बेरोजगारी क्या है? बेरोजगारी के प्रकार, कारण, परिणाम, उपाय | berojgari kya hai

बेरोजगारी क्या है

कोई भी देश जो विकसित हो अथवा अल्प विकसित बेरोजगारी एक सामान्य बात है। बेरोजगारी कुशल एवं अकुशल दोनो श्रेणी के श्रमिकों के मध्य पाई जाती है। आर्थिक दृष्टि से देखे तो यह उत्पादन के एक महत्वपूर्ण संसाधन की बर्वादी है। बेराजगारी ऐसी स्थिति का निर्माण करती है जहाँ व्यक्ति का सर्वाधिक नैतिक पतन हो जाता है।
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इस लेख के अध्ययन के बाद आप बेरोजगारी को सामान्य दृष्टि से समझा सकेंगे। आप यह भी समझा सकेंगे कि बेरोजगारी का क्या आशय, उसके कारण, इसके प्रमुख प्रकार एवं इसके दोष और बेरोजगारी निवारण की नीति का विश्लेषण कर सकेगें। आप इससे जुड़ी नीतियों एवं कार्यक्रमों को भी जान सकेंगे।

बेरोजगारी का आशय

कोई भी देश चाहे विकसित हो अथवा अल्प विकसित बेरोजगारी एक सामान्य बात है। बेरोजगारी कुशल एवं अकुशल दोनो श्रेणी के श्रमिकों के मध्य पाई जाती है। आर्थिक दृष्टि से देखे तो यह उत्पादन के एक महत्वपूर्ण संसाधन की बर्वादी है।
बेराजगारी ऐसी स्थिति का निर्माण करती है जहाँ व्यक्ति का सर्वाधिक नैतिक पतन हो जाता है।
बेरोजगारी भारत की एक ज्वलन्त समस्या है जिसकी जड़ गहरी पहुंच चुकी है। आज इसका स्परूप दीर्धता की ओर बढ़ता चला जा रहा है। भारत में ही बेकारी नहीं अपितु बेकारी की समस्या विश्वव्यापी है। सामान्यतया जब एक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई कार्य नहीं मिलता है तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या को बेराजगारी कहते है। दूसरे शब्दों में जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक है और वह शारीरिक रुप से कार्य करने में समर्थ भी है लेकिन कोई कार्य नहीं मिलता जिससे की वह अपनी जीविका का निर्वाहन कर सके तो इस प्रकार की समस्या बेरोजगारी की समस्या कहलाती है। हम बेरोजगार जनसंख्या के उस बढ़े भाग को नहीं कहते हैं जो काम के लिए नहीं मिलते जैसे विधार्थी बढ़े उम्र के व्यक्ति घरेलू कार्यो में लगी महिलायें आदि। जैसा प्रो० पीगू ने कहा है “एक व्यक्ति तभी ही बेरोजगार कहलाता है। जबकि उसके पास कार्य नहीं हो और वह रोजगार पाने का इच्छुक हो।"

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रकाशन के मुताबिक बेरोजगार शब्द में वे सब व्यक्ति शामिल किये जाने चाहिये जो एक दिये हुए दिन में काम की तलाश में और रोजगार में नहीं लगे हुए हैं किन्तु यदि कोई रोजगार दिया जाय तो काम में लग सकतें है।

समस्या को परिभाषित करने के लिए यह आवश्यक है कि आवश्यकता और साधन के बारे में विस्तृत विवेचन किया जाये। बेरोजगारी के सन्दर्भ में जब हम दृश्टिपात करते है तो पाते है कि रोजगार के अवसरों और रोजगार के साधनों के संख्यात्मक मान में भी बहुत बढ़ा अन्तर है यही अन्तर बेरोजगारी चिन्तन के लिए हमें विवश करता है।

बेरोजगारी मूलरुप से गलत आर्थिक नियोजन का परिणाम है। व्यक्ति जहां संसार में एक मुंह के साथ आता है वही श्रम हेतु दो हाथ भी लाता है। जब तक इन हाथों को श्रम के साधन प्राप्त नहीं होते तब तक अर्थव्यवस्था को पूर्ण नियोजित अर्थव्यवस्था नहीं माना जा सकता है।

गाँधी जी का इस संन्दर्भ में विचार सम्पत्ति व्यक्तिगत नहीं होनी चाहिए उत्पत्ति के साधनों पर नियंत्रण होना चाहिए समाज में उपस्थित विभिन्न आर्थिक तत्व को नियोजित ढंग से कुटीर और लघु उद्योगो को प्रश्रय देना चाहिए।

एक बेरोजगार व्यक्ति वह है जिसमें कमाने की अन्तर्निहित क्षमता और इच्छा दोनों है फिर भी उसे वैतनिक काम नहीं मिल पाता।

बेरोजगारी के तीन तत्व है :-
  1. व्यक्ति में काम करने की क्षमता होनी चाहिए
  2. व्यक्ति में कामन की इच्छा होनी चाहिए
  3. व्यक्ति को काम ढूँढ़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

बेरोजगारी के प्रकार

भारत में बेरोजगारी की समस्या ने कई रूप ले लिया हैं, जो निम्नवत है-

प्रच्छन्न बेरोजगारी
बेरोजगारी का वह स्वरूप है जो प्रत्यक्ष रूप में दिखायी नहीं देता और छुपा रहता है भारत में इस प्रकार की बेरोजगारी कृषि में पायी जाती हैं। जिसमें आवश्यकता से अधिक व्यक्ति लगे हुए हैं। यदि इनमें से कुछ व्यक्तियों को खेती के कार्यों से अलग कर दिया जाता है तो उत्पादन में कोई अन्तर नहीं पड़ता हैं। इसका अर्थ यही है कि इस प्रकार के व्यक्तियों द्धारा उत्पादन में कोई योगदान नहीं दिया जाता है। ऐसे व्यक्ति प्रच्छन्न बेरोजगारी के अर्न्तगत आते हैं।
जब किसी व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार कार्य नहीं मिलता है या पूरा कार्य नहीं मिलता है। तो इसे अल्प रोजगार कहते हैं। जैसे एक इंजीनियरिग की डिग्री प्राप्त व्यक्ति लिपिक या श्रमिक के रूप में कार्य करता हैं तो इसे अल्प रोजगार कहते हैं ऐसे व्यक्ति कार्य करता हुआ दिखायी तो देता परन्तु इसकी पूर्ण क्षमता का उपयोग नहीं होता है।
जब व्यक्ति कार्य के योग्य है और वह कार्य करना चाहते है लेकिन उन्हें कार्य नहीं मिलता है तो ऐसी स्थिति को खुली बेरोजगारी कहते है। भारत में इस प्रकार की बेरोजगारी व्याप्त है यहाँ लाखों व्यक्ति ऐसे है जो शिक्षित है तकनीकी योग्यता प्राप्त है लेकिन उनको काम करने का अवसर नहीं मिल रहा हैं।

