भ्रष्टाचार क्या है - भ्रष्टाचार का अर्थ एवं परिभाषा, कारण, परिणाम, उपाय | bhrashtachar in hindi

भ्रष्टाचार क्या है

विश्व के सभी समाज लोक जीवन में भ्रष्टाचार की समस्या से पीड़ित हैं। सम्भवतः आधुनिक सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। वन्य समाज में व्यक्ति 'सच्चा शरीफ इंसान' था, परन्तु सभ्य मानव तो आचरण के अनेक दोषों से युक्त है। रोमन साम्राज्य के ह्रास व पतन पर प्रसिद्ध इतिहासकार गिब्बन (Gibbon) ने लिखा था कि "भ्रष्टाचार संवैधानिक स्वतन्त्रता का सबसे अटल लक्षण है।" वास्तव में सर्वाधिकारी व्यवस्थाएँ भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हैं।
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स्टेटस (States) के अनुसार साम्यवादी रूस में भी घूस, राजकीय कोष के दुरुपयोग, नियुक्तियों के पक्षपात आदि के गम्भीर मामले घटित होते रहते हैं। सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो० योगेन्द्र सिंह के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी एक ऐसी व्यवस्था में पनपती है, जहाँ आर्थिक संसाधनों से सम्पन्न एवं सशक्त वर्ग के लोग काम करते हैं, जो कानूनी व नैतिक नियमों- आदर्शों के प्रतिकूल व्यवहार करते हैं।
इस वर्ग में नौकरशाही, राजसत्ता एवं उद्योग से जुड़े लोग सम्मिलित हैं। उपहार, सुविधा शुल्क, पैसे आदि से सशक्त वर्ग से सम्पर्क करने का प्रयास भी भ्रष्टाचार का ही एक रूप है जो भारत में अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है।

भ्रष्टाचार 

1999 ई० में 'ट्रांसपरेंसी इण्टरनेशलन संस्था' द्वारा 99 देशों में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार यह तथ्य सामने आया है कि विश्व का कोई देश ऐसा नहीं है जहाँ भ्रष्टाचार बिलकुल न हो। यह और बात है कि यह कहीं ज्यादा है तथा कहीं कम। भारत दुनिया के सबसे अधिक भ्रष्टाचार युक्त देशों में सम्मिलित है। भ्रष्टाचार के मामले में भारत से ऊपर सिर्फ पाकिस्तान था। वर्ष 2000 में यह सर्वेक्षण 90 देशों में किया गया। फौजी शासन के कारण पाकिस्तान में यह सर्वे नहीं हो पाया। 1999 की तुलना में 2000 में भारत का ग्राफ थोड़ा नीचे जरूर आया है लेकिन अब उसे दुनिया के भ्रष्टतम की श्रेणी में ही रखा गया है। यहाँ सर्वेक्षणकर्ताओं ने स्कैन्डिनोवियाई और अन्य कई देशों को ईमानदारी के लिए 10 में से 10 अथवा 8-9 अंक प्रदान किए, वहीं भारत को मात्र 2.8 अंक प्राप्त हुए। चीन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। उसे भारत से थोड़ा ही ज्यादा 3-1 अंक मिले। भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ऊपर नाइजीरिया का स्थान है। इसके बाद यूगोस्लाविया, उक्रेन, अजरबैजान, इण्डोनेशिया, अंगोला, कैमरून, रूस, केन्या, मोजाम्बिक, युगांडा, उजबेकिस्तान, वियतनाम, तंजानिया, आर्मेनिया, माल्डोवा, इक्वाडोर, वेनेजुएला, कोटि डी आइवरी, बोलीविया, फिलीपीन्स, भारत, रोमानिया, जिम्बाब्वे तथा कजाकिस्तान का स्थान है। सर्वेक्षण में यह तथ्य भी सामने आया कि न्यूजीलैण्ड, डेनमार्क, सिंगापुर, फिनलैण्ड, कनाडा, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, स्विटजरलैण्ड, हॉलैण्ड, नावें, आयरलैण्ड, ब्रिटेन, जर्मनी और चिली के मुकाबले अमेरिका में भ्रष्टाचार कहीं ज्यादा है।

भारत में लोक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार एक गम्भीर समस्या है। सरकारीतन्त्र और राजनेताओं के भ्रष्ट कारनामे सामान्य जनता को आश्चर्य चकित कर देते हैं। वास्तव में, जनता का विश्वास उनके ऊपर से इन्हीं कारनामों के कारण उठता जा रहा है। आज धारणा यही है कि सब अपनी-अपनी तिजोरियों को भरने में लगे हुए हैं, किसी को जनता के दुःख-दर्द सुनने या दूर करने में रुचि नहीं है। चोरी हो जाने पर भी क्षतिग्रस्त व्यक्ति प्रायः पुलिस में रिपोर्ट करने से हिचकता है, क्योंकि वह जानता है कि इसमें कोई लाभ नहीं होगा वरन् उलटा परेशान होना पड़ेगा।

भ्रष्टाचार का अर्थ एवं परिभाषाएँ

हम भ्रष्टाचार शब्द का प्रयोग दैनिक जीवन में करते हैं परन्तु उसकी ठोस परिभाषा करना बड़ा कठिन प्रतीत होता है। एक बात बिलकुल स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार, व्यक्ति की किसी मनोवृत्ति, चिन्तन या गुण का नाम नहीं है, अपितु यह तो एक विशेष प्रकार के आचरण का परिचायक है जो भ्रष्ट माना जाता है। शाब्दिक दृष्टि से 'भ्रष्टाचार' व्यक्ति के उस आचरण को कहते हैं जो सामाजिक रूप से उसके अपेक्षित व्यवहार प्रतिमानों से हटकर है। अंग्रेजी भाषा में इसे 'Corruption' कहा जाता है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Corrutus' से है, जिसका आशय है तौर-तरीके और नैतिकता में आदर्शों का टूट जाना, घूस आदि लेना।
समाजशास्त्रीय अर्थ में भ्रष्टाचार लोक जीवन में प्रतिष्ठित व्यक्ति का वह आचरण है जिसके द्वारा वह अपने निजी स्वार्थ या लाभ के लिए अपने पद या सत्ता का दुरुपयोग करता है। इलियट एवं मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार, “अपने अथवा अपने सगे सम्बन्धियों, परिवार वालों और मित्रों के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई आर्थिक अथवा अन्य लाभ उठाना भ्रष्टाचार है।” इन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार की परिभाषा करते हुए लिखा कि, “राजनीतिक भ्रष्टाचार, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत लाभ करने के लिए किसी निर्दिष्ट कर्तव्य का जानबूझकर पालन न करना है।" इसी भाँति, रोबर्ट ब्रुक्स (Robert Brooks) के अनुसार, “इसमें किसी मूर्त या अमूर्त लाभ के लिए किए जाने वाले गैर-कानूनी कार्य भी सम्मिलित होते हैं।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भ्रष्टाचार अपने या अपनों के अथवा अपने राजनीतिक दल के लिए, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किया गया अपनी सत्ता का अनुचित व गैर-कानूनी प्रयोग है। अत: सामान्य शब्दों में व्यक्तिगत या पारिवारिक हित के लिए अपने कर्तव्यों की अवहेलना, अनैतिक व गैर-कानूनी कार्य करना भ्रष्टाचार है। इसके अन्तर्गत गैर-कानूनी ढंग से कमाई करना, बेईमानी, छल-कपट, विश्वासघात, जालसाजी, अनैतिकता, पक्षपात, रिश्वत लेना, चोरी करना या करवाना, असत्य का आचरण करना आदि विविध बातों को सम्मिलित किया जाता है।
आजकल समाजशास्त्रीय व कानूनी क्षेत्र में भ्रष्टाचार के स्थान पर एक और व्यापक अर्थ वाला शब्द प्रयोग होने लगा है वह शब्द है ‘अवचार' अथवा 'दुराचार' (Misconduct)। दुराचार अपने में भ्रष्टाचार को तो सम्मिलित करता ही है वरन् उन सब आचरणों को भी सम्मिलित करता है जो उस पद से अपेक्षित आदर्शों से गिरे हुए हैं। इस भाँति, दुराचार आचरण के सड़े (Rotten), दुर्गन्धयुक्त (Putrid), अशोभनीय (Improper), अशुद्ध (Impure) रूप को प्रकट करता है। राजनीतिक भ्रष्टाचार भी दुराचार का ही एक रूप है।

