राष्ट्रपति की शक्तियां - सम्पूर्ण जानकारी | Rashtrapati ki shaktiyan

राष्ट्रपति की शक्तियां

राष्ट्रपति की समस्त शक्तियों को प्रथमिक रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है: rashtrapati ki shaktiyan
  1. सामान्यकालीन शक्तियां
  2. संकटकालीन शक्तियां

सामान्यकालीन शक्तियां अथवा अधिकार

कार्यपालिका अथवा प्रशासनिक शक्तियां

संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार, "संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी तथा वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा करेगा।" इस प्रकार शासन का समस्त कार्य राष्ट्रपति के नाम से होगा और सरकार के समस्त निर्णय उसके ही माने जायेंगे। उसे संघीय शासन से सम्बन्धित सभी मामलों में सूचना पाने का अधिकार है। प्रधानमंत्री के लिए यह आवश्यक है कि वह राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों और प्रशासन सम्बन्धी उन सभी मामलों में सूचना दे, जिसके बारे में राष्ट्रपति ऐसी सूचना मांगे।

प्रशासनिक क्षेत्र में वह इन शक्तियों का उपयोग करेगा

महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति व पदच्युति की शक्ति
राष्ट्रपति भारत संघ के अनेक महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति करता है; जैसे प्रधानमंत्री, उनकी सलाह से अन्य मन्त्री, राज्यों के राज्यपाल, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, महालेखा परीक्षक, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य और विदेशों में राजदूत, आदि। 
इन उच्च अधिकारियों के अतिरिक्त राष्ट्रपति को कुछ प्रशासनिक आयोगों की नियुक्ति का भी अधिकार प्राप्त है, जैसे अन्तर्राज्य परिषद्, निर्वाचन आयोग, वित्त आयोग, राज भाषा आयोग तथा पिछड़े हुए वर्गों की दशा सुधार सम्बन्धी आयोग, आदि। rashtrapati ki shakti
राष्ट्रपति व्यक्तिगत रूप से मन्त्रियों को, राज्यपाल को तथा भारत के महान्यायवादी की पदमुक्त भी कर सकता है।

शासन संचालन सम्बन्धी शक्ति- इस सम्बन्ध में उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के नियम बनाये जा सकते हैं। वह संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक. सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारियों व कर्मचारियों की नियुक्ति तथा नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक की शक्तियों से सम्बन्धित नियमों का निर्माण करता है। 
मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों के बीच विभागों का वितरण भी उसी के द्वारा किया जाता है।

वैदेशिक क्षेत्र में शक्ति- भारतीय संघ का वैधानिक प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपति वैदेशिक क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व करता है। 
वह विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों के लिए राजदूतों व राजनयिक प्रतिनिधियों की नियुक्ति करता है और विदेशों के राजदूत व राजनयिक प्रतिनिधियों के प्रमाण-पत्रों को स्वीकार करता है। विदेशों से सन्धिया और समझौते भी राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं, यद्यपि इन समझौतों के सम्बन्ध में पहल मन्त्रियों के हाथ में रहती है और इसकी संसद से पुष्टि आवश्यक है।

सैनिक क्षेत्र में शक्ति- राष्ट्रपति भारत की समस्त सेनाओं का प्रधान सेनापति है, किन्तु इस अधिकार का प्रयोग वह कानून के अनुसार ही कर सकता है।
प्रतिरक्षा सेवाओं, युद्ध और शान्ति आदि के विषय में कानून बनाने की शक्ति केवल संसद को प्राप्त है। 
अतः भारत का राष्ट्रपति संसद की स्वीकृति के बिना न तो युद्ध की घोषणा कर सकता है और न ही सेनाओं का प्रयोग कर सकता है।

विधायी शक्तियां

भारत का राष्ट्रपति भारतीय संघ की कार्यपालिका का वैधानिक प्रधान तो है ही, उसे भारतीय संसद का भी अभिन्न अंग माना गया है और इस रूप में राष्ट्रपति को विधायी क्षेत्र में विभिन्न शक्तियां प्राप्त हैं।
विधायी क्षेत्र का प्रशासन : वह संसद का अधिवेशन बुलाता है और अधिवेशन समाप्ति की घोषणा करता है। वह लोकसभा को उसके निश्चित काल से पूर्व भी भंग कर सकता है। अब तक 8 बार लोकसभा को समय से पूर्व भंग किया जा चुका है। 
संसद के अधिवेशन के प्रारम्भ में राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में भाषण देता है। उसके द्वारा अन्य अवसरों पर भी संसद को सन्देश भेजने या उनकी बैठकों में भाषण देने का कार्य किया जा सकता है। राष्ट्रपति के इन भाषणों में शासन की सामान्य नीति की घोषणा की जाती है।

सदस्यों को मनोनीत करने की शक्ति

राष्ट्रपति को राज्य सभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार है जिनके द्वारा साहित्य, विज्ञान कला या अन्य किसी क्षेत्र में विशेष सेवा की गयी हो। 
वह लोकसभा में 2 आंग्ल भारतीय सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।

अध्यादेश जारी करने की शक्ति

जिस समय संसद का अधिवेशन न चल रहा हो, उस समय राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है।
इन अध्यादेशों को संसद द्वारा पास किये गये अधिनियमों के समान ही मान्यता एवं प्रभाव प्राप्त होगा। 
ये अध्यादेश संसद का अधिवेशन प्रारम्भ होने के 6 सप्ताह बाद तक लागू रहेंगे, लेकिन संसद चाहे तो उस अवधि से पूर्व भी इन अध्यादेशों को समाप्त कर सकती है।