मौसमी बेरोजगारी
इस प्रकार की बेरोजगारी वर्ष के कुछ समय में ही होती है भारत में यह कृषि में पायी जाती हैं। जब खेती की जुताई एवं बुआई का मौसम होता है तो कृषि उद्योग में दिन रात कार्य होता है। इसी प्रकार जब कटाई का समय होता है तो फिर कृषि में कार्य होता है। लेकिन बीच के समय में इतना काम नहीं होता है। अत; इस प्रकार के समय में श्रमिकों को काम नहीं मिलता है। इस बेरोजगारी को मौसमी बेरोजगारी कहते है।

शिक्षित बेरोजगारी
खुली बेरोजगारी का ही एक रूप है। इसमें शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार होते हैं। शिक्षित बेरोजगारी में कुछ व्यक्ति अल्प रोजगार की स्थिति में होते है। जिन्हें रोजगार मिला हुआ होता है लेकिन वह उनकी शिक्षा के अनुरूप नहीं होता है। भारत में भी इस प्रकार की बेरोजगारी भी पायी जाती है।
बेरोजगारी का स्वरूप देश के शहरी तथा ग्रामीण दोनो क्षेत्रो में विद्यमान है। शहरी बेरोजगारी दो प्रकार की है प्रथम शिक्षित लोगो की बेरोजगारी तथा द्वितीय औद्योगिक मजदूरों और शारीरिक श्रम करने वाले लोगो की बेरोजगारी ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी मुख्य रुप से तीन प्रकार की है प्रथम मौसमी बेरोजगारी, द्वितीय प्रच्छन्न या छिपी हुई बेरोजगारी और तृतीय प्रत्यक्ष बेरोजगारी ।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार बेराजगारी के तीन परिकल्पनाएँ की जाती है-

चिरकालिक बेरोजगारी या सामान्य स्थिति
यह बेरोजगार व्यक्तियो की संख्या के रुप में माप है जो पूरे वर्ष के दौरान बेरोजगार हो। इसी कारण इस बेरोजगारी को खुली बेरोजगारी के रुप में जाना जाता है।

साप्ताहिक स्थिति बेरोजगारी
इसे भी व्यक्तियों की संख्या के आधार पर मापन किया जाता है अर्थात ऐसे व्यक्ति जिन्हे सर्वेक्षण सप्ताह के दौरान एक घंटे का भी रोजगार नहीं मिला हो।

दैनिक स्थिति बेरोजगारी
इसे व्यक्ति दिनों या व्यक्ति वर्षों के रुप में। मापन करते है। अर्थात वे व्यक्ति जिन्हें सर्वेक्षण सप्ताह के दौरान या एक दिन या कुछ दिन रोजगार प्राप्त न हुआ हो। यह बेरोजगारी की व्यापक माप है। जिसमें सामान्य स्थिति बेरोजगारी और अल्परोजगार दोनो शामिल होते है।

बेरोजगारी के कारण

देश में बेरोजगारी के लिए बहुत से कारण जिम्मेवार होते है इन्हें हम आन्तरिक और बाहरी कारणों में बाँट सकते आन्तरिक कारण श्रमिकों के स्वभाव, शारीरिक, मानसिक व नैतिक कमियों से सम्बन्धित होते है। प्राय; एक व्यक्ति अपनी इच्छा के बावजूद अपनी शारीरिक मानसिक कमजोरियों दोषपूर्ण शिक्षा एवं प्रशिक्षण आदि के कारण काम पाने में । असमर्थ रहता है। इन परिस्थितियों में बेरोजगारी आन्तरिक कारणों का नतीजा होती है। बेरोजगारी के बाहरी कारण भी बहुत से होते हैं। श्रम बाजार में चक्रीय उतार चढ़ाव हो रहा है। मंदी के दिनों में व्यावसायिक क्रियायें एक न्यूनतम स्तर पर होती है और बेरोजगारी बढ़ती है। किन्तु दूसरी ओर तेजी के दौरान व्यावसायिक क्रियाओं का विस्तार होता है और इस समय बेकारी की मात्रा घटने लगती हैं। मंदी और तेजी की ऐसी अवधियाँ विभिन्न कारणों से होती है जिन्हें व्यापार चक्रों के सिद्धान्तों द्धारा स्पष्ट किया जाता हैं। उद्योग में विवेकीकरण की योजनाओं को अपनाया जाना बेरोजगारी को उत्पन्न करता है। इसके अलावा कुछ व्यवसाय व आर्थिक क्रियायें स्वभाव से मौसमी होती है। जैसे बिल्डिग निर्माण या कृषि। अन्त में आकस्मिक श्रम पद्धति भी जिसके अर्न्तगत श्रमिकों को कुछ कार्यों पर सिर्फ व्यवसायिक व्यवस्था के समय ही स्थाई रूप में लगाया जाता है दूसरे समय ऐसे श्रमिकों के लिए बेकारी पैदा कर दी जाती है।

मोटे तौर से बेरोजगारी के कारणों की व्याख्या के संबंध में तीन सैद्धान्तिक विचारधाराएँ पायी जाती है।
  1. पहली विचारधारा के मुताबिक बेकारी निर्बाध सिद्धान्त अर्थात स्वतंत्र प्रतियोगिता तथा स्वतंत्र व्यापार से डिग जाने का दण्ड होती है।
  2. दूसरी विचारधारा के मुताबिक बेकारी व्यापार चक्रों के कारणों की जटिलताओं के कारण पैदा होती है। इसे चक्रीये बेकारी के रूप में देखा जाता है।
  3. तीसरी विचारधारा के मुताबिक बेकारी प्रभावी मांग की कमी उपभोग पर किये जाने वाले पूँजीगत व्यय की कमी या निवेश की कमी या दोनों ही के कारण पैदा होती है।
बेरोजगारी के दोष बहुत अधिक है। राष्ट्र के लिए बेरोजगारी समस्या एक गम्भीर समस्या है क्योंकि खाली मस्तिष्क शैतान का घर हैं। काल मार्क्स के मुताबिक कार्य मानवीय अस्तित्व के लिए मूल शर्त है। व्यापक बेरोजगारी एक ऐसी बुराई है जो गम्भीर आर्थिक सामाजिक एवं राजनैतिक खतरों से भरी है। तकलीफ निराशा और असंतोष पैदा करके बेरोजगारी राजनीति और सामाजिक जीवन को कडुवा बनाती है तथा सुरक्षा को ठेस पहुंचाती है। पेट की आग को बुझाने के लिए व्यक्ति कुछ भी कार्य कर सकता है। यदि उनको सही रूप से व्यवसाय नहीं मिलेगा जिससे वह अपने अनुकूल जीवन यापन कर सके तो निश्चित रूप से ही वह गलत कार्यों को करने के लिए प्रेरित होगें जिन्हें करना वह स्वंय भी उचित नहीं समझते किन्तु करना पड़ता है क्योंकि मरता क्या न करता।

