बाल अपराध क्या है? अर्थ, परिभाषा, कारण, विशेषताएं | Child Crime in Hindi | bal apradh

बाल अपराध

भारत में 14 वर्ष तक की आयु तक के तथा अमरीका में 16 वर्ष तक की आयु के ऐसे बालक, जा समाज-विरोधी अपराधों या कुकृत्यों में लिप्त पाये जायें, बाल-अपराधी कहलाते हैं। ऐसे बालक चोरी, जेबकतरी, आवारागर्दी, बुरे व्यक्तियों के साथ घूमना-फिरना, भीख माँगना, यौन अनाचार, शराब लाना और ले जाना, लूटमार, गुंडागर्दी, स्कूल से भाग जाना, अनुशासन भंग करना आदि कामों में रत पाये जाते हैं।
Child Crime in Hindi
प्रायः निर्धनता, छोटे और गंदे मकान, बुरी परिस्थितियाँ, टूटे परिवार, पारिवारिक संघर्ष, स्नेह के अभाव, बुरी संगति आदि के फलस्वरूप बालक बाल अपराधी बन जाते हैं। मनोरंजन के अभाव, बुरे मनोरंजन, यौन साहित्य, मानसिक हीनता, उद्वेगात्मक संघर्ष और अस्थिरता, बुरे चलचित्र, टेलीविजन आदि भी बालकों को अनैतिक, असामाजिक खतरों से बचाने तथा उनकी शिक्षा को गतिरोध से मुक्त करने के लिए उनका सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।
माता, पिता और शिक्षकों को वह बतलाया जाना चाहिए कि वे किस प्रकार बालकों से व्यवहार करें। बालकों को समुचित नैतिक शिक्षा भी देने की व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे बालकों के लिए उत्तम सुधार - गृह, रिमांड होम आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। आजकल भारत में कई ऐसी संस्थाएँ बनी हुई हैं। नगरीकरण, औद्योगीकरण तथा आधुनिकीकरण के फलस्वरूप बाल अपराधियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होने की आशंका है। अतः समाज को इस दिशा में सजग रहकर समुचित प्रयास करना चाहिए।

वर्तमान समाजों में सर्वत्र बाल अपराध एक गम्भीर सामाजिक समस्या के रूप में स्पष्ट हुई है। नगरीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न विभिन्न सामाजिक दशाओं ने पारिवारिक संरचना को बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित किया, जिससे उसके संस्थागत स्वरूप में परिवर्तन हो गया। औद्योगीकरण की प्रक्रिया ने भी इस समस्या को उभारने में सहयोग दिया। ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्रों की ओर सत्यापन/प्रवासित करने वाले अथवा गन्दी/मलिन बस्तियों में रहने वाले नगरों/शहरों में समंजन करने वाले अनेक बच्चे बाल अपराध हो जाती है। जे.सी. दत्त के शब्दों में, "भारत में बाल अपराध बड़ी तीव्र गति के साथ एक अत्यन्त गम्भीर संकट होता जा रहा है तथा देश के विभिन्न भागों के, जो कि आज से कुछ वर्ष पूर्व अनिवार्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के ही एक अंग थे, प्रगतिशील औद्योगीकरण के साथ-साथ यह समस्या अनेक पाश्चात्य देशों में उपलब्ध स्थान को शीघ्र ही ग्रहण कर लेगी।"