विधेयक, जिन पर राष्ट्रपति की पूर्व अनुशंसा आवश्यक 
कुछ विधेयक ऐसे हैं, जिन्हें केवल राष्ट्रपति की अनुशंसा पर ही संसद् में लाया जा सकता है।
यथा-
  • किसी राज्य की सीमाओं अथवा नाम को परिवर्तित करने हेतु विधेयक (अनुच्छेद 3) 
  • धन विधेयक, जिसकी विस्तृत सूचना अनुच्छेद 110 में है।
  • वित्त विधेयक (प्रथम श्रेणी), जिनका संबंध यद्यपि अनुच्छेद 110 से हो, परन्तु उसमें अन्य प्रावधान भी हों। 
  • जो यद्यपि साधारण विधेयक हैं, परन्तु जिनमें भारत की संचित निधि से धनाहरण किया जाना है, ऐसे विधेयक पर विचार किया जा सकता है और विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया में इसे 'द्वितीय वाचन' कहते हैं। 
  • अनुच्छेद 31A से संबन्धित विधान। 
  • कर-आरोपण की वस्तुओं से संबंधित कोई भी विधेयक, जिसमें राज्यों की रुचि है, अथवा कृषि-आय इत्यादि को पुनः पारिभाषित करने के लिए लाया गया विधेयक।
  • राज्य विधेयक, जो व्यापार, वाणिज्य आदि की स्वतंत्राता को बाधित करते हों (अनुच्छेद 19(1)g)
  • जिन विधेयकों पर राष्ट्रपति की पूर्व अनुशंसा आवश्यक है, उनकी सांविधानिकता पर न्यायालय में कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता, भले ही विधान में किए जाने के बाद उन पर राष्ट्रपति की अनुशंसा मिले या न मिले। 
  • रिपोर्ट एवं घोषणाएं जिन्हें राष्ट्रपति संसद के समक्ष रखवाता है
  • वार्षिक वित्तीय विवरण 
  • अनुपूरक, अनुदान संबंधी विवरण 
  • सी ए जी (CAG) रिपोर्ट
  • वित्त आयोग की रिपोर्ट 
  • क्रियान्वयन रिपोर्ट 
  • संघ लोक सेवा आयोग वार्षिक प्रतिवेदन 
  • SC ST से संबंधित रिपोर्ट 
  • सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग संबंधी प्रतिवेदन की रिपोर्ट

क्षमादान की शक्तियां

राष्ट्रपति को सैन्य न्यायालय जहां तक संघ की कार्यपालिका शक्ति को विस्तार है एवं जिनमें दण्डादेश, मृत्यु दण्डादेश उन सभी मामलों में सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दण्ड को क्षमा उसका प्रविलंबन, विराम, परिहार अथवा दण्डादेश के निलंबन या लघुकरण की शक्ति है।
  • क्षमा (Pardon)- इसमें दोषी को सभी प्रकार की निर्रहताओं से मुक्त कर दिया जाता है। 
  • लघुकरण (Commutation)- दण्ड के स्वरूप को बदलकर कम करना। उदाहरण के लिए मृत्यु दण्ड का लघुकरण कर कठोर कारावास या साधारण कारावास में परिवर्तित करना। 
  • परिहार- इसका अर्थ है दण्ड की प्रकृति में परिवर्तन किए बिना उसकी अवधि कम करना। 
  • विराम- इसका अर्थ है किसी दोषी को मूल रूप में दी गई किसी सजा को किसी विशेष परिस्थिति में कम करना जैसे शारीरिक अपंगता एवं महिलाओं की गर्भावस्था आदि की अवधि के कारण। 
  • प्रविलंबन- इसका अर्थ है कि किसी दण्ड पर अस्थाई रोक लगाना। इसका उद्देश्य है कि किसी दोषी व्यक्ति की क्षमा याचना या दण्ड के स्वरूप परिवर्तन की याचना के लिए समय देना।

मृत्युदण्ड एवं राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति 

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय है कि मृत्युदंड दुर्लभ और असाधारण मामलों में ही दिया जाना चाहिए।

राष्ट्रपति और राज्यपाल की इस संदर्भ में भूमिका/ तुलना
  • संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति दी गई है।
  • इस शक्ति का प्रयोग भी, अन्य शक्तियों के समान, मंत्रि-परिषद् की सलाह पर किया जाता है।
  • सांविधानिक अध्यक्ष को शक्ति देने के पीछे यह उद्देश्य है कि न्यायालय के द्वारा यदि कोई भूल हो जाती है तो उसे सुधारन की गुंजाइश रहे और यदि दंड बहुत कठोर है तो उसे कछ कम किया जा सके या विधि के प्रवर्तन में यदि कोई भूल स्पष्ट दिखाई देती है तो उसे ठीक किया जा सके।
  • राज्य के राज्यपालों को भी अनुच्छेद 161 के अधीन क्षमादान आदि की शक्तियां दी गई हैं। राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों में अंतर है। 
  • राज्यपाल को सेना न्यायालय द्वारा दिए गए दंड की बाबत कोई शक्ति नहीं है। 
  • राज्यपाल उस विषय से संबंधित किसी अपराध की बाबत शक्ति का प्रयोग कर सकता है जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है।
  • राज्यपाल को ऐसे किसी मामले में क्षमादान की शक्ति नहीं है जिसमें मृत्युदंड दिया गया हो। यदि राज्य विधि में मृत्युदंड विहित किया जाता है तो भी क्षमादान की शक्ति राष्ट्रपति में ही होगी राज्यपाल में नहीं। 
  • किंतु यदि मृत्युदंड के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति किसी विधि द्वारा राज्यपाल को प्रदान की गई है तो राज्यपाल मृत्युदंड का निलंबन, परिहार या लघुकरण कर सकता है। ऐसी शक्तियां दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 432 और 433 द्वारा प्रदान की गई है।