बेरोजगारी से व्यक्ति में यह भावना आती है कि वह समाज के लिए गैर जरूरी है। वह परिवार में अपने को बोझ समझने लगता है। इसी कारण से वह अपराधी तक बन सकता है। किसी देश में निष्क्रिय मानव व्यक्ति का मतलब उत्पादन एवं आय का उस स्तर से नीचा होना है जिस पर कि वे सभी श्रमिकों को काम पर नहीं लगा सकते है। मानवीय दृष्टिकोण से इस बेरोजगारी का गम्भीर परिणाम व्यक्ति का स्वंय का नुकसान है। इसमें धीरे-धीरे व्यक्ति की कार्य क्षमता ह्मस होता है। उसकी इस शक्ति को यदि उचित रूप में काम में लिया जाये तो यह राष्ट्र के लिए उन्नति समृद्धि एवं सम्पन्नता का साधन बन सकती है।

जिस देश में बेरोजगारी होती है उस देश में नयी-नयी सामाजिक समस्यायें जैसे चोरी, डकैती, बेईमानी, अनैतिकता, शराबखोरी, जुआ-बाजी आदि पैदा हो जाती है। जिससे सामाजिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाता है शांति और सुरक्षा की समस्या उत्पन्न हो जाती है जिस पर सरकार को भारी व्यय करना पड़ता है। वर्तमान आतंकवाद की समस्या भी मेंरी समझ में किसी न किसी रूप में बेरोजगारी का ही एक परिणाम है।

बेरोजगारी की समस्या देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करती है। क्योंकि बेकार व्यक्ति हर समय राजनीति उखाड़-पछाड़ में लगे रहते हैं। आज राजनीति से जुड़े हुए बहुत व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में समाज में अपराधी रहे हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि दबाव और शक्ति से कानून को अपने हाथ में लेना चाहते हैं।

देश में व्याप्त दीर्घस्थायी बेरोजगारी और अल्प-रोजगार की समस्या के लिए निम्न घटक उत्तरदायी है-

जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि दर फलस्वरूप श्रम शक्ति में तीव्र वृद्धि दर
जनांकिकीय दृष्टि से हम इतनी तेजी से आगे बढ़ रहे है कि प्रगति और परिवर्तनों के बावजूद हम आर्थिक दृश्टि से ठहरे हुए जान पड़ते है। नियोजन काल में राज्य की जनसंख्या तथा इसके फलस्वरूप श्रम-शक्ति कई गुना बढ़ गयी है। बढ़ती हुई श्रम-शक्ति के लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर उपलब्ध न कराये जाने के कारण बेराजगारी की मात्रा बढ़ती गई है।

अनुप्रयुक्त शिक्षा प्रणाली एवं कार्य के प्रति संकुचित दृष्टिकोण
देश में प्रचलित शिक्षा प्रणाली के कारण शिक्षित युवक नौकरी पाने की इच्छा रखते हुए भी शारीरिक श्रम वाले रोजगार से दूर भागते है। सरकार अभी तक शिक्षा प्रणाली को आर्थिक विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं ढाल सकी है परिणामस्वरूप करोड़ों शिक्षित युवक और युवतियां रोजगार की तालाश में घूमते-फिर रहे है।

कुटीर उद्योगों का पतन
श्रम गहन होने के कारण इन उद्योगों का रोजगार की दृष्टि से विशेष महत्व है। आर्थिक नियोजन के अन्तर्गत पूंजी गहन बड़े उद्योगों की स्थापना पर विशेष बल दिये जाने के कारण कुटीर और लघु उद्योगों का वांछनीय विकास नहीं हो पाया है। फलतः राज्य में गरीबी और बेरोजगारी की समस्या निरन्तर गम्भीर होती चली गई है।

कृषि की मानसून पर अधिक निर्भरता एवं सिचाई साधनों का अभाव
निर्धनता के उन्मूलन, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में स्थायित्व तथा घरेलू बाजार के विस्तार की दृश्टि से कृषि के महत्व को जानते हुए तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार की आवश्यकता बार-बार स्वीकार करते हुए भी नियोजन काल में कृषि क्षेत्र को कुल निवेश योग्य साधनों में से उचित हिस्सा नहीं दिया गया है। फलतः गांवों से शहरों की ओर श्रम शक्ति के पलायन की प्रवृत्ति जोर पकड़ती गई तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य बेरोजगारी की समस्या गहन होती चली गई।

उत्पादन साधनों का असमान वितरण
भूमि और पूंजी जैसे उत्पादन साधनों का अत्यधिक असमान वितरण, आर्थिक विषमता और बेरोजगारी की समस्या के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरादायी है। 20 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या खेतिहर श्रमिकों के रूप में निर्धनता, शोषण, कुपोषण और अल्प रोजगार से ग्रस्त है। उत्तराखण्ड में 70 प्रतिशत किसानों की जोतें अनार्थिक आकार (एक हेक्टेयर से कम) की हैं जिन्हें सम्पूर्ण वर्ष में 5-6 महीने निष्क्रिय रहना पड़ता है। दूसरी ओर बहुत थोड़ी पूंजी वाले इस राज्य में उपलब्ध पूंजी गिने-चुने हाथों में केन्द्रित है। साधन सम्पन्न व्यक्तियों की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण विभिन्न व्यवसायों में श्रम की बचत करने वाल गहन तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।

अविकसित सामाजिक दशाएं
देश की दोषपूर्ण सामाजिक संस्थाएं (जाति-प्रथा, संयुक्त परिवार प्रणाली, छुआछूत, बाल-विवाह, प्रदा पर्था आदि) बेरोजगारी की समस्या को उग्र बनाने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायक हुई है। जनसाधारण की निरक्षरता, अन्धविश्वास और भाग्यवादिता ने भी युवकों को निष्क्रिय बनाये रखने में सहयोग दिया है। श्रम शक्ति का असन्तुलित व्यावसायिक वितरण, व्यावसायिक शिक्षण एवं शिक्षण सुविधाओं की अपर्याप्तता, श्रम शक्ति में गतिशीलता का अभाव आदि कारणों ने भी बेरोजगारी और बेरोजगार की समस्या को गम्भीर बना दिया है।

पर्याप्त तकनीकी प्रशिक्षण सुविधाओं का अभाव
आज अधिकांश शिक्षा ऐसी दी जाती है कि केवल सैद्धान्तिक ज्ञान तक ही सीमित है और जिसका जीवन में अधिक उपयोग नहीं है। बी0ए0, एम0ए0 करने के बाद भी लड़को को यह भी पता नही हो पता है कि अब उसे क्या करना है। तकनीकी शिक्षा के पूर्ण अभाव के कारण वह अपना कोई छोटा-मोटा व्यवसाय भी नहीं कर सकता।

पूंजी निर्माण की धीमी गति
बेरोजगारी में वृद्धि होने के कारण प्रतिव्यक्ति आय बहुत कम होती जा रही है, परिणामस्वरूप बचत एवं विनियोग की दर में भी कमी हो रही है। इससे पूंजी निर्माण की गति बहुत धीमी हो गयी है जिसका प्रभाव उद्योग, व्यापार एवं अन्य सेवाओं पर पड़ रहा है और उनका विस्तार नही हो पा रहा है। इस चक्र के प्रभाव से बेरोजगारी की संख्या में और अधिक वृद्धि हो रही है।

स्वरोजगार के प्रति उपेक्षा
देश में शिक्षित बेरोजगारी बढ़ने के मूल में यह कारण निहित है कि प्रत्येक युवा अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद नौकरी की तालाश में जुट जाता है। उसमें स्वयं का व्यवसाय करने की भावना का अभाव रहता है, परिणामस्वरूप बेरोजगारों की संख्या में बहुत तेजी से वृद्धि होती जा रही है।

अन्य कारण
बड़ी संख्या में शरणार्थी आगमन, समयबद्ध रोजगार नीति एवं कार्यक्रमों का अभाव, लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन और उनके पुर्नविकास की धीमी गति और आर्थिक सुधारों नीतियों का रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव ।

बेरोजगारी के खराब असर बराबर बढ़ते जा रहे हैं। इसीलिए विलयम बेवरिज ने लिखा है कि बेरोजगार रखने के स्थान पर लोगों को गड्ढे खुदवाकार वापस भरने के लिए नियुक्त करना ज्यादा अच्छा है।

सार रुप में हमारे देश की बेरोजगारी का कारण उसकी संरचनात्मक अवस्था में निहित है। जो कृषि के अल्प विकास उद्योगो का असंतुलित विकास सेवा क्षेत्र के संकुचित आकार के श्रम की माँग में है जो और रोजगार के अवसर सीमित कर देते है। लोग विद्यमान मजदूरी दर पर कार्य करने को तत्पर है परन्तु फिर भी कार्य की अनुउपलब्धता के कारण वह बेरोजगार है।

बेरोजगारी के परिणाम

बेरोजगारी उस बेरोजगार व्यक्ति के साथ उसके परिवार और समाज को प्रभावित करती है। इस प्रकार हम बेरोजगारी के परिणाम को वैयक्तिक विघटन, पारिवारिक विघटन और सामाजिक विघटन के रूप में देखते है।

वैयक्तिक विघटन
एक बेरोजगार व्यक्ति के अन्दर वैयक्तिक विघटन को हम बहुत ही सरलता से देख सकते है। बेरोजगार व्यक्ति का मोहभंग हो जाता है, वह अपनी रचनात्मक ऊर्जा को चोर, डकैती, हत्सा और तस्करी जैसे कार्यों की तरफ आसानी से चले जाते है। ऐसा प्राय देखा जाता है कि असामाजिक गतिविधियां अनुशासनहीन और दुर्दान्त युवाओं को जीविका ऐंठने का अवसर प्रदान करती है।

पारिवारिक विघटन
बेरोजगारी व्यक्तिगत एकता को प्रभावित करती ही है, वह उसके पारिवारिक एकता को नष्ट कर देती है। बेरोजगारी में व्यक्ति जिस मानसिक अशान्ति में रहता है, वहाँ तनाव के कारण पति और उसकी पत्नी के बीच ही झगड़े न होकर, अपितु मातापिता-, सासससुर-, चाचाचाची और - में बंधक ढ़ीवादी मूल्यों यहां वह और अधिक पारंपरिक और में भी झगड़े होने लगते है। बच्चा बनता चला जाता है।

सामाजिक विघटन
बेरोजगारी के परिणामस्वरूप सामाजिक विघटन का मापन अत्यन्त कठिन है। सामाजिक विघटन सामाजिक विश्वास का टूटना है, जिसमें वह अपने पुराने स्वरूप और आपसी सौहार्द को नष्ट कर देता है जिसके द्वारा एक समूह के सदस्यों के सामाजिक संबंध टूट जाते है। बेरोजगारों की गतिविधियां में विराम लग जाता है उनके विचार अत्यन्त कट हो जाते है कि वे कार्य करने की इच्छा ही खो देते है जिसका भयंकर परिणाम उनकी दक्षता में ह्रास के रूप में परिणत होता है।

भारत में रोजगार और बेरोजगारी का विश्लेशण

देश में रोजगार और बेरोजगारी के संबध में अनुमान लगाने के लिए अधिकांशत वर्तमान दैनिक स्थिति के आधार का प्रयोग किया गया है। दैनिक स्थिति पर आधारित अनुमान बेरोजगारी की समेंकित दर है जिसमें समीक्षा वर्ष के दौरान एक दिन के आधार पर बेरोजगारी का औसत स्तर का उल्लेख किया गया है। दैनिक स्थिति के आधार पर रोजगार और बेरोजगारी के अनुमान दर्शाते है जैसा कि तालिका 1 में दिया गया है कि वर्ष 1883-1883 के काल में लगभग 74.50 मिलियन कार्य के अवसरों का सृजन हुआ वही वर्ष में 1883 से 2004 05 में लगभग 71 मिलियन कार्य के अवसरों का सृजन हुआ वह भी 1888–2000 से 2004-05 में 46 मिलियन कार्य के अवसरो का सृजन हुआ। रोजगार में वृद्धि इन्हीं वर्षों में 1.25 प्रतिशत प्रतिवर्ष से बढ़कर 2.62 प्रतिशत प्रतिवर्ष प्राप्त हुई। परन्तु बेरोजगारी दर 1883 के 8.22 प्रतिशत से गिरकर 1883-84 में 6.06 प्रतिशत हुई थी। वह 2004-05 में बढकर 8.28 प्रतिशत हो गई परन्तु बेरोजगारों की संख्या इन्हीं वर्षों में 24.34 मिलियन से गिरकर 20.27 मिलियन थी वह भी बढ़कर 34.74 मिलियन हो गई जबकि जनसंख्या वृद्धि दर 1883 से 1883-84 के दौरान 2.11 प्रतिशत से घटकर 1883-2000 में 1.88 प्रतिशत एवं 1888-2004-05 में 1.68 प्रतिशत ही रह गई।

रोजगार और बेरोजगारी मिलियन मानव वर्ष में
(वर्ष 1882 से 2004-05)
(दैनिक स्थिति के आधार के अनुसार)
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स्रोत : राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण एवं योजना आयोग