भ्रष्टाचार का समाजशास्त्र

प्रो० योगेन्द्र सिंह ने भारतीय सन्दर्भ में 'भ्रष्टाचार के समाजशास्त्र' से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का उल्लेख किया है। इनके अनुसार स्वतन्त्रता पूर्व भारत में भ्रष्टाचार बहुत कम था क्योंकि उस समय मध्य वर्ग बहुत छोटा था। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में भ्रष्टाचार का तेजी से विस्तार हुआ है। स्वतन्त्रता के पश्चात् राजसत्ता में प्रत्यक्ष नियोजन, पूँजी लागत की प्रक्रिया आदि के द्वारा नौकरशाही, प्रशासन, व्यापार एवं प्रबन्धन के क्षेत्र में ऐसे वर्गों का विकास हुआ जिनमें भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी की सम्भावना अधिक थी। स्वतन्त्रता के दो दशक बाद तक भारत में नौकरशाही एवं राजनीतिक नेतृत्व ईमानदारी को प्रोत्साहन देते थे परन्तु 1970 के दशक के बाद भारत में भ्रष्टाचार में जबरदस्त उछाल आया है। राजनीतिक पार्टियों के विघटन, नवीन पार्टियों के जन्म, क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद एवं सम्प्रदायवाद के राजनीति में घोलमेल से लोक जीवन में भी भ्रष्टाचार फैलने लगा। बार-बार होने वाले राजसत्ता में परिवर्तनों तथा कुछ राजनीतिक नेताओं की अत्यधिक उच्च व व्यक्तिगत महत्त्वकांक्षाओं ने राजनीति में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। इनके अनुसार भारत में खुली प्रतियोगिता पर आधारित अर्थव्यवस्था के स्थान पर बन्द अर्थव्यवस्था ने नौकरशाही, औद्योगिक घरानों एवं राजनीतिक प्रतिष्ठानों की जेबें भरने का कार्य किया है। पूँजी की खरीद फरोत में भी बिचौलियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो गई है।

प्रो० योगेन्द्र सिंह के अनुसार भ्रष्टाचार के लिए सार्वजनिक संस्थाएँ एवं व्यवस्था दोषी है। इन संस्थाओं के विकास के साथ भ्रष्टाचार पर निगरानी एवं नियन्त्रण करने वाली संस्थाओं का विकास नहीं हो पाया है। लोकायुक्त एवं लोकपाल विधेयक पर सभी राजनीतिक दल गम्भीर नहीं हैं। गोपनीयता के नाम पर सूचना के अधिकार से लोगों को वंचित रखा जाता है, जबकि गोपनीयता का कानून अंग्रेजों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए बनाया था। भारत में भ्रष्टाचार फैलाने में मध्य वर्ग की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है क्योंकि यह वर्ग छोटे-छोटे स्वार्थों में इस कदर लिप्त है कि भ्रष्टाचार की घटनाओं को रोकने के बजाय उसे नजर अन्दाज करता रहा है। यद्यपि मध्य वर्ग भ्रष्टाचार को बुरा मानता है पर उसमें अपनी भागीदारी उसे बुरी नहीं लगती। इस ‘समझौता परस्त मानसिकता' ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है।

भ्रष्टाचार का मनोविज्ञान

सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक अरुणा बूटा ने भ्रष्टाचार के मनोविज्ञान को बड़े रोचक ढंग से समझाया है। इनके अनुसार भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण मूल्यों में होने वाला ह्रास तथा समाज के प्रति हमारी प्रतिबद्धता में आने वाली कमी है। प्रतिबद्धता में कमी होते ही व्यक्ति का आत्म विश्वास डगमगाने लगता है और जहाँ भी उसे थोड़ा-बहुत फायदा दिखाई देता है वह उसी तरफ झुकने लगता है। प्रत्येक व्यक्ति अवसर मिलने पर भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकता। किसी कार्यालय में कार्य करने वाला एक क्लर्क यदि दफ्तर की स्टेशनरी, लिफाफे इत्यादि का प्रयोग अपने निजी कार्यों हेतु करता है, यदि एक शिक्षक विद्यालय में नहीं पढ़ाता, यदि व्यापारी कम तौलता है या मिलावट करता है या फिर एक ऑटो रिक्शा चलाक अन्जान व्यक्ति से अधिक किराया वसूलता है तो क्या यह भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आता? इनका कहना है कि राजनेताओं के गलत आचरण पर हमें गुस्सा इसलिए आता है क्योंकि हम राजनीति को केवल राजनीति की दृष्टि से देखते हैं एक व्यवसाय या कैरियर के रूप में नहीं। यदि कोई व्यक्ति कहता है कि वह जनता की सेवा करने के लिए राजनीति में आया है तो वह गलत कहता है। उसके दिलोदिमाग में ताकत की एक अतृप्त भूख है। इसीलिए जिसमें 'ताकत की चाहत' अधिक होती है वही राजनीति में सक्रिय होता है। आज अनेक कलाकार अपनी फण्डिंग अण्डरवर्ल्ड से करा रहे हैं, खिलाड़ी ‘मैच फिक्सिंग' कर रहे हैं, डॉक्टर फार्मास्युटिकल कम्पनियों के हाथों में खेल रहे हैं, इसलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज कौन उठाएगा। जब तक समाज एवं व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता विकसित नहीं होगी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना सम्भव नहीं है।

भ्रष्टाचार के स्वरूप

भ्रष्टाचार कोई एक आचरण या दुराचरण नहीं है वरन् उसके अनेक तरीके प्रचलित हैं। घूसखोरी, झूठी रिपोर्ट तैयार करना, लोक-पद का दुरुपयोग व कुप्रयोग, गैर-कानूनी क्रियाओं का संरक्षण, लोक-धन का दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद, राजनीति अपराधों का संरक्षण, चुनाव में अपनाए जाने वाले अनैतिक हथकण्डे आदि भ्रष्टाचार में सम्मिलित हैं। संक्षेप में भ्रष्ट क्रियाओं का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है

1. घूसखोरी तथा अनुचित लाभ
घूसखोरी सामाजिक जीवन में व्याप्त एक असाध्य रोग है। सरकारीतन्त्र के पदाधिकारी और लोकनेता यदि किसी भी व्यक्ति या समूह से उसके हित में कार्य करने या उसके विरुद्ध वैध कार्यवाही करने के लिए धनराशि स्वीकर करते हैं तो यह घूस या रिश्वत कहलाती है। भारत का अपराधी कानून इसे अवैध घोषित करता है और घूस से
सम्बन्धित पक्षों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जाती है। परन्तु जब कोई कानून की पकड़ में आए तभी तो उसके विरुद्ध कार्यवाही होगी, और जब दोनों ही पक्ष (घूस लेने वाला और घूस देने वाला) इसकी गोपनीयता में रुचि रखते हों तो घूस का उन्मूलन कठिन कार्य बन जाता है।

2. संरक्षण
संरक्षण भ्रष्टाचार का सबसे सरल रूप है। इसके द्वारा लोक नेता अपने समर्थकों को नौकरियाँ, लाइसेंस, अनुदान, ऋण आदि दिलवाते हैं। इस भाँति, संरक्षण भी मोटे तौर पर दो प्रकार का हो सकता है-भाई-भतीजावाद (Nepotism) तथा पक्षपात (Favourtism)। यदि लोक जीवन में प्रभावी पदों पर आसीन व्यक्ति अपने बेटों, पोतों, नातेदारों को नौकरी या व्यवसाय में लाभ पहुंचाते हैं तो यह भाई-भतीजावाद कहलाता है और, यदि वे इस प्रकार के कार्य अपने समर्थकों, चमचों व दल के लोगों के लिए करते हैं तो यह पक्षपात कहलाता है। भारतीय समाज में संरक्षण दोनों ही रूपों में भयंकर रूप से व्याप्त है।

3. राजनीति-अपराधी गठबन्धन
राजनेताओं की निगाहें तो सदा अपने चुनाव पर रहती हैं। अतः वे अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए अनुचित लाभ या संरक्षण का ही सहारा नहीं लेते वरन् अपराधियों का भी सहारा लेने में नहीं हिचकते। यही कारण है कि भ्रष्ट राजनेता या अधिकारी अपराधियों को संरक्षण दिए रहते हैं। कई बार तो विरोधियों की 'राजनीतिक हत्या' भी करा दी जाती है। ये अपराधी चुनाव के समय लोगों को आतंकित करने, झूठी वोट डलवाने या मत-पेटियों को बदलने आदि के काम आते हैं। राजनेताओं के संरक्षण के कारण वे कानून की पकड़ से बाहर रहते हैं। एफ० एम० थ्रेशर (F. M. Thrasher) ने इस विषय पर बहुत सूचनादायक सामग्री दी है और इस बात के प्रमाण पेश किए हैं कि राजनीतिक अपराधी गिरोह किस तरह सक्रिय होते हैं।

