मरुस्थलीकरण | कारण | प्रभाव | रोकने के उपाय | marusthlikaran in hindi

मरुस्थलीकरण (Desertification)

संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत नवीनतम परिभाषा के अनुसार, जलवायु परिवर्तन एवं मानवीय क्रियाकलापों के द्वारा ऊसर (Arid), अर्द्ध कसर (Semi Arid) एवं शुष्क उपआर्द्र (Dry Sub Humid) क्षेत्रों में भूमि अवनयन मरुस्थलीकरण है।
marusthlikaran in hindi
एशियाई देशों में मरुस्थलीकरण पर्यावरण संबंधी एक प्रमुख समस्या है। वन क्षेत्रों की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि सीमित भूमि तथा जल संसाधनों के बावजूद जमीन की बढ़ती मांग के कारण यहाँ नए उद्योग खुल रहे हैं, जिसके कारण जमीन पर तथा पानी में जहरीले पदार्थ घुल रहे हैं। इन सब कारणों से मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया लगातार जारी है। साथ ही, मौसम की दृष्टि से अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र में जमीन की उत्पादन क्षमता घट रही है।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 328.7 लाख हेक्टेयर है, जिसमें कुल भूमि क्षेत्र का 228.3 लाख हेक्टेयर (69.6%) क्षेत्र को शुष्क भूमि आच्छदित किये हुए है। शुष्क भूमि क्षेत्र के अंतर्गत ऊसर क्षेत्र 50.8 लाख हेक्टेयर (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15.8%), अर्द्ध ऊसर क्षेत्र 123.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 37.6%) एवं शुष्क उप आर्द्र 54.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.5%) है। शुष्क भूमि के अंतर्गत एक बड़ी बेल्ट प्रायद्वीपीय भारत के माध्यम से उत्तर-पश्चिम सीमा से देश के दक्षिणी सिरे तक दौड़ रही है।
भारत में गर्म ऊसर क्षेत्र ने राजस्थान (पश्चिमी) , गुजरात, दक्षिणी पंजाब एवं हरियाणा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र राज्यों के एक छोटे से हिस्से को अधिगृहित कर रखा है। मोटे तौर पर राजस्थान राज्य का 3/4 हिस्सा, जिसमें 12 पश्चिमी जिले सम्मिलित हैं, गर्म ऊसर जोन में आते हैं। महान भारतीय मरुस्थल, जो थार डिज़र्ट के नाम से भी जाना जाता है, पश्चिमी राजस्थान में पड़ता है एवं 1,96,150 वर्ग कि.मी. क्षेत्र को घेरे हुए है। साथ ही, शीत मरुस्थल का करीब 15.2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जम्मू कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश के लाहुल-स्पीति क्षेत्र में अवस्थित है।
यह अनुमानित है कि भारत के कुल भूमि क्षेत्र का करीब 32% क्षेत्र भूमि अवनयन (Land Degradation) एवं भौगोलिक क्षेत्र का 25% क्षेत्र मरुस्थलीकरण (Desertification) द्वारा प्रभावित है।

मरुस्थलीकरण एवं भूमि अवनयन एटलस
अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (सैक), इसरो ने 19 अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन पर देश का पहला एटलस बनाया है। इसे जून 2016 में जारी किया गया इस एटलस के अनुसार 2011-13 के दौरान भारत का 96.40 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल भूमि अवनयन के अन्तर्गत आता है। इसी कालावधि में 82.64 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल मरुस्थलीकरण के अंतर्गत आता है। इस एटलस के अनुसार भारत में भूमि अवनयन/ मरुस्थलीकरण के प्रमुख, क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, झारखण्ड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना (क्रमशः घटते हुए क्रम में) में पाए जाते है। झारखण्ड, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात और गोवा जैसे प्रत्येक राज्य में 50% से ज्यादा क्षेत्र मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन के अन्तर्गत आता है। केरल, असम, मिजोरम, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और अरुणाचल प्रदेश राज्यों में 10% से भी कम क्षेत्र भूमि अवनयन या मरुस्थलीकरण के अंतर्गत आता है।

