जाति की परिभाषा, अर्थ, विशेषताएं | jati ki paribhasha

जाति की परिभाषा

जाति की परिभाषा एक वंशानुगत और अन्तर्वैवाही समूह की तरह की जा सकती है। इसके परम्परागत सामान्य नाम, व्यवसाय एवं संस्कृति होती है। इसकी गतिशीलता अपेक्षित रूप से कट्टर होती है। इसकी प्रतिष्ठा स्पष्ट होती है और यह एक सजातीय समुदाय होता है।
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वर्तमान परिस्थितियों में जाति व्यवस्था एक औपचारिक संगठन की तरह है और जिसमें अधिक कठोरता नहीं है। अब यह व्यवस्था राजनीति से जुड़ गयी है।
इस तरह उपरोक्त विवरणों के आधार पर हम जाति के निम्न लक्षणों का वर्णन कर सकते हैं -

(1) समाज का खण्डात्मक विभाजन
अतः भारतीय सामाजिक स्तरीकरण अधिकांश रूप में जाति पर निर्भर है। देश में कई जातियाँ विकसित हैं, जिनकी जीवन पद्धति जाति पर निर्भर है। जाति की सदस्यता जन्म पर आधारित है तथा जाति वंशानुगत है।

(2) सोपान व्यवस्था
जातियाँ पवित्रता एवं अपवित्रता के आधार पर उच्च और निम्न धंधों पर बनी हैं। यह व्यवस्था एक सीढ़ी की तरह है, जिसमें सबसे ऊँची जाति को उच्च श्रेणी में रखा जाता है तथा अपवित्र धन्धा करने वाली जातियों को निम्न श्रेणी में रखा जाता है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मण का कार्य कर्मकाण्ड और शिक्षण देना है। इस व्यवसाय को सबसे अधिक पवित्र माना जाता है। इसी कारण सोपानिक व्यवस्था में इसे उच्च स्थान प्राप्त है। दूसरी ओर सफाईकर्मी का काम झाडू लगाना है इसलिए इन जातियों को सोपान में अपवित्र धन्धों की श्रेणी में रखा जाता है।

(3) भोजन, खानपान और धूम्रपान पर प्रतिबन्ध
सामान्यतया जातियाँ आपस में एक दूसरे का खानपान, एक ही पंगत में बैठना या मद्यपान या धूम्रपान करना स्वीकार नहीं करती। उदाहरण के लिए, ब्राह्मण दूसरी जातियों से भोजन नहीं लेते। वास्तव में खानपान का सारा मसला बहुत जटिल है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में कान्य कुब्ज ब्राह्मणों में कई उप विभाजन है। कहा जाता है कि एक बारह कान्य कुब्ज और तेरह अंगीठियाँ अर्थात कान्य कुब्ज ब्राह्मण-ब्राह्मण तो है लेकिन वे कई उप श्रेणियों में बंटे हैं।
खाने के दो प्रकार हैं:-
  1. पक्का खाना यानी घी से पकाया हुआ खाना- इसमें पुड़ी, कचौड़ी और पुलाव है।
  2. दूसरा खाना कच्चा है, इसे केवल पानी द्वारा पकाया जाता है। इस खाने में चावल, दालें और शाक-सब्जी होते हैं।
कुछ जातियों में केवल पक्का खाना ही खाने की अनुमति होती है। इस विभिन्नता के होते हुए भी ऊँची जातियों के लोग सामान्यतया नीची जातियों के हाथ का बना खाना स्वीकार नहीं करते। यही सिद्धान्त धूम्रपान पर भी लागू होता है।

(4) अन्तर्विवाह
इसका अर्थ है कि एक जाति का सदस्य अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करता। यह अन्तर्विवाह है। अन्तर्जातीय विवाह पर प्रतिबन्ध है। इस प्रतिबन्ध के होते हुए भी पढ़े-लिखे लोग और विशेषकर शहरी क्षेत्रों के लोग धीरे-धीरे अन्तर्जातीय विवाह करने लगे हैं।