रोजगार और बेरोजगारों की संख्या (वर्ष 1882 से 2004-05) दैनिक स्थिति के आधार पर
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तालिका 2 क्षेत्रीय रोजगार में हिस्सेदारी (वर्ष 1883 से 2004-05)
(वर्तमान दैनिक स्थिति के आधार पर मिलियनो में)
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स्रोत : राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण एवं योजना आयोग

एक अन्य विश्लेषण तालिका 2 के आधार पर करते है कि वर्ष 1883 से पहले रोजगार में प्राथमिक क्षेत्र की जो सर्वोच्च स्थित थी वह लगातार बनी हुई है, इनके हिस्सेदारी में बहुत ही नाममात्र का परिवर्तन हुआ है कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी जो 1883 में 65.42 प्रतिशत थी वह 1883-84 में 61.03 प्रतिशत और आर्थिक सुधार काल में 2004-05 में 52.06 प्रतिशत पहुँच गई परन्तु इन्हीं वर्षों में संख्या 238.8 मिलियन से बढ़कर 258.8 मिलियन हो गई अर्थात हिस्सेदारी में 8.87 प्रतिशत की कमी के साथ संख्या में  21.3 मिलियन की वृद्धि हुई। जबकि खनन एवं उत्खनन सेवाओं में आर्थिक सुधारों के काल (1883-2005) में हिस्सेदारी में 0.15 प्रतिशत और संख्या में 0.2 मिलियन की कमी हुई। इसी प्रकार बिजली जल आदि के क्षेत्र में भी 0.06 प्रतिशत के साथ 0.2 मिलियन की कमी हुई। बल्कि सामुदायिक सामाजिक एवं वैयक्तिक सेवाएँ की हिस्सेदारी 1.26 प्रतिशत की कमी के साथ संख्या में 4.3 मिलियन की वृद्धि हुई।

तालिका 3 संगठित क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर (वर्ष 1883 से 2004)
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स्रोत : लोक उद्यम सर्वेक्षण वर्ष 2008-09

संगठित क्षेत्र के सन्दर्भ में बड़ा आश्चर्यजनक जानकारी तालिका 8.3 से मिलती है कि 1883 से 84 के समय में सार्वजनिक क्षेत्र की रोजगार वृद्धि दर जो 1.53 प्रतिशत वार्षिक थी वह आर्थिक सुधारो के काल में (1884–2004) ऋणात्मक रुप में 0.70 प्रतिशत वार्षिक पर पहुँच गई अर्थात आर्थिक सुधारों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार में कटौती हो गई। इसी प्रकार निजी क्षेत्र में 1883 से 84 के काल में 0.44 प्रतिशत वार्षिक रोजगार वृद्धि दर बढ़कर 1884-2004 के समय में 0.58 प्रतिशत वार्षिक पर पहुँच गई। जबकि सम्मिलित रुप में संगठित क्षेत्र की रोजगार की वार्षिक वृद्धि दर 1.20 से घटकर सुधार काल में ऋणात्मक रुप में -0.31 प्रतिशत वार्षिक दर्ज हुई।

बेरोजगारी दूर करने के सुझाव

तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी के प्रति अर्थशास्त्री, राजनेता, चिन्तक और विद्वान सभी चिन्तित है। बेरोजगारी की इस गम्भीर समस्या ने अनेक ऐसी समस्याओं को जन्म दिया है जिनका समाधान खोज पाना अत्यधिक दुश्कर हो गया है। यदि समय रहते सुरसा की भांति मुँह बाये खड़ी बेरोजगारी के समाधान की दिशा में सार्थक प्रयास नही किये जा सके तो देश एवं समाज का विघटन अवश्यम्भावी है।

बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए कुछ सुझाव निम्नानुसार है:-

तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण
बेरोजगारी की गम्भीर समस्या के हल के लिए सर्वप्रथम राज्य में तेजी से बढ़ रही जनसंख्या की गति को नियन्त्रित किया जाना अति आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण किये बिना बेरोजगारी की समस्या का समाधान सम्भव नही है।

छोटे उद्योग धन्धो का विकास
बेरोजगारी दूर करने के लिए छोटे-छोटे उद्योग धन्धों का विकास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक यह होगा कि सरकार द्वारा बेरोजगार युवकों को अत्यधिक सुविधाजनक शर्तों पर ऋण उपलब्ध करायें जायें और बेरोजगारों द्वारा स्थापित उद्योगों के उत्पादन की बिक्री की समुचित व्यवस्था की जाये।

कृषि से सम्बद्ध उद्योगों का विकास
देश की अर्थव्यवस्था में कृषि को प्रधानता प्राप्त है किन्तु अभी भी कृषि व्यवसाय मात्र ऋतुपरक या मौसमी रोजगार उपलब्ध कराता है। वर्ष के मात्र छ:-सात माह के लिए कृषक और कृषि श्रमिक के पास रोजगार की व्यवस्था रहती है। शेष समय में कृषक और श्रमिक बेरोजगार रहते है, अतः इस खाली समय के उपयोग के लिए कृषि से सम्बद्ध सहायक उद्योगों की स्थापना की जानी चाहिए; जैसे- दूध का व्यवसाय, मुर्गीपालन, पशुपालन आदि।

ग्रामों में रोजगार उन्मुख योजनाओं का क्रियान्वयन
देश में सर्वाधिक बेरोजगारी ग्रामीण क्षेत्रों में है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की सम्भावनायें भी बहुत अधिक है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ऐसी योजनाएं तैयार कराना चाहिए जो ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने में सहायाक सिद्ध हो सकें। इन योजनाओं का क्रियान्वयन भी अत्यधिक प्रभावी ढंग से किया जाना चाहिए।

रोजगार उन्मुख शिक्षा प्रणाली
देश की प्रचलित वर्तमान शिक्षा प्रणाली पूरी तरह सैद्धान्तिक है। यह शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों को रोजगार उपलब्ध कराने में सहायता नहीं करती। अतः सरकार को रोजगारोन्मुख शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि युवक स्कूल और कॉलेज की शिक्षा पूर्ण होने के बाद स्वयं का कोई व्यवसाय या रोजगार स्थापित करने में समर्थ व सक्षम हो सके।

उद्योगों की पूर्ण क्षमता का उपयोग
देश में यद्यपि उद्योग तुलनात्मक रूप से कम लगे हुए है तथा उनका पूर्ण दोहन भी नहीं हो पा रहा है और आवश्यकता इस बात की है कि सिर्फ उद्योगों की संख्या को ही न बढ़ाया जाये बल्कि उनकी उत्पादन क्षमता का भी पूर्ण उपयोग होना चाहिए।