क्या मृत्युदंड को समाप्त कर देना चाहिए? 
  1. भारत की जो न्यायिक व्यवस्था है उसके दर्शन के केंद्र में रूपांतरण है न कि सजा। 
  2. दंड की कठोरता से बेहतर है दंड की सुनिश्चितता। अतः दोष सिद्धि के दर को बढ़ाने के लिए सरकार को सकारात्मक कदम उठाने चाहिए। 
  3. एक वैश्विक अनुभव भी बताता है कि जिन देशों में अति कठोर दंड का प्रावधान है वहाँ अपराध दर भी अधिक है। 
  4. राजनीतिक विज्ञान के विचारकों का मानना है कि - "राज्य ने जीवन नहीं दिया तो किसी भी स्थिति में राज्य को जीवन लेने का हक नहीं है।" राज्य को हर जीवन के रक्षा के लिए कटिबद्धता दिखानी चाहिए, राज्य कभी भी प्रतिक्रियात्मक कार्यवाई नहीं कर सकता है। 
Mahatma Gandhi- "An eye for an eye can only make the whole world Blind."

ये अमानवीय है जो राज्य प्रायोजित क्रूरता है। पिछले 10 वर्षों में 100 देशों ने मृत्युदंड समाप्त किया है।
क्षमादान या दयायाचिका का प्रावधान संविधान में इसलिए किया गया ताकि जब मामले राष्ट्रपति या राज्यपाल तक पहुँचे तो एक अवसर सृजित हो, जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति रज्यपाल मामले के उन पहलुओं या आयामों पर भी विचार कर सके जिन पर सामान्य रूप से न्यायालय द्वारा विचार विचार नहीं किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान की शक्ति के प्रयोग को न्यायालय के निर्णय को बदलने, संशोधित करने, दरकिनार करने, अध्यारोपण करने के प्रयास के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि उस अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए जिससे अगर न्यायालयीय प्रक्रिया में अगर कुछ त्रुटि रह गयी है तो उसे दूर कर दिया जाना चाहिए।
संविधान विशेषज्ञ वी.एन. शुक्ल मानते है कि राष्ट्रपति की न्यायिक शक्ति के माध्यम से राष्ट्रपति के लिए अवसर सृजित होता है उस दरवाजे को खोलने के लिए जिसकी चौखट पर आकर न्याय अटक गया है। राष्ट्रपति को कभी भी दयाभाव से प्रेरित होकर अपनी न्यायिक शक्ति का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बल्कि उस निर्णय के लिए लोग, देश, नागरिकों, समाज, प्रशासनिक-न्यायिक-वैधानिक तंत्र पर तात्कालिक एवं दीर्घकालिक प्रभावों के समग्र विश्लेषण एवं आकलन के उपरांत ही करना चाहिए।

मृत्युदंड के बाद दया याचिका पहुँची तो प्रक्रिया 
यदि मृत्युदंड के संदर्भ में दया याचिका राष्ट्रपति के पास पहुँचती है तो राष्ट्रपति किस प्रक्रिया के तहत उस याचिका पर निर्णय लेंगे इस संदर्भ में भारतीय संविधन पूरी तरह मौन हैं, परंतु संविधान विशेषज्ञों एवं राजनैतिक विज्ञान के विचारकों का यह मानना है कि भारत ने ब्रिटिश वेस्ट मिनिस्टीरियल संसदीय कार्यव्यवस्था या कार्यप्रणालियों को अपनाया है जहाँ इस प्रकार की शक्तियों को ब्रिटिश ताज में निहित किया गया है और ब्रिटिश ताज द्वारा इन शक्तियों का प्रयोग आंतरिक मंत्री के सलाह पर किया जाता है। अतः भारत के राष्ट्रपति को एक आदर्शवादी परिस्थिति में अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग गृह मंत्रालय की सलाह पर करना चाहिए और गृह मंत्री को भारत के संघीय ढाँचे को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति को सलाह देने के पूर्व संबंधित राज्यों के इस मामले में विचार को जान लेना चाहिए।
 2014 में “शत्रुधन चौहान Vs भारत संघ वाद" में सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड के संदर्भ में राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति से जुड़े मामले में एक ऐतिहासिक परंतु आश्चर्यचकित करने वाला निर्णय दिया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतिम चरण में हस्तक्षेप करते हुए 15 अभियुक्तों की मृत्युदंड को आजीवन कारावस में तब्दील कर राहत दिया, जब राष्ट्रपति ने उन अभियुक्तों की मृत्युदंड के संदर्भ में दी गई दया याचिका को खारिज कर दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय ने 15 अभियुक्तों से जुड़े इस मामले में मृत्युदंड के संदर्भ में दयायाचिका खारिज होने में होने वाला अतार्किक विलंब (Inordinate Delay) को आधार बनाया। सर्वोच्च न्यायालय का मानना था कि “मौत के इंतजार से ज्यादा दुखद पीड़ादायक अमानवीय कुछ भी नहीं हो सकता है।" सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में होने वाले अतार्किक विलंब को क्रूरता, प्रताड़ना एवं अमानवीय श्रेणी में रखते हुए इस निर्णय को सुनाया और कहा कि असंवदेनशील कार्यपालिका ने अपनी असंवेदनशीलता एवं अनिर्णय के कारण इन अभियुक्तों को अनेकों मौत की नींद सुला चुकी है। अतः इनकी अब राहत की अपेक्षा जायज है और इन्हें राहत दिया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में पुनः एक बाद स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति की क्षमादान की शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन के दाएरे में है। अतः इस मामले से राष्ट्रपति को बिना अतार्किक विलंब के निर्णय लेना चाहिए एवं दयायाचिका खारिज होने एवं अभियुक्त को फाँसी पर लटकाए जाने के विपरीत न्यूनतम 15 दिन के अंतराल पर लटकाए जाने चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर मामले का न्यायिक पुनर्विलोकन हो सके। 
मारूराम Vs भारत संघ वाद में 5 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने यह निर्णय सुनाया था कि राष्ट्रपति को मृत्युदंड के संदर्भ में दयायाचिका पर निर्णय केंद्रीय मंत्रिपरिषद् की सलाह पर लेना चाहिए।
जनवरी 2017 में एक अभूतपूर्व निर्णय देखने को मिला जिसके तहत राष्ट्रपति ने बिहार के बारानसंहार से जुड़े चार अभियुक्तों के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में तब्दील करके राहत दी जिसके दौरान राष्ट्रपति द्वारा ग्रहमंत्री के विचार को दरकिनार किया गया। बहुत सारे संविधान विशेषज्ञों ने राष्ट्रपति के इस कार्यवायी को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मारूराम वाद में दिए गए निर्णय के विरूद्ध माना। हालांकि इसे मारूराम वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के विरूद्ध न मानकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शत्रुधन चौहान वाद में दिए गए निर्णय के अनुरूप देखा जाना चाहिए।