4. प्रतिवेदनों को फर्जी या झूठा बनाना
बहुत से मामलों में लोक-ऑफीसरों या नेताओं की रिपोर्ट मांगी जाती है। वे उसमें अपने या अपनों के हित में मिथ्या तथ्य दे देते हैं और स्वार्थसिद्धि कर लेते हैं। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। यह भी भ्रष्टाचार का ही एक रूप है।

5. लोक कोषों व सम्पत्ति का दुरुपयोग
सरकारी धन या सम्पत्ति का निजी या दल की स्वार्थसिद्धि के लिए दुरुपयोग किया जाता है। भ्रष्टाचार का यह स्वरूप भी आम रूप से प्रचलित है।

6. कानून के क्रियान्वयन को जनबूझकर रुकवाना
जो लोग नेताओं को और उनके दलों को बड़ी रकम प्रदान करते हैं अनेक बार कानूनों का उल्लंघन करने पर दण्ड से बच जाते हैं। आयकर, बिजली उपभोग सम्बन्धी भुगतान आदि अनेक व्यक्तियों के पिछले पड़े रहते हैं ओर वे अन्त में इनसे माफी पा जाते हैं।

7. भ्रष्टाचार का संस्थाकरण
सार्वजनिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में नजराना, दस्तूरी, कमीशन आदि के रूप में भ्रष्ट क्रियाओं ने एक नियमित रूप ले लिया है। समाज की स्वीकृति न होते हुए भी ये क्रियाएँ परोक्ष रूप से स्वीकृत ही हो गई हैं। ठेकेदारी व्यवसाय लोक अधिकारियों को अवैध कमीशन देने पर टिका हुआ है। कचहरी में आवाज लगाने वाले चपरासी से लेकर अन्य सभी कर्मचारी अपना-अपना हक या दस्तूरी माँगते हैं। यह सब न्याय-मूर्तियों की नाक के नीचे ही घटित होता रहता है। यातायात कार्यालयों, आबकारी विभागों और पुलिस विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार दैनिक जीवन की सामान्य अनुभूतियाँ बन गई हैं।

अतः भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं। इस दिशा में लगे व्यक्तियों के मस्तिष्क बड़े प्रतिभावान होते हैं। अपने सम्पर्कों के माध्यम से सरकारी अफसरों एवं लोक नेताओं को सन्तुष्ट रखने के लिए बड़े आलीशान बंगलों या होटलों में सब तरह का प्रबन्ध रखा जाता है। स्वर्ण, सुरा और सुन्दरी के मोह जाल से कोई विरला ही अपना दामन बचाए रह सकता है। प्रश्न उठता है कि आखिर भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी व मजबूत क्यों हैं? उसके विरुद्ध अभियान सफल क्यों नहीं हो पाता? इसलिए अब हम भ्रष्टाचार के क्षेत्रों एवं कारणों पर प्रकाश डालेंगे।

भ्रष्टाचार के क्षेत्र

सरकार के प्रायः सभी विभागों में भ्रष्टाचार बहुत बुरी तरह से पनप रहा है। राजस्व, आबकारी, आयात-निर्यात, आयकर, तटकर, कृषि, रेलवे आदि विभागों में यह अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है और छोटे-बड़े उद्योग एवं व्यापार-वाणिज्य के ठेकों, लाइसेंस, परमिट, ऋण अनुदान आदि में यह तीव्रता से फैलता जा रहा है। कचहरी तथा परिवहन विभाग में यह खुले आम संस्थागत रूप लेता जा रहा है और सेना, शिक्षा व स्वास्थ्य विभाग भी आज इससे अछूते नहीं रहे हैं। सन्थानम कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कचहरी में पहले भ्रष्टाचार केवल निम्न स्तर पर ही व्याप्त था परन्तु अब यह उच्च स्तर पर फैल गया है।

सन्थानम कमेटी ने भ्रष्टाचार की शिकायतों वाले विभागों की निम्न तालिका दी है-
  • उद्योग वाणिज्य विभाग,
  • सामुदायिक विकास और सहकारिता विभाग,
  • सुरक्षा सेना विभाग,
  • शिक्षा विभाग,
  • परराष्ट्र विभाग,
  • अर्थ-आबकारी, तटकर सुरक्षा, आर्थिक विकास, व्यय, आय-कर तथा राजस्व विभाग,
  • खाद्य और कृषि विभाग,
  • स्वास्थ्य विभाग,
  • गृह विभाग,
  • सूचना एवं प्रसारण विभाग,
  • सिंचाई और विद्युत विभाग,
  • श्रम व रोजगार विभाग,
  • न्याय विभाग,
  • खान विभाग,
  • रेलवे विभाग,
  • वैज्ञानिक शोध और संस्कृति विभाग,
  • इस्पात व भारी उद्योग विभाग,
  • यातायात व संचार विभाग,
  • डाक-तार विभाग,
  • पुनर्वास विभाग,
  • तामीरात विभाग,
  • राष्ट्रपति का सचिवालय,
  • प्रधानमन्त्री का सचिवालय,
  • योजना आयोग, तथा
  • संघीय सार्वजनिक सेवा आयोग।

भ्रष्टाचार के कारण

किसी भी अन्य समस्या की तरह भ्रष्टाचार के भी अनेक प्रमुख कारण होते हैं। ये कारण व्यक्तिगत भी हो सकते हैं अथवा समाज की विभिन्न परिस्थितियों एवं पक्षों से भी सम्बन्धित हो सकते हैं।

सरलता की दृष्टि से भ्रष्टाचार के कारणों को निम्नलिखित प्रमुख श्रेणियों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है-

(अ) भ्रष्टाचार के व्यक्तिगत कारण
कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में कुछ ऐसी विषम परिस्थितियाँ आ जाती हैं जिनका सामना वह सामान्य संवैधानिक तरीकों से नहीं कर पाता। कहा भी जाता है 'बुभुक्षित किं न करोति पापम्' अर्थात् भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता? अपनी बहनों, बेटियों के लिए दहेज के प्रबन्ध या नौकरी ढूँढने पर भी काम का न मिलना, या ऐसे काम का मिलना जिसमें दो समय का पर्याप्त भोजन भी न मिले व्यक्ति को भ्रष्टाचार के मार्ग पर आगे बढ़ा सकता है। आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में पीड़ित व्यक्ति भ्रष्टाचार के हाथों बड़ी सरलता से बिक सकता है।

(ब) भ्रष्टाचार के आर्थिक कारण
भ्रष्टाचार के लिए आर्थिक पृष्ठभूमि भी उपजाऊ बन जाती है। ऐसा निम्न कारणों की वजह से हो रहा है-

1. प्रतिस्पर्धात्मक भौतिकवादी जीवन-दर्शन
आधुनिकीकरण व औद्योगीकरण के साथसाथ प्रतिस्पर्धात्मक भौतिकवादी जीवन-दर्शन भी बढ़ा है। आज हमारी सारी शिक्षा-दीक्षा प्रतिस्पर्धा के आधार पर होती है। हमें सिखाया जाता है कि हर क्षेत्र में सफलता ही प्राप्त नहीं करनी है वरन् उस कार्य-क्षेत्र में लगे अन्य व्यक्तियों से आगे भी निकलना है। अत: व्यक्ति केवल धनवान ही नहीं बनना चाहता वरन् अपने पड़ोसियों व रिश्तेदारों से अधिक धनवान बनना चाहता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में ईमानदारी से ओत-प्रोत साधन बड़े कठिन श्रम, धैर्य व तपस्या की माँग करते हैं। परन्तु प्रतिस्पर्धात्मक जीवन में इतनी प्रतीक्षा या धीरज के लिए स्थान कहाँ है? अत: व्यक्ति जल्दी ही, चाहे जैसे हो, सफलताएँ प्राप्त करना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि सफलता से बड़ी अन्य कोई उपलब्धि नहीं होती। यदि एक बार वह शीर्ष स्थान प्राप्त कर ले तो फिर कोई नहीं पूछता कि यह स्थान उसने कैसे प्राप्त किया है। अधिक से अधिक सम्पत्ति के संग्रहण पर आधारित भौतिक जीवन-दर्शन भ्रष्टाचार को अनिवार्य-सा बना देता है।