विनियोग ढांचे में परिवर्तन
आधारिक संरचना को मजबूत बनाकर विनियोग को प्रेरित किया जा सकता है जिससे रोजगार में बढ़ोतरी होगी तथा अनिवार्य उपभोक्ता वस्तु उद्योगों का विस्तार भी होगा।

तकनीकी को प्रोत्साहन
नई तकनीकी का इस प्रकार से प्रयोग होना चाहिए जिससे रोजगार पर कोई विशेष फर्क न पड़ते हुए उत्पादन क्षमता में बढ़ोत्तरी हो।

जनशक्ति नियोजन
देश में बेरोजगारी की स्थिति को देखते हुए इस बात की नितान्त आवश्यकता है कि जनशक्ति का वैज्ञानिक ढंग से नियोजन होना चाहिए। जिससे जनशक्ति का गुणात्मक पक्ष मजबूत होगा और इसके लिए भौतिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा संगठनात्मक पहलुओं स्वस्थ आधारों पर विकसित किया जाये। जनशक्ति का व्यवसाय वितरण, व्यवसायिक ढ़ाचा, रोजगार की सम्भावनाओं की स्थिति तथा जन-वृद्धि में होने वाले परिवर्तन आदि के बारे में विस्तृत एंव पूर्ण सूचनायें एकत्रित की जाये।

अन्य सुझाव
भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय श्रम ने बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु अनेक सुझाव दिये है; जैसे- देश में रोजगार के लिए एक राष्ट्रीय नीति सुनिचित की जाये, अखिल भारतीय स्तर पर मानव शक्ति सेवा का गठन किया जाये, शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन किये जाये और उसे रोजगारोन्मुख बनाया जाये, औद्योगिक सेवाओं को सुदृढ़ता प्रदान की जाये तथा देश के प्रत्येक सामुदायिक विकास खण्ड में कम से कम एक रोजगार कार्यालय की स्थापना की जाये।

उत्पादक गतिविधियों की पुर्नसंरचना द्वारा उत्पादन में वृद्धि लाकर सरकार द्वारा रोजगार सृजन की प्रक्रिया तो जारी है ही, किन्तु साथ ही सरकार प्रत्यक्ष रूप से युवाओं एवं अन्य बेरोजगारों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाने के लिए विशेष कार्यक्रम भी चला रही है।

बेरोजगारी को दूर करने के सरकारी कार्यक्रम

काम के बदले अनाज कार्यक्रम
14 नवम्बर 2004 को बस कार्यक्रम को देश के 150 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में शुरू किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य पूरक रोजगार सृजन करना था। यह योजना लोगों को खाद्य सुरक्षा देने से भी सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक परिवार के कम से कम एक शारीरिक रूप से समर्थ व्यक्ति को 100 दिन का रोजगार दिया जा सकेगा। यह कार्यक्रम 100 प्रतिशत केन्द्रिय प्रायोजित योजना के रूप में कार्यन्वित किया जा रहा है।

ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम (REGI)
यह कार्यक्रम 1885 में ग्रामीण क्षेत्रों तथा छोटे शहरों से शुरू किया गया। यह कार्यक्रम खादी और ग्रामोद्योग आयोग द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत 25 लाख रुपये की लागत वाली परियोजनाओं के लिए उद्यमी खादी ग्रामेद्योग और बैंक ऋणों प्राप्त मार्जिन धन सहायता का लाभ उठाकर ग्राम स्थापित कर सकते है।

इन्दिरा आवास योजना (LAY)
यह एक केन्द्र प्रायोजित योजना है जिसका वित्तपोषण केन्द्र एवं राज्यों के बीच 75.25 (केन्द्र शासित प्रदेश100) के अनुपात में किया जाता है। 1888-2000 से प्रारम्भ की गयी इन्दिरा भवन आवास योजना गांवो में गरीबो के लिए मुफ्त में मकानो के निर्माण की प्रमुख योजना है।

जवाहर ग्राम समृद्धि योजना (JGSY)
इस योजना को अप्रैल 1888 से प्रारम्भ किया गया जो चली आ रही जवाहर रोजगार योजना (JRY) को ही पुनर्गठित तथा कारगार स्वरूप प्रदान करके किया गया। इस योजना का मुख्य उद्देश्य अधिक मांग वाले ग्रामीण आधारभूत संरचना जिसमें ग्रामीण स्तर पर टिकाउ परिसम्पत्तियाँ सम्मिलित हैं, को विकसित करना है।

रोजगार आश्वासनकार्यक्रम (EAS)
इस याजना का प्रारम्भ 2 अक्टूबर 1883 को सूखा प्रवण, रेगिस्तान बहुल तथा पर्वतीय क्षेत्रों के चुने गये 1772 पिछड़े ब्लाकों में किया गया था। इसी योजना को एकल मजदूरी रोजगार कार्यक्रम के रूप में 1 अप्रैल 1888 को पुनः तैयार किया गया है।

सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (SGRY)
इस योजना को पहले से चल रही जवाहर ग्रामीण समृद्धि योजना (JGSY) तथा एम्पलामेंट एश्योरेंस स्कीम (EAS) को मिलाकर 25 सितम्बर 2001 को चलाया गया। सह अपने लक्ष्य स्वयं निर्धारित करने वाली याजना है। इसका प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त खाद्यान सुरक्षा प्रदान करना है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में टिकाऊ सामुदायिक सामाजिक तथा आर्थिक अवस्थापना सृजित करना है।

शहरी रोजगार एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
शिक्षित बेरोजगारों को स्वरोजगार प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री रोजगार योजना (PMRY) को 1883-84 में शहरी क्षेत्रों में चलाया गया।

स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना (SJSRY)
यह योजना दिसम्बर 1887 में लागू हुई जिसमें तीन शहरी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों-नेहरू रोजगार (NRY), शहरी गरीबों के लिए बुनियादी सेवाये योजना (UBSP) तथा प्रधानमंत्री एकीकृत शहरी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (PMIUPEP) को एक में मिला दिया गया । इसका उद्देश्य स्वरोजगार उद्यमों की स्थापना को प्रोत्साहन देना या मजदूरी रोजगार के सृजन के द्वारा गरीबी रेखा के नीचे नवीं दर्जा तक शिक्षित शहरी बेरोजगारों या अर्धरोजगारों को रोजगार प्रदान करना है।

स्वशक्ति प्रोजेक्टर
यह प्रोजेक्टर अक्टूबर 1888 में ग्रामीण महिला विकास तथा सशक्तिकरण प्रोजेक्टर के रूप में केन्द्र द्वारा बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश में चलाया गया। यह प्रोजेक्टर वर्ल्ड बैंक तथा इन्टरनेशनल फण्ड फार एग्रीकल्चरल डेवेलपमेण्ट द्वारा संयुक्त रूप से प्राप्त सहायता से चल रही है।