20वें विधि आयोग की 262वीं रिपोर्ट 
  • पांच दशक तक सांविधिक तौर पर मृत्युदंड को बनाए रखने की सिफारिश करने के बाद 31 अगस्त 2015 को विधि आयोग ने 'द डेथ पेनाल्टी' शीर्षक रिपोर्ट में सिफारिश की कि मृत्युदंड केवल आतंकवाद से जुड़े अपराध और देश के खिलाफ जंग छेड़ने के जुर्म के लिए ही दिया जाना चाहिए। 
  • आयोग ने दोषियों को मौत की सजा देने में 'दुर्लभतम से दुर्लभ' सिद्धांत पर भी प्रश्न किया। कई लंबी और विस्तृत चर्चाओं के बाद विधि आयोग की राय है कि मौत की सजा 'दुर्लभतम से दुर्लभ' के सीमित माहौल के भीतर भी संवैधानिक तौर पर टिकने लायक नहीं है। 
  • ध्यातव्य है कि 20 वें विधि आयोग का गठन केन्द्र सरकार द्वारा अजित प्रकाश शाह की अध्यक्षता में जनवरी 2013 में किया था।

वीटो शक्ति 

अनुच्छेद 111 के अनुसार संसद द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के बाद ही कानून बनता है।
जब विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है तो वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है या पुनर्विचार को लौटा सकता है या विधेयक पर अपनी स्वीकृति को सुरक्षित रख सकता है। 
इस प्रकार राष्ट्रपति के पास वीटो की शक्तियां होती हैं। वीटो की शक्ति राष्ट्रपति को किसी असंवैधानिक विधेयक को रोकने तथा संसद की जल्दबाजी या सरकार के राजनीतिक लाभ को रोकने हेतु प्राप्त है।

वीटों की शक्तियों को चार प्रकार में बांट सकते हैं : 
  1. आत्यंतिक वीटो 
  2. निलंबनकारी वीटो 
  3. पॉकेट वीटो
  4. विशेषित वीटो
  1. आत्यंतिक वीटो : इस वीटो के अंतर्गत विधायिका द्वारा पारित विधेयक पर राष्ट्रपति अपनी अनुमति रोक देता है। इस प्रकार विधेयक समाप्त हो जाता है और कानून का रूप नहीं ले पाता। 1954 में, राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पीईपीएसय स्वीकृति विधेयक पर अपना निर्णय रोक कर रखा था, 1991 में राष्ट्रपति डा. आर. वेंकटरमण द्वारा संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते व पेंशन संशोधन विधेयक को भी रोककर रखा गया था।
  2. निलंबनकारी वीटो : राष्ट्रपति इस वीटो का प्रयोग करके किसी विधेयक को संसद के पुनर्विचार हेतु लौटाता है। लेकिन यदि संसद उस विधेयक को संशोधन करके या वैसा ही पुनः भेजती है तो राष्ट्रपति को अनुमति देना बाध्यकारी है। लेकिन धन विधेयक के मामले में राष्ट्रपति इसका प्रयोग नहीं कर सकता।
  3. पॉकेट वीटो : संविधान में राष्ट्रपति को विधेयक पर सहमति देने की कोई समय सीमा तय नहीं है और इस शक्ति का प्रयोग करके राष्ट्रपति विधेयक पर न तो सहमति देता है और न ही लौटाता है लेकिन अनिश्चित काल के लिए विधेयक को लंबित कर देता है। 1986 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने भारतीय डाक संशोधन अधिनियम पर इस वीटो का प्रयोग किया था। 
  4. विशेषित वीटो : भारत के राष्ट्रपति को विशेषित वीटो की शक्ति प्राप्त नहीं है। इस वीटो से तात्पर्य वीटो को विधायिका द्वारा विशेष बहुमत से निरस्त करना है।

वित्तीय शक्तियां 

राष्ट्रपति को व्यापक वित्तीय अधिकार प्राप्त हैं। राष्ट्रपति की सिारिश के बिना कोई धन विधेयक संसद में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 112(1) के अनुसार वह संसद के सामने संघ सरकार का बजट रखवाता है। अनुच्छेद 267 के अनुसार आकस्मिक निधि उसके अधीन होती है और केवल वही इस निधि से अग्रिम भुगतान कर सकता है ताकि संसद की स्वीकृति को लंबित करते हुए अदृश्य खर्चे की मांग को पूरा किया जा सके।
राष्ट्रपति संघ और राज्यों में करों के बंटवारे के लिए वित्त आयोग की नियुक्ति करता है।