(अ) बाल अपराध के सन्दर्भ में सामान्य व्यक्तियों और कुछ समाज-वैज्ञानिकों के विचार अपर्याप्त भ्रमपूर्ण एवं दोषपूर्ण है। विभिन्न कारणों में से एक यह भी है कि बाल-अपराधी केवल अल्पायु के अपराधी हैं अर्थात् वे अवयस्क अपराधी या बालक है तथा जो देश के कानून द्वारा निर्धारित 7 और 16 या 18 वर्ष की आयु के है। भारत में 1986 में पारित जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के अनुसार अब बाल अपराधियों की अधिकतम आयु लड़कों के लिए 16 वर्ष तथा लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गयी है। युवा जो भगोड़ापन, कर्म पलायन, आवारागर्दी, व्यभिचार तथा बेलगामी जैसी स्थिति, दोषों में लिप्त होते हैं, वे भी बाल-अपराध की परिभाषा में सम्मिलित होते हैं। न्यूमेयर, जेम्स शार्ट जूनियर, रिचर्ड, जेक्सिन और वाल्टर रैलकेस ने भी बाल-अपराध की अवधारणा में व्यवहार के प्रकार पर बल दिया है। आयु एवं व्यावहारिक उल्लंघन जो कानूनन वर्जित है, दोनों ही बालापराध की अवधारणा में महत्वपूर्ण तत्व है। स्पष्ट है कि बाल अपराध एक अल्पायु व्यक्ति का वह कार्य/व्यवहार है जो प्रत्यक्ष रूप से कारणों व अध्यादेशों के विरुद्ध होता है।

बाल अपराध का अर्थ एवं परिभाशा

प्रत्येक समाज अपने सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रित करने के तथा सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता और निरन्तरता कायम रखने के लिए कुछ औपचारिक कानूनों का निर्माण करता है। समाज के कानूनों का उल्लंघन आदि व्यस्क व्यक्ति करते हैं तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा जाता है, किन्तु यदि निश्चित आयु से कम आयु के व्यक्ति करते हैं, तो उसे बाल अपराध कहते हैं। अपराध और नासमझी/नादानी में किये जाने वाले कार्य में अन्तर होता है, क्योंकि छोटे और अपरिपक्व बालकों से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वे समाज के हित-अनहित से पूर्णतया विज्ञ हो। बालपन में उनके गैर-कानूनी अपराध खेल-खेल और मौज-मस्ती में हो जाते हैं। स्पष्ट है कि कानून द्वारा निर्धारित उच्चतम एवं निम्नतम आयु सीमा के बीच के व्यक्ति का ऐसा कोई भी कार्य जो कानून के विरुद्ध हो, बाल अपराध कहा जाता है।
बाल अपराध, अपराधी कानूनों के द्वारा वर्जित व्यवहार है, जिसका निपटारा कानून के अन्तर्गत किया जा सकता है।
  1. डॉ० सेथना के अनुसार, “बाल-अपराध में एक विशेष स्थान पर उस समय लागू कानून द्वारा निर्धारित एक निश्चित आयु के बालकों या युवकों द्वारा किये गये, अनुचित कार्य सम्मिलित होते हैं।"
  2. गिलिन और गिलिन के अनुसार, "समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण में अपराधी या बाल-अपराधी एक ऐसा व्यक्ति है, जो ऐसे कार्य का अपराधी है, जिसको वह समूह, जिसमें अपने विश्वासों को कार्यान्वित करने की शक्ति है, समाज के लिए हानिकारक समझता है, इसलिए ऐसा कार्य करना मना है।"
  3. न्यूमेयर के अनुसार, “बाल अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है, जिसने समाज-विरोधी कार्य किया है तथा जिसका दुर्व्यवहार कानून को तोड़ने वाला है।"
  4. मावरर के अनुसार, “बाल अपराधी वह व्यक्ति है, जो जान-बूझकर इरादे के साथ एवं समझते हुए समाज की रूढ़ियों की उपेक्षा करता है, जिससे उसका सम्बन्ध है।"
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि बाल-अपराध एक निश्चित आयु से कम के बच्चों द्वारा किया जाने वाला वह कार्य है, जो समाज विरोधी हो। बाल-अपराध की धारणा भिन्न-भिन्न समाजों में तथा समयों के अनुसार परिवर्तित होती रही है।