इन्दिरा महिला योजना (IMY) का उद्देश्य महिलाओं की अधिकारिता प्रदान करना है।इस योजना को 1885-86 के दौरान 200 विकास खण्डों में चलाया गया था। योजना आयोग के एक अध्ययन दल की संस्तुति पर आई० एम० वाई0 को पुर्नगठित करके इसकी कमियो को दूर करके संशोधित रूप में अनुमोदित कर दिया गया है। महिला समृद्धि योजना को आई0 एम0 वाई0 के साथ जोड़ दिया गया है।

बालिका समृद्धि योजना (BSY) को 1887 में बालिकाओं के प्रति समाज के दृष्टिकोण में परिर्वतन लाने के विशेष उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया था।

एकिकृत बाल विकास तथा सेवा स्कीम ( ICDS)
1875 में शुरू इस स्कीम का उद्देश्य 6 वर्ष तक के उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को स्वास्थ्य पोषण एवं शैक्षणिक सेवाओं का एकीकृत पैकेज प्रदान करना है, आँगन वाड़ी, भवनो, सीडीपीओ कार्यलयों एवं गोदामों के निर्माण के लिए ऋण प्रदान करना है।

प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (PMGY)
जिसका प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण लोगों की आवश्यक आवश्यकताओं (critical needs) को निर्धारित समयावधि में पूरा करना है।

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
25 दिसम्बर, 2000 को लागू की गयी। 60 हजार करोड़ रुपये की इस योजना का उद्देश्य 500 से अधिक जनसंख्या वाले गांवों को 2007 तक हर मौसमी सड़क से जोड़ना है। यह एक 100 प्रतिशत केन्द्र प्रायोजित योजना है। इसका वित्तपोषण डीजल पर उपकर से होता है।

अन्नपूर्णा योजना
1888-2000 की बजट में घोशित अन्नपूर्णा योजना का आरम्भ गाजियाबाद के सिखोड़ा ग्राम से हुआ। ज्ञातव्य है कि इस योजना को उद्देश्य देश के अत्यन्त निर्धन लागों के रोटी की व्यवस्था करनी है। शिक्षा सहयोग योजना- यह योजना 1 अप्रैल 2001 से लागू 2001-02 के बजट में प्रस्तावित योजना है। इस योजना के अन्तर्गत गरीबी रेखा से नीचे के बच्चों के माता-पिता को 100 रुपये प्रतिमाह शैक्षिक भत्ता प्रदान किया जायेगा जिससे वे 8 से 12 वीं कक्षा तक की शिक्षा के व्यय को पूरा कर सके।

अन्तोदय अन्न योजना
यह योजना दिसम्बर 2000 में चालू की गयी। इसके तहत लक्ष्यित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत पहचान किये गये बी.पी. एल. परिवारों में से 1 करोड़ निर्धनतम परिवारों को चुना जाता है। शुरू में इसके अन्तर्गत प्रत्येक अर्ह परिवारों को 25 किलोग्राम अन्न 2 रुपया प्रति किलो गेहूं तथा 3 रुपया प्रति किलों ग्राम चावल दिया जाता था। अप्रैल 2002 से 25 किलोग्राम को बड़ाकर 35 किलो ग्राम कर दिया गया।

दीन दयाल स्वालम्बन योजना
केन्द्रीय युवा मामलें व खेल मंत्रालय द्वारा ग्रामीण युवकों को स्वयं सहायता समूहों के रूप में संगठित कर उनमें स्वरोजगार के जरिये आग अर्जित करने के लिए क्रियान्वित ।

प्रधानमन्त्री आर्द ग्राम योजना
2008-10 बजट में प्रस्तावित नयी योजना है जो उन 44000 गांवों के समन्वित विकास से सम्बन्धित है जिनकी जनसंख्या में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक है।

प्राइम मिनिस्टर एम्प्ल्वायमेंट जनरेशन प्रोग्रॅम (PMEGP)
15 अगस्त 2008 से प्रारम्भ प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (PMEGP) अपने ढंग का एक नया प्रयास है जिसका प्रमुख उद्देश्य सब्सिडि पर कराये गये ऋण के माध्यम से शहरी तथा ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में माइक्रो इन्टरप्राइजेज़ की स्थापना के द्वारा रोजगार के अवसर सृजित करना है। पहले से चली आ रही दो रोजगार योजनाओं PMRY तथा REGP को इसमें मिला दिया गया है।

राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा फण्ड
असंगठित क्षेत्रीय कामगारों सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 के अनुपालन में इस फण्ड को 1000 करोड़ रुपये के व्याय के साथ 2010 -11 बजट से चालू किया गया हैं। यह फण्ड धुनियों, रिक्सा चालकों, बीड़ी कागरों आदि से सम्बन्धित स्कीमों को सहायता देगा।

स्वावलम्बन
2010-11 से शुरू यह स्कीम नयी पेंशन स्कीम में असंगठित लोगों की भागीदारी को प्रोत्साहन करने से सम्बन्धित है। ऐसे लोग जो न्यूनतम 1000 रु. तथा अधिकतम 12000 रु. से इस स्कीम को अपना खाता खोलकर ज्वाइन करेंगे उसमें 1000 रु. सरकार अंशदान के रूप में देगी। यह तीन वर्ष तक उपलब्ध होगी।

महिला किसान सक्तीकरण परियोजना
2010-11 से शुरू परियोजना है जो किसान महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित है। यह राष्ट्रीय ग्रामीण लिवलीहुड मिशन के एक उप भाग के रूप में 100 करोड़ रुपया से शुरू की गयी है। 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण योजना गारन्टी एक्ट 2004 (मनरेगा) तथा राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी कार्यक्रम
नेशनल रूरल एम्प्ल्वायमेंट गारण्टी एक्ट (NREGA) नरेगा सितम्बर 2005 को पारित हुआ तथा 2 फरवरी, 2006 को इसकी शुरूआत प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा आन्ध्र प्रदेश के बन्दापाली से की गयी। 2 अक्टूबर 2008 इसका नाम बदलकर महात्मागांधी राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी ऐक्ट कर दिया गया।
2 फरवरी को सरकार ने रोजगार दिवस के रूप में घोषित कर दिया। शुरू में यह योजना 200 जिलों में लागू की गयी पर 2007-08 बजट में इसे बढ़ाकर 330 जिलों में कर दिया गया ।इस समय यह देश के सभी 614 जिलों में लागू है। रोजगार सृजन करने वाली यह पहली योजना है और इस दृष्टि से यह सभी स्कीमों से भिन्न है, जो पार्लियामेंट द्वारा पारित एक्ट के द्वारा ग्रामीण जनसंख्या को रोजगार प्राप्त करने की गारण्टी के साथ कानून द्वारा अधिकार प्रदान करती है।