न्यायिक शक्तियां 

संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति को कुछ न्यायिक शक्तियां प्राप्त हैं। यदि किसी व्यक्ति को सामान्य न्यायालय द्वारा कोर्ट मार्शल के तहत सजा मिलती है तो राष्ट्रपति उस व्यक्ति को क्षमादान दे सकता है। 
वह उसको मिली सजा की मात्रा या अवधि या दोनों को भी बदल सकता है। यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता है या ऐसे मामले में सजा दी गई है जो संघ की कार्यपालिका शक्तियों के अंतर्गत आते हैं, तो राष्ट्रपति उसे सजा से मुक्ति दे सकता है।
इस प्रकार राष्ट्रपति दंड का क्षमादान, लघुकरण, परिहार, विराम व प्रविलम्ब कर सकता है। हालांकि व्यवहार में राष्ट्रपति इन सभी अधिकारों का प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श से ही करता है।

कूटनीतिक शक्तियां 

राष्ट्रपति विदेशों में देश का प्रतिनिधित्व करता है। वह राजदूतों की नियुक्ति करता है।
वह विदेशी राजनयिक प्रतिनिधियों के प्रमाण पत्रों को स्वीकार करता है। अंतर्राष्ट्रीय संधियां, समझौते इत्यादि राष्ट्रपति के नाम से ही किए जाते हैं। हालांकि व्यवहार में यह संसद की स्वीकृति के बाद ही लागू होते हैं।
राज्यों से सम्बन्धित अधिकार 
राष्ट्रपति न केवल केन्द्रीय कार्यपालिका वरन् समस्त भारतीय संघ का प्रधान है और राष्ट्रपति को भारतीय संघ के 28 राज्यों और 7 संघीय क्षेत्रों पर निम्नलिखित महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं: 
  • प्रथम, राष्ट्रपति को राज्यों के व्यवस्थापन के सम्बन्ध में शक्ति प्राप्त है। राज्यपाल को अधिकार है कि वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए किसी विधेयक को सुरक्षित रख ले। संविधान के अनुसार यदि राज्यों का विधानमण्डल कोई ऐसा कानून बनाता है जिसका सम्बन्ध उच्च न्यायालय के अधिकार कम करने से है या उन वस्तुओं पर कर (tax) लगाने से है जो संसद द्वारा जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक घोषित कर दी गयी हों, तो ऐसा विधेयक राज्यपाल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखना ही होगा। राष्ट्रपति इन विधेयकों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है या विधानमण्डल को पुनः विचार करने के लिए भेज सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ही विधानमंडल में प्रस्तुत किये जा सकते है।
  • द्वितीय, राष्ट्रीय को राज्यों के वित्त के संबंध में कुछ अधिकार प्राप्त हैं। यदि संसद कोई ऐसा कर लगाने जा रही है जिससे राज्य के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं तो संसद को राष्ट्रपति से इसकी स्वीकृति लेना आवश्यक है। 
  • तृतीय, राष्ट्रपति किसी राज्य सरकार को ऐसे विषय से संबंधित कुछ कार्य सौंप सकता है जो साधारण रूप से संघ की कार्यपालिका के हों। 
इन सबके अतिरिक्त राष्ट्रपति राज्यों की कार्यपालिका के प्रधान (राज्यपालों) की नियुक्ति करता है और ये राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रति विश्वासी रहकर ही अपने पदों पर कार्य करते हैं।

आपातकालीन शक्तियां 

भारतीय संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति को आपातकालीन शक्तियां सौंपी गई हैं। यह शक्तियां देश में उत्पन्न होने वाली विभिन्न । संकटकालीन स्थितियों में राष्ट्र का प्रशासन चलाने में सहायक होती हैं। संविधान में तीन प्रकार के आपातकालीन प्रावधानों का वर्णन किया गया है - 
  1. अनुच्छेद 352 के अनुसार युद्ध या वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न आपात स्थिति से निपटने हेतु राष्ट्रीय आपात की घोषणा। 
  2. अनुच्छेद 356 के अनुसार राज्यों में संवैधानिक तंत्र के किल होने के कारण राष्ट्रपति शासन की घोषणा। 
  3. वित्तीय आपात की घोषणा (अनुच्छेद 360)
अभी तक देश में वित्तीय आपात की उद्घोषणा नहीं की गई है। केवल राष्ट्रीय आपात एवं राष्ट्रपति शासन की घोषणाएं की गई हैं। इन आपातकालीन प्रावधानों के उपयोग के समय और तरीकों का उल्लेख भारतीय संविधान में किया गया है कर भी समय-समय पर इन शक्तियों के दुरुपयोग के मामले उठते रहे हैं। आपात शक्तियों के प्रयोग में राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुरूप कार्य करता है।

राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद-352) 
मूल संविधान के अनुच्छेद 352 में व्यवस्था थी कि यदि राष्ट्रपति को अनुभव हो कि युद्ध, बाहरी आक्रमण या आन्तरिक अशान्ति के कारण भारत या उसके किसी भाग की शान्ति या व्यवस्था नष्ट होने का भय है तो यथार्थ रूप में इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने पर या इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने की आशंका होने पर राष्ट्रपति संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर सकता था।
संसद की स्वीकृति के बिना भी यह दो माह तक लागू रहती और संसद से स्वीकृत हो जाने पर शासन जब तक उसे लागू रखना चाहता, लागू रख सकता था। 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा निम्न व्यवस्थाएं की गयी हैं, जिससे शासक वर्ग के द्वारा इन संकटकालीन शक्तियों का दुरूपयोग न किया जा सके:
  1. प्रथम, राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल तभी घोषित किया जा सकेगा, जब मन्त्रिमण्डल लिखित रूप से राष्ट्रपति को ऐसा परामर्श दे। 
  2. द्वितीय, इस प्रकार का आपातकाल अब युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होने या इस प्रकार की आशंका होने पर ही घोषित किया जा सकेगा। केवल आन्तरिक अशान्ति के नाम पर आपातकाल घोषित नहीं किया जा सकता। 
  3. तृतीय, राष्ट्रपति द्वारा घोषणा किए जाने के एक माह के अन्दर संसद के विशेष बहुमत (पृथक्-पृथक संसद के दोनों सदनों के कुल बहुमत एवं उपस्थिति और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत) से इसकी स्वीकृति आवश्यक होगी और लागू रखने के लिए प्रति 6 माह बाद संसद की स्वीकृति आवश्यक होगी। 
  4. चतुर्थ, लोकसभा में उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से आपातकाल की घोषणा समाप्त की जा सकती है। आपातकाल पर विचार हेतु लोकसभा की बैठक लोकसभा के 1/10 सदस्यों की मांग पर अनिवार्य रूप से बुलायी जाएगी।
44वें संविधान संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में किए गए 38वें संवैधानिक संशोधन को भी रद्द कर दिया गया है, जिनमें व्यवस्था की गयी थी कि राष्ट्रपति द्वारा 352वें अनुच्छेद के अन्तर्गत की गयी संकटकालीन घोषणा को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। इस प्रकार अब राष्ट्रपति द्वारा लागू की गयी आपातकालीन घोषणा को न्याय-योग्य (Justificiable) बना दिया गया है अर्थात् अब आपातकालीन घोषणा को सम्बन्धित न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
अब यह व्यवस्था है कि अनुच्छेद 352 के आधीन संकट काल की घोषणा पूरे देश के लिए की जा सकती है. अथवा देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए की जा सकती है।

घोषणा के संवैधानिक प्रभाव : उपर्युक्त घोषणा के संवैधानिक प्रभाव ये होंगे।
इस घोषणा के लागू रहने के समय 19वें अनुच्छेद द्वारा नागरिकों को प्रदत्त 6 स्वतन्त्रताएं (44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सात स्वतन्त्रताओं में छठी स्वतन्त्रता सम्पत्ति की स्वतन्त्रता को समाप्त कर दिया गया है) स्थगित हो जाएंगी और राज्य के द्वारा इन स्वतन्त्रताओं को प्रतिबन्धित या स्थगित करने वाले कानूनों का निर्माण किया जा सकेगा। 
44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा व्यवस्था की गयी है कि यदि आपातकाल युद्ध या बाहरी आक्रमण के कारण लागू किया गया है तब तो अनुच्छेद 19 द्वारा की गयी स्वतन्त्रताओं को स्थगित या समाप्त किया जा सकता है, लेकिन यदि आपात स्थिति सशस्त्र विद्रोह के कारण लागू की गयी है, तो अनुच्छेद 19 की व्यवस्थाओं को स्थगित नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 19 की व्यवस्थाओं के विरूद्ध जो कानून निर्मित किए जाएंगे, उन कानूनों के साथ यह उल्लेख करना अनिवार्य है कि वह कानून आपात स्थिति की घोषणा के कारण बनाए गए हैं। आपात स्थिति की समाप्ति के पश्चात् ऐसे कानून तत्काल ही समाप्त हो जाएंगे। 
मूल संविधान में व्यवस्था थी कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुच्छेद 32 में वर्णित संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी स्थगित कर सकता है अर्थात् संकटकाल में नागरिक अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण नहीं ले सकेंगे।
व्यवहार : अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत अब तक तीन बार संकटकाल की घोषणा की गयी है-
1962 में भारत पर चीन के और 1971 में भारत पर पाकिस्तान के आक्रमण की स्थिति में तथा जून 1975 में। 
26 अक्टूबर, 1962 को नेफा तथा लद्दाख क्षेत्र में चीन के आक्रमण के फलस्वरूप राष्ट्रपति ने संकटकाल की घोषणा की। राष्ट्रपति ने अपनी उद्घोषणा में कहा कि "बाहरी आक्रमण के कारण संकटकाल की स्थिति विद्यमान है।" 14 नवम्बर 1962 को व्यक्तिगत समानता से सम्बन्धित अनुच्छेद-14 को स्थगित कर दिया गया। इसी दिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए न्यायालय की शरण लेने के अधिकार को भी स्थगित कर दिया गया। 26 अक्टूबर, 1962 को ही 'भारत प्रतिरक्षा अध्यादेश' भी जारी किया गया। भारत प्रतिरक्षा नियम, नागरिक प्रतिरक्षा सेवा नियम, भारत प्रतिरक्षा (सम्पत्ति अर्जन एवं अधिकरण) नियम, आदि भी इसी अधिनियम के आधार पर बनाए गए। 1962 में जारी
की गयी यह संकटकालीन घोषणा 1968 तक जारी रही। 
इसी प्रकार दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान द्वारा आक्रमण किए जाने पर राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत दूसरी बार संकट काल की घोषणा की गयी।

आपातकालीन घोषणा (26 जून, 1975) 
1971 में घोषित आपातकाल तो लाग था ही, इसके साथ ही जून 1975 में अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत ही एक नवीन आपातकाल की घोषणा की गयी। 
  • 1971 में आपातकाल बाहरी आक्रमण से उत्पन्न स्थिति के कारण घोषित किया गया था, 1975 का आपातकाल आन्तरिक अव्यवस्था उत्पन्न होने की आशंका के नाम पर घोषित किया गया। 
  • 1975 के इस आपातकाल में आपातकालीन प्रावधानों को जितनी अधिक सीमा तक लागू किया गया, उसके पूर्व ये प्रावधान कभी भी इतनी सीमा तक लागू नहीं किए गए थे।
  • राष्ट्रपति ने घोषणा की कि अनुच्छेद 14, 19 और 22 के अन्तर्गत न्यायालयों में अपील करने के अधिकार को आपात स्थिति की अवधि तक स्थगित किया जाता है। यह आज्ञा जम्मू-कश्मीर को छोड़कर समस्त भारत पर लागू होगी।
  • 1962 और 1971 में घोषित आपातकाल तो औचित्यपूर्ण था, लेकिन 1975 में घोषित आपातकाल के सम्बन्ध में यह पूर्णतया स्पष्ट हो चुका है कि इसका एकमात्र उद्देश्य तत्कालीन शासक वर्ग द्वारा अपने आपको सत्ता में बनाए रखना ही था।
मार्च 1977 के लोकसभा चुनाव 'आपात की घोषणा' के प्रश्न पर केन्द्रित थे और जनता ने स्पष्ट रूप से आपात की घोषणा को अस्वीकार कर दिया। अत: जून 1975 में घोषित आपातकाल 21 मार्च, 1977 को समाप्त कर दिया गया और 1971 से जारी आपातकाल 22 मार्च, 1977 को समाप्त कर दिया गया और 1971 से जारी आपातकाल 22 मार्च, 1977 को नयी सरकार द्वारा समाप्त कर दिया गया। 31 मार्च, 1977 को गृहमन्त्री द्वारा संसद में यह रहस्योद्घाटन किया गया कि जून 1975 में आपातकालीन स्थिति मन्त्रिमण्डल के अनुमोदन के पूर्व ही लागू कर दी गयी थी।

राष्ट्रपति शासन 

अनुच्छेद 355 के अनुसार संघ का यह कर्त्तव्य है कि वह निश्चित करे कि प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान के उपबंधों के अनुसार चलती रहे।
इस कर्त्तव्य के अनुपालन के लिए राष्ट्रपति अनुच्छेद 356 के तहत किसी राज्य के राज्यपाल से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है तो राष्ट्रपति, राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा कर सकता है।
यह उद्घोषणा अनुच्छेद 365 के अनुसार यदि कोई राज्य संघ द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने में असफल होता है तब भी की जा सकती है, जिसमें : 
  1. राष्ट्रपति राज्य की कार्यपालिका के सभी या कुछ कृत्यों को अपने हाथ में ले सकेगा लेकिन उच्च न्यायालय के कृत्य नहीं लिए जाएंगे। 
  2. विधानमंडल की शक्तियों का प्रयोग संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन किया जा सकेगा।
जब राष्ट्रपति शासन के तहत राज्य के विधानमंडल को निलम्बित कर दिया जाता है तब संसद राज्य के विधान बनाने की शक्ति राष्ट्रपति या किसी विनिदिष्ट प्राधिकारी को कर सकती है। यदि लोकसभा सत्र में नहीं है तब राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि से व्यय प्राधिकृत कर सकेगा और अध्यादेश प्रख्यापित कर सकेगा (अनुच्छेद 357)। 
ऐसी उद्घोषणा की अवधि सामान्यतः दो माह है, लेकिन यदि उद्घोषणा के समय या दो माह में लोकसभा का विघटन हो जाता है तो उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन की तारीख से 30 दिन की समाप्ति पर प्रवृत्त नहीं रहेगी जब तक कि राज्यसभा ने अनुमोदन न कर दिया हो। इस अवधि को संसद एक बार में 6 माह तक बढ़ा सकती है जिसका विस्तार 3 वर्ष तक किया जा सकता है। लेकिन यदि यह अवधि 1 वर्ष से आगे बढ़ाई जाती है तो 44वें संविधान संशोधन द्वारा दो आधार रखे गए : 
  1. भारत या पूरे राज्य या उसके किसी भाग में आपातकाल लागू है।
  2. निर्वाचन आयोग ने चुनाव करने की असमर्थता प्रकट की है। अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा का न्यायिक पुनर्विलोकन हो सकता है। यदि न्यायालय यह अभिनिर्धारित करता है कि उद्घोषणा अविधिमान्य है तो इस बात के होते हुए भी कि संसद ने इसका अनुमोदन कर दिया है, न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि विघटित विधानसभा और मंत्रिपरिषद पुनः जीवित हो जाएगी।

वित्तीय आपात (अनुच्छेद-360) 

अनुच्छेद 360 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गयी हैं, जिनसे भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। ऐसी घोषणा के लिए भी वही अवधि निर्धारित है जो प्रथम प्रकार के संकट की घोषणा के लिए निर्धारित है।

आर्थिक संकट की घोषणा के प्रभावः इस घोषणा के निम्नलिखित संवैधानिक प्रभाव होंगे।
  • संकट की अवधि में राष्ट्रपति को अधिकार होगा कि वह आर्थिक दृष्टिकोण से किसी भी राज्य सरकार को आदेश दे सकता है। 
  • संघ तथा राज्य सरकारों के अधिकारियों के वेतनों में, जिनमें उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी शामिल होंगे, आवश्यक कमी की जा सकती है। 
  • राष्ट्रपति राज्य सरकारों को इस बात के लिए बाध्य कर सकता है कि राज्य के समस्त वित्त विधेयक उसकी स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए जाये। 
  • संघ की कार्यकारिणी राज्य की कार्यकारिणी को शासन सम्बन्धी आवश्यक आदेश दे सकती है। 
  • राष्ट्रपति केन्द्र तथा राज्यों में धन सम्बन्धी बंटवारे के प्रावधानों में आवश्यक संशोधन कर सकता है। 
देश में आर्थिक संकट लागू करने का अवसर अभी तक नहीं आया है।