(5) पवित्र और अपवित्र
पवित्र और अपवित्र की अवधारणाएँ जाति व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ हैं। इन अवधारणाओं का प्रयोग आदमी के कामकाज, व्यवसाय, भाषा, वेशभूषा और भोजन की आदतों से जाना जा सकता है। उदाहरण के लिए - मद्यपान करना, शाकाहारी भोजन को ग्रहण करना, उच्च जातियों द्वारा छोड़े हुए भोजन को प्राप्त करना। ऐसे धन्धों में काम करना जो मरे हुए जानवरों को उठाता है, झाडू लगाना, गंदे कचरे को उठाना अपवित्र है। धन्धे के ये प्रतिबन्ध होते हुए भी आजकल ऊँची जातियाँ भी ऐसा काम करने लगी हैं। जूते के कारखाने में काम करना, ब्यूटी पार्लर में बाल काटने पर प्रतिबन्ध नहीं रहा।

(6) व्यावसायिक संगठन
सामान्यतया प्रत्येक जाति के कुछ निश्चित धन्धे होते हैं और वे इन धन्धों को छोड़ नहीं सकते। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों का काम पुरोहिती करना, पठन-पाठन करना, कायस्थ राजस्व के आंकड़ों को देखते हैं। बनिए व्यापार करते हैं। चमार मरे हुए जानवरों की खाल उधेड़ते हैं। आज औद्योगीकरण तथा शहरीकरण के कारण कुछ लोगों ने अपने परम्परागत व्यवसायों को छोड़ दिया है।
यह होते हुए भी ग्रामीण क्षेत्र में अब भी लोग परम्परागत व्यवसाय करते हैं। शहरों में भी कुछ नाई दिन में तो किसी दफ्तर में काम करते हैं परन्तु सुबह-शाम बाल काटने का धन्धा करते हैं।

(7) नये सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक-धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं अधिकार
कुछ निम्न जातियों को आज भी मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। वे साहित्यिक भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते, उन्हें सोने के आभूषण नहीं पहनने दिये जाते। वे छतरी लेकर बाजार में नहीं घूम सकते। ये सब व्यवहार के प्रतिमान आज बदल गये हैं।

(8) रीतिरिवाज, पहनावा और बोलचाल में अन्तर
हर एक जाति की अपने जीवन की एक निश्चित पद्धति होती है। इस जाति के रीतिरिवाज, पहनावा और बोलचाल होती है। उच्च जातियाँ साहित्यिक शब्दों का प्रयोग करती हैं। जबकि निम्न जातियाँ स्थानीय बोली बोलती हैं।

(9) संघर्ष का निदान करने के लिए कार्यपद्धति
जब जातियों में संघर्ष होता है, तनाव होता है तो इसके लिए प्रत्येक जाति का एक परम्परागत तन्त्र होता है, जिनके माध्यम से तनाव में सुलह लायी जाती है। जातीय और अन्तर्जातीय झगड़ों को जाति पंचायत के माध्यम से हल किया जाता है।

परिभाषाएं
हटट्न महोदय का कहना है कि,"जाति एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत एक समाज अनेक आत्मकेंद्रित एवं एक दूसरे से पूर्णतया पृथक इकाइयों में विभाजित रहता है। इन इकाइयों के बीच पारस्परिक संबंध ऊंच-नीच के आधार पर संस्कारिक रूप से निर्धारित होते हैं।"

कूले के अनुसार, “जब वर्ग पूर्णतया अनुवांशिकता पर आधारित होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।"

ग्रीन बताते हैं कि, "जाति स्तरीकरण की ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रस्थिति की सीढ़ी ऊपर या नीचे की ओर गतिशीलता कम से कम आदर्शात्मक रूप में नहीं पाई जाती।"

एंडरसन बताते हैं, “जाति सामाजिक वर्ग संरचना का वह कठोरतम रूप है जिसमें व्यक्तियों का पद प्रस्थिति क्रम में जन्म अथवा आनुवंशिकता द्वारा निर्धारित होता है।"

इस प्रकार विचारकों ने जाति को विभिन्न ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है परंतु जैसा घुर्ये महोदय बताते हैं कि इन विद्वानों के परिश्रम के बावजूद भी जाति की कोई वास्तविक सामान्य परिभाषा उपलब्ध नहीं है। जाति के अर्थ को समझने का सर्वोत्तम साधन जाति व्यवस्था में अतभूत विभिन्न तत्वों को जान लेना है।

प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई जाति की परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

