इल्तुतमिश (1210-1236 ई.) - इल्तुतमिश का जीवन परिचय | iltutmish in hindi

प्रारम्भिक जीवन

इल्तुतमिश का पूरा नाम शम्स-उद्-दीन इल्तुतमिश था। वह मध्य एशिया के इल्बारी कबीले के तुर्क माता-पिता से उत्पन्न हुआ था और बाल्यकाल में ही उसके ईष्यालु भाइयों ने उसे दास बनाकर बेच दिया था। जमालुद्दीन नामक एक व्यापारी उसे खरीदकर गजनी ले गया। तदुपरान्त वह दिल्ली लाया गया और दुबारा कुतुबुद्दीन के हाथों बेच दिया गया। वह एक के बाद एक प्रतिपद प्राप्त करता गया और अन्त में 'अमीरे शिकार' बन गया। ग्वालियर की विजय के बाद ग्वालियर का किला उसे सौंप दिया गया और और तदुपरान्त वह बरन (बुलन्दशहर) का शासक नियुक्त हुआ। कुतुबुद्दीन ने अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया। उसे बदायूं का सूबेदार नियुक्त किया और 1211 ई. में वह सुल्तान के पद पहुंच गया।
iltutmish in hindi
सुल्तान बनने से पूर्व वह बदायूं का गबनेर था, ऐबक के काल में वह अमीरे आखूर' ग्वालियर और बरन का प्रशासक रह चुका था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इल्तुतमिश ने अनियमित रूप से गद्दी हड़प ली थी परन्तु ऐसा समझना सत्य से काफी दूर है। इस्लामी कानन के अनुसार योग्यतम व्यक्ति को राज सत्ता का अधिकारी माना जाता है, और इस रूप में वह निश्चित ही आरामशाह से अधिक योग्य था। जहाँ तक दासत्व का सवाल है, खोखरों के विरूद्ध गोरी के आक्रमण के समय ही उसकी सेवा से प्रसन्न होकर सुल्तान ने उसे दासत्व से मुक्त कर दिया था तथा उसे अमीर-उल-उमरा की उपाधि से नवाजा था।

प्रारम्भिक कठिनाईयाँ

आरामशाह और इल्तुतमिश के पारस्परिक झगड़े का लाभ उठाकर उसने लाहौर पर भी अधिकार कर लिया था। बंगाल और बिहार भी दिल्ली से पृथक हो गये थे और लखनौती का अलीमर्दान स्वतन्त्र शासक बन बैठा था। जालौर तथा रणथम्भौर स्वतन्त्र हो गए। अजमेर, ग्वालियर और दोआब ने भी तुर्की-साम्राज्य का जुआ उतार फेंका। ताजुद्दीन एल्दौज ने पुनः समस्त हिन्दुस्तान पर अपने प्रभुत्व का दावा किया। दिल्ली में भी कुचक्र चल रहे थे। वहाँ के कुछ शाही रक्षकों ने आरामशाह से मिलकर विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस समय इल्तुतमिश गद्दी पर बैठा, दिल्ली सल्तनत की दशा अत्यन्त ही शोचनीय थी। उसने एल्दौज की प्रभुत्व स्वीकार करने का बहाना किया और उसने भेजे हुए छत्र, दण्ड आदि राजचिन्ह स्वीकार कर लिए। चतुर कूटनीति द्वारा उसने दिल्ली में आरामशाह के दल का दमन कर दिया और शाही रक्षकों को भी अपने नियन्त्रण में कर लिया। आन्तरिक कठिनाइयों से मुक्ति पाने पर उसने एल्दौज की ओर ध्यान दिया जिसने कुबाचा को लाहौर से निकालकर पंजाब के अधिकांश भाग पर आधिपत्य जमा लिया था। 1215 ई. में खारिज्म के शाह द्वारा पराजित होकर एल्दौज ने गजनी से भागकर लाहौर में शरण ली तो इल्तुतमिश ने तुरन्त ही उसके विरूद्ध कूच किया और तराइन के युद्धक्षेत्र में उसे हराया। एल्दौज स्वयं बन्दी बनाकर बदायूं भेज दिया गया जहाँ शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी।

