छोड़ दिया जाता है। भारत ने स्वतंत्रता के बाद जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया वह उस वक्त की सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल थी। 1990 के दशक में भारत में आर्थिक सुधार शुरू हुए तब अर्थव्यवस्था में सरकार और बाजार की हिस्सेदारी को नए सिरे से परिभाषित किया गया और एक नई मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया। सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में बदलाव के चलते सरकार और बाजार की हिस्सेदारी में बदलाव हुआ।

नई मिश्रित अर्थव्यवस्था में बाजार की अर्थव्यवस्था का पक्ष लिया गया। कई व्यवस्थाएं, जिन पर सरकार का पूरा नियंत्रण था, उसे निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए खोल दिया गया। इसके कई उदाहरण हैं-दूरसंचार, ऊर्जा, सड़क, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस इत्यादि। इसी समय में कुछ ऐसे भी क्षेत्र रहे, जिन्हें सरकार के अधीन ही रखा गया। इन क्षेत्रों को सामूहिक रूप से सामाजिक क्षेत्र कहा जा सकता है, इनमें शामिल हैं-शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सफाई, पोषण, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि।

भारत 1991 से पहले भी मिश्रित अर्थव्यवस्था का देश था और 1991 के बाद भी इसकी अर्थव्यवस्था मिश्रित ही रही, लेकिन सरकार और बाजार की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी बदल गई। आने वाले समय में सामाजिकआर्थिक राजनीतिक कारकों में बदलाव होने पर भारत अपनी अर्थव्यवस्था में जरूरत के मुताबिक बदलाव कर सकता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था की शुरुआत और उसके विकास ने लंबे समय से चली आ रही उस बहस को खत्म कर दिया कि कौन सी अर्थव्यवस्था सबसे बेहतर है। यह बहस 1776 में एडम स्मिथ की पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशंस से शुरू हुआ था और विश्व बैंक की 1999 की विश्व बैंक विकास रिपोर्ट के प्रकाशित होने तक जारी रहा था। यह भ्रम की स्थिति करीब सवा दो सौ साल (1776 से 2000) तक बनी रही। मौजूदा समय में विश्व की अर्थव्यवस्था पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का दबदबा है। डबल्यूटीओ जिस मिश्रित अर्थव्यवस्था का पक्षधर है वह मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था है। हालांकि इसमें ऐसा भी नहीं है कि सरकार अर्थव्यवस्था में दखल नहीं दे सकती, बल्कि यह जरूरत पड़ने पर सरकार के कहीं ज्यादा दखल की जगह बनाती है।

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