भारत की जलवायु - भारत की जलवायु कैसी है? | bharat ki jalvayu

भारत की जलवायु

भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है। एशिया में इस प्रकार की जलवायु मुख्यतः दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में पाई जाती है। सामान्य प्रतिरूप में लगभग एकरूपता होते हुए भी देश की जलवायु-अवस्था में स्पष्ट प्रादेशिक भिन्नताएँ हैं। आइए, हम दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व तापमान एवं वर्षण को लेकर देखें कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर तथा एक मौसम से दूसरे मौसम में इनमें किस प्रकार की भिन्नता है। bharat ki jalvayu kaisi hai
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गर्मियों में, राजस्थान के मरुस्थल में कुछ स्थानों का तापमान लगभग 50° से. तक पहुँच जाता है, जबकि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में तापमान लगभग 20° से. रहता है। सर्दी की रात में, जम्मू-कश्मीर में द्रास का तापमान -45° से. तक हो सकता है, जबकि थिरुवनंथपुरम् में यह 22° से हो सकता है।
क्या आप जानते हैं-
  • कुछ क्षेत्रों में रात एवं दिन के तापमान में बहुत अधिक अंतर होता है। थार के मरुस्थल में दिन का तापमान 50° से. तक हो सकता है, जबकि उसी रात यह नीचे गिर कर 15 से तक पहुँच सकता है। दूसरी ओर, केरल या अंडमान एवं निकोबार में दिन तथा रात का तापमान लगभग समान ही रहता है।
अब वर्षण की ओर ध्यान दें। वर्षण के रूप तथा प्रकार में ही नहीं, बल्कि इसकी मात्रा एवं ऋतु के अनुसार वितरण में भी भिन्नता होती है। हिमालय में वर्षण अधिकतर हिम के रूप में होता है तथा देश के शेष भाग में यह वर्षा के रूप में होता है। वार्षिक वर्षण में भिन्नता मेघालय में 400 से.मी से लेकर लद्दाख एवं पश्चिमी राजस्थान में यह 10 सेमी से भी कम होती है। देश के अधिकतर भागों में जन से सितंबर तक वर्षा होती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों जैसे तमिलनाडु तट पर अधिकतर वर्षा अक्टूबर एवं नवंबर में होती है।
सामान्य रूप से तटीय क्षेत्रों के तापमान में अंतर कम होता है। देश के आंतरिक भागों में मौसमी या ऋतुनिष्ठ अंतर अधिक होता है। उत्तरी मैदान में वर्षा की मात्रा सामान्यतः पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। ये भिन्नताएँ लोगों के जीवन में विविधता लाती हैं, जो उनके भोजन, वस्त्र और घरों के प्रकार में दिखती हैं।

भारत में जलवायु संबंधी विभिन्नतायें

आपने भारत की आकृति, आकार, स्थिति तथा अक्षांशीय विस्तार का अध्ययन किया है। साथ ही आपने भारत के तीव्र भिन्नता वाले भू-आकृतिक लक्षणों का भी अध्ययन किया है। इससे जलवायु दशाओं में प्रादेशिक विविधतायें पैदा हो गयी हैं। तापमान, वर्षा तथा विभिन्न ऋतुओं के प्रारम्भ व उनकी अवधि के संबंध में दक्षिणी भारत की जलवायु दशायें उत्तरी भारत की जलवायु दशाओं से काफी भिन्न हैं।
आइये, इन जलवायु संबंधी विभिन्नताओं को करीब से देखें । जून के महीने में उत्तर पश्चिमी मैदानों में 45° से. तापमान महसूस किया जाता है; जबकि राजस्थान के मरूस्थलीय भागों में दिन का तापमान 55° से. तक हो जाता है। वहीं, कश्मीर में गुलमर्ग तथा पहलगांव में ये मुश्किल से 20° से. तक ही पाया जाता है। इसी प्रकार, दिसम्बर के महीने में, कारगिल या द्रास (जम्मू और कश्मीर) में रहने वाले लोग चुभन भरी ठण्ड का अनुभव करते हैं, क्योंकि यहां रात के तापमान–40° से. तक गिर जाता है, जबकि थिरुवनन्तपुरम के निवासी 27° से. तापमान का आनन्द उठाते हैं।
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चित्र. 1
तटीय क्षेत्रों से देश के आंतरिक भागों की ओर जाने पर ताप परिसर में क्रमिक वृद्धि होती है। फलस्वरूप, कोंकण तथा मालाबार तटों के साथ रहने वाले लोग ऋतुओं में स्पष्ट परिवर्तन का उस रूप में अनुभव नहीं करते, जिस रूप में भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में रहने वाले लोग अनुभव करते हैं क्योंकि यहां न तो अत्यधिक ठण्ड पड़ती है और न ही अत्यधिक गर्मी।
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चित्र. 2
वर्षा के वितरण में भी उतनी ही अधिक विभिन्नतायें दिखाई पड़ती हैं। मेघालय में स्थित चेरापूंजी में वार्षिक वर्षा लगभग 1080 से.मी. होती है जबकि राजस्थान के मरुस्थल में स्थित जैसलमेर में वार्षिक वर्षा केवल 20 से.मी. ही होती है। उत्तर-पूर्वी भाग तथा उड़ीसा और प. बंगाल के तटीय मैदानों में जुलाई व अगस्त के महीनों में भारी वर्षा होती है जबकि तमिलनाडु के कोरोमण्डल तट पर इन महीनों में बहुत कम वर्षा होती है।
चित्र. 1 तथा चित्र. 2 जो दक्षिण पश्चिम मानसून की क्रमशः आगमन और पीछे हटने की तिथियों को दिखाते हैं, को ध्यान से देखिये। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि भारत के विभिन्न भागों में वर्षा ऋतु की अवधि भिन्न है। आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि उत्तर-पश्चिमी भारत में वर्षा ऋतु की अवधि सबसे छोटी है तथा उत्तर-पूर्वी भारत में यह सबसे लम्बी है।
देश की आकृति, आकार, स्थिति, अक्षांशीय विस्तार तथा उसके भिन्न भू-लक्षणों के कारण भारत के विभिन्न भागों में भिन्न जलवायु दशायें पायी जाती हैं।
जलवायु की विविधता तापमान, वर्षा की मात्रा, विभिन्न ऋतुओं के प्रारम्भ होने व उनकी अवधि में परिलक्षित होती है।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक नीचे दिये गये हैं।