भारत में बाल अपराध की निम्नलिखित मुख्य विशेषतायें पाई जाती हैं -
  1. भारत में 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों द्वारा किये गये अपराध को किसी भी श्रेणी में नही रखा जाता है, क्योंकि इस अवस्था में बच्चे में अपराध करने का कोई इरादा नही होता है।
  2. 7 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के अपराधियों को बाल अपराधी तथा 16 से 21 वर्ष की आयु के अपराधियों को किशोर अपराधी कहा जाता है।
  3. बाल अपराध का तात्पर्य साधारण अपराध से है।
  4. भारत में भिन्न-भिन्न राज्यों में इसकी आयु सीमा अलग-अलग है।

बाल अपराध की विशेषतायें

  1. बाल अपराधी खाली समय की देन है।
  2. बाल अपराधी का मस्तिष्क अपरिपक्व होता है।
  3. बाल अपराधी में अपराध का इरादा नहीं होता है।
  4. बाल अपराधी घनी जनसंख्या वाले क्षेत्र में अधिक होते हैं।
  5. प्रत्येक देश में बाल अपराधियों की एक निश्चित आयु होती है।
  6. बाल अपराध सामान्यतः अनजाने में या खेल-खेल में होता है।

बाल अपराध के कारण

विभिन्न अपराधशास्त्रियों ने बाल-अपराध के कारणों की अलग-अलग विवेचना प्रस्तुत की है, यथा -
इलियट तथा मेरिल के अनुसार।
  1. वंशानुगत कारण - अ. नष्ट घर, ब. अर्द्धनष्ट घर, स. अनैतिक घर, द. माता-पिता द्वारा उपेक्षा, य. अपराधी भाई-बहनों का साथ में रहना, र. आर्थिक और बाह्य तत्वों वाला अनुपयुक्त घर।
  2. भारीरिक तथा जैविकीय कारक - अ. शारीरिक दोष/कमियाँ, ब. अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की दूषित कार्य प्रणाली, स. पैतृकता/आनुवंशिकता, द. अत्यधिक विकास एवं आवेग, य. बुरा स्वास्थ्य।
  3. मनोवैज्ञानिक कारक - अ. मानसिक हीनता, ब. संवेगात्मक संघर्ष और अपंगता, स. सामुदायिक कारक, द. मनोरंजन और अपराध, य. समाचार-पत्र और अपराध, र. स्कूल और बाल अपराध, ल. संगति और सामूहिक अनुभव, व. युद्ध और बाल अपराध

मार्टिन के अनसार
  1. व्यक्तित्व सम्बन्धी कारक
  2. पारिवारिक परिस्थितियाँ
  3. सम्पर्क और संगति
  4. सामुदायिक संस्थाओं का प्रभाव
  5. जनसंख्या और सांस्कृतिक कारक
  6. आर्थिक और भौतिक पर्यावरणीय कारक
  7. कानून का अपर्याप्त पालन।

हीली और बोचर के अनुसार
  • बुरी संगत
  • किशोर अवस्था की अस्थिरता और आवेग
  • शीघ्र यौन अनुभव
  • मानसिक संघर्ष
  • जोखिम उठाने के प्रति प्रेम
  • सिनेमा
  • स्कूली असन्तोष
  • हीन मनोरंजन
  • सड़कों पर जीवन
  • व्यवसाय विषयक असंतोष
  • आकस्मिक आवेग
  • सभी शारीरिक दशायें।

बाल अपराध के मुख्य कारण

(अ) परिवार सम्बन्धी कारक
परिवार को बच्चे की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है। क्योंकि बालक की प्रारम्भिक शिक्षा परिवार द्वारा ही होती है अर्थात् बच्चा बहुत कुछ अपने परिवार से ही सीखता है। यदि परिवार अच्छा है, तो बालक भी अच्छा होगा। निम्नलिखित परिवारों में बाल अपराधी बनने की अधिक सम्भावनायें रहती है।