(1) रिजले (Risley) के अनुसार “यह परिवार या कई परिवारों का संकलन है जिसको एक सामान्य नाम दिया गया है, जो किसी काल्पनिक पुरुष या देवता से अपनी उत्पत्ति मानता है तथा पैतृक व्यवसाय को स्वीकार करता है और जो लोग विचार कर सकते हैं उन लोगों के लिए एक सजातीय समूह के रूप में स्पष्ट होता है।”

(2) मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार “जब व्यक्ति की प्रस्थिति पूर्णत: पूर्वनिश्चित होती है अर्थात् जब व्यक्ति अपनी प्रस्थिति में किसी भी तरह के परिवर्तन की आशा लेकर नहीं उत्पन्न होता, तब वर्ग जाति के रूप में स्पष्ट होता है।"

(3) मजूमदार एवं मदन (Majumdar and Madan) के अनुसार- “जाति एक बन्द वर्ग है।"

(4) दत्त (Dutta) के अनुसार- "एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं। अन्य जाति के लोगों के साथ भोजन करने और पानी पीने के सम्बन्ध में इसी प्रकार के परन्तु कुछ कम कठोर नियन्त्रण हैं। अनेक जातियों के कुछ निश्चित व्यवसाय हैं। जातियों में संस्तरणात्मक श्रेणियाँ हैं, जिनमें सर्वोपरि ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति है। मनुष्य की जाति का निर्णय जन्म से होता है। यदि व्यक्ति नियमों को भंग करने के कारण जाति से बाहर न निकाल दिया गया हो तो एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तन होना सम्भव नहीं है।"

(5) कूले (Cooley) के अनुसार- “जब कोई भी वर्ग पूर्णत: वंशानुक्रमण पर आधारित हो जाता है तो वह जाति कहलाता है।"

(6) केतकर (Ketkar) के अनुसार- “जाति जिस रूप में आज है उसे एक सामाजिक समह के रूप में समझा जा सकता है जो मुख्यत: दो विशेषताओं से मिलकर बनता है, पहले यह कि इसके सदस्य जन्म से ही बन जाते हैं, दूसरे सभी सदस्य अत्यन्त कठोर सामाजिक नियम द्वारा समूह से बाहर विवाह करने से रोक दिए जाते हैं।"
जाति की परिभाषाओं के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जाति का पद व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होता है तथा जाति की सदस्यता केवल उसमें पैदा होने वाले व्यक्तियों तक ही सीमित होती है। एक बार जाति में जन्म लेने के बाद जाति में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। जाति अन्तर्विवाही होती है अर्थात् एक जाति के व्यक्ति को विवाह अपनी जाति में ही करना होता है। प्रत्येक जाति का व्यवसाय निश्चित रहता है तथा उसमें भोजन तथा सामाजिक सहवास से सम्बन्धित प्रतिबन्ध होते हैं। यदि इन परिभाषाओं का विश्लेषण समकालीन भारतीय समाज के सन्दर्भ में किया जाए तो हमें यह ज्ञात होता है कि ये समस्त परिभाषाएँ आधुनिक युग में जाति का यथार्थ चित्र अंकित नहीं कर पातीं। अभी तक किसी वास्तविक सामान्य परिभाषा की प्राप्ति नहीं की जा सकी है। वास्तव में, समाजशास्त्रियों ने तो जाति की परिभाषा देने की अपेक्षा उसकी विशेषताओं का ही विवरण प्रस्तुत किया है। इस सन्दर्भ में जी० एस० घुरिये (G. S.Ghurye) का कहना है कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि विषय की जटिलता के कारण परिभाषा देने के हर प्रयास का असफल होना निश्चित है। दूसरी ओर, इस विषय पर बहुत-सा साहित्य इस 'जाति' शब्द की सुनिश्चितता के अभाव के कारण क्षत-विक्षत सा पड़ा है।