मरूस्थलीकरण के कारण

प्राकृतिक कारण
भूमि अवनयन और मरुस्थलीकरण के प्राकृतिक कारणों के रूप में जल और वायु प्रमुख जिम्मेदार तत्व हैं। जल जनित अपरदन जो कि अवनयन का सबसे विस्तृत रूप है, सभी कृषि जलवायु जोनों में पाया जाता है। जल के कारण 2011-13 में कुल भूमि क्षेत्रफल का 10.98% अपरदित हुआ है। पश्चिमी क्षेत्र में पवन जनित अपरदन प्रमुखता से दिखाई पड़ता है। इस प्रक्रिया में ऊपरी मृदा का क्षय होता है एवं रेत के टीलों में खिसकाव होता है। पवन के द्वारा 2011-13 में कुल भूमि क्षेत्रफल का 5.5% भाग अपरदित हुआ है।
इसरो द्वारा जारी किये गए आंकड़ों के अनुसार का 8.91% भाग वनस्पतिक अवनयन के अंतर्गत आता है। अन्य प्राकृतिक कारणों में तुषार खण्डन (Frost Shattering) लवणीयता-क्षारीयता एवं जल जमाव भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

अपर्याप्त जल संसाधन (Scarce Water Resources)
शुष्क भूमि क्षेत्रों में अपर्याप्त जल संसाधन हरे आवरण की सीमितता का कारण बनते हैं। साथ ही कृषि एवं पशुपालन हेतु चारा उत्पादन की बढ़ती मांग द्वारा भूमि पर दबाव से यह समस्या दोगुनी हो जाती है। कृषि अभ्यासों, जैसे- उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग, कीटनाशक, गहन फसल पैटर्न, अनुपयुक्त प्रौद्योगिकी इत्यादि भूमि के अवनयन का कारण बनते हैं। जल का अत्यधिक दोहन, खासकर तटीय क्षेत्रों में, जलभृतों (aquifers) में लवणीय अतिक्रमण का कारण बनते हैं जो भूमि अवनयन एवं मरुस्थलीकरण का कारक है।

सूखा (Drought)
यह एक प्राकृतिक रूप से होने वाली घटना है जो वानस्पतिक आवरण की अनुपस्थिति से और विकट हो जाती है एवं जलीय व्यवस्था को प्रभावित करती है। यह ऊसर एवं अर्द्ध ऊसर क्षेत्रों में भूमि अवनयन का दूसरा कारक है जो फसल विफलता एवं अकाल को प्रेरित करता है।

उच्च जैविक दबाव (High Biotic Pressure)
भूमि अवनयन आगे चलकर उच्च जैविक दबाव द्वारा और तेज हो जाता है। जैविक दबाव में मानव जनसंख्या एवं पशु जनसंख्या आती हैं।

मानव जनित
मानव जनित कारकों में कृषि एवं असंपोषणीय कृषि अभ्यासों का विस्तार आता है, जैसे- गहन कृषि, रसायन पोषण उपयोग, खराब सिंचाई अभ्यास एवं अतिचारण (Overgrazing)|
  • भूमि उपयोग परिवर्तनः वन एवं कृषि से अन्य भूमि उपयोगों में भूमि परिवर्तन, भूमि अवनयन का एक प्रमुख कारण है। प्रमुख वनों का क्षय, वनों की दीर्घावधि स्थिरता पर प्रभाव डालता है।
  • निर्वनीकरण एवं वन निम्नीकरण: ये दोनों कारण आपस मे अंतर्संबंधित हैं। निर्वनीकरण के कुछ प्रत्यक्ष कारणों में कृषि हेतु भूमि का साफ किया जाना है। अन्य भूमि उपयोग परिवर्तनों में अनियोजित विकास (Unplanned Development), भूमि स्थानांतरण, अतिक्रमण के विभिन्न रूप, अति चराई, अनियंत्रित एवं अपशिष्ट युक्त जमाव, गैरकानूनी कटाई एवं अत्यधिक ईंधन लकड़ियों का जमाव आता है।