1. भग्न परिवार - टूटे परिवार वे परिवार कहलाते हैं, जिसमें माता-पिता में बालक की देखरेख के लिए कोई नहीं होता है अर्थात् बालक क्या कर रहे है जो भी बालक के मन में आता है, वह करता है, प्रेम स्नेह से वंचित रहते हैं। इस कारण से बालक अधिक समय घर से बाहर रहता है और बुरी आदतों को सीखता है।

2. अर्द्ध नश्ट - यह वे परिवार कहलाते हैं, जो पूर्णतया नष्ट तो नहीं होते हैं, लेकिन नष्ट होने की प्रक्रिया में रहते हैं। इस प्रकार के परिवार में माँ-बा पके पास इतना समय नहीं होता है कि वह अपने बच्चों की उचित देखभाल कर सके। ऐसी स्थिति में बच्चे का उचित प्रकार से न तो पालन-पोषण हो पाता है और न ही विकास। इसका मुख्य कारण माता-पिता दोनों का नौकरी करना होता है। बालक स्वतंत्र रहता है और बुरी आदतों का शिकार हो जाता है।

3. अनैतिक परिवार - इस प्रकार के परिवारां में किसी भी परिवार से शिक्षित और ईमानदार बच्चों के विकास की कल्पना नही की जा सकती है। जैसे यदि- माता-पिता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ जुआ खेलते हैं तथा अन्य स्त्रियाँ और पुरूषों के साथ अनैतिक सम्बन्ध रखते है तो इनका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है और उनमें अपराधी प्रवृत्ति जागृत होती है।

4. माता-पिता द्वारा उपेक्षा - जिन परिवार में माता-पिता सौतेले होते हैं, उन परिवारों में सामान्यतः बच्चों की उपेक्षा होती है। यह उपेक्षा बच्चे का मानसिक सन्तुलन बिगाड़ देती है जिससे बच्चों में घृणा, क्रूरता तथा प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो जाती है, जो बाल अपराध को प्रोत्साहित करती है।

5. अपराधी भाई-बहनों का प्रभाव - परिवार में बालकों पर केवल माता-पिता का ही प्रभाव नहीं है, बल्कि भाई-बहनों का भी प्रभाव पड़ता है। प्रायः ऐसा देखा गया है कि जिन परिवारों में बड़े भाई दुष्चरित्र होते है, तो छोटे भाई बहिन भी दुष्चरित्र हो जाते हैं।

6. अधिक संख्या वाले परिवार - जिन परिवारों में सदस्यों की संख्या अधिक होती है, उन परिवारों में बच्चों की न तो उचित देखभाल हो पाती है और न ही नियंत्रण रह पाता है, जिससे परिवार के सदस्यों में ही संघर्ष होता रहता है तथा बालकों में गन्दी आदतें विकसित होती है।

7. दोशपूर्ण आवास - औद्योगीकरण की प्रक्रिया में आवारा की सबसे बड़ी समस्या पायी जाती है। भारत में प्रति व्यक्ति कम आय और मकानों की कमी के कारण एक कमरे वाले मकान में अनेक बच्चे रहते हैं। इन मकानों के बच्चे अवांछित घटनाओं को देखते हैं, जिनका उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके फलस्वरूप बच्चों में यौनिक अपराधों की प्रवृत्ति बढ़ती है।

(ब) सांस्कृतिक कारक
बाल अपराध में कतिपय सांस्कृतिक कारण भी सहयोगी सिद्ध होते हैं

1. सांस्कृतिक विशमतायें - सांस्कृतिक विषमताओं से हमारा तात्पर्य बच्चे के माता-पिता में नियमों तथा उसके साथियों के व्यवहार प्रतिमान में अन्तर से ही है। ऐसी स्थिति में बच्चा अपने माता-पिता के व्यवहार प्रतिमान को स्वीकार नहीं करता और उसे अपने साथियों के व्यवहार प्रतिमान की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती, जिससे बच्चे में अपराधी प्रवृत्ति विकसित होती है।