जाति का अर्थ

जाति शब्द अंग्रेजी शब्द ‘कास्ट' (Caste) का हिन्दी रूपान्तर है। इसका पहला उपयोग 1563 ई० में ग्रेसिया डी ओर्टा (Gracia de Orta) ने किया था। उनके शब्दों में, “लोग अपने पैतृक व्यवसाय को परिवर्तित नहीं करते हैं। इस प्रकार जूते बनाने वाले लोग एक ही प्रकार (जाति) के हैं।” इसी अर्थ में अब्बे डुबायस (Abbe Dubois) ने इसे प्रयुक्त किया है। उनका मत है कि ‘कास्ट' शब्द यूरोप में किसी कबीले और वर्ग को व्यक्त करने के लिए उपयोग में लिया जाता रहा है। ए० आर० वाडिया (A. R. Wadia) का मत है कि 'कास्ट' शब्द लैटिन भाषा के 'कास्टस' (Castus) से मिलता-जुलता शब्द है जिसका अर्थ विशुद्ध प्रजाति या नस्ल होता है। कुछ लोग इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द 'कास्टा' (Casta) से मानते हैं जिसका अर्थ प्रजातीय तत्त्व, नस्ल, अथवा पैतृक गुणों से सम्पूर्ण है। हिन्दी का 'जाति' शब्द संस्कृत भाषा की 'जन' धातु से बना है जिसका अर्थ 'उत्पन्न होना' व 'उत्पन्न करना' है। इस दृष्टिकोण से जाति का अभिप्राय जन्म से समान गुण वाली वस्तुओं से है। परन्तु समाजशास्त्र में 'जाति' शब्द का प्रयोग विशिष्ट अर्थों में किया जाता है।

जाति की विशेषता

जाति की विशेषताएँ निम्न हैं:-
  1. जाति जन्म से निर्धारित होती है। एक बच्चा अपने माता-पिता की जाति में ही 'जन्म लेता है। जाति कभी चुनाव का विषय नहीं होती। हम अपनी जाति को कभी भी बदल नहीं सकते, छोड़ नहीं सकते या हम इस बात का चुनाव नहीं कर सकते कि हमें जाति में शामिल होना है या नहीं। हालाँकि, ऐसे उदाहरण हैं जहां एक व्यक्ति को उसकी जाति से निकाला भी जा सकता है।
  2. जाति की सदस्यता के साथ विवाह संबंधी कठोर नियम शामिल होते हैं। जाति समूह 'सजातीय' होते हैं अर्थात् विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं।
  3. जाति सदस्यता में खाने और खाना बांटने के बारे में नियम भी शामिल होते हैं। किस प्रकार का खाना खा सकते हैं और किस प्रकार का नहीं, यह निर्धारित है और किसके साथ खाना बाँटकर खाया जा सकता है वह भी निर्धारित होता है।
  4. हर जाति किसी अन्य जाति से श्रेष्ठ हीन मानी जाती है। यानि ऊँच-नीच की भावना के अनुसार उनकी श्रेणियाँ बनी है।
  5. जातियों में आपसी उप-विभाजन भी होता है अर्थात् जातियों में हमेशा उप-जातियाँ होती हैं और कभी-कभी उप जातियों में भी उप-उप-जातियाँ होती है। इसे खंडात्मक संगठन (segmental organisation) कहते हैं।
  6. पारंपरिक तौरपर जातियाँ व्यवसाय से जुड़ी होती थी। एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता था, अतः वह व्यवसाय वंशानुगत थे अर्थात यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरिक होते थे। दूसरी ओर, एक विशेष व्यवसाय, किसी जाति से जुड़े होने की वजह से उसी जाति के लोग अपना सकते थे। किसी दूसरी जातियों के सदस्य वह काम नहीं कर सकते थे।
जाति एक बहुत असमान संस्था थी। जहाँ कुछ जातियों को तो इस व्यवस्था से बहुत लाभ रहा, वहीं अन्य जातियों को इसकी वजह से अधीनता एवं कभी भी न समाप्त होने वाले श्रम का जीवन जीने का दंड भुगतना पड़ा। सबसे महत्वपुर्ण बात यह है कि जब जाति जन्म द्वारा कठोरता से निर्धारित हो गई उसके बाद किसी व्यक्ति के लिए सैद्धांतिक तौर पर कभी भी उसकी जीवन स्थिति बदलना असंभव था। चाहे उच्च जाति के लोग उच्च स्तर के लायक हों या न हों, उनका स्तर हमेशा उच्च ही रहता था जबकि निम्न जाति के लोगों का स्तर जाति के लोगों का स्तर हमेशा निम्न रहता था।
सैद्धांतिक तौर पर, जाति व्यवस्था को सिद्धातों के दो समुच्चयों के मिश्रण के रूप में समझा जा सकता है, एक भिन्नता और अलगाव पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर। हर जाति से यह अपेक्षित है कि वह दूसरी जाति से भिन्न हों और इसलिए वह प्रत्येक अन्य जाति से कठोरता से पृथक होती है। अतः जाति के अधिकांश धर्मग्रंथ सम्मत नियमों की रूपरेखा जातियों को मिश्रित होने से बचाने के अनुसार बनाई गई है। इन नियमों में शादी, खान-पान एवं सामाजिक अंतःक्रिया से लेकर व्यवसाय तक के नियम शामिल हैं। वहीं दूसरी ओर इन विभिन्न एवं पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तिव नहीं है, वे एक बड़ी संपूर्णता से संबंधित होकर ही अपना अस्तिव बनाए रख सकती है। समाज की संपूर्णता में सभी जातियाँ शामिल होती हैं। इससे भी आगे, यह सामाजिक संपूर्णता या व्यवस्था समानतावादी व्यवस्था होने के बजाय अधिक्रमित व्यवस्था है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान के साथ-साथ एक क्रम श्रेणी भी होती है। एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में जो ऊपर से नीचे जाती है प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।
धार्मिक या कर्मकांडीय दृष्टि से जाति की अधिक्रमित व्यवस्था 'शुद्धता' (शुचिता) और 'अशुद्धता' (अशुचिता) के बीच के अंतर पर आधारित होती है। यह विभाजन जिसे हम पवित्र के करीब मानने में विश्वास रखते हैं (अतंः कर्मकांड की शुद्धता के लक्ष्यार्थ), उसके और जिसे हम पवित्र से परे मानते हैं या उसके विपरीत मानते हैं अतः वह कर्मकांड के लिए प्रदूषित होता है, के बीच हैं। वह जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है उनका स्थान उच्च होता है और जिनको कम शुद्ध या अशुद्ध माना जाता है उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। जैसा कि हर समाज में होता है, सामाजिक स्तर से भौतिक शक्ति (अर्थात्, आर्थिक या सैन्य शक्ति) नज़दीकी से जुड़ी होती है, अतः जिनके पास शक्ति होती है उनकी स्थिति उच्च होती है और जिनके पास शक्ति नहीं होती उनकी स्थिति निम्न होती है इतिहासकारों का मानना है कि जो लोग युद्धों में पराजित हुए थे उन्हें अक्सर निम्न जाति की स्थिति मिली।