औद्योगिक अपशिष्ट
भूमि अवनयन का यह एक महत्त्वपूर्ण उभरता हुआ कारक है। औद्योगिक अपशिष्ट के बंजर भूमि एवं अंतर्देशीय जल निकाय में विसर्जन से भूमि एवं जलस्तर का अवनयन होता है।

खनन
भारत में भूमि अवनयन का एक अन्य कारण खनन है। खासकर जब अनियोजित ओपन कास्ट (Open Cast) खनन किया जाता है तो ऐसे क्षेत्र धीरे-धीरे बंजर भूमि में बदल जाते हैं। मरुस्थलीकरण, भूमि अवनयन एवं सूखा (Desertification, Land Degradation and Drought DLDD) जैसे मुद्दे भारत सरकार की एजेंसियों के अंतर्गत विभिन्न प्रोजेक्टों एवं कार्यक्रमों द्वारा सम्बोधित किये जा रहे हैं।

मरुस्थलीकरण का प्रभाव

मरुस्थलीकरण आज विश्व पटल पर एक विकराल समस्या के रूप में उभरा है। प्राचीन काल में बहुत सी सभ्यताओं के विनाश के लिये सूखा अथवा मरुस्थलीकरण प्रमुख कारण थे। मरुस्थलीकरण का प्रभाव सभी प्राणिजात, पर्यावरण, जलवायु तथा मृदा पर पड़ता है।

भारत में मरुस्थलीकरण को रोकने के उपाय

मरुस्थल एक बहुआयामी समस्या है जिसके जैविक, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक पक्ष हैं। इसलिये उससे निपटने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा प्रयास किया जा रहा है।
सन् 1985 में राष्ट्रीय भूमि-उपयोग एवं परती विकास परिषद् को उच्चतम नीति-निर्धारक एवं समायोजक एजेंसी के रूप में गठित किया गया। यह परिषद् देश भर की जमीनों के प्रबंधन से जुड़ी समस्याओं पर विचार करती है तथा नीतियाँ बनाती है। इस परिषद् के अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं। पिछले कई सालों से शोध संस्थाएँ कृषि विश्वविद्यालयों के सहयोग से मरुस्थलीकरण और सूखे के प्रभावों के संबंध में गहन अनुसंधान में लगी हुई हैं।

मरुस्थलीकरण को रोकने के उपाय

रोकथाम

  • बेहतर भूमि उपयोग नियोजन एवं प्रबंधन
  • जनसंख्या नियंत्रण
  • मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए रक्षक पट्टी
  • वृक्षारोपण

उत्क्रमण

  • मृदा अपरदन पर नियंत्रण (अवरोधकों का निर्माण)
  • जल का समुचित उपयोग (जल संग्रह, कम पानी वाली फसल सिचाई परियोजना का विकास)
  • रेत का स्थलीकरण

सामाजिक व आर्थिक नियंत्रण

  • पशुचारण पर रोक (वनस्पति का विकास)
  • न्यूनतम खुदाई

आधुनिक पद्धतियाँ

  • मेघ बीजन
  • सिचाई के लिए टपक (बूंद-बूंद) विधि का प्रयोग


इन अनुसंधानों की प्राथमिकता मरुस्थलीकरण को रोकना और सूखा-पीड़ित इलाकों की उत्पादकता बढ़ाने की कार्यविधियाँ विकसित करना है। केंद्रीय शुष्क कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर आदि इसके रोकथाम के उपाय खोजने में लगे हुए हैं।

यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डिज़र्टिफिकेशन
1992 में हुए रियो सम्मेलन की अनुशंसा के आधार पर इस कन्वेंशन को 1994 में स्वीकार किया गया जो कि दिसंबर 1996 से वास्तविक रूप में अस्तित्व में आया। भारत सहित 194 देश तथा यूरोपीय यूनियन इसके हस्ताक्षरकर्ता देशों में शामिल हैं। यह एक कानूनी बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। यह कन्वेंशन मरुस्थलीकरण भूमि अवनयन और सूखे की समस्याओं के समाधान के लिये कार्य करता है। यू.एन.सी.सी. डी. (UNCCD) मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन की समस्या के समाधान के लिये अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका, कैरेबियन द्वीप समूह, मध्य एवं पूर्वी यूरोप तथा उत्तरी भूमध्य सागरीय क्षेत्रों में कार्यरत है।
भारत के पास मरुस्थलीकरण की समस्या के समाधान के लिये राष्ट्रीय जल नीति, 2012, राष्ट्रीय वन नीति, 1988 जैसी कोई विशिष्ट नीति या कानूनी ढाँचा नहीं है लेकिन मरुस्थलीकरण और भूमि अवनयन की समस्या के समाधान के लिये भारत विभिन्न तरीकों से प्रयासरत है।

मरुस्थलीकरण से मुकाबले हेतु नेशनल एक्शन प्रोग्राम (NAP-CD)
1996 में इस कन्वेंशन में हस्ताक्षर करने के पश्चात् भारत ने मरुस्थलीकरण से निबटने के लिये एक नेशनल एक्शन प्रोग्राम (National Action Programme to Combat Desertification- NAP-CD) बनाया, जिसे 2001 में UNCCD को सौंपा गया। यह प्रोग्राम सूखा प्रबंधन की तैयारी और शमन, जनजागरुकता, स्थानीय समुदाय के जीवन स्तर में सुधार, विकास के लिये समुदाय आधारित रणनीतियों के आधार पर कार्य करता है। UNCCD ने मरुस्थलीकरण से निबटने के लिये 2007 में एक 10 वर्षीय रणनीति को अपनाया जो कि 2008 से 2018 के लिये थी। इस रणनीति को ध्यान में रखते हुए भारत अब एक नए नेशनल एक्शन प्रोग्राम New National Action Programme to Combat Desertification (NNAP-CD) को क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में है।
कन्वेंशन के पक्षकारों (Parties) को प्रत्येक दो वर्ष में मरुस्थलीकरण से निबटने के अपने प्रयासों की रिपोर्ट UNCCD को सौंपनी पड़ती है। भारत अब तक 6 रिपोर्ट UNCCD को सम्मिलित कर चुका है। वर्ष 2016 में 7वीं रिपोर्ट भेजी जानी है।

संपोषणीय भूमि एवं पारिस्थितिकी प्रबंधन The Sustainable Land and Ecosystem Management (SLEM) Programme
11वीं पंचवर्षीय योजना में भारत सरकार द्वारा कृषि की उत्पादकता में वृद्धि का लक्ष्य रखा गया लेकिन सरकार ने यह माना कि इस लक्ष्य को तब तक नहीं प्राप्त कर सकते जब तक भूमि संसाधन के अवनयन को न रोका जाए। अतः भूमि संसाधन के अवनयन को रोकने के लिये एस.एल.ई.एम (SLEM) कार्यक्रम आया। यह कार्यक्रम वैश्विक पर्यावरणीय सुविधा के भागीदारी कार्यक्रम (CPP) के तहत भारत सरकार व GEF की एक संयुक्त पहल है। SLEM कार्यक्रम का उद्देश्य सतत् भूमि प्रबंधन को बढ़ावा देना, जैवविविधता का संरक्षण तथा पारिस्थितिकीय प्रणालियों की क्षमता को बनाए रखना है। SLEM कार्यक्रम को UNDP, वर्ल्ड बैंक, FAO से भी सहायता प्राप्त होती है।

UNCCD की 10 वर्षीय रणनीति
2007 में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP-8) का आयोजन मैड्रिड में हुआ। इसमें सारे पक्षकारों ने मरुस्थलीकरण से निबटने के लिये एक 10 वर्षीय रणनीति (2008-2018) को स्वीकृति प्रदान की।

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