2. नव समृद्धों का आदर्श
आजादी के बाद देश में विकास की अनेक योजनाएँ लागू हो गईं। ठेके और लाइसेंसों का बोलबाला हुआ। जटिल व्यापारिक क्रिया में हेरा-फेरी का साहस कर सकने वाले अनेक व्यक्ति शून्य से लखपति बन बैठे हैं। इन नव-अमीरों का रहन-सहन भी बड़ा चमक-दमक वाला होता है। ये लोग अन्य व्यक्तियों के लिए सन्दर्भ समूह बन जाते हैं। अनेक अन्य व्यक्ति भी उनका अनुकरण कर समाज के प्रतिष्ठित वर्ग में सम्मिलित होने के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त हथकण्डे अपनाने को प्रेरित हो जाते हैं।

3. महत्त्वाकांक्षा-स्तर का सतत वृद्धिरत स्वरूप
विकासोन्मुख समाजों में यह एक तीव्र समस्या है। चुनाव के समय हर राजनीतिक दल वोट प्राप्त करने के लिए जन-सामान्य की महत्त्वाकांक्षाओं की अग्नि को हवा देता है; चुनाव के बाद एक ऐसे दैवीय नगर की स्थापना का वायदा करता है जिसमें गरीबी, बेकारी आदि का नाम भी शेष नहीं रहेगा। यह भी देखा गया है कि जब तक व्यक्ति कष्टमय आर्थिक व्यवस्था (Pain economy) में रह रहा है, वह जो कुछ है उसी में सन्तुष्ट रहता है परन्तु तनिक भी व्यक्ति इस स्तर से ऊपर उठा कि उसके दिन-प्रतिदिन नए स्वप्न विकसित हो जाते हैं, उसकी नई माँगें होती हैं। विकासोन्मुख समाजों में इतने बढ़ते हुए महत्त्वाकांक्षा-स्तर की माँगों की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधनों का अभाव होता है। इससे व्यक्ति निराश होता है और उसके नैतिक बन्धन ढीले होने लगते हैं। वह महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भ्रष्ट मार्ग अपनाने के लिए तैयार हो जाता है।

4. लाइसेंस, परमिट, कोटा व कण्ट्रोल तथा जटिल कर-प्रणाली पर आधारित आर्थिक व्यवस्था
यह सच है कि विकासशील देशों में साधनों की कमी है जिसके कारण कुछ वस्तुओं के नियन्त्रण के लिए 'लाइसेंस' व 'कोटा सिस्टम' होता है, परन्तु जहाँ कहीं भी ऐसी व्यवस्था होती है वहाँ भ्रष्टाचार पनपने के अवसर अधिक होते हैं। अफसरों व राजनेताओं के पास अपने विशेषाधिकार के आधार पर बाँटने को बहुत कुछ होता है और इन अनुग्रहों के वितरण में कुछ उनका भी भला हो जाए तो इसमें क्या बुराई है? और जब मियाँ-बीवी राजी तो बेचारा काजी क्या कर सकता है? दोनों ही पक्ष गुप-चुप अपने-अपने स्वार्थ पूरे करने में लगे रहते हैं। साथ ही यह भी कहा जाता है कि भारत में कर-प्रणाली बड़ी जटिल व भारी है। व्यापारियों का तो यह कहना है कि यदि वे सभी कर दें और नम्बर दो का व्यवसाय न करें तो भूखों मरने लगेंगे। आमतौर पर यह देखा भी जाता है कि जिस वस्तु पर ‘कण्ट्रोल' घोषित हुआ वही बाजार से गायब हुई।

5. राजनीतिक-व्यापारी-अपराधी सहजीवता
भ्रष्टाचार का एक कुचक्र राजनेता, व्यापारी व अपराधी के पराश्रयी सहजीवता के रूप में स्थापित हो चुका है। राजनेता को चुनाव के लिए बहुत बड़ी धनराशि चाहिए जो उसके पास प्रायः नहीं होती, उसकी पार्टी भी कोई व्यापार तो कर नहीं रही होती। इसलिए उसे भी चन्दा व अन्य साधन चाहिए। इतना ही नहीं चुनाव चक्रव्यूह में उसे शारीरिक बल की भी आवश्यकता होती है ताकि वह विरोधियों के पशु-बल का जवाब दे सके और उन्हें आतंकित भी कर सके। अतः उसे व्यापारी व समाज विरोधी अपराधी तत्त्वों के सहयोग की आवश्यकता होती है। व्यापारी को लाइसेंस व परमिट चाहिए, अपने हितों के संरक्षण वाली राजनीतिक नीतियाँ चाहिए, संसद या विधानसभा में व्यापारी हितों की रक्षा के लिए आवश्यक आवाज चाहिए, गैर-कानूनी ढंग से इधर-उधर से माल लाने वाले चाहिए तथा अपने मार्ग के रोड़ों को हटाने के लिए इस्पात का हाथ चाहिए। अत: व्यापारी को राजनेता व अपराधी की आवश्यकता होती है। अपराधी को अपनी अवैध कार्यवाहियों को चलाते रहने के लिए संरक्षण चाहिए, माल खपाने के लिए व्यापारी चाहिए। अतः व्यापारी राजनेता व अपराधी पर आश्रित है। इसी सहजीवता की स्थिति में ऊपर से परस्पर विरोधी दिखाई देने वाले तीनों पक्ष भ्रष्टाचार के शक्तिशाली स्तम्भ बन जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप तस्करी, मदिरालय, रंगीन रात्रि क्लब, जुआघर, वेश्यालय चलते रहते हैं और भ्रष्टाचार का अक्षय वट-वृक्ष फूलता-फलता रहता है।

(स) भ्रष्टाचार के पारिस्थितिकीय कारण
भ्रष्टाचार का पारिस्थितिकीय विज्ञान की दृष्टि से भी अध्ययन किया गया है। लासवैल (Lasswell) के अनुसार, विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या के राजनीतिक व सामाजिक मामलों पर दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन्न हैं। गरीब व गन्दी (मलिन) बस्तियों में रहने वाले व्यक्ति राजनीतिक स्थिति की व्याख्या प्रायः दो दृष्टियों से करते हैं—एक तो उन्हें नागरिक संगठनों से रोजगार मिलता रहे, और दूसरे उन्हें अवैध इच्छाओं को (जैसे शराब या वेश्यागमन) पूर्ति के लिए सरल सुविधाएँ मिलती रहें। इसलिए वे नागरिकप्रशासन के भ्रष्ट रूप को बनाए रखने में रुचि रखते हैं क्योंकि उनकी रोजी-रोटी का सवाल इससे जुड़ा है। प्राय: देखा गया है कि भ्रष्टाचार घनी बस्तियों और समवर्ती क्षेत्रों में अधिक होता है। कुछ लोक नेता इसके विरुद्ध आवाज उठाते हैं परन्तु वे इतने अल्पसंख्यक व असंगठित हैं कि संगठित भ्रष्टाचार के विरुद्ध शक्तिहीन हो जाते हैं।

(द) भ्रष्टाचार के प्रशासकीय कारण
भारतीय प्रशासकीय संरचना निम्नलिखित रूप में भ्रष्टाचार के उद्गम का कारण बन जाती है

1. कानूनों का खोखलापन व कानूनी विधियों की जटिलता - भारत में कानून इतने जटिल और कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी, औपचारिक व दुरूह है कि सामान्य व्यक्ति के लिए उसका समझ सकना जटिल है। हमारी अधिकांश जनसंख्या अब भी अशिक्षित है अतः जब भी उसका कानून से कुछ वास्ता पड़ता है वे भ्रष्ट तत्त्वों से मदद लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं और कदम-कदम पर ठगे जाते हैं। पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कानूनी-औपचारिकता के झंझटों व परेशानी से बचने के लिए भ्रष्ट तरीकों का सहारा लेने को प्रेरित हो जाता है। कानूनों का खोखलापन भी भ्रष्टाचार का कारण है। कानून बनते हैं एक उद्देश्य से, परन्तु अमल में आते समय उनका दूसरा ही रूप दिखाई पड़ता है।

2. कर्मचारीतन्त्र की लाल फीताशाही - मध्यम और निम्न श्रेणी के कर्मचारीतन्त्र के पास पहले ही अनैतिक लूट के लिए हथियार होते हैं। पुराने कागज ढूँढ़ना, केस का अध्ययन करना आदि अनेक ऐसे हथकण्डे हैं जिनके द्वारा किसी केस की फाइल प्रस्तुत करने में मनचाही देर लगाई जा सकती है। फाइलों का लाल फीता बड़ा मजबूत होता है, खुलता ही नहीं और उसकी चाल बड़ी धीमी होती है, परन्तु घूस की चिकनाई लगते ही फीता फिसल जाता है और फाइल के पंख उग आते हैं। वास्तव में, कर्मचारीतन्त्र की औपचारिक आवश्यकताएँ इतनी अधिक हैं कि भ्रष्टाचार के लिए अनगिनत रास्ते खुल जाते हैं।

3. प्रशासकों की विस्तृत विवेकाधिकारी सत्ता व शक्ति - प्राय: प्रशासन के कानून अंग्रेजों द्वारा बनाए गए थे। उन्होंने अपने अधिकार में लिए एक उपनिवेशिक देश पर शासन करना था तथा एक विदेशी कौम को गुलाम बनाए रखना था। स्वाभाविक ही उसके पास विस्तृत विवेकाधिकारी शक्ति का होना आवश्यक था। परन्तु अब भी वही अधिकार चले आ रहे हैं। अपराधों के लिए न्यायाधीशों के पास भी विस्तृत विवेकाधिकार हैं। प्राय: अधिकतम दण्ड की सीमा निर्धारित है। एक अपराध में, उदाहरणार्थ, 5000 रुपये तक जुर्माना हो सकता है और ऑफीसर के विवेकाधिकार की बात है कि चाहे तो मात्र 5 रुपये जुर्माना कर दे। इस विवेकाधिकारी शक्ति ने भी प्रशासकों के भ्रष्टाचार के क्षेत्र बढ़ा दिए हैं क्योंकि प्रशासन व प्रार्थी पारस्परिक लाभ के सौदे तय करने में समर्थ हो जाते है।

4. ईमानदार ऑफीसर की दुर्दशा - भ्रष्ट प्रशासनतन्त्र में यदि कहीं कोई ईमानदार ऑफीसर फँस जाता है तो उसके अधीन व्यक्तियों और कुछ सीमा तक उसके ज्येष्ठ अधिकारियों को उससे कष्ट होने लगता है। वे उसे अवांछनीय तत्त्व समझने लगते हैं और भ्रष्ट राजनेताओं की सहायता से उसका उत्पीड़न प्रारम्भ हो जाता है, उनकी पदोन्नति, स्थानान्तरण सभी कुछ प्रभावित होता है। अब धीरे-धीरे उसके सामने तीन मार्ग रह जाते हैं- प्रथम, वह भी भ्रष्टाचार की बृहद् मशीन का एक पुर्जा बन जाए, द्वितीय, वह स्वयं अपना दामन दागों से बचाए रखे और अपने सहकर्मियों के भ्रष्टाचार की ओर से आँखें मूंदे रखे और जब-तब उनकी सिफारिश भी मानता रहे और जैसे कटे अपना जीवन काटे तथा तृतीय, वह नौकरी छोड़ दे। स्पष्ट है कि निराश व सताया हुआ व्यक्ति प्रायः पहला ही मार्ग अपनाने की सोचेगा क्योंकि दूसरा मार्ग कठिन है और तीसरा तो इस बेरोजगारी के जमाने में आत्मघात है ही। इस भाँति, ईमानदार पदाधिकारी भी धीरे-धीरे कुण्ठित व उदासीन हो जाते हैं।

(क) भ्रष्टाचार के राजनीतिक कारण
लोक जीवन में भ्रष्टाचार राजनीतिक कारणों के परिणामस्वरूप ही सबसे अधिक प्रचलित है। प्रमुख रूप से निम्न राजनीतिक कारण इसके लिए जिम्मेदार हैं

1. सत्ता की राजनीति - राजनीति का लक्ष्य केवल 'शक्ति' प्राप्त करके इसे बनाए रखना और उसका अपने और अपने दल के हित के लिए प्रयोग करना है। ‘सत्ता की राजनीति' में नैतिक आदर्शों और राष्ट्रीय हितों के लिए कम ही स्थान रह पाता है। ‘सत्ता' प्राप्त करने के लिए खुलकर धन व अन्य हथकण्डों का प्रयोग होता है। जब राजनेता ही भ्रष्ट हैं तो सामाजिक जीवन कैसे स्वच्छ रह सकता है।

2. खर्चीली व दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली - प्रजातान्त्रिक प्रणाली में चुनाव भी एक बड़ा हास्यास्पद चित्र प्रस्तुत करते हैं। एक एम० एल० ए० या एम० पी० के चुनाव में कम-से-कम 15 लाख से लेकर 20 लाख रुपया तक खर्च होता है। कैसा मजाक लगता है कि एक उम्मीदवार मतदाता से हाथ जोड़कर 'सेवा करने का हक' माँग रहे हैं, मानो किसी ने उन्हें सेवा करने से रोक रखा था। चुनाव क्षेत्र के लिए वे जब चाहें सामाजिक कार्य कर सकते हैं, परन्तु नहीं! अब वे सामाजिक सेवा करने के लिए जनता से हक माँग रहे हैं और उसके लिए लाखों रुपया खर्च कर रहे हैं, वह भी पाँच साल के लिए (कहीं मध्यावधि चुनाव हो जाएँ तो और भी कम समय के लिए)। वास्तव में, चुनाव में ये इतना खर्च तो विनियोग है, जिससे फिर लाभांश कमाना है। राजनीतिक दल कैसे-कैसे हथकण्डों से धन इकट्ठा करते हैं यह तो अब आम चर्चा का विषय है।

3. उच्च राष्ट्रीय नेताओं की प्रारम्भिक उदासीनता - आजादी के बाद भ्रष्टाचार का जो व्यापक प्रसार हुआ उसमें हमारे शीर्षस्थ राष्ट्रीय नेताओं की इस ओर उदासीनता भी एक प्रमुख कारण कही जाती है। यदि शुरू में ही कड़ी कार्यवाही की जाती तथा इसकी रोकथाम के लिए प्रबन्ध किए जाते तो भ्रष्टाचार का नाम इतना बहुमुखी और विशालकाय न होता।

4. शक्तिशाली प्रचारतन्त्र - प्राय: राजनेताओं और व्यापारियों का प्रचारतन्त्र जैसे प्रेस, रेडियो, टेलीविज़न आदि पर काफी प्रभाव होता है। पत्रकार उनके आगे पीछे घूमते हैं। अत: वे अपनी छवि सही बनाए रखने के लिए और अपने कालिमामय कृत्यों को छिपाने के लिए प्रचारतन्त्र के द्वारा जनता में अनेक भ्रामक तथ्य भी फैलाते रहते हैं।

5. निष्पक्ष व प्रभावी जाँच-तन्त्र का अभाव - अभी तक ऐसी कोई निष्पक्ष, तटस्थ व शक्तिशाली संस्था विकसित नहीं हो सकती है जो लोक जीवन में लोक नेताओं के कुआचरण व भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत पर स्वतन्त्र रूप से जाँच कराती हो तथा निर्णय लेती हो। पिछले कुछ वर्षों में जो जाँच-आयोग बैठे वे सलाहकारी प्रकृति के रहे। अतः लोक जीवन में भ्रष्टाचार का घोड़ा बेलगाम उछलता-कूदता दौड़ता रहा।

(ख) भ्रष्टाचार के सांस्कृतिक कारण
भ्रष्टाचार के लिए हमारी समकालीन सांस्कृतिक परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी हैं, क्योंकि इसके दो निम्नलिखित लक्षण भ्रष्टाचार के लिए सहयोगी कारण बन जाते हैं-