(1) प्रत्येक ग्रामीण परिवार के कम से कम एक प्रौढ़ सदस्य को वर्ष में कम से कम 100 दिन का गारण्टी रोजगार प्रदान की जिम्मेदारी होगी, जिसमें कम से कम 1/3 स्त्रियां होंगी।

(2) इसके तहत दिया गया रोजगार अकुशल शारीरिक श्रम रोजगार होगा जिसके लिए वैधानिक न्यूनतम मजदूरी देय होगी तथा जिसका भुकतान कार्य किये जाने के 7 दिन के भीतर देय होगी।

(3) रोजगार दिये ताने के सम्बन्ध में आवेदन के 15 दिन के भीतर रोजगार प्रदान किया जायेगा तथा रोजगार श्रमिक के निवास से 5 किलोमीटर दूरी के भीतर होगा। इससे बाहर काम दियं जाने पर श्रमिका को 10 प्रतिशत अतिरिक्त मजदूरी दी जायेगी। जॉब कार्ड प्राप्त होने के 15 दिन तक काम न पाने पर वह बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करेगा। जॉब कार्ड 5 वर्ष तक वैध रहेगा।

(4) यदि इस समय सीमा के भीतर रोजगार नहीं प्रदान किया गया तो आवेदन को बेराजगारी भत्ता देय होगा जो न्यूनतम वैधानिक मजदूरी के 1/3 से कम नहीं होगा।

(5) सम्पूर्ण ग्राम राजगार योजना (SGRY) तथा कार्य के लिए राष्ट्रीय अनाज योजना का इसमें विलय।

(6) सेन्ट्रल एम्प्ल्वायमेंट गारण्टी कौन्सिल तथा प्रत्येक राज्य द्वारा स्टेट कौंसिल की स्थापना जो इससे सम्बन्धित कार्य सम्पादित कर सके।

(7) जिला स्तर पर पंचायत अपने सदस्यों की स्टैन्डिंग कमेटी बनायेगी जो जिला के भीतर कार्यक्रमों की देखरेख, मानीटरिंग तथा क्रियान्वयन देखेगी।

(8) इस स्कीम के क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकार प्रत्येक ब्लाक के लिए प्रौद्मम आफीसर की नियुक्ति करेगी।

(8) ग्राम पंचायत परियोजनाओं की पहचान, क्रियान्वयन तथा देखरेख के लिए जिम्मेदारी होगी।

(10) केन्द्र सरकार इसकी फन्डिग की व्यवस्था के लिए नेशनल एम्प्ल्वायमेंट गारण्टी फण्ड तथा राज्य सरकार स्टेट एम्प्ल्वायमेंट गारण्टी फण्ड की स्थापन करेगी।

(11) पूरी स्कीम इस अर्थ में स्वचयनात्मक (Self selecting) होगी कि गरीबों में जो लोग न्यूनतम मजदूरी पर कार्य करने के इच्छुक हैं वे स्वयं इस स्कीम में कार्य के लिए आयेगें।

(12) सी प्रस्तावित है कि परियोजना से सम्बन्धित मजदूरी भाग का भुगतान (जो कुल लागत की लगभग 80 होगी) केन्द्र सरकार करेगी जबकि उसमें लगने वाली सामग्री (materials) की लागत का 75 प्रतिशत तथा प्रशासनिक लागत का कुछ भाग केन्द्र सरकार वहन करेगी तथा शेष राज्य सरकार वहन करेगी। इसमें होने वाले व्यय को केन्द्र तथा राज्य सरकार 80:10 में वहन करती हैं।

(13) ग्राम पंचायत इस स्कीम की क्रियान्वयन इकाई है तथा परिवार लाभ प्राप्तकर्ता इकाई है।इस योजना के अन्तर्गत जल सम्भरण, वाटरशेड मैनजमेन्ट, बाढ़ तथा सूखा संरक्षण, फोरेस्ट्री, भूमि विकास, गांवों को सड़क के द्वारा जोड़ना, मरूस्थल विकास आदि से सम्बन्धित परियोजनाओं में रोजगार प्रदान किया जायेगा, इस प्रकार रोजगार के द्वारा अर्थव्यवस्था में सम्पत्ति सृजन होगा।

उल्लेखनीय है कि इस योजना के अन्तर्गत मजदूरी का भुगतान ‘एकाउन्टपेयी चेक' या पोस्ट आफिस में खाते के द्वारा ही होना है जिससे मध्यस्थों या विचोलियों से मुक्ति मिल सके।

निःसन्देह राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना सर्वथा अलग योजना है। अन्य रोजगार सृजन कार्यक्रमों की तरह इसकी सफलता इसके क्रियान्वयन तथा उसके साथ जुड़े हुए भ्रष्टाचार घूसखोर, फर्जीहाजिरी, जबावदेही आदि के स्तर पर निर्भर करेगी। रोजगार सृजन की यह योजना सार्वजनिक वस्तुओं को विकसित करने के लिए मजदूरी की व्यवस्था करती है। चूंकि सार्वजनिक वस्तु किसी की अपनी नहीं होती है, इसीलिए इसके सृजन में होने वाले हर सम्भव दुरूपयोग सम्भव हैं। आवश्यकता इसकी है कि पूरी योजना इस प्रकार से नियोजन हो कि जहां एक ओर यह गरीबों को अधिक से अधिक लाभप्रद रोजगार प्रदान करे वहीं दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तीव्र आर्थिक विकास सुनिश्चित हो।

सांराश

इस लेख के अध्ययन के पश्चात् यह जान चुके हैं कि सामाजिक समस्याओं में एक प्रमुख समस्या बेरोजगारी है। बेरोजगारी भारत की एक ज्वलन्त समस्या है एक व्यक्ति तभी ही बेरोजगार कहलाता हैं,जबकि उसके पास कार्य नहीं हो और वह रोजगार पाने का इच्छुक हो। इस बेरोजगारी की समस्या ने कई रूप ले लिया हैं,सरकार ने अनेक बेरोजगारी निवारक कार्यक्रम चलाये हुए हैं, जिससे लोगो की आय का सृजन हो।
यद्यपि सरकार विभिन्न योजनाओं के माध्यम से रोजगार के नवीन अवसर पैदा करने तथा युवाओं की आय में सकारात्मक वृद्धि करने के प्रयास कर रही है। तथापि इन समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार को अभी और गम्भीरता से अपने प्रयासों को लागू करना होगा। इस लेख के अध्ययन से आप आर्थिक समस्याओं में सर्वाधिक प्रमुख समस्या बेरोजगारी के कारणों, निवारण के उपाय एवं उसके प्रभाव की व्याख्या कर सकेंगे।

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