(क) स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार
भारत मोटे तौर पर 6° उ. से 30° उत्तर अक्षांशों के मध्य स्थित है। कर्क वृत्त देश के मध्य से होकर जाता है। विषुवत् वृत्त के पास होने के कारण दक्षिणी भागों में वर्ष भर उच्च तापमान पाये जाते हैं। दूसरी ओर उत्तरी भाग गर्म शीतोष्ण पेटी में स्थित है। अतः यहां खासकर शीतकाल में निम्न तापमान पाये जाते हैं।

(ख) समुद्र से दूरी
प्रायद्वीपीय भारत अरब सागर, हिन्द महासागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है। अतः भारत के तटीय प्रदेशों की जलवायु सम या अनुसमुद्री है। इसके विपरीत जो प्रदेश देश के आंतरिक भागों में स्थित हैं, वे समुद्री प्रभाव से अछूते हैं। फलस्वरूप उन प्रदेशों की जलवायु अति विषम या महाद्वीपीय है।

(ग) उत्तर पर्वतीय श्रेणियाँ
हिमालय व उसके साथ की श्रेणियाँ जो उत्तर-पश्चिम में कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व में अरुणाचल प्रदेश तक फैली हुई हैं, भारत को शेष एशिया से अलग करती हैं। ये श्रेणियाँ शीतकाल में मध्य एशिया से आने वाली अत्यधिक ठन्डी व शुष्क पवनों से भारत की रक्षा करती हैं। साथ ही वर्षादायिनी दक्षिण पश्चिमी मानसून पवनों के सामने एक प्रभावी अवरोध बनती हैं, ताकि वे भारत की उत्तरी सीमाओं को पार न कर सकें। इस प्रकार, ये श्रेणियाँ भारतीय उपमहाद्वीप तथा मध्य एशिया के बीच एक जलवायु विभाजक का कार्य करती हैं।

(घ) स्थलाकृति
देश के विभिन्न भागों में स्थलाकृतिक लक्षण वहां के तापमान, वायुमण्डलीय दाब, पवनों की दिशा तथा वर्षा की मात्रा को प्रभावित करते हैं। पिछले पाठ में दिये गये स्थलाकृतिक लक्षणों को दिखाने वाले मानचित्र का अध्ययन कीजिये तथा स्थलाकृति, तापमान, पवनों की दिशा तथा वर्षा की मात्रा में विद्यमान पारस्परिक संबंधों को इस पाठ में दिये गये जलवायु मानचित्रों की मदद से स्वयं ज्ञात कीजिये। इससे आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि पश्चिमी घाट के पूर्व में स्थित कर्नाटक व तमिलनाडु के आंतरिक भागों की तुलना में पश्चिमी तटीय मैदानों में वर्षा अधिक क्यों होती है। आप यह भी समझ जायेंगे कि दक्षिण पश्चिमी मानसून की बंगाल की खाड़ी की शाखा दो भागों में विभक्त क्यों होती है। इसकी एक शाखा गंगा घाटी के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़ती है तथा दूसरी ब्रह्मपुत्र घाटी के साथ-साथ पूर्व की ओर चली जाती है। अपने एटलस में मेघालय पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित कीप के आकार की चेरापूंजी घाटी तथा उसके पास मौसिमराम की स्थिति ज्ञात कीजिये । इससे आपको यह समझने का सूत्र प्राप्त होगा कि मौसिमराम संसार का सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान क्यों है।

(ङ) मानसून पवनें
भारत में पवनों की दिशा के पूर्णतया उलटने से, ऋतुओं में अचानक परिवर्तन हो जाता है और कठोर ग्रीष्मकाल अचानक उत्सुकता से प्रतीक्षित वर्षा ऋतु में बदल जाता है। इस प्रकार दिशा बदलने वाली पवनों को मानसून पवनें कहते हैं। 'मानसून' शब्द अरबी भाषा के 'मौसिम' शब्द से बना है जिसका अर्थ है 'ऋतु'। इन पवनों का भारतीय जलवायु पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है कि उसे मानसूनी प्रकार की जलवायु कहा जाता है। मानूसन को ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन मानसून के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
  • (i) उत्तर-पूर्वी मानसून एवं उसका प्रभाव - शीतकाल में, मौसमी दशायें सामान्यतया उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिमी भाग में विकसित उच्चदाब क्षेत्र के द्वारा प्रभावित होती हैं। परिणामस्वरूप इस प्रदेश से ठण्डी शुष्क पवनें दक्षिण के प्रायद्वीपीय भारत को घेरे हुये जलीय भागों पर फैले निम्न दाब क्षेत्रों की ओर चलने लगती है। चूंकि ये पवनें ठण्डी व शुष्क होती हैं अतः वर्षा नहीं करतीं तथा इन पवनों के प्रभाव से मौसमी दशायें ठण्डी व शुष्क रहती हैं। उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें बंगाल की खाड़ी से गुजरते हुये आर्द्रता ग्रहण कर लेती हैं और कारोमण्डल तट पर वर्षा करती हैं। वास्तव में ये पवनें स्थायी या भू–मण्डलीय पवनें हैं, जिन्हें उत्तर पूर्वी व्यापारिक पवनें कहते हैं। भारत में मूलतः ये स्थलीय पवनें हैं।
  • (ii) दक्षिण-पश्चिमी मानसून एवं उसका प्रभाव - ग्रीष्मकाल में, भारत का उत्तर-पश्चिमी भाग ऊँचे तापमानों के कारण अत्यधिक गर्म हो जाता है। इस समय सूर्य की स्थिति उत्तरी गोलार्द्ध में होती है। इसके परिणामस्वरूप न केवल उत्तर-पश्चिमी भारत में बल्कि प्रायद्वीप को घेरने वाले जलीय भागों में भी वायुमण्डलीय दशायें एकदम उलट जाती हैं। फलतः उत्तर पूर्वी व्यापारिक पवनों का स्थान दक्षिण पश्चिमी मानसून पवनें ले लेती हैं। चूंकि ये पवनें गर्म समुद्र के ऊपर से बहने के कारण आर्द्र हो जाती हैं अतः आर्द्रता से लदी हुई ये पवनें भारत के अधिकांश भागों में दूर-दूर तक भारी वर्षा करती हैं। इन दक्षिण पश्चिमी मानूसन पवनों को वर्षा ऋतु के नाम से जाना जाता है। इसकी अवधि जून से सितम्बर तक की होती है।