1. सांस्कृतिक मूल्यों में उभयभाविता व संघर्ष
परम्परा व आधुनिकता के बीच पला व्यक्ति सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति उभयभावी हो जाता है। वह एक 'मूल्य' के प्रति आकर्षण व घृणा दोनों ही दृष्टि रखने लगता है। इसी प्रकार अनेक क्षेत्रों में परम्परागत और आधुनिक मूल्यों में संघर्ष की स्थिति होती है। आधुनिक मूल्य उपलब्धि, भौतिक वस्तुओं के संग्रह, उपभोग के प्रतिमान से व्यक्ति की सफलता का मापदण्ड करते हैं और साधनों की शुद्धता पर अधिक जोर नहीं दिया जाता। परम्परागत मूल्य ईमानदार और शुद्ध साधनों को भी आवश्यक बताते हैं परन्तु सामाजिक संरचना व वातावरण ने ईमानदार व्यक्ति के लिए कोई प्रतिष्ठित पद छोड़े नहीं तो फिर व्यक्ति क्या करें? ऐसे मूल्य संघर्ष की सीमा पर खड़े व्यक्ति जरा भी बाधक परिस्थिति आने पर आदर्श की लक्ष्मण-रेखा पार कर भ्रष्टाचार के रावण के साथ चल पड़ते हैं।

2. चरित्र का संकट
वास्तव में, आज हमारे समाज में ‘चरित्र' का संकट है। चरित्र के विकास की परम्परागत संस्थाएँ–कठोर पारिवारिक अनुशासन, गुरुकुल पद्धति, संस्कारों पर आधारित जीवन-यात्रा समाप्त हो गई हैं। आधुनिक संस्थाएँ 'चरित्र-निर्माण' पर आधारित नहीं हैं, अत: भारतीय राष्ट्रीय चरित्र गिरता ही चला गया है। ईमानदारी, सन्तोष, वचन पालन तो मध्य युग के पिछड़े गुण लगते हैं। आज तो अवसरवादिता, छीना-झपटी ही चरित्र का आधार बन गए हैं। कमजोर चरित्र भ्रष्टाचार के लिए उर्वर भूमि है।

(ग) भ्रष्टाचार के ऐतिहासिक कारण
भ्रष्टाचार के कारणों में इसकी ऐतिहासिकता को भी गिनाया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में प्रमुख अधिकारी अंग्रेज थे। वे देशी भाषाएँ नहीं जानते थे। इसीलिए हर काम के लिए बिचौलियों, एजेन्टों व ठेकेदारों की प्रणाली विकसित हो गई। अंग्रेज अफसरों के यहाँ डाली, नजराना आदि पहुँचाया जाने लगा तथा दफ्तरों में कर्मचारियों की कमीशन और दस्तूरी तय होने लगी। अंग्रेज तो गए पर देशी अफसर व कर्मचारियों ने विरासत में मिले भ्रष्टाचार को और व्यापक व संगठित रूप से फैलाया है। अतः भ्रष्टाचार समाज में अवैध एवं अस्वीकृति, परन्तु फिर भी यह एक सामूहिक आचार बन गया है।
इस भाँति, भ्रष्टाचार के कारणों का विस्तृत अध्ययन हमें बताता है कि भारत में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत मजबूत हैं और इसका प्रभाव भारतीय समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त है। शिक्षा के प्रांगण और देवालय व गिरजाघर भी इससे अछूते नहीं है। सच तो यह है कि स्वयं भ्रष्टाचार और आगे भ्रष्टाचार में वृद्धि का एक कारण है।

भ्रष्टाचार के परिणाम

भ्रष्टाचार के परिणामों का विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-

(अ) व्यक्ति की दृष्टि से भ्रष्टाचार के परिणाम - व्यक्ति की दृष्टि से भ्रष्टाचार निम्न प्रभाव डालता है-

1. चारित्रिक पतन - भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप व्यक्तियों का चारित्रिक पतन होता है। जो व्यक्ति इसमें लिप्त हैं उनसे किसी नैतिक या मानवीय आदर्श की आशा करना ही व्यर्थ है क्योंकि ‘सत्ता', 'उपलब्धि या 'धन' ही उनके जीवन के मार्गदर्शक मूल्य बन जाते हैं। साधनों की शुद्धता का सवाल उठाना ही असंगत हो जाता है। चरित्र की दृष्टि से पतित ऐसे व्यक्ति न अच्छे प्रशासक हो सकते हैं और न राजनेता ही। काम चलता रहे या 'कुर्सी सुरक्षित रहे' ये ही उनके मूल मन्त्र हो जाते हैं। बाहर से वे भरे-पूरे रहते हैं परन्तु अन्दर से खोखले, क्योंकि अन्त: करण में तो वे अपराधी या हीन ही हैं। हर समय स्वयं के असली रूप को छिपाये रखने की उनकी चोर वृत्ति उनसे चारित्रिक अथवा नैतिक दृढ़ता छीन लेती है जोकि जीवन में सच्ची सफलता की कुंजी है। नैतिक पतन उन्हें जुआ, शराब, स्त्री-सहवास जैसी बुराइयों की ओर ले जाता है जिससे और आगे नैतिक पतन होता है।

2. व्यक्ति में निराशाओं व कुण्ठाओं का विकास - सदाचारी व्यक्ति भ्रष्टाचार के दैत्य के सम्मुख बौने बन जाते हैं। उनमें गुण और क्षमता होते हुए भी वे उनके विकास के अवसर नहीं पा सकते। अतः इनमें सापेक्षिक व बलात् अपने न्यायोचित स्थान से वंचित रह जाने की भावना निराशा भर देती है। वे स्वयं को उदासीन व शक्तिहीन महसूस करते हैं।

3. व्यक्ति का अलगावग्रस्त, सनकी व चिड़चिड़ा होना - सदाचारी निराश व कुण्ठित होने से और भ्रष्ट व्यक्ति अपनी शक्ति व सत्ता के मद में सनकी और चिड़चिड़े हो जाते हैं। वे पलायनवाद, एकाकीपन, आदर्शविहीनता की भावनाओं पर आधारित अलगाव के शिकार हो जाते हैं और भावात्मक दृष्टि से तनाव व उत्तेजित अवस्था में रहते हैं।

4. भ्रष्ट व्यक्ति की अनन्त हविश का विकास - भ्रष्टाचार की बीमारी का शिकार व्यक्ति कभी न मिटने वाली भूख–तन की भी धन की भी विकसित कर लेता है और तृप्ति की तलाश में भटकता रहता है जोकि मृग-मरीचिका सी उससे दूर भागती रहती है।

(ब) समाज की दृष्टि से भ्रष्टाचार के परिणाम- इलियट एवं मैरिल ने बहुत उचित लिखा है कि राजनीतिक विघटन व भ्रष्टाचार, एक ही समय, सामाजिक विघटन का परिणाम व सहायक कारक हैं। वास्तव में, भ्रष्टाचार सामाजिक विघटन को उत्पन्न करता है।

भ्रष्टाचार के सामाजिक कुपरिणाम निम्नलिखित हैं-

1. सामाजिक विघटन की प्रक्रिया को बढ़ावा - भ्रष्टाचार, सामाजिक विघटन को बढ़ाता है क्योंकि इसी के संरक्षण में जुआघर, वेश्यालय आदि चलते हैं। पुलिस अधिकारियों के क्षेत्र में ये अपराधी-संगठन, संरक्षण के लिए नियमित ‘सुरक्षाधन' (Protection money) क्षेत्र के इन्चार्ज को देते हैं और उसका बँटवारा श्रेणी के अनुसार कर्मचारियों को मिलता है। व्यक्तियों का नैतिक पतन उन्हें अपराध की ओर ले जाता है। जब व्यक्ति के पास काला धन आता है वह उसे सीधे कार्यों या सम्पत्ति आदि में तो दिखा नहीं सकता, इसे तो वह सुरा व सुन्दरी पर व्यय करता है। व्यक्तिगत विघटन से पारिवारिक विघटन को भी बल मिलता है।

2. सामाजिक असमानता में वृद्धि भ्रष्टाचार के द्वारा धन कुछ ही हाथों में केन्द्रित होता जाता है। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के द्वार बन्द होते हैं और गरीब व अमीर के बीच खाई बढ़ती ही चली जाती है। जीविका के लिए गरीब भ्रष्ट कार्यों में दास की भाँति कार्य करते हैं। इस असमानता से असन्तोष व दोष बढ़ते हैं।

3. अलगावग्रस्त जनसमूह आन्दोलन के लिए तत्पर असन्तोष से घिरे जनसमूह आन्दोलनों के लिए चारा बन जाते हैं। चालाक राजनेता या स्वार्थी समूह ऐसे जनसमूहों की भावनाओं को उभारकर कभी भड़का देते हैं और इसी कारण आए दिन तोड़-फोड़ की घटनाएं होती रहती हैं।