भारत में जाति व्यवस्था

विश्व के लगभग प्रत्येक समाज में सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। किंतु भारत में सामाजिक स्तरीकरण का एक विशेष रूप दिखाई पड़ता है, जिसे जाति व्यवस्था कहते हैं जाति शब्द का अग्रेजी रुपान्तरण Caste है, जो लेटिन के Castas का समानार्थी है जिसका अर्थ शुद्ध (Pure) होता है। इसे स्पेनिश शब्द Casta से भी लिया गया है। कास्टा का शाब्दिक अर्थ नस्ल, प्रजाति अथवा आनुवंशिक तत्व या गुणों का संग्रह होता है। पुर्तगालियों ने इस शब्द का प्रयोग भारत के संदर्भ में जाति के लिए किया है। Casta शब्द का प्रयोग वर्ष 1665 में ग्रेसीयम डी. ओरेटा ने किया था।
जाति एक अनुवांशिक सामाजिक समूह है जो अपने सदस्यों को सामाजिक सोपान क्रम में गतिशीलता की अनुमति प्रदान नहीं करती। इसमें जन्म के आधार पर प्रस्थिति अथवा श्रेणी निर्धारित होती है। जो व्यक्ति के व्यवसाय विवाह और सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है। जाति शब्द का प्रयोग एक इकाई (समूह) और व्यवस्था दोनों ही रूपों में होता है।

जाति के लक्षण

एन० के० दत्त ने जाति व्यवस्था के निम्नलिखित छह लक्षणों का उल्लेख किया है-
  1. जाति का कोई भी सदस्य अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  2. प्रत्येक जाति में भोजन और खान-पान सम्बन्धी कुछ-न-कुछ प्रतिबन्ध होते हैं जो सदस्यों को अपनी जाति से बाहर भोजन करने पर रोक लगाते हैं। ये प्रतिबन्ध प्रत्येक जाति में लागू होते हैं।
  3. प्रायः जाति के पेशे निश्चित होते हैं।
  4. सभी जातियों और उप-जातियों में एक ऊँच-नीच या संस्तरण की व्यवस्था पाई जाती है जिसमें ब्राह्मण जाति का स्थान सर्वोपरि है और उसे सर्वोच्च मान्यता प्राप्त है।
  5. जन्म के साथ ही व्यक्ति की जाति का निश्चय जीवन भर के लिए हो जाता है। केवल जाति के नियमों के विपरीत कार्य करने पर ही उसे जाति से निकाला जाता है। इसके अतिरिक्त, एक जाति से दूसरी जाति में जाना सम्भव नहीं है।
  6. सम्पूर्ण जाति व्यवस्था ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा पर निर्भर है।