2. नैतिक पतन - जब बच्चों का समाज में नैतिक पतन होने लगता है तो बाल अपराध भी बढ़ने लगता है। नैतिकता का उद्देश्य मानवीय गुणों का विकास करना है। लेकिन जब समाज में ऐसा वातावरण बन जाये कि अधिकारी भ्रष्ट हो जायें, रिश्वतों के द्वारा नियुक्तियाँ हो, तो ऐसी दशा में बच्चे अपराधी व्यवहार द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगते हैं।

3. जाति विभेद - भारत में जाति-प्रथा भी बाल अपराध को प्रोत्साहित करती है। उच्च जातियों को आज भी समाज में विशेष अधिकार प्राप्त है, जबकि अन्य निम्न जातियाँ आज भी निर्योग्यताओं में जीवन व्यतीत कर रही है। यद्यपि भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् इन निर्योग्यताओं को समाप्त कर दिया है, लेकिन निम्न जाति के बच्चे आज भी स्कूलों तथा सार्वजनिक स्थानों पर अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। यही निराशा उनमें प्रतिशोध को जन्म देती है

(स) आर्थिक कारक
बालक पर आर्थिक कारक भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं। यद्यपि बालक का अर्थ से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, फिर भी अर्थ के अभाव में बच्चे का पालन-पोषण तथा चरित्र निर्माण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में बच्चे में अपराधी मनोवृत्तियाँ जागृत होती है।

1. निर्धनता - समाज में निर्धनता एक अभिशाप है, जिसके कारण अनेक समस्याओं का जन्म होता है। निर्धनता के कारण न तो बालक को अच्छी शिक्षा मिल पाती है और न ही उसकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है निर्धनता की स्थिति में माता-पिता द्वारा की गई अवहेलना तथा शारीरिक प्रताड़ना से बच्चे में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न होती है। इससे बच्चा प्रायः उद्दण्ड हो जाता है। यही उद्दण्डता दिन-प्रतिदिन बालक को अपराधी बनाने में सहायक होती है।

2. माताओं तथा बच्चों की नौकरी - प्रायः ऐसा देखा गया है कि आर्थिक कठिनाई के कारण बच्चे छोटी आयु में ही नौकरी करने लगते हैं या माँ को नौकरी करनी पड़ती है। यदि माँ नौकरी करती है, तो बच्चे दिन भर आवास घूमते रहते हैं। ऐसी स्थिति में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों द्वारा अनैतिक अपराध की ओर बढ़ने की सम्भावना अधिक रहती है। इसके अलावा जो बच्चे होटलों तथा चाय की दुकानों पर काम करते हैं, वे शीघ्र अपराधी व्यवहार सीख जाते हैं।

3. आर्थिक तनाव - आर्थिक तनाव भी बच्चे को अपराध की ओर ले जाता है। इसके अन्तर्गत प्रतिष्ठित परिवार के बच्चे भी आ जाते हैं। यह बच्चे घर में ही चोरी करते हैं।

(द) सामुदायिक कारक
सामुदायिक कारक भी बहुत बड़ी सीमा तक बच्चे को अपराधी बनाने में सहायक होते हैं। जिस समुदाय में बच्चा रहता है, यदि उसका वातावरण अच्छा नहीं है, तो बालक अपराधी बन जाता है। इसमें हम निम्नलिखित बातों को लेते हैं -

1. मनोरंजन - उचित मनोरंजन की सुविधा होने पर बाल अपराध की दर में कमी आती है। खाली समय में यदि बच्चा न तो स्कूल जाता है और न ही कोई काम करता है, तो वह अपराध की ओर बढ़ता है। बड़े-बड़े शहरों में पार्क वगैरह ऐसे स्थान पर होते हैं, जहाँ व्यक्ति मनोरंजन के लिए एकत्रित होते हैं। लेकिन यही स्थान बच्चों को भी अपराध के लिए सुविधायें प्रदान करते हैं।

2. विद्यालय - विद्यालय ऐसा परिवेश है, जहाँ बच्चों को उचित सामाजिक जीवन व्यतीत करने का अवसर मिलता है। लेकिन यदि विद्यालय का वातावरण अच्छा नहीं है, तो बच्चे को विद्यालय से अरूचि होने लगती है। वह विद्यालय से भागता है तथा सारा दिन फुटपाथ पर काटता है और एक दिन बाल अपराधी बन जाता है।

3. युद्ध - युद्ध सामाजिक विघटन का एक महत्वपूर्ण कारक है। जहाँ युद्ध से सामाजिक विघटन होता है, वहीं पर सामान्य घरेलू जीवन को भी नष्ट करता है। एल्सा कास्टेन्डिक ने बाल अपराध व युद्ध का अध्ययन किया है। वे लिखते हैं कि “यूरोप में युद्ध के कारण बच्चों की शिक्षा बन्द हो गयी थी क्योंकि बच्चों के माता-पिता युद्ध कार्य में व्यस्त थे तथा बच्चों की देख-रेख करने वाला कोई नहीं था।"

अन्य कारक
बाल अपराध के उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक कारकों के आधार पर बाल-अपराध को समझा जा सकता है। मनोवैज्ञानिक आधार पर मानसिक अस्थिरता, हीनता की भावना तथा बुद्धि की कमी भी बाल अपराध का कारण है। जिन परिवारों में पारिवारिक अशान्ति तथा कलह का वातावरण रहता है, उन परिवारों में बच्चा यह तय नहीं कर पाता है कि उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए। यह स्थिति बालक को अपराधी बना देती है।

बाल अपराधियों के सुधार कार्य

भारत में बाल अपराधियों का सुधार कार्य सन् 1850 से प्रारम्भ किया गया है। भारत सरकार ने सर्वप्रथम एक शिक्षार्थी अधिनियम बनाकर 10 से 18 वर्ष की आयु के बिना उद्देश्य घूमने वाले बच्चों के लिए किसी उद्योग में प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की। सन् 1857 में भारतीय दण्ड संहिता में यह व्यवस्था की गयी कि 15 वर्ष से कम आयु के बाल अपराध को न्यायालय जेल के स्थान पर सुधार गृह भेजने का भी आदेश दे सकता है।

भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् बाल अपराधियों को सुधारने हेतु निम्नलिखित कार्य किये गये है -
  • बाल न्यायालयों की स्थापना - भारत में सन् 1960 में बाल अपराध नियम पारिम किया गया है, जिसके द्वारा बाल अपराधियों के मुकदमें की सुनवाई तथा उनके सुधार कार्य के लिए बाल-न्यायालयों तथा कल्याण परिषदों की व्यवस्था की गयी हैं। इनमें न तो सामान्य न्यायालय जैसा वातावरण होता है, न वकील जिरह करते हैं, बल्कि सहानुभूतिपूर्वक बालक के अपराध करने का कारण जाना जाता है। पुलिस सादे वेश-भूषा में रहती है, इसकी सभी कार्यवाही इस प्रकार से होती है कि बच्चे में किसी प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होता है। इसके बाद भी यदि बालक दोषी पाया जाता है तो उसे जेल में न भेजकर सुधार गृह में भेजा जाता है।
  • सुधार गृह - प्रत्येक राज्य ने बाल-अपराधियों के लिए सुधार गृहों की स्थापना की है। 15 वर्ष से कम आयु के बाल-अपराधी को जेल में न भेजकर सुधार गृहों में भेजा जाता है जिससे वह जेल में रहने वाले अपराधियों या पेशेवर अपराधियों के सम्पर्क में न आ सकें। ऐसे सुधार गृहों में बच्चों के लिए भोजन, वस्त्र, जल आदि की उत्तम व्यवस्था की जाती है। रोगियों के लिए चिकित्सा की व्यवस्था की जाती है तथा प्रत्येक बच्चे को औद्योगिक प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वह इन सुधार गृहों से निकलने के बाद रोजगार प्राप्त कर सके। इन सुधारगृहों में नैतिक शिक्षा के द्वारा अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न की जाती है।
  • बोटल संस्थायें - अनेक राज्यों में आज बोर्टल स्कूल अधिनियम की लागू है। इसके अनुसार 15 वर्ष से 21 वर्ष तक के किशोर अपराधियों के लिए एक पृथक संस्था की व्यवस्था की गयी है। यह संस्थायें दो प्रकार की है - बन्द तथा खुली। इनमें बच्चों की बुरी आदतों को छुड़वाने का प्रयास किया जाता है।
  • प्रमाणित स्कूल - इन स्कूलों में कम आयु के साधारण अपराधियों को तकनीकी प्रशिक्षण देकर उनकी स्थिति में सुधार किया जाता है। इनमें 10 से 12 व 12 से 18 वर्ष तक के बच्चों को रखा जाता है। इन स्कूलों में असामान्य मस्तिष्क के बाल अपराधियों को रखा जाता है। ऐसे अपराधियों की मानसिक चिकित्सा की जाती है तथा उनका प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया जाता है।
  • उत्तर संरक्षण संस्थायें - भारत में तमिलनाडु, गुजरात तथा महाराष्ट्र में बाल अपराधियों के लिए अनेक उत्तर संरक्षण संस्थाएं स्थापित की गयी है। यह व्यवस्था आंशिक रूप से उत्तर प्रदेश तथा बिहार में भी क्रियाशील है। उत्तर रक्षा सुविधाओं का अर्थ उन सुविधाओं से है, जो बाल अपराधियों को दण्ड की अवधि पूरी होने या कुछ अवधि शेष रहने पर प्रदान की जाती है। अपराधी को छ: माह तक सुधार गृह में रह लेने के समय तक यदि यह विश्वास हो जाये, कि उसका आचरण अच्छा है, तो उसे किसी विश्वस्त व्यक्ति की देखरेख में छोड़ा जा सकता है।
  • रिमाण्ड गृह - नई व्यवस्था के अनुसार पकड़े गये बाल अपराधियों को पुलिस की हिरासत में रखकर विशेष सदन में रखा जाता है तथा बच्चे के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया जाता है और 24 घण्टे के अन्दर उसे किसी न्यायाधीश के सामने पेश करना होता है। इन गृहों में उन बच्चों को रखा जाता है, जो घर से भागे हुए, बेघरबार या टूटे परिवार के सदस्य होते हैं।
  • बाल अपराध निरोध के सुझाव - भारत में बाल अपराधियों की संख्या में वृद्धि को देखते हुए इस बात की आवश्यकता है कि इन सुधार के साथ-साथ ऐसे उपाय करें जिससे बच्चे को अपराधी बनने से रोका जा सके। इसके लिए उन परिस्थितियों को दूर अथवा कम करना होगा, जो बाल अपराध को जन्म देती है।

इन्हें निम्न तरह से स्पष्ट किया जा सकता है।
  1. डॉ0 सेथना ने बाल अपराध निरोध के अभ्यागत अध्यापक व्यवस्था का सुझाव दिया है। इसके अनुसार अध्यापक यदि बच्चे के माता-पिता से मिलकर बच्चे के बारे में पूरी जानकारी कर लें, तब शिक्षा करें, तो बच्चे को अपराधी बनने से रोका जा सकता है। 
  2. परिवार में माता-पिता अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए बच्चे का उचित रूप से पालन-पोषण करें तथा उन पर वांछित नियंत्रण रखें।
  3. निर्धन परिवार के बालकों के लिए मुक्त शिक्षा की व्यवस्था की जायें, ताकि उनके माता-पिता बच्चे को पढ़ाने में रूचि ले। 
  4. प्रायः देखा गया है कि बच्चे बुरी संगति में ही पड़कर अपराध करते हैं। अतः कानून में परिवर्तन करना चाहिए, ताकि कम आयु के बच्चों को गुमराह करने वाले व्यक्तियों को दण्ड दिया जा सके।
  5. मनोरंजन के साधनों में सुधार किया जायें, नगरों में पार्क बनवाये जायें, तथा बच्चों को चलचित्र और अश्लील साहित्य आदि से बचाया जाये।
  6. बड़े-बड़े नगरों तथा औद्योगिक केन्द्रों पर तथा घनी बस्तियों में सलाहकार समितियां बनाई जायें, जो पिछड़े हुए बच्चों के माता-पिता का उचित सलाह दे सकें।
  7. स्त्री शिक्षा का विकास किया जाये। यदि परिवार में स्त्री शिक्षित होगी, तो वह बच्चों का उचित रूप से पालन पोषण कर सकेगी।
  8. बच्चों को अपराध के लिये प्रेरित करने वाले कारकों को विफल बनाने हेतु अपराध-निवारण का कार्य करने वाली सभी सरकारी एजेन्सियों को संपूर्ण हृदय के साथ टोली कार्य करना चाहिये।
  9. बाल अपराध निवारण राय से सम्बन्धित सभी संगठनों के सदस्यों और कर्मियों को विश्व रूप से प्रशिक्षित किया जाये।
  10. गंभीर रूप से विक्षुब्ध व कुसमायोजित बालकों के उपचारार्थ बाल-निर्देशन केन्द्रों एवं मानसिक चिकित्सा केन्द्रों की व्यवस्था की जाये।
  11. परिवार को पारिवारिक रहन-सहन, शिक्षा, अन्तर्भावनाशील शक्ति कार्य व सामाजिक स्वास्थ्य और परामर्श सेवा कार्यों की शिक्षा दी जाये।
  12. कम सुविधा प्राप्त बालकों की सेवा तथा सहायता की जाये।
  13. पूर्णकालिंक मनोरंजन एजेन्सियों की स्थापना की जाये, तो सर्वथा स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करे।
  14. प्रेस, समाचार-पत्र, रेड़ियों, दूरदर्शन, सिनेमा आदि के माध्यम से बाल अपराध के विरुद्ध प्रचार किया जाये।
अन्त में निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि यदि सरकार द्वारा, समाज द्वारा तथा परिवार एवं अभिभावकों द्वारा ध्यान दिया जाये, तो बाल अपराधियों की संख्या में तो कमी की ही जा सकती है, साथ ही बाल अपराध को जन्म देने वाली परिस्थितियों को भी समाप्त किया जा सकता है।

सार संक्षेप

प्रस्तुत लेख में बाल अपराध की अवधारणा के साथ-साथ परिभाषा पर विशेष बल दिया गया है। जिसमें बताया गया है कि बाल अपराधी एक निश्चित आयु से कम का वह व्यक्ति है जिसने समाज विरोधी कार्य किया है। तथा जिसका व्यवहार कानून तोड़ने वाला है। प्रस्तुत लेख में ही बाल अपराध की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया गया है।
यह इकाई यह भी बताती है कि बाल अपराध के कौन-कौन से मुख्य कारण है? प्रस्तुत लेख के अन्त में भारत में बाल अपराधियों के सुधार कार्य हेतु सुझाव प्रस्तुत किये गये हैं। प्रस्तुत लेख पूर्ण रूप से बाल अपराध से सम्बन्धित उन तथ्यों को संग्रहित करती है जिससे बाल अपराध के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त हो सके।

पारिभाषिक शब्दावली
  1. बाल अपराधी - भारत में 15 वर्ष तक की आयु के ऐसे बालक जो समाज विरोधी अपराधों या कुकृत्यों में लिप्त पाये जाये बाल अपराधी कहलाते हैं।
  2. सुधार गृह - सुधार गृह से तात्पर्य जहां पर बाल अपराधियों को सुधारने के लिए रखा जाता हो जहां पर नैत्यिक शिक्षा द्वारा अपराध के प्रति घृणा उत्पन्न की जाती है।

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