इल्तुतमिश की मंगोल नीति

इल्तुतमिश के शासन काल में ही सर्वप्रथम मंगोल नेता तिमुचीन उर्फ चंगेज खां 1221 में सिंधु तट पर उपस्थित हुआ। मंगोलों ने ख्वारिज्म साम्राज्य को पूर्णतः मटियामेट कर दिया, खारिज्म का शाह कैस्पियन सागर की ओर भाग या और उसका युवराज जलालुद्दीन मांगवर्नी भागकर पंजाब आ गया। खोक्खरों की सहायता से उसने सिंध, मुल्तान तथा उत्तरी-पश्चिमी पंजाब पर अधिकार कर लिया तथा इल्तुतमिश से राजनीतिक स्तर पर शरण मांगी। इल्तुतमिश मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमण से टकराना नहीं चाहता था, वस्तुतः वह नव निर्मित तुर्की साम्राज्य को मध्य एशिया की राजनीति में फंसने नहीं देना चाहता था। मंगवर्नी को शरण देने से इंकार कर उसने दूरदर्शिता का परिचय दिया और इस प्रकार उसने तुकी साम्राज्य को बचा लिया। मंगोल नेता एक तटस्थ राजा की सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहता था। इसलिए वह जरूरी ही अफगानिस्तान लौट गया।

कुबाचा की पराजय तथा मृत्य

मंगोल अफगानिस्तान से ही वाप लौट गये थे इसलिए माँगबर्नी भी तीन वर्ष भारत में रहकर 1224 ई. में वापस लौट गया और उसके पंजाब में इतने समय तक ठहरने का मुख्य परिणाम यह हुआ कि कुबाचा की शक्ति नष्ट हो गयी। मगबर्नी के लौट जाने के बाद केवल मुल्तान और सिन्ध कुबाचा के हाथ में रह गये थे, अतः ख्वारिज्म की सेनाओं की गतिविधि के कारण कुबाचा की शक्ति पर जो प्रभाव पड़ा था उसका इल्तुतमिश पूस लाभ उठाना चाहता था। इसलिए उसने उसके राज्य पर दो दिशाओं से आक्रमण करने की योजना बनायी। तदुपरान्त उसने 1228 ई. में दो सेनाएं भेजीं, एक लाहौर से मुल्तान पर और दूसरी दिल्ली से उच पर आक्रमण करने के लिए। कुबाचाा घबरा गया और निचले सिन्ध में स्थित भक्कर के किले में जाकर शरण ली। तीन महीने के घेरे के बाद उच का पतन हो गया। इल्तुतमिश ने उससे बिना शर्त के हथियार डालने को कहा, किन्तु इसके लिए वह तैयार नहीं हुआ। तब दिल्ली की सेनाओं ने भक्ककर पर भयंकर प्रहार किया जिससे कुबाचा इतना आतंकित हुआ कि निराश होकर वह सिन्धु में कूद पड़ा और डूबकर मर गया। मुल्तान और उच को जीतकर दिल्ली राज्य में मिला लिया गया।
बंगाल में अलीमर्दान ने अपनी सत्ता स्थापित की थी, पर उसकी हत्या कर दी गई। 1211 ई. में हिसामुद्दीन एवज खलजी को उस पद पर बिठाया गया। वह एक स्वतंत्र शासक बन गया और उसने सुल्तान गयासुद्दीन का खिताब धारण किया। उसने बिहार में अपनी शक्ति का प्रसार किया और जाजनगर, तिरहुत, बंग और कामरूप के राज्यों से खिराज वसूल किया। जब 1225 ई. में इल्तुतमिश ने बंगाल की ओर कूच किया तो उसने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली और भारी हर्जाना दिया। किन्तु इल्तुतमिश के वापस लौटते ही उसने मालिक जानी को पराजित कर दिया जिसे इल्तुतमिश ने बंगाल का मक्ता नियुक्त किया था। वह फिर एक स्वतंत्र शासक बन गया। इल्तुतमिश के पुत्र नासिरूद्दीन महमूद ने उसे पराजित किया और वह मारा गया। बाद में नासिरूद्दीन महमूद को लखनौती का मुक्ता नियुक्त किया गया। 1226 ई. में उसने सेना लेकर राजस्थान के मध्य में प्रवेश किया और रणथम्भौर को घेर लिया तथा उस पर अधिकार करके रक्षा के लिए अपने सैनिक नियुक्त कर दिये। तदुपरान्त उसने परमारों की राजधानी मन्दौर पर आक्रमण किया और उसे भी जीतकर अपनी सेना वहाँ रख दी। 1228-29 ई. में उसने जालौर का घेरा डाला। चौहान राजा उदयसिंह ने प्रबल प्रतिरोध किया, किन्तु अन्त में उसे हथियार डालने पड़े। उसने सुल्तान को वार्षिक कर देने का वचन दिया और इस शर्त पर जालौर का राज्य उसे लौटा दिया गया। इसके बाद बयाना और थंगीर पर अधिकार कर लिया गया। फिर अजमेर की बारी आयी। यहाँ भी इल्तुतमिश को प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, किन्तु अन्त में अजमेर, साँभर तथा उसके निकटवर्ती जिलों पर उसका अधिकार हो गया। जोधपुर में स्थित नागौर जो गजनवी सुल्तान बहराम के समय से ही तुर्कों के हाथों में था, कुतुबुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त स्वतन्त्र हो गया था। इल्तुतमिश ने उस पर पुनः अधिकार कर लिया। 1231 ई. में ग्वालियर का घेरा डाला गया। प्रतिहार राजा मलयवर्मन देव ने पूरे एक वर्ष तक वीरतापूर्वक युद्ध किया, किन्तु अन्त में उसे भी पराजय स्वीकार करनी पड़ी।

दोआब के विद्रोह का दमन

दिल्ली में अपनी सत्ता सुदृढ़ करने के उपरान्त इल्तुतमिश ने दो आब के हिन्दू विद्रोही सरदारों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही प्रारंभ कर दी। एक-एक करके बदायँ, कन्नोज तथा बनारस जीत लिये गये। कतहर तथा उसकी राजधानी अहिछन्न पर भी सुल्तान का अधिकार हो गया। अवध में सुल्तान के पुत्र महमूद को स्थानीय जातियों के विरूद्ध कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा। अवध में लडाकू लोगों का नेता पियूँ की मृत्यु के उपरांत ही पूर्णतः शान्ति स्थापित हो सकी।
18 फरवरी, 1229 को बगदाद के खलीफा के राजदूत दिल्ली आए और उन्होने इल्तुतमिश के सम्मान मे अभिषेक-पत्र प्रदान किया। यह मात्र एक औपचारिकता थी जिसके द्वारा खलीफा ने दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र स्थिति को मान्यता प्रदान की। इस वैधानिक स्वीकृति से इल्तुतमिश की प्रतिष्ठा अधिक ऊँची हो गई और उसकी एक दीर्घकालीन अभिलाषा भी पूरी हुई। अपनी योग्यता और क्षमता के आधार पर ही इल्तुतमिश दिल्ली के सुल्तान के पद पर पहुंचा था। मिनहाज उल–सिराज के अनुसार "उसकी सुंदरता, बुद्धिमत्ता और कुलीनता का मुकाबला नहीं था।
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के जारी किये, उसके चाँदी के टंका का वजन 175 ग्रेन था।
ऐबक का अधिकांश समय युद्धों में ही बीता था, उसने अल्प शासन काल में वह प्रशासनिक व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं दे सका। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम प्रशासनिक व्यवस्थ की नींव डाली जिसको बलवान तथा अलाउद्दीन जैसे शासकों ने मजबूती प्रदान की। इस्तेदारी तथा वह लगानी का संगठन प्रशासनिक व्यवस्था की ही एक कड़ी थी। जिसके प्रारंभ का श्रेय इल्तुतमिश को प्राप्त है।
वह दिल्ली सल्तनत पर प्रथम सुल्तान था जिसने वंशानुगत उत्तराधिकार की परंपरा को स्थापित करने का प्रयास किया, और अपने जीवन काल में ही अपने पुत्रों के रहते अपनी पुत्री रजिया को उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुबमीनार को सुल्तान ने 1231-32 ई. में पूरा करवाया। इस मीनार का नाम दिल्ली के प्रथम तुर्की सुल्तान के नाम पर नहीं था जैसा कि कुछ लेखकों का विचार है बल्कि यह बगदाद के नजदीक 'डश' नामक स्थान के सूफी संत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर है। सुल्तान की आज्ञा से दिल्ली में एक शानदार मस्जिद भी बनी। कुछ तात्कालिक अभिलेखों में उसे 'ईश्वर' की भूमि का संरक्षक" ईश्वर के सेवकों का सहायक' आदि कहा गया है। निश्चित तौर पर इल्तुतमिश तुर्की साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था।

इल्तुतमिश की शासन व्यवस्था

इल्तुतमिश पहला मुस्लिम शासक था जिसने आंशिक रूप से ही, दिल्ली सल्तनत की शासन व्यवस्था की ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया। कुतुबुद्दीन अथवा आरामशाह ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया था, अतः इसमें अनेक बुराइयाँ आ गई थीं। शासन का स्वरूप प्रधानत सैनिक था, अतः भारतीयों के बीच इसकी लोकप्रियता संदिग्ध थी। अभी भी परम्परागत हिन्दू व्यवस्था किसी-न-किसी रूप में बनी हुई थी। इसे इस्लामिक स्वरूप प्रदान करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त अभी तक शासन–सम्बन्धी सुधार तथा मुद्रा सुधार की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया था। प्रशासनिक संस्थानों का भी विकास नहीं हो पाया था और प्रशासकों में लोक कल्याण की भावना की नितान्त कमी थी। सुल्तान ने इस ओर भी ध्यान दिया। वस्तुतः इल्तुतमिश केवल एक विजेता ही नहीं वरन् एक योग्य शासक भी था। उसने अपने विजित साम्राज्य को सुव्यवस्थित बनाने के लिए अनेक कार्य किये और शासन-व्यवस्था में सुधार लाने का प्रयास किया।

"चालीस गलामों के दल (चरगान) का संगठन : सर्वप्रथम उसने विरोधी अमीरों की शक्ति को नष्ट कर चाली गुलामों के दल (चरगान) का संगठन किया जो प्रत्येक कार्य में सुल्तान के सहायक होते थे। ये वास्तव में शक्तिशाली अमीर थे। जो सुल्तान के प्रति निष्ठावान और उसका विश्वासपात्र थे। ये अत्यन्त योग्य थे अतः सुल्तान ने इन्हें न सिर्फ अपना प्रमुख सलाहकार बनाया बल्कि सेना और प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों पर भी इन्हें प्रतिष्ठित किया। अतः ये स्वामी भक्ति के द्वारा हमेशा सुल्तान को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे। इल्तुतमिश की सफलता में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

न्याय शासन की व्यवस्था : न्याय शासन-व्यवस्था के क्षेत्र में इल्तुतमिश की देन महत्वपूर्ण मानी जाती है। वह एक न्याय–प्रिय शासक था। जनता को समुचित न्याय प्राप्त हो सके इसके लिए उसने राजधानी के अतिरिक्त सुल्तान के सभी बड़े शहरों में काजी और अमीर दाद नियुक्त किए। इनके फैसले के विरूद्ध लोग प्रधान काजी की अदालत में अपने मुकदमें पेश करते थे। अंतिम फैसला स्वयं सुल्तान करता था। इस प्रकार की न्याय-शासन में सुल्तान की सर्वोच्चता थी।

मुद्रा में सुधार : इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए। इस सिक्के को 'टंक' कहा जाता था। इसका वजन 175 ग्रेन होता था। टंक चांदी और सोना दोनों के ही होते थे। इल्तुतमिश के मुद्रा-सुधार से कुछ खास लाभ सिद्ध हुए। सर्वप्रथम जनसाधारण को सुल्तान के स्थायित्व में अधिक विश्वास हो गया और दूसरा चूंकि टंक पर खलीफा का नाम भी अंकित रहता था अतः मुसलमानों की निष्ठा सुल्तान में अपेक्षाकृत अधिक हो गई। वैसे पहली बार मह यकाल में अरबी सिक्का का प्रयोग कर सुल्तान ने एक ऐतिहासिक कार्य भी सम्पन्न किया।

इल्तुतमिश के राज्य की शक्ति का आधार सेना और प्रशासन था। प्रशासक दो वर्ग के थे-तुर्क दास अधिकारी और ताजीक अर्थात कुलीन वंशों के गैर-तुर्क विदेशी मुसलमान। जहां तक इल्तुतमिश जीवित रहा उसने इन दोनों पर आवश्यक नियंत्रण रखा, किन्तु उसके उत्तराधिकारियों के शासन काल में दोनों वर्गों के बीच वैमनस्य काफी बढ़ गया। इन विरोधी तत्वों को एक प्रशासनिक प्रणाली में संगठित करके इल्तुतमिश ने अपनी महान राजनीतिक प्रतिभा औश्र चातुर्थ का परिचय दिया। गोर और गजनी से पूर्ण सम्बन्ध विच्छेदित करके उसने एक ऐसे राज्य की स्थापना की जो पूर्णरूपेण भारतीय था। खलीफा के द्वारा मान्यता प्राप्त किये जाने के बाद दिल्ली सल्तनत को वैधानिक आधार भी मिल गया

इक्ता प्रणाली की स्थापना : इल्तुतमिश द्वारा निर्मित शासन व्यवस्था में 'इक्ता-प्रणाली' बड़े ही महत्व की थी। इक्ता का शाब्दिक अर्थ होता है भू भाग। परन्तु व्यावहारिक रूप से वह भूमि अथवा राजस्व या जो किसी व्यक्ति को शासक द्वारा प्रदान किया जाता था। राज्य के प्रति सेवा के पुरस्कार स्वरूप इक्ता का अस्तित्व इस्लाम के प्रारम्भिक काल से ही था। दिल्ली के सुल्तानों में इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम भारतीय सामंतशाही का नाश करने तथा साम्राज्य के संदूरस्थ प्रदेशों को केन्द्र के साथ जोड़ने के उद्देश्य से इक्ता–प्रणाली का सहारा लिया। इससे यातायात और परिवहन सम्बन्धी कठिनाइयां सुलझायी गयीं। नवीन अधिकृत प्रदेशों में भूमिकर वसूल करने की व्यवस्था की गयी और साम्राज्य के समस्त प्रदेशों में शान्ति और व्यवस्था करना संभव हो सका। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानीय समस्याओं तथा समकालीन मांगों की भी मूर्ति इसके द्वारा की गयी। इक्ताओं के अनुदान दो प्रकार के होते थे-छोटे तथा बड़े। छोटे इक्तादारों को सैनिक सेवाओं के बदले भूमि के कुछ भाग का केवल कर वसूलने का अधिकार होता था। परन्तु बड़ी इक्ताओं अथवा प्रान्तों के स्वामियों को प्रशासनिक दायित्व भी निभाना पड़ता थ। ऐसे इक्तादार अपने प्रान्त में शान्ति सुव्यवस्था स्थापित रखते थे और आवश्यकता पड़ने पर केन्द्रीय सरकार की अपनी सेना से मदद पहुंचाते थे। परन्तु इस प्रणाली में स्वयं ऐसे तत्व थे जिनसे सामंती व्यवस्थाएं विकसित हो सकती थीं। इल्तुतमिश ने इसे यथासंभव रोककर रखा। इक्तेदारों की तबादला कर उसने इक्ता प्रणाली की नौकरशाही विशेषता पर बल दिया।

सैन्य-संगठन : सैन्य संगठन की दिशा में इल्तुतमिश की उपलब्धियों की जानकारी हमें प्राप्त साधनों से नहीं मिलती है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उसने ही सर्वप्रथम शाही सेना का संगठन किया। ऐसे सैनिकों की भर्ती, वेतन भुगतान तथा प्रशासन केन्द्रीय सरकार करती थी।

शिक्षा-साहित्य तथा विभिन्न कलाओं का संरक्षण : यद्यपि इल्तुतमिश का जीवन अधिकतर युद्धों में ही व्यतीत हुआ. फिर भी शिक्षा, साहित्य और विभिन्न कलाओं में उसने अपनी गहरी अभिरूचि का प्रदर्शन किया। सुल्तान स्वयं प्रकांड विद्वान नहीं था, पर वह विद्वानों के गुणों की सराहना करता था और उन्हें राज्याश्रय प्रदान करता था। उसके शासन काल से मध्य एशिया में अशात वातावरण से क्षुब्ध होकर अनेक लेखक तथा विद्वान भागकर दिल्ली के दरबार में आ गये थे। सुल्तान ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया था। इस प्रकार उसके शासन काल में दिल्ली का दरबार इस्लामी शिक्षा, साहित्य एवं ज्ञान-विज्ञान का महत्वपूर्ण केन्द्र हो गया।
इल्तुतमिश विभिन्न कलाओं में और विशेष रूप से स्थापत्य कला में गहरी अभिरूचि रखता था। यद्यपि कुतुबमीनार का निर्माण कार्य का प्रारम्भ कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा किया गया थ, किन्तु इसका समापन इल्तुतमिश के काल में हुआ। इसके अलावा सल्तान ने अनेक मीनारों, मस्जिदों, मदरसे, खानकाह तथा तालाब भी बनवाए। दिल्ली का वास्तविक निर्माता वही था। उसने उसे वह सांस्कृतिक वातावरण प्रदान किया जिससे दिल्ली उस युग में इस्लामी सभ्यता संस्कृति का एक महान केन्द्र बन गया। मिनहाज ने लिखा है, "उसने दिल्ली में संसार के विभिन्न प्रदेशों से लोग एकत्रित किए। ... यह नगर इस पवित्र शासक द्वारा प्रदत्त बहुसंख्यक अनुदानों और असीम कृपाओं से संसार के विभिन्न भागों के ज्ञानियों, चरित्रवानों और विशेषज्ञों के लिए शरण का स्थान बन गया ... ।" यह बात ध्यान देने योग्य है कि दिल्ली सल्तनत के साहित्य में दिल्ली को केवल उसके नाम से ही स्मरण नहीं किया जाता था बल्कि या तो उसका 'हजराते दिल्ली' (प्रतिभाशाली दिल्ली) या 'नगर' नाम ही उल्लेख होता है।
इल्तुतमिश की धर्मिक नीति : इल्तुतमिश कट्टर सुन्नी था और उसने अपने युग के अन्य मुस्लिम शासकों की तरह अनुदार एवं संकीर्ण धार्मिक नीति का अनुसरण किया। वह नियमपूर्वक प्रतिदिन पांच बार नमाज पढ़ता तथा धार्मिक कृत्य किया करता था। एक कद्दर सुन्नी होने के नाते शिया सम्प्रदाय के प्रति भी वह अत्यन्त अनुदार बना रहा। उसकी इस नीति से चिढ़कर ही एक बार शियाओं ने उसकी हत्या का भी प्रयास किया। हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार अच्छा नहीं था। उसने हिन्दुओं के अनेक मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट भ्रष्ट किया था। उसके ऊपर मुल्ला, मौलवी तथ उलेमा वर्ग के लोगों का गहरा प्रभाव था। उसकी अनुदार धार्मिक नीति के परिणाम अच्छे नहीं हुए। शियाओं के विद्रोह की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। उसकी नीति से असंतुष्ट होकर हिन्दुओं ने भी अनेकों बार विद्रोह किये। इससे भी बुरी बात तो यह हुई कि शासन और राजनीति में उलेमा वर्ग का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया जिसके दुष्परिणाम बाद में सल्तनत के लिए विध्वंसकारी साबित हुए।