4. दूषित राजनीतिक वातावरण का निर्धारण- भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप राजनीतिक व्यवस्था पूर्णतः दूषित हो जाती है। भ्रष्टाचार राजनीति द्वारा पोषित होकर राजनीतिक विघटन का कारण भी बन जाता है।
राजनीतिक दृष्टि से भ्रष्टाचार के परिणाम निम्न हैं-
  1. राजनीतिक पार्टियों का नेतृत्व अवांछनीय तत्त्वों के हाथ में चला जाता है और पार्टी का सर्वांगीण पतन होता है।
  2. राजनेताओं व प्रशासन पर से जनता का विश्वास उठ जाता है और जनता में असुरक्षा की भावना बढ़ती है।
  3. कानून व्यवस्था भंग होने लगती है।
  4. राजनेताओं की जनता को सही दिशा देने की क्षमता क्षीण हो जाती है, क्योंकि उनके वाक्य जनता को थोथे लगते हैं।

5. आजादी का अर्थहीन होना - एच० वी० कामथ ने सही कहा है कि भ्रष्टाचार की दुर्गन्ध स्वतन्त्रता की सुगन्ध को भी नष्ट कर देती है। भ्रष्ट परिस्थितियों में स्वतन्त्रता अर्थपूर्ण कैसे रह सकती है, जबकि व्यक्ति आतंकित, बाधित व असहाय महसूस करता हो।

6. सामाजिक सुधार व प्रगति में बाधा - भ्रष्टाचार से निहित स्वार्थ समाज सुधार के कार्यों में बाधा बन जाते हैं, क्योंकि सुधार द्वारा उनके हितों को चोट पहुँचती है। सरकार कानून भी नहीं बना पाती और यदि बना भी ले तो उसको क्रियान्वित नहीं कर पाती। विकास कार्यों में बाधा पड़ती है क्योंकि योजना-व्यय का बहुत बड़ा भाग विकास कार्य से हटकर भ्रष्टता की नीतियों से बहता हुआ व्यर्थ ही चला जाता है।

7. राष्ट्र-निर्माण में व्यवधान - भ्रष्टाचार राष्ट्र-निर्माण की गति को धीमा कर देता है। राष्ट्रनिर्माण बाँध बनाने से, बड़े-बड़े कारखाने लगाने से ही नहीं होता वरन् उत्तरदायी नागरिकों के निर्माण से होता है। अन्ततोगत्वा राष्ट्र के नागरिक ही हर विकास कार्य के हेतु हैं। यदि नागरिक ही चरित्र की दृष्टि से पतित हैं तो राष्ट्र का ह्रास भी अनिवार्य है। भ्रष्टाचार के इतने गम्भीर परिणाम होते हुए भी क्या किसी राष्ट्रीय नेता का इधर ध्यान नहीं गया? क्या राज्य ने इसके विरुद्ध कुछ नहीं किया? ऐसा नहीं है, भ्रष्टाचार के निरोध के लिए कुछ कदम भी उठाए गए हैं, यद्यपि उसके माध्यम से अभी तक अधिक सफलता नहीं मिल पाई है।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनाए गए उपाय

स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ही महात्मा गांधी ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाई थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् इस दिशा में कुछ विशेष कदम उठाए गए हैं, जिन्हें प्रमुख रूप से इस प्रकार गिनाया जा सकता है-
  1. 1947 ई० में भ्रष्टाचार निरोध-अधिनियम पारित किया गया जिसने भ्रष्टाचार की क्रियाओं की परिभाषा दी और दण्ड निर्धारित किए।
  2. योजना आयोग ने श्री ए० डी० गोरवाला को प्रशासन के सुधार के लिए जाँच व सुझाव देने के लिए नियुक्त किया। 30 अप्रैल 1951 ई० को श्री गोरवाला ने लोक-प्रशासन पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने स्पष्ट दिखाया कि अनेक राजनेता भी दुराचरण में लिप्त हैं और यथा राजा तथा प्रजा कहावत को दोहराते हुए इस बात पर जोर दिया कि राष्ट्र के नेताओं को लोक जीवन में आदर्श व स्वच्छ आचरण रखना चाहिए।
  3. लगभग इसी समय (9 अप्रैल 1951 ई०) श्री आयंगर की अध्यक्षता में नियुक्त कांग्रेस संसदीय दल की एक उप-समिति ने स्वर्गीय श्री बी० के० कृष्णमेनन के दुराचरण से सम्बन्धित जीप केस पर प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसमें भ्रष्टाचार के स्पष्ट उदाहरण थे। परन्तु खेद की बात यह है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने केस दबा दिया। इस सम्बन्ध में सर्वश्री द्विवेदी व भार्गव ने लिखा है, “यदि श्री कृष्णमेनन द्वारा स्वीकार की गई भूलों के कारण कोई सरकारी अधिकारी अपराधी पाया जाता है तो उस पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए परन्तु श्री मेनन के केस में न केवल उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही ही की गई वरन् उन्हें मन्त्रिमण्डल में भी ले लिया गया। वे वहाँ तब तक सुरक्षित रहे, जब तक कि 1952 ई० में जनरोष की बाढ़ ने उन्हें लोक जीवन से बाहर कर लिया।” अत: राजनेताओं द्वारा भ्रष्टाचार का ऐसा संरक्षण भी घातकसिद्ध होता है।
  4. 1952 ई० में जाँच आयोग अधिनियम पारित किया गया जिसके अनुसार लोकपाल के पद की भी व्यवस्था की गई।
  5. दिसम्बर 1957 ई० को लोकसभा में 'मुन्धरा केस' में तत्कालीन वित्त मन्त्री टी० टी० कृष्णमाचारी के आचरण को लेकर जोरदार बहस हुई और सरकार ने श्री एम० सी० छागला, जो उस समय बम्बई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, को जाँच आयोग के अध्यक्ष पद पर 17 जनवरी 1958 ई० को नियुक्त किया। श्री छागला ने 10 फरवरी 1958 ई० को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें श्री कृष्णमाचारी के आचरण को संदिग्ध पाया गया। टी० टी० कृष्णमाचारी ने मन्त्री पद से त्याग पत्र दे दिया। श्री नेहरू ने फिर उनकी प्रशस्ति की और थोड़े दिनों के बाद 1962 ई० में पुन: मन्त्रिमण्डल में वापस बुला लिया।
  6. 1962 ई० में के० सन्थानम (K. Santhanam) की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार निरोध पर एक कमेटी नियुक्त की जिसने अपनी रिपोर्ट 31 मार्च 1964 ई० को दी। वास्तव में, राजनेताओं और मन्त्रियों में भूतपूर्व गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने भ्रष्टाचार की समस्या को गम्भीरता से लिया और इसके उन्मूलन को अपना लक्ष्य बनाया। सन्थानम कमेटी की रिपोर्ट भी इस विषय पर बहुमूल्य सामग्री प्रस्तुत करती है।
  7. 29 अक्तूबर 1964 ई० को केन्द्रीय एवं राज्य मन्त्रियों की आचरण संहिता भारतीय सरकार ने प्रकाशित की, जिसके अनुसार केन्द्रीय मन्त्रियों द्वारा आचरण-संहिता के पालन का दायित्व प्रधानमन्त्री का, मुख्यमन्त्रियों द्वारा पालन का दायित्व केन्द्रीय गृहमन्त्री का और राज्य के मन्त्रियों पर आचरण-संहिता लागू करने का दायित्व केन्द्रीय गृहमन्त्री तथा सम्बन्धित मुख्यमन्त्री का है। वे ही किसी मन्त्री द्वारा संहिता के उल्लंघन के विरुद्ध कार्यवाही का तरीका तय कर सकेंगे।
  8. 1971 ई० में श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार ने लोक-आयुक्त बिल पेश किया जिस पर पूरी कार्यवाही न हो सकी।
  9. 1977 ई० में जनता सरकार बनी। कांग्रेस का तीस वर्ष का शासन अपनी उपलब्धियों व असफलताओं की मीठी-खट्टी यादें छोड़ता हुआ समाप्त हुआ। प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री के पद पर क्रमश: श्री मोरारजी देसाई व श्री चरणसिंह आसीन हुए, जो अपने स्वच्छ व ईमानदार लोक जीवन के लिए प्रसिद्ध थे। श्री चरणसिंह भ्रष्टाचार के पुराने कट्टर शत्रु रहे हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होता है, अतएव शीर्षस्थ नेताओं और प्रशासकों में व्याप्त भ्रष्टाचार को पहले समाप्त करना होगा तभी नीचे तक लोक जीवन स्वच्छ हो सकेगा। परन्तु न तो प्रशासक वर्ग का उन्हें सहयोग मिला और न दलगत राजनीति की दलदल में फँसे राजनीतिज्ञों का, बल्कि उनसे गृहमन्त्री पद से इस्तीफा माँग लिया गया तथा जनता पार्टी आपसी फूट के कारण केवल 30 महीनों की अल्प अवधि में ही सत्ता से हाथ धो बैठी।
  10. 22 जुलाई 1977 ई० को लोकसभा में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष के लिए एक तटस्थ तन्त्र स्थापित करने के लिए लोकपाल बिल रखा गया। यह बड़ा व्यापक व दूरगामी प्रभाव डालने वाला प्रभावी अधिनियम है। इसमें लोक नायकों के दुराचार की परिभाषा दी गई है, लोक नायकों में कौन-कौन सम्मिलित होंगे वह बताया गया है और, उनके विरुद्ध कैसे तटस्थ, निष्पक्ष व प्रभावी जाँच किसके द्वारा होगी यह भी तय कर दिया गया। लगभग एक वर्ष के बाद कमेटी ने इस पर अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर दीं। इन सिफारिशों से, जोकि मान ली गईं मूल बिल की भ्रष्टाचार की व्याख्या व आत्मा पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा इसीलिए लोकपाल बिल भी अधिक प्रभावशाली नहीं रहा है।
  11. पिछले पाँच दशकों में राजनेताओं तथा मन्त्रियों के बेटे, भाई-भतीजों एवं अपने स्वयं के दुराचार की जाँच के लिए अनेक आयोग बैठे हैं। 1977 का वर्ष तो आयोगों का वर्ष कहा जा सकता है। संघीय तथा राजकीय दोनों ही स्तरों पर अनेक आयोग बिठाए गए थे। शाह आयोग तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहा है। इन सभी की रिपोर्टों का अध्ययन ही अपने आप में शोध का विषय है। करोड़ों रुपया व्यय कर इन आयोगों द्वारा कम से कम यह तो निर्विवाद सिद्ध हो गया कि भारतीय समाज गहरे तथा संगठित भ्रष्टाचार से पीड़ित है। इस रोग का निदान खोजना ही होगा अन्यथा भारतीय समाज रसातल में चला जाएगा।