(च) ऊपरी वायु परिसंचरण
भारत में मानूसन के अचानक आगमन का एक अन्य कारण भारतीय भू–भाग के ऊपर वायु परिसंचरण में होने वाला परिवर्तन भी है। ऊपरी वायुतंत्र में बहने वाली जेट वायु धारायें भारतीय जलवायु को निम्न प्रकार से प्रभावित करती हैं।
  • (i) पश्चिमी जेट वायुधारा तथा उसका प्रभाव - शीतकाल में, समुद्र तल से लगभग 8 कि.मी. की ऊँचाई पर पश्चिमी जेट वायुधारा अधिक तीव्र गति से समशीतोष्ण कटिबन्ध के ऊपर चलती है। यह जेट वायुधारा हिमालय की श्रेणियों द्वारा दो भागों में विभाजित हो जाती है। इस जेट वायुधारा की उत्तरी शाखा इस अवरोध के उत्तरी सिरे के सहारे चलती है। दक्षिणी शाखा हिमालय श्रेणियों के दक्षिण में 25° उत्तर अक्षांश के ऊपर पूर्व की ओर चलती है। मौसम विज्ञानियों का ऐसा विश्वास है कि यह शाखा भारत की शीत कालीन मौसमी दशाओं को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह जेट वायुधारा भूमध्य सागरीय प्रदेशों से पश्चिमी विक्षोभों को भारतीय उपमहाद्वीप में लाने के लिये उत्तरदायी हैं। उत्तर पश्चिमी मैदानों में होने वाली शीतकालीन वर्षा व ओलावृष्टि तथा पहाड़ी प्रदेशों में कभी-कभी होने वाला भारी हिमपात इन्हीं विक्षोभों का परिणाम है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण उत्तरी मैदान में शीत लहरें चलती हैं।
  • (ii) पूर्वी जेट वायुधारा व उसका प्रभाव - ग्रीष्मकाल में, सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में लम्बवत होने के कारण ऊपरी वायु परिसंचरण में उलटफेर हो जाता है। पश्चिमी जेट वायुधारा के स्थान पर पूर्वी जेट वायुधारा चलने लगती है। तिब्बत के पठार के गर्म होने के कारण पश्चिमी जेट उत्तर की ओर खिसक जाती है। इसके परिणामस्वरूप दक्षिणी भाग में पूर्वी ठण्डी जेट वायुधारा विकसित हो जाती है। यह 15° उत्तरी अक्षांश के आसपास प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर चलती है। यह दक्षिण पश्चिम मानसून पवनों के अचानक आने में मदद करती हैं।

(छ) पश्चिमी विक्षोभ तथा उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात
पश्चिमी विक्षोभ भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिमी जेट प्रवाह के साथ भूमध्य सागरीय प्रदेश से आते हैं। यह देश के उत्तरी मैदानी भागों व पश्चिमी हिमालय प्रदेश की शीतकालीन मौसमी दशाओं को प्रभावित करते हैं। ये शीतकाल में थोड़ी वर्षा लाते है। यह थोड़ी सी वर्षा भी उत्तरी मैदान में गेहूं की खेती के लिए बहुत ही लाभकारी होती
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात बंगाल की खाड़ी में पैदा होते हैं। इन चक्रवातों की तीव्रता तथा दिशा पूर्वी तटीय भागों की मौसमी दशाओं को अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर में प्रभावित करते हैं।

(ज) एल-नीनो प्रभाव
भारत में मौसमी दशायें एल-नीनो से भी प्रभावित होती हैं। यह संसार के उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में विस्तृत बाढ़ों और सूखों के लिये उत्तरदायी है। एल-नीनो एक संकरी गर्म समुद्री जलधारा है जो कभी-कभी दक्षिणी अमेरिका के पेरू तट से कुछ दूरी पर दिसम्बर के महीने में दिखाई देती है। पेरू ठण्डी धारा जो सामान्यतया इस तट के सहारे बहती है, के स्थान पर यह अस्थायी धारा के रूप में बहने लगती है।
कभी-कभी अधिक तीव्र होने पर यह समुद्र के ऊपरी जल के तापमान को 10° से. तक बढ़ा देती है। उष्ण कटिबन्धीय प्रशांत महासागरीय जल के गर्म होने से भूमण्डलीय दाब व पवन तंत्रों के साथ-साथ हिन्द महासागर में मानसून पवनें भी प्रभावित होती हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि 1987 में भारत में भयंकर सूखा एल-नीनो का ही परिणाम था।

(झ) दक्षिणी दोलन तथा उसका प्रभाव
दक्षिणी दोलन मौसम विज्ञान से संबंधित वायुदाब में होने वाले परिवर्तन का प्रतिरूप है। यह हिन्द व प्रशान्त महासागरों के मध्य प्रायः देखा जाता है। ऐसा देखा गया है कि जब वायुदाब हिन्द महासागर में अधिक होता है तो प्रशान्त महासागर पर यह कम होता है अथवा इन दोनों महासागरों पर वायु दाब की स्थिति इसके उलट होती है। जब वायुदाब प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र पर अधिक होता है तथा हिन्द महासागर पर निम्न या कम होता है तो भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून अधिक कमजोर होता है। इसके विपरीत परिस्थिति में मानसून के ताकतवर होने के आसार अधिक होते हैं।
भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक हैं-स्थिति तथा अक्षांशीय विस्तार, समुद्र से दूरी, उत्तरी पर्वत श्रेणियां, स्थालाकृति, मानसून पवनें, ऊपरी वायु परिसंचरण, पश्चिमी विक्षोभ व उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात, एल-नीनो का निर्माण तथा दक्षिणी दोलन।

मानसून की अवधारणा एवं क्रियाविधि

मानूसन से तात्पर्य उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों के ऐसे पवनों के तंत्र से है जिसमें ग्रीष्म और शीत ऋतुओं में पवनें अपनी दिशा पूर्णतया पलट लेती हैं। शीतऋतु में ये पवनें स्थल से समुद्र की ओर तथा ग्रीष्म ऋतु में समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं। इसलिये, मानसून पवनों के प्रभाव प्रदेशों में अधिकांश वर्षा ग्रीष्म ऋतु में होती है; जबकि शीत ऋतु सामान्यतया शुष्क होती है।
  • मानसून से तात्पर्य उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों के ऐसे पवनों के तंत्र से है जिसमें ग्रीष्म और शीत ऋतुओं में पवनें अपनी दिशा पूर्णतया पलट लेती हैं।
परम्परागत विचारधारा के अनुसार, स्थल व समुद्र जल के गर्म होने की प्रवृति में अंतर के कारण मानसून का जन्म होता है। ग्रीष्मकाल में स्थल पर ऊंचे तापमान के कारण महाद्वीपों पर निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है और पवनें निकटवर्ती महासागरों से स्थल की ओर चलने लगती हैं। ये पवनें समद्री भागों में पैदा होती हैं, अतः ग्रीष्म काल में पर्याप्त वर्षा करती हैं। दूसरी ओर, शीत काल में महाद्वीप निकटवर्ती महासागरों की तुलना में अधिक ठण्डे हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप महाद्वीपों पर उच्चदाब क्षेत्र बन जाता है। इसलिये शीत काल में पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। चूंकि ये पवनें महाद्वीपों की विशेषताएं लिए हुई होती हैं, अतः शुष्क होती है और वर्षा नहीं करती। मानसून के इस परम्परागत सिद्धांत की जर्मन मौसमविज्ञानी फ्लोन ने आलोचना की है। उसके विचार से भूमण्डलीय स्तर पर पवनों की दिशा में आमूल परिवर्तन के लिए मात्र स्थलीय व समुद्री भागों के भिन्न प्रकार से गर्म होना काफी नहीं है। उसने मानसून की उत्पत्ति को सूर्य की सीधी किरणों के खिसकने के प्रभाव से वायुदाब व पवन पेटियों के मौसम के अनुसार खिसकने के आधार पर स्पष्ट किया है।
इस सिद्धांत के अनुसार, जब सूर्य की किरणें ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर कर्क वृत्त पर लम्बवत् पड़ती हैं, तब अन्तःउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी.जैड.) भी उत्तर की ओर स्थानान्तरित हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी पश्चिमी भागों में एक निम्न दाब क्षेत्र बन जाता है। यह निम्न दाब इस प्रदेश के उच्च तापमानों के कारण और अधिक गहन हो जाता है । यह निम्न दाब क्षेत्र हिन्द महासागर से वायु को दक्षिण-पश्चिम मानसून के रूप में भारतीय भू–भाग की ओर खींचता है। शीत ऋतु में आई.टी.सी. जैड. दक्षिण की ओर स्थानान्तरित हो जाता है और भारत के उत्तरी भागों पर उच्च दाब विकसित हो जाता है। यह उच्च दाब, उपोष्ण उच्च दाब पेटी के विषुवत वृत्त की ओर खिसकने से और अधिक गहन हो जाता है। उत्तरी भारत के इस उच्च दाब के कारण पवनें उत्तर-पूर्वी मानसूनों के रूप में चलने लगती हैं जिसकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर होती है।
इससे भी अधिक नवीन अवलोकनों के अनुसार, भारतीय मानूसन की उत्पत्ति स्थल व समुद्री भागों के भिन्न रूप से गर्म होने तथा दाब व पवन पेटियों के मौसमी स्थानान्तरण के अलावा अन्य अनेक कारकों से प्रकाशित होती है। इसमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारक उपोष्ण कटिबन्धीय पश्चिमी तथा उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी जेट वायुधाराएं हैं। उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट वायुधारा शीतकाल में भारत के ऊपर चलती है। इससे उत्तरी भारत में उच्च दाब क्षेत्र का निर्माण होता है। इस प्रकार यह उत्तर-पूर्वी मानसून पवनों को अधिक शक्तिशाली बनाने में मदद करती है। यह जेट वायुधारा ग्रीष्म ऋतु में भारत से दूर उत्तर की ओर खिसक जाती है तथा इस ऋतु में उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी जेट वायुधारा का विकास हो जाता है। इस जेट वायुधारा का आगमन भारत में दक्षिण पश्चिमी मानसून के प्रारम्भ होने के साथ-साथ ही होता है।
  • परम्परागत मत के अनुसार, स्थल व जलीय भागों के भिन्न प्रकार से गरम होने के कारण मानसून की उत्पत्ति होती है।
  • जर्मन मौसमविज्ञानी के अनुसार मानसून की उत्पत्ति का प्रमुख कारण वायु दाब व पवन पेटियों का खिसकना है।
  • आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि भारतीय मानूसन पवनों की उत्पत्ति के लिये अनेक कारक उत्तरदायी है, इनमें सबसे महत्वपूर्ण जेट वायुधारा है।

भारत में ऋतु चक्र

अब तक आप यह जान चुके हैं कि पवनों की दिशा में पूर्ण परिवर्तन, मानसून पवनों का सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्षण है। ये परिवर्तनशील मानसून पवनें वर्ष के दौरान ऋतु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी हैं। इसलिये, विस्तार से यह जानना अधिक महत्वपूर्ण है कि सम्पूर्ण भारत में विभिन्न ऋतुओं में मौसमी दशायें कैसी रहती हैं।
भारत में जलवायु के अनुसार वर्ष को निम्न चार ऋतुओं में बांटा जाता है :
  1. शीत ऋतु- दिसम्बर से फरवरी
  2. ग्रीष्म ऋतु- मार्च से मई दक्षिणी भारत में तथा मार्च से जून उत्तरी भारत में
  3. आगे बढ़ते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु- जून से सितम्बर
  4. पीछे हटते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु- अक्टूबर और नवम्बर

(क) शीत ऋतु
उत्तरी भारत में यह ऋतु प्रायः नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रारम्भ हो जाती है। देश के अधिकतर भागों में जनवरी व फरवरी सबसे अधिक ठन्डे महीने होते हैं, क्योंकि सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर वृत पर लम्बवत् चमकता है। इन महीनों में उत्तर के मैदानों व पर्वतीय प्रदेशों में दैनिक औसत तापमान 21° से. से कम रहते हैं। कभी-कभी रात का तापमान हिमांक से नीचे चला जाता है, इससे पाला पड़ता है। पाले से विस्तृत प्रदेशों में खड़ी फसलों का नुकसान होता है। उत्तर से दक्षिण की ओर जाने पर तापमान में क्रमिक वृद्धि होती है।
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निम्न तापमान के कारण उच्च वायुदाब क्षेत्र विकसित हो जाता है। इस उच्चदाब के कारण उत्तरी-पूर्वी अपतट (स्थलीय) पवनें चलती हैं। उत्तरी मैदानों में उच्चावच के कारण इन पवनों की दिशा पछुआ होती है। ये स्थलीय पवनें ठन्डी व शुष्क होती हैं। अतः शीत ऋतु में देश के अधिकांश भागों में वर्षा नहीं करती। यद्यपि, यही पवनें बंगाल की खाड़ी से आर्द्रता ग्रहण करके जब कारोमण्डल तट पर पहुंचती है तो वर्षा करती हैं।
इस ऋतु का एक अन्य लक्षण अवदावों का एक के बाद एक आगमन है। इन अवदावों को ‘पश्चिमी विक्षोभ' कहते हैं, क्योंकि ये भूमध्य सागरीय प्रदेश में विकसित होते हैं। ये अवदाब पश्चिमी जेट वायुधारा के साथ चलते हैं। ईराक व पाकिस्तान के ऊपर से होते हुये एक लम्बी दूरी तय करके भारत में ये मध्य दिसम्बर के आस-पास पहुंचते हैं। इनके आने से तापमान में वृद्धि होती है तथा उत्तरी मैदानों में हल्की वर्षा होती है। इनके कारण पश्चिमी हिमालय तथा इसके साथ लगी श्रेणियों में विस्तृत हिमपात होता है। कभी-कभी इनसे होने वाली ओला वृष्टि से उत्तर पश्चिमी मैदानों में खड़ी रबी की फसलों को काफी क्षति पहुंचती है। इन अवदावों से होने वाली हल्की वर्षा खड़ी फसलों विशेषकर असिंचित क्षेत्रों में गेहूं की फसल के लिये अत्यधिक महत्व की होती है। इन अवदावों के गुजर जाने के बाद शीत लहरें आती है जिनसे तापमान काफी नीचे गिर जाता है।
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प्रायद्वीपीय भारत में शीत ऋतु इतनी स्पष्ट नहीं होती। इस भाग में जनवरी माह के औसत मासिक तापमान 20 से. से अधिक रहते हैं। इसके अलावा, तटीय मैदानों में कोई भी ऋतु परिवर्तन नहीं होता जैसा कि तिरूवनन्तपुरम के जनवरी के औसत मासिक तापमान 27 से. से स्पष्ट है। लेकिन चेन्नई में दिसम्बर व जनवरी के प्रारम्भ में औसत मासिक तापमान, 25° से. रहता है, क्योंकि उत्तर पूर्वी मानसून पवनों से यहां इस समय वर्षा होती है जो तापमान की गिरावट में सहायक होती है।
शीत ऋतु की महत्वपूर्ण विशेषतायें है :-
  • शीत ऋतु में उत्तर में निम्न तापमान तथा दक्षिण भारत की ओर तापमान में क्रमिक वृद्धि।
  • इस ऋतु में ठंडी शुष्क उत्तरी-पूर्वी मानसून पवनें चलती हैं। देश के अधिकांश भागों में शुष्क मौसमी दशायें पाई जाती हैं। परन्तु कारोमण्डल तट पर वर्षा होती है।
  • शीत ऋतु में पश्चिमी विक्षोभों से उत्तरी मैदानों में हल्की वर्षा होती है तथा हिमालय की श्रेणियों पर हिमपात होता है।

(ख) ग्रीष्म ऋतु
सूर्य के उत्तरायण होने पर उत्तर के मैदानों में तापमान बढ़ने लगता है। इसके परिणामस्वरूप बसंत ऋतु का आगमन होता है जो शीघ्र ही ग्रीष्म ऋतु का रूप ले लेती है। ग्रीष्म ऋतु जून के अन्त तक रहती है। इस ऋतु में तापमान उत्तर की ओर बढ़ता है तथा उत्तर के मैदानों के अधिकांश भागों में कई माह में लगभग 45° से. हो जाता है। दोपहर के बाद धूल भरी आंधियों और लू का चलना ग्रीष्म ऋतु के विशिष्ट लक्षण हैं। लू गर्म और शुष्क पवनें हैं। ये मई व जून के महीनों में उत्तरी मैदानों में चलती हैं। लू लगने से प्रति वर्ष सैकड़ों लोग मर जाते हैं। देश के कुछ उत्तरी पश्चिमी भागों में दिन का तापमान कभी-कभी 45° से भी अधिक हो जाता है।
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इस ऋतु में पवनों की दिशा परिवर्तनशील होती है। सम्पूर्ण देश में मौसमी दशायें सामान्यतया गर्म व शुष्क होती हैं। हालांकि धूलभरी आंधियों के कारण उत्तरी मैदानों में बूंदाबांदी हो जाती है। केरल, पश्चिम बंगाल और असम में हल्की वर्षा होती है। केरल में मानसून से पूर्व की इस वर्षा को 'आम्र वृष्टि' के नाम से जाना जाता है। पश्चिम बंगाल और असम में इसे 'काल वैसाखी' कहते हैं। कभी-कभी पवनों की तीव्र गति के कारण इनसे धन-जन की अधिक हानि होती है।
  • ग्रीष्म ऋतु के विशिष्ट लक्षण हैं- गर्म व शुष्क मौसम, 'लू' (एक गर्म शुष्क पवन) का उत्तरी मैदानों में चलना, कभी-कभी बूंदाबांदी, दोपहर बाद धूल भरी आंधियां तथा केरल में आम्र वृष्टि, पं. बंगाल व असम में काल वैसाखी के रूप में हल्की वर्षा।

(ग) आगे बढ़ते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु
भारत के अधिकांश भागों में वर्षा इस ऋतु में होती है। यह दक्षिण पश्चिम मानसून जो केरल तट पर जून के पहले सप्ताह में पहुंचता है, के आगमन से प्रारम्भ होती है। ये पवनें भारत के अधिकांश भागों में मध्य जुलाई तक पहुंच जाती है। यह ऋतु सितम्बर माह तक रहती है। आर्द्रता से लदी इन गर्म पवनों से मौसमी दशाएं पूर्णतः बदल जाती है। इन पवनों के आने से अचानक वर्षा होने लगती है, जिससे तापमान काफी कम हो जाता है। तापमान में यह गिरावट 50° से 10° से. तक होती है।
अचानक होने वाली इस वर्षा को 'मानसून का टूटना या फटना' कहते हैं। इन पवनों के आगमन में एक या दो सप्ताह की देरी हो सकती है। यह उत्तरी मैदानों तथा हिन्द महासागर पर वायु दाब की दशाओं पर निर्भर करता है। भारत की प्रायद्वीपीय आकृति इन दक्षिण-पश्चिमी मानूसनों को दो शाखाओं में विभाजित करती है-अरब सागर की शाखा तथा बंगाल की खाड़ी की शाखा।
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1. दक्षिण पश्चिम मानसून की अरब सागर की शाखा भारत के पश्चिमी घाट से अवरोध पाकर पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढलानों पर भारी वर्षा करती है। पश्चिमी घाट को पार करने के बाद ये पवनें पूर्वी ढलानों पर कम वर्षा करती हैं; क्योंकि उतरते हये उनके तापमान में वद्धि होने लगती है। इसलिये इस क्षेत्र को 'वृष्टिछाया क्षेत्र' कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक के आन्तरिक भागों व तेलंगाना में इन पवनों से कम वर्षा क्यों होती है। दक्षिण पश्चिम मानसून पवनें सौराष्ट्र व कच्छ के तट से आगे बढ़ती हुई राजस्थान के ऊपर से गुजरती है और आगे चल कर खाड़ी की बंगाल की शाखा से मिल जाती है। ये पवनें इन राज्यों व पश्चिमी हिमालय प्रदेश में दूर-दूर तक वर्षा करती हैं।
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2. बंगाल की खाड़ी की शाखा पूर्वी हिमालय श्रेणियों से अवरोध पाकर दो उपशाखाओं में विभाजित हो जाती है। एक शाखा पूर्व व उत्तर पूर्व दिशा की ओर बढ़ती है तथा यह ब्रह्मपुत्र घाटी व भारत की उत्तर पूर्वी पहाड़ियों में भारी वर्षा करती हैं। दूसरी शाखा उत्तर पश्चिम की ओर गंगा घाटी व हिमालय की श्रेणियों के साथ-साथ आगे बढ़ती हुई दूर-दराज के क्षेत्र में पश्चिम की ओर भारी वर्षा करती है। इस प्रदेश में वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः कम होती जाती है; क्योंकि इन पवनों की आर्द्रता में क्रमिक कमी आती रहती है।

3. दक्षिण पश्चिम मानसून की विशेषतायें:-
  1. ये पवनें भारतीय तट पर सामान्यतया जून के पहले सप्ताह में पहुंचती हैं, लेकिन उनके आगमन और वापस लौटने का समय निश्चित नहीं है।
  2. वर्षा काल में सूखे के दौर भी आते हैं। इन सूखे के दौरों से कभी-कभी फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  3. कभी-कभी ये पवनें कुछ प्रदेशों के ऊपर से गुजर जाती है और वर्षा नहीं करती।
  4. वर्षा की मात्रा तथा समय व वर्षा व सूखों के दौरों के समय में साल दर साल भिन्नता पायी जाती है। इसे 'मानसून का मानमौजी' होना कहते हैं।
  5. ये पवनें सितम्बर के अन्त तक पीछे हटने लगती हैं; लेकिन कभी-कभी ये अक्टूबर माह तक पीछे हटती हैं या कभी सितम्बर से पूर्व ही पीछे हट जाती
  • भारत के उत्तरपश्चिमी भागों में निम्नदाब की दशाएं तथा भारत को घेरे हुये जलीय भागों पर उच्च दाब की दशायें;
  • अरब सागर व बंगाल की खाड़ी में पवनों की सामान्य दिशा दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व होती है। इनसे विस्तृत प्रदेशों में वर्षा होती है, लेकिन वर्षाकाल के बीच में सूखे के दौर भी आते हैं;
  • मानसून जून के पहले सप्ताह में आता है तथा सितम्बर के अन्त तक पीछे हटने लगता है;
  • इस ऋतु में मौसम सामान्यतया गर्म व आर्द्र होता है।

(घ) पीछे हटते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु
दक्षिण पश्चिम मानसून पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों व उत्तरी पश्चिमी भारत से सितम्बर के पहले सप्ताह से पीछे हटने लगते हैं, जहाँ वे सबसे अन्त में पहुँचते हैं। इन पवनों के पीछे हटने का मुख्य कारण भारत के उत्तर पश्चिमी भाग के निम्न दाब क्षेत्र का कमजोर होना है। सूर्य का विषुवत वृत्त की ओर आभासी गति तथा विस्तृत वर्षा का कारण तापमान के नीचे गिरने के साथ वायुदाब धीरे-धीरे उच्चा होने लगता है। वायुमण्डलीय दाब के ढांचे में परिवर्तन के कारण दक्षिण पश्चिम मानसून पीछे हटता है। इसलिए इस अवधि को दक्षिण पश्चिम मानसून के पीछे हट जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप इस ऋतु में स्वच्छ मौसमी दशायें पायी जाती हैं।
भारत के उत्तर पश्चिमी भाग के निम्न दाब का क्षेत्र अक्टूबर के अंत तक बंगाल की खाड़ी के मध्य स्थानान्तरित हो जाता है। इन अस्थायी दशाओं के कारण बंगाल की खाड़ी में अत्यंत तीव्र चक्रवातीय तूफान पैदा होते हैं। ये चक्रवातीय तूफान भारत के पूर्वी तट के साथ-साथ तटीय प्रदेशों में भारी वर्षा करते हैं। कभी-कभी अत्यधिक तीव्रता वाले तूफानों से खड़ी फसलों, पशुओं, सम्पत्ति, यातायात, संचार व विद्युत लाइनों की भारी क्षति होती है। तमिलनाडु तट अपनी वर्षा का अधिकांश भाग अक्टूबर व नवम्बर या मानसून के पीछे हटने की ऋतु में प्राप्त करता है।
  • उत्तर पश्चिमी भारत के निम्नदाब क्षेत्र का कमजोर होना
  • सम्पूर्ण भारत में तापमान का गिरना
  • निम्नदाब क्षेत्र का दक्षिण की ओर खिसकना तथा
  • बंगाल की खाड़ी में चक्रवतीय तूफानों का पैदा होना जिनसे भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में फसलों व सम्पत्ति की क्षति होना।

वार्षिक वर्षा का वितरण

मानचित्र का अध्ययन कीजिये। आप पायेंगे कि भारत में औसत वार्षिक वर्षा के वितरण में प्रादेशिक भिन्नतायें काफी स्पष्ट हैं। वर्षा के वितरण मानचित्र से यह स्पष्ट है कि जम्मू और कश्मीर के उत्तर पूर्वी भाग व राजस्थान के धुर पश्चिमी भागों में वर्षा 20 से. मी. से कम होती है। दूसरी ओर पश्चिमी तटीय मैदानों, उत्तर-पूर्वी भारत के उप हिमालयी क्षेत्रों के साथ शिलांग पठार पर 200 से.मी. से अधिक वर्षा होती है। खासी, जयन्तिया के दक्षिणी ढलानों खासकर चेरापूँजी घाटी में 1000 से.मी. से अधिक वर्षा होती है। 200 से.मी. की समवर्षा रेखा गुजरात के दक्षिणी तट से प्रारम्भ होकर पश्चिमी घाट के तट के समानान्तर चलती हुयी कन्याकुमारी तक जाती है। पश्चिमी घाट के पूर्व में वर्षा अचानक 60 से.मी. से भी कम हो जाती है। 100 से.मी. की समवर्षा रेखा जम्मू व कश्मीर के दक्षिण-पश्चिमी भागों से प्रारम्भ होकर पूर्व की ओर इलाहाबाद तक जाती है, जहाँ से वह पश्चिम व दक्षिण पश्चिम की ओर मुड़कर पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र और उत्तर आन्ध्र प्रदेश से गुजरती हुयी विशाखापट्नम के पास पूर्वी तट पर मिलती है।
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इस समवर्षा रेखा के पश्चिम और दक्षिण पश्चिम में स्थित क्षेत्रों में वर्षा कम होती है। कारोमण्डल तट के कुछ भागों में 100 से.मी. से अधिक वर्षा होती है। 100 से.मी. से कम वर्षा पाने वाले भाग कृषि के लिए सिंचाई के साधनों पर निर्भर रहते हैं।
  • कोलकाता से अमृतसर की ओर जाने पर वर्षा कम होती जाती है।
  • दक्कन के पठार पर तट से आन्तरिक भागों की ओर वर्षा कम होती जाती है।
  • भारत के उत्तर पूर्वी भागों में उत्तर पश्चिमी भागों की तुलना में वर्षा अधिक होती है।
  • पवनाभिमुख ढालों पर पवन विमुख ढालों की तुलना में वर्षा अधिक होती है।
  • भारत में खासकर दक्षिण पश्चिम मानसून से प्राप्त वर्षा के वितरण का उच्चावच से गहरा संबंध है। अतः इस वर्षा को 'उच्चावच' या 'पर्वतकत वर्षा' भी कहते हैं। मोटे तौर पर अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर अधिक वर्षा प्राप्त करने के अवसर उन स्थानों की तुलना में अधिक होते हैं जो कम ऊँचाई वाले हैं। वर्षा की मात्रा पर आर्द्र पवनों की दिशा का भी प्रभाव पड़ता है।

भारत के जलवायु प्रदेश

भारत की जलवायु मानसून प्रकार की है तथापि मौसम के तत्त्वों के मेल से अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ प्रदर्शित होती हैं। यही विभिन्नताएँ जलवायु के उप-प्रकारों में देखी जा सकती हैं। इसी आधार पर जलवायु प्रदेश पहचाने जा सकते हैं। एक जलवायु प्रदेश में जलवायवी दशाओं की समरूपता होती है, जो जलवायु के कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है। तापमान और वर्षा जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिन्हें जलवायु वर्गीकरण की सभी पद्धतियों में निर्णायक माना जाता है। तथापि जलवायु का वर्गीकरण एक जटिल प्रक्रिया है। जलवायु के वर्गीकरण की अनेक पद्धतियाँ हैं। कोपेन की पद्धति पर आधारित भारत की जलवायु के प्रमुख प्रकारों का वर्णन अग्रलिखित है। कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण का आधार तापमान तथा वर्षण के मासिक मानों को रखा है। उन्होंने जलवायु के पाँच प्रकार माने हैं, जिनके नाम हैं :
  1. उष्ण कटिबंधीय जलवायु, जहाँ सारा साल औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक रहता है।
  2. शुष्क जलवायु, जहाँ तापमान की तुलना में वर्षण बहुत कम होता है और इसलिए शुष्क है। शुष्कता कम होने पर यह अर्ध-शुष्क मरुस्थल (S) कहलाता है; शुष्कता अधिक है तो यह मरुस्थल (W) होता है।
  3. गर्म जलवायु, जहाँ सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18° सेल्सियस और -3° सेल्सियस के बीच रहता है।
  4. हिम जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 10° सेल्सियस से अधिक और सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान -3° सेल्सियस से कम रहता है।
  5. बर्फीली जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का तापमान 10° सेल्सियस से कम रहता है।
कोपेन ने जलवायु प्रकारों को व्यक्त करने के लिए वर्ण संकेतों का प्रयोग किया है, जैसा कि ऊपर बताया गया है। वर्षा तथा तापमान के वितरण प्रतिरूप में मौसमी भिन्नता के आधार पर प्रत्येक प्रकार को उप-प्रकारों में बाँटा गया है। कोपेन ने अंग्रेजी के बड़े वर्णों S को अर्ध-मरुस्थल के लिए और W को मरुस्थल के लिए प्रयोग किया है। इसी प्रकार उप-विभागों को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी के निम्नलिखित छोटे वर्णों का प्रयोग किया गया है।
जैसे- f (पर्याप्त वर्षण). m (शुष्क मानसून होते हुए भी वर्षा वन), w (शुष्क शीत ऋतु), h (शुष्क और गर्म), c (चार महीनों से कम अवधि में औसत तापमान 10° सेल्सियस से अधिक) और g (गंगा का मैदान)। इस प्रकार भारत को आठ जलवायु प्रदेशों में बाँटा जा सकता है।
कोपेन की योजना के अनुसार भारत के जलवायु प्रदेश

जलवायु के प्रकार

क्षेत्र

लघु शुष्क ऋतु वाला मानसून प्रकार

गोवा के दक्षिण में भारत का पश्चिमी तट

शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाला मानसून प्रकार

तमिलनाडु का कोरोमंडल तट

उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार

कर्क वृत्त के दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार का अधिकतर भाग

अर्ध शुष्क स्टेपी जलवायु

उत्तर-पश्चिमी गुजरातपश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भाग

गर्म मरुस्थल

राजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग

शुष्क शीत ऋतु वाला मानसून प्रकार

गंगा का मैदानपूर्वी राजस्थानउत्तरी मध्य प्रदेशउत्तर पूर्वी भारत का अधिकतर प्रदेश

लघु ग्रीष्म तथा ठंडी आर्द्र शीत ऋतु वाला जलवायु प्रदेश

अरुणाचल प्रदेश

ध्रुवीय प्रकार

जम्मू और कश्मीरहिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड



भारत की मानसनी एकता

ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है कि जलवायु दशाओं में प्रादेशिक भिन्नता के होते हुए भी भारत में जलवायविक एकता है। जलवायु सम्बन्धी एकता का अर्थ है कि भारत के विभिन्न भागों में मौजूद मौसमी दशायें वर्ष की विभिन्न ऋतुओं में कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग एक सी ही रहती है। भारतीय जलवायु को मानसूनी जलवायु कहते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि भारत की जलवायु संबंधी एकता बनाये रखने में मानसूनी पवनों का अधिक प्रभाव है। यह जलवायविक एकता मौसमी या मानसून पवनों के नियमित चलने तथा हिमालय पर्वत मालाओं के सम्मिलित प्रभाव का परिणाम है।
पूर्व वर्णित दो कारकों के फलस्वरूप भारत की मानसूनी एकता प्रकट हुई है। यह भारत के आम लोगों की जीवन पद्धतियों व क्रियाकलापों में परिलक्षित होती है।
यह है :-

(क) ऋतु लय
गर्म, आर्द्र व शीत ऋतुओं का क्रम भारत के लोगों की जीवन पद्धतियों व आर्थिक क्रियाओं को निम्न रूपों में प्रभावित करता है।
  1. सर्वप्रथम, सम्पूर्ण भारत के किसान मानसून के आगमन पर कृषि से सम्बन्धित क्रियायें जैसे खेतों का जोतना, बीज बोना, रोपण आदि प्रारम्भ करते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में खरीफ की फसलों जैसे चावल, ज्वार-बाजरा, कपास व गन्ना का स्वरूप वहाँ होनेवाली वर्षा की मात्रा का प्रतिफल है। शीत ऋतु में ठन्डे व सिंचित क्षेत्रों की रबी की प्रमुख फसल गेहूँ है; जबकि जौ, चना तथा तिलहन उत्तरी तथा मध्य भारत के असिंचित क्षेत्रों की आम फसलें हैं।
  2. द्वितीय, लोगों के वस्त्र भी ऋतुओं द्वारा प्रभावित होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में भारत के लोग सूती कपड़े पहनते हैं; जबकि शीत काल में खासकर उत्तरी व मध्यवर्ती भारत के प्रदेशों के लोग ऊनी वस्त्र पहनते हैं।
  3. तीसरे, भारत के अधिकांश भागों में शुष्क ऋतु लम्बी होती है तथा जीवनदायिनी वर्षा ऋतु केवल कुछ ही महीनों की होती है। इसका भारत के लोगों की जीवन पद्धतियों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। जब मानसूनी बादलों से पानी की बूंदें प्यासी सूखी भूमि पर गिरती हैं तो उनके संगीत व जमीन से निकलने वाली खुशबू से सम्पूर्ण भारत के लोगों में एक से भावनात्मक व्यवहार उत्पन्न होते हैं; जिन्हें भोजपुर की कजरी तथा ब्रज की मल्हार तथा उनके अन्य रूपों में भारत के त्यौहारों का ऋतुओं से गहरा संबंध है। उत्तरी भारत में, बैसाखी का त्यौहार, रबी की फसल जब पककर कटने के लिए तैयार होती है, तब मनाया जाता है। शीतकाल में, जब सूर्य मकर वृत्त पर लम्बवत चमकता है तथा उत्तर के मैदानों में कड़ाके की सर्दी पड़ती है तब लोहड़ी व मकर संक्रांति के त्यौहार मनाये जाते हैं। जबकि इनका दक्षिणी भारत में प्रतिरूप पोंगल है। भारत में होली बड़े धूम-धाम से बसंत ऋतु में मनाई जाती है।
  4. चौथे, वर्षा द्वारा पोषित निर्वाह कृषि भारतीय ग्रामीण समुदाय की सबसे प्राचीन क्रिया रही है। उसकी अर्थव्यवस्था वर्ष पर्यन्त मानसून की उदारता पर निर्भर करती है चाहे वह कितनी कम हो।
अंत में, मौसमी दशाओं की ऋतुवत व प्रादेशिक विभिन्नताओं ने भिन्न प्रदेशों को, विविध फसलों को अलग-अलग मात्रा में पैदा करने में सक्षम बनाया है। इससे सभी
प्रदेश एक दूसरे पर निर्भर हैं। मानसून का तमाम विभिन्नताओं के बावजूद, इस प्रकार की एकता स्थापित करना कोई कम महत्वपूर्ण सहयोग नहीं है।

(ख) जल की आस
आप जानते हैं कि भारत में वर्षा साल के केवल चार या पांच महीने होती है । इस प्रकार, सम्पूर्ण भारत, वर्ष के सात या आठ महीनों तक शुष्क रहता है। वर्षा ऋतु में भी 'सूखे के दौर' आम बात है। कृषि से संबंधित समाज होने के कारण, भारत के अधिकांश भागों में जल की आवश्यकता हर समय रहती है। यहां तक, सबसे अधिक वर्षा पाने वाले चेरापूंजी के आस-पास के क्षेत्रों व कोंकण तथा केरल में लम्बी शुष्क ग्रीष्म ऋतु में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। देश के सभी भागों में रहने वाले लोगों की निगाहें मानसून के बादलों की ओर लगी रहती है।

(ग) मानसूनी वर्षा की प्रतीक्षा
हर भारतवासी चाहे वह वृद्ध हो या बालक, स्त्री हो या पुरूष, किसान हो या श्रमिक सभी मानसूनी वर्षा की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं। ऐसा वे केवल ग्रीष्म काल की गर्मी से छुटकारा पाने के लिए ही नहीं करते बल्कि कृषि कार्यों को प्रारम्भ करने के लिए करते हैं जो ग्रामीण व शहरी दोनों अर्थ व्यवस्थाओं का पोषण करते हैं। इसलिए, मानसून विस्फोट का भारत के सभी स्थानों पर एक सा सहर्ष स्वागत होता है।

(घ) सूखा तथा बाढ़
भारतीय मानसूनी वर्षा का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि भारत का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जो कभी न कभी या प्रायः बाढ़ या अकाल से प्रभावित न हो। सूखे का अधिक वर्षा पाने वाले भागों जैसे असम व केरल में पड़ना आम बात है। इसी प्रकार, भारत के उत्तर पश्चिमी शुष्क भाग चाहे पंजाब हो या राजस्थान का मरुस्थल, बाढ़ों से मुक्त नहीं हैं। इसके परिणामस्वरूप, सिंचाई, पीने तथा जलविद्युत निर्माण के लिए जल के संरक्षण, नियंत्रण व एकत्रित करने की आवश्यकता है।

आपने सीखा
  • भारत एक विविध जलवायु वाला देश है। ये विविधतायें तापमान, वायुदाब, पवनों एवं वर्षण की मात्रा के वितरण की विभिन्नताओं द्वारा स्पष्ट हैं। भारत के विभिन्न प्रदेशों की जलवाय को तय करने के लिए उत्तरदायी कारक उसकी स्थिति व अक्षांशीय विस्तार उच्चावच, हिमालय का जलवायु विभाजक के रूप में कार्य, मानसून पवनें, ऊपरी वायु परिसंचरण, पश्चिमी विक्षोभ तथा चक्रवातीय तूफान हैं। मानसून, अरबी भाषा के शब्द 'मौसम' से लिया गया है, जिसका तात्पर्य ऋतुओं की लय एवं ऋतुवत पवनों की दिशा बदलने से है।
  • मौसम विज्ञान के अनुसार, भारत में चार ऋतुएं पाई जाती हैं शीत ऋतु, गीष्म ऋतु, आगे बढ़ता दक्षिण पश्चिमी मानसून की ऋतु एवं पीछे हटते दक्षिण पश्चिम मानसून की ऋतु है। इन ऋतुओं की विभिन्न विशेषताएँ है जो मौसमी दशाओं को परिलक्षित करती है।

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