कार्यवाहक राष्ट्रपति 
जब राष्ट्रपति का पद मृत्यु, इस्तीफा या महाभियोग आदि के कारण कारण रिक्त हो गया हो तो उपराष्ट्रपति या उसकी अनुपस्थिति में भारत का मुख्य न्यायाधीश या उसकी अनुपस्थिति के वरिष्ठतय न्यायाधीश में से कोई कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा। कार्यवाहक राष्ट्रपति भी राष्ट्रपति को प्राप्त सभी शक्तियों एवं विशेषाधिकारों का प्रयोग करेगा और वह ऐसी उपलब्धियों, भत्तों एवं विशेषाधिकारों का अधिकारी होगा जो राष्ट्रपति के रूप में प्राप्त होती है।

राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति 
भारतीय राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति एक बहुत अधिक विवादपूर्ण प्रश्न है और इस सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो धारणाओं का प्रतिपादन किया जाता है।
  • प्रथम धारणा के अनुसार राष्ट्रपति एक वास्तविक प्रधान है जिसके द्वारा मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के बिना या परामर्श के विरूद्ध भी कार्य किया जा सकता है।
  • द्वितीय धारणा के अनुसार राष्ट्रपति एक संवैधानिक प्रधान मात्र है, जिसके द्वारा प्रत्येक कार्य मन्त्रिपरिषद् के परामर्श के अनुसार ही किया जायेगा।

राष्ट्रपति : एक वास्तविक प्रधान 
प्रथम धारणा के विचारकों का कथन है कि संविधान द्वारा राष्ट्रपति को जो शक्तियां प्रदान की गयी हैं, व्यवहार में वह स्वयं अपने विवेक के आधार पर इन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। 
अनुच्छेद 53 (1) में कहा गया है कि "संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी तथा वह इसका प्रयोग इस संविधान के अनुसार या तो स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के द्वारा करेगा।"
इसी प्रकार अनुच्छेद 74(1) में कहा गया है कि "राष्ट्रपति को अपने कार्यों का सम्पादन करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा।" इन अनुच्छेदों के आधार पर प्रथम श्रेणी के विचारकों का कथन है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं होगा और यदि राष्ट्रपति चाहे तो वास्तविक शासक बन सकता है। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का भी यह मत था कि अनुच्छेद 74(1) यह नहीं कहता है कि राष्ट्रपति को मन्त्रियों की सलाह माननी ही होगी।"

राष्ट्रपति: मात्र एक संवैधानिक प्रधान 
दूसरी ओर अनेक लेखक और विद्वान हैं जो यह मानते हैं कि यदि संविधान राष्ट्रपति को स्पष्ट शब्दों में मन्त्रियों का परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं करता किन्तु फिर भी संविधान में प्रयुक्त वाक्यांश से स्पष्ट है कि उसे ऐसा करना ही होगा। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने इस सम्बन्ध में कहा था, "राष्ट्रपति की वही स्थिति है जो कि ब्रिटिश संविधान में सम्राट की है। वह राष्ट्र का प्रधान है, कार्यपालिका का नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, उसका नेतृत्व नहीं। वह साधारणतया मन्त्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य होगा। वह न तो उनके परामर्श के विरूद्ध कुछ कर सकता है और न उनके परामर्श के बिना ही।"

42वें संवैधानिक संशोधन के अनुसार राष्ट्रपति की स्थिति- संविधान निर्माता चाहते थे कि भारत का राष्ट्रपति केवल एक वैधानिक प्रधान हो, वास्तविक प्रधान नहीं लेकिन उन्होंने सोचा कि इस बात को कानून द्वारा निश्चित किये जाने के बजाय परम्परा द्वारा निश्चित होने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। परम्पराएं राष्ट्रपति को एक वैधानिक प्रधान की ही भूमिका दे रही थीं, लेकिन इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की अस्पष्टता को दूर करने के लिए 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान के पुराने अनुच्छेद 74 की धारा 1 के स्थान पर यह व्यवस्था की गयी। "राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक मन्त्रिपरिषद् होगी और राष्ट्रपति अपने कार्यों के सम्पादन में मन्त्रिपरिषद् से प्राप्त परामर्श के आधार पर कार्य करेगा।"

44वां संवैधानिक संशोधन और राष्ट्रपति की स्थिति : 
42वें संवैधानिक संशोधन के उपर्युक्त शब्दों के स्थान पर 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) में इन शब्दों को अपनाया गया है: "राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् से जो परामर्श प्राप्त होगा, उसके सम्बन्ध में राष्ट्रपति को अधिकार होगा कि वह मन्त्रिपरिषद् को इस परामर्श पर पुनर्विचार करने के लिए कहे, लेकिन पुनर्विचार के बाद मन्त्रिपरिषद् से राष्ट्रपति को जो परामर्श प्राप्त होगा, राष्ट्रपति उस परामर्श के अनुसार कार्य करेंगे।"
44वें संवैधानिक संशोधन से प्राप्त शक्ति के उदाहरण-
  • प्रथम, अक्टूबर 1997 में जब केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने राष्ट्रपति को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने का परामर्श
  • द्वितीय, सितम्बर 1998 में जब बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने का परामर्श दिया। राष्ट्रपति ने इन दोनों ही अवसरों पर मन्त्रिमण्डल को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिये कहा और मन्त्रिमण्डल ने अपने परामर्श पर पुनर्विचार करते हुए दोनों ही अवसरों पर उसे वापस ले लिया। 
अगस्त 2002 में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने चुनाव सुधारों से सम्बन्धित अध्यादेश के कुछ अंशों पर स्पष्टीकरण मांगते हुए इसे सरकार को पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था, लेकिन मंत्रिमण्डल ने अध्यादेश को इसके मूल रूप में राष्ट्रपति के पास वापस भेजने का फैसला किया।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सामान्यतया राष्ट्रपति एक संवैधानिक अध्यक्ष ही है और अत्यन्त विशेष परिस्थितियों में ही उनके द्वारा किन्हीं मामलों में अपने विवेक का प्रयोग किया जा सकता है।

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