इन उपर्युक्त प्रयासों का अध्ययन हमें अग्रलिखित निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए बाध्य करता है-
  1. अभी तक भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में आधे दिल से कार्य किया गया है। इसीलिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा सका है,
  2. भ्रष्टाचार के दोषी पाए गए राजनेता भी दण्ड से साफ बच निकले हैं और आज भी लोक जीवन में सक्रिय हैं,
  3. भ्रष्टाचार को प्रमाणित करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसमें रत सभी पक्ष सत्ता में होते हैं, शक्तिशाली होते हैं और बड़ी चालाकी से भ्रष्ट कृत्य किया जाता है,
  4. जाँच आयोग बिठाकर भ्रष्टाचार के किसी मामले के तथ्य मालूम कर लेने से कुछ नहीं होगा जब तक कि दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कड़ी व दूसरों को सबक देने वाली कार्यवाही न की जाए,
  5. देश के विभिन्न राज्यों में प्रशासकीय भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान के लिए स्थापित सतर्कता अधिष्ठान भी इसे समाप्त करने में विफल रहे हैं यद्यपि उसका कार्यभार बढ़ता जा रहा है, जैसे उत्तर प्रदेश में ही इसकी स्थापना के प्रथम वर्ष 1964-65 में केवल 76 शिकायतों की जाँच की गई थी, यह संख्या 1977-78 में 740 हो गई थी परन्तु भ्रष्टाचार तो कम नहीं हुआ।
केवल आयोग बैठा देना भ्रष्टाचार के निरासन का उपाय नहीं है। उसके लिए सामाजिक और सार्वजनिक जीवन की बुनियादों को बदलना आवश्यक है। लोक नायक जयप्रकाश नारायण के ये विचार ध्यान में रखने योग्य हैं कि जो भ्रष्टता स्वयं सिद्ध हो उसको कानूनी दृष्टि से प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती।

भ्रष्टाचार के निरोध के लिए सुझाव

भ्रष्टाचार के निरोध के लिए प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं-
  • भारत के अधिकतर कानून बहुत पुराने हैं। आजकल समाज की समस्याओं, भविष्य की महत्त्वकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनको नए सिरे से बनाया जाना चाहिए। सामाजिक हितों के विरुद्ध होने वाले अपराधों व दुराचारों को गम्भीर श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उनके लिए कड़ी सजा की व्यवस्था होनी चाहिए।
  • प्रशासनिक ढाँचे और नियमों को सरल बनाया जाना चाहिए ताकि काम अविलम्ब और न्यायपूर्ण ढंग से हो सके।
  • प्रशासनिक अधिकारियों की विवेकाधिकारी शक्तियों का क्षेत्र स्पष्ट परिभाषित किया जाए और उसे संकुचित भी किया जाए। 
  • कर-प्रणाली सीधी व सरल हो तथा कर-वसूलने के स्रोत भी निश्चित हों।
  • चुनाव प्रणाली में आमूल संशोधन हो। पिछले आम चुनावों का ढेर सारा अनुभव हमारे सामने मौजूद है। चुनाव की भ्रष्टता खत्म हो और चुनावों में धन की शक्ति का प्रभाव समाप्त किया जाए। स्वच्छ और योग्य व्यक्ति भी चुनाव लड़ सकें, ऐसी व्यवस्था की जाए।
  • सभी प्रकार की लाइसेंस व परमिट प्रणाली को समाप्त किया जाए।
  • प्रशासनिक ढाँचे में सुधार के साथ-साथ कर्मचारियों के वेतन-क्रम भी सुधारे जाएँ। नीचे वेतन-क्रम रखकर शायद सरकार खुद ही मानकर चलती है कि उसके विशिष्ट विभागों के कर्मचारी अपनी ऊपर की आमदनी से अपना काम चलाएँगे, यह गलत है। वेतन-क्रम ऐसे हों कि प्रत्येक पद के कर्मचारी अपने जीवन के उचित व सम्मानपूर्ण स्तर को बनाए रख सकें, तभी वे भ्रष्टाचार की ओर प्रेरित होने से बच पाएँगे।
  • भ्रष्टाचार के दोषियों की जाँच शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए और अपराध की गम्भीरता के अनुसार व्यक्ति को शीघ्र व कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए। ऐसे प्रशासनिक व न्यायिक निर्णय का व्यापक प्रचार भी किया जाना चाहिए।
  • लोकपालों की नियुक्ति अविलम्ब होनी चाहिए और उन्हें जाँच सम्बन्धी तथा न्यायिक अधिकार दिए जाने चाहिए।
  • आने वाले पीढ़ियों के चरित्र-निर्माण की विशिष्ट संस्थाएँ विकसित की जानी चाहिए। इसमें शिक्षा-प्रणाली को सुधारना होगा।
  • सांस्कृतिक क्षेत्रों के मूल्यों में स्पष्टता लानी होगी। यह कार्य समाज सेवी संस्थाएँ अनुशासन व प्रचार द्वारा करें।
  • शीर्षस्थ राजनेताओं और अफसरों को अपने आचरण को सभी सन्देहों से ऊपर सिद्ध करना होगा। प्रो० गुन्नार मिर्डल (का मत सही है कि भ्रष्टाचार से लड़ाई बिलकुल निराशाजनक है, यदि शीर्ष स्तरों पर उच्च पैमाने पर ईमानदारी और सत्यनिष्ठा नहीं है।
एट्जियोनी ने विकासोन्मुख समाजों में भ्रष्टाचार-निरोध की समस्या पर विचार व्यक्त करते हुए बड़ी सही बात लिखी है। उनके मतानुसार, “बुराइयों के स्रोत को, सहभागियों की शिक्षा व संस्कृति के परिवर्तन द्वारा और इस भाँति उनकी मनोवैज्ञानिक संरचना को बदलकर ही समाप्त किया जा सकता है जो एक लम्बी प्रक्रिया है।"

शब्दावली
भ्रष्टाचार- अपने अथवा अपने सगे सम्बन्धियों, परिवार वालों और मित्रों के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई आर्थिक अथवा अन्य लाभ उठाना भ्रष्टाचार कहलाता है।

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