इल्तुतमिश की मृत्यु

जब इल्तुतमिश बनियान पर आक्रमण करने के लिए जा रहा था, तभी मार्ग में वह बीमार पड़ गया। उसने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया और रूग्णावस्था में ही दिल्ली वापस लौट गया। हकीम लोग उसके रोग को अच्छा नहीं कर सके और अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गयी।

इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी : रूकनुद्दीन फीरोजशाह (1236 ई.)

इल्तुमिश के कई पुत्र थे, किन्तु सब अयोग्य थे। अतः उसने अपने मरने से पूर्व अपनी लड़की रजिया को अपना उत्तराधि कारी नियुक्त किया और इस सम्बन्ध मे अपने तुर्की अमीरों का सम्बन्ध में अपने तुर्की अमीरों का समर्थन भी प्राप्त कर लिया, परन्तु इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद मुस्लिम सरदारों ने एक स्त्री को अपनी शासिका बनाना उचित न समझकर इल्तुमिश के बड़े मुत्र रूकनुद्दीन फीरोजशाह को सिंहासन पर बैठा दिया।
रूकनुद्दीन एक अयोग्य एंव विलासी व्यक्ति था। उसने राजकीय कोष का अपार धन व्यर्थ में गंवा दिया। इतिहासकार मिनहाज लिखता है कि," वह (रूकनुद्दीन) भोग-विलास में डूब गया और अनुचित स्थानों पर राज्य के धन को नष्ट करने लगा।" लेनपूल उसका चरित्र-चित्रण इस प्रकार करता है, "फिरोजशाह प्रथम सुन्दर, दयालु, उदार हृदय, ऐय्याशी, मूर्ख नौजवान था, जो अपना धन गवैयों, मसखरों और बुरी आदतों में उड़ाता था। शराब के नशे में चूर होकर वह अपने हाथी पर झूमता हुआ प्रशंसकों की भीड़ पर चमचमाती सोने की मुहरें फेंकता हुआ चलता था।"
रूकनुद्दीन शासन प्रबन्ध के प्रति उदासीन था। अतः राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसकी माता शाह तूर्कान के हाथ में केन्द्रित हो गई। शाह तर्कान बड़ी महत्त्वाकांक्षी और निर्दयी स्त्री थी। उसने अपनी स्थिति को दृढ बनाने के लिए सैनिकों तथा उनके पुत्रों पर अत्याचार करणे शुरू कर दिये। उसने कई अमीरों का वध करवा दिया और इल्तुतमिश के युवापुत्र कुतुबुद्दीन को अन्धा बनवाकर मरवा डाला। इससे सरदार सुल्तान के विरूद्ध हो गये। राज्य की सुरक्षा संकट में पड़ गई तथा राज्य में अराजकता फैल गई। परिणास्वरूप दिल्ली के तुर्क सरदारों ने शाह तुर्कान और रूकद्दीन को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया और रजिया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया गया। इसके बाद नवम्बर, 1236 ई. में शाह तुर्कीन और रूकनुद्दीन को मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार कुछ ही महीनों में रूकनुद्दीन के शासन का अन्त हो गया।

इल्तुतमिश का चरित्र तथा मूल्यांकन

इल्तुतमिश वीर किन्तु सावधान सैनिक था। उसमें सहस, बुद्धिमत्ता, संयम तथा दूरदर्शिता आदि महत्त्वपूर्ण गुण थे। वह योग्य तथा कुशल शासक भी था। जो व्यक्ति प्रारम्भ में गुलाम का गुलाम रह चुका था, उसके लिए दिल्ली की गद्दी प्राप्त कर लेना और उस पर 25 वर्ष तक शासन करना कोई साधारण बात नहीं थी। अपने स्वामी तथा पूर्वाधिकारी कुतुबुद्दीन की भाँति उसे एक विशाल साम्राज्य की नैतिक तथा भौतिक सहायता प्राप्त नहीं थी। उसकी सम्पूर्ण सफलताओं का श्रेय स्वयं उसी को था। उसने अपना जीवन अत्यन्त हीनावस्था से प्रारम्भ किया था परन्तु उसने कतबुद्दीन के अधूरे कार्य को पूरा किया और उत्तरी भारत में शक्तिशाली तुर्की साम्राज्य की स्थापना की। उसने मुहम्मद गोरी द्वारा विजित प्रदेशों को पुनः जीता और राजपूताना तथा आधुनिक उत्तर प्रदेश के अधिकांश भाग को जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित किया। मल्तान और सिन्ध कुतुबुद्दीन के हाथ से निकल चुके थे। इल्तुतमिश ने उन्हें पुनः जीतकर दिल्ली सल्तनत का अंग बनाया। उसने तुर्की सल्तनत की विजयों को नैतिक प्रतिष्ठा प्रदान की। उसने उसकी मंगोलों के आक्रमणों से उस समय रक्षा की जबकि मध्य एशिया के बड़े-बड़े राज्य उनके प्रहारों से चकनाचूर होकर धराशायी हो गये थे। इसके अतिरिक्त उसने अपने तुर्की प्रतिद्वन्द्वियों का दमन किया और उन पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने एक सैनिक राजतंत्र की नींव डाली जो आगे चलकर खलजियों के नेतृत्व में निरकुंशता का पराकाष्ठा को पहुँच गया। एवबी. एम हबीतुल्ला के अनुसार "ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की सीमाओं और उसकी संप्रभुता की रूपरेखा बनाई। इल्तुतमिश, निस्संदेह उसका पहला सुल्तान था।" अपने अथक परिश्रम व सावधानी से उसने गोरी द्वारा अधिकृत प्रदेश की दुर्बलता को समाप्त करते हुए एक सुसंगठित सल्तनत का निर्माण किया। उसमें रचनात्मक योग्यता थी जिसके आधार पर छब्बीस वर्ष की निरन्तर राजनयिक और सैनिक गतिविधियों के बाद उसने दिल्ली की सल्तनत की रूपरेखा बनाई। के.ए. निजामी के शब्दों में ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा के बारे में सिर्फ दिमागी खाका बनाया था, इल्तुतमिश ने उसे एक व्यक्तित्व, एक पद, एक प्रेरणा शक्ति, एक दिशा, एक शासनव्यवस्था और एक शासक वर्ग प्रदान किया।" राज्यारोहण के समय उसे अस्त-व्यस्त राजनीतिक वातावरण और अनिश्चित परिस्थितियों के संकट से गुजरना पड़ा। उसके पथ-प्रदर्शन के लिए कोई परम्परा नहीं थी और उसने अपना मार्ग अपने आप चुना। अपने परिश्रम और दूरदर्शिता से वह अपने राज्य को संगठित कर सका। उसे मध्यकालीन भारत क एक श्रेष्ठ शासक माना जाता है। आर.पी. त्रिपाठी कहते हैं, "भारतवर्ष में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक श्रीगणेश उसी से होता है।"

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