किंग्स्ले डेविस के अनुसार जाति व्यवस्था के निम्नलिखित सात प्रमुख लक्षण हैं-
  1. जाति की सदस्यता वंशानुगत होती है। जन्म से ही बच्चा अपने माता-पिता की जाति को ग्रहण कर लेता है।
  2. जाति की सदस्यता जन्मजात रहती है अर्थात् कोई भी व्यक्ति किसी प्रयास द्वारा (जैसे अच्छे कार्यों से, विवाह से, कपट-वेश धारण करके अन्यथा किसी अन्य कौशल द्वारा) अपनी जाति बदल नहीं सकता है।
  3. जाति अन्तर्विवाही समूह है अर्थात् जीवनसाथी का चुनाव सजातीय-विवाही होता है।
  4. जाति अपने सदस्यों पर एक-दूसरे के साथ खान-पान, सामाजिक सहवास, सहयोग, सम्पर्कों की स्थापना आदि पर प्रतिबन्ध लगाती है।
  5. प्रत्येक जाति का एक नाम होता है जोकि जातीय चेतना को बल देता है।
  6. प्रत्येक जाति का परम्परागत व्यवसाय होता है। व्यवसाय के अतिरिक्त, सामान्य जनजातीय अथवा प्रजातीय उत्पत्ति सम्बन्धी विश्वासों, सामान्य धार्मिक कृत्यों अथवा किन्हीं विशेषताओं द्वारा जाति संगठित होती है।
  7. प्रत्येक जाति के मध्य श्रेष्ठता तथा निम्नता की भावना पाई जाती है।

जी० एस० घुरिये ने भी जाति व्यवस्था के छह लक्षणों का उल्लेख किया है। ये लक्षण इस प्रकार हैं-
  1. समाज का खण्डात्मक विभाजन
  2. संस्तरण
  3. भोजन व सामाजिक व्यवहार पर नियन्त्रण
  4. विभिन्न उपविभागों की नागरिक तथा धार्मिक योग्यताएँ तथा विशेषाधिकार,
  5. निर्बाध व्यवसाय के चुनाव का अभाव तथा
  6. विवाह पर नियन्त्रण।

एम० एन० श्रीनिवास के अनुसार पिछली शताब्दियों के दौरान प्रचलित जाति के लक्षणों को निम्नलिखित नौ शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णित किया जा सकता है-
  1. संस्तरण अथवा पदानुक्रम
  2. अन्त: विवाह तथा अनुलोम विवाह
  3. व्यावसायिक सम्बद्धता
  4. भोजन, जलपान एवं धूम्रपान पर प्रतिबन्ध
  5. प्रथा, भाषा एवं पहनावे का भेद(6) अपवित्रीकरण
  6. संस्कार एवं अन्य विशेषाधिकार तथा निर्योग्यताएँ
  7. जाति संगठन तथा
  8. जाति गतिशीलता

जाति व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं -
संरचनात्मक व सांस्कृतिक। इन दोनों पक्षों के मिले-जुले लक्षणों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

(1) भारतीय समाज का खण्डात्मक विभाजन
जाति व्यवस्था से भारतीय समाज खण्डों में विभाजित हो गया है और यह विभाजन सूक्ष्म रूप में हुआ है। प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति तथा भूमिका सुस्पष्ट व सुनिश्चित रूप से परिभाषित हुई है। घुरिये ने इसे सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता माना है। उनके शब्दों में, “इसका तात्पर्य यह है कि जाति व्यवस्था द्वारा, बँधे समाज में हमारी भावना भी सीमित होती है, सामुदायिक भावना सम्पूर्ण मनुष्य समाज के प्रति न होकर केवल जाति के सदस्यों तक सीमित होती है तथा जातिगत आधार पर सदस्यों को प्राथमिकता दी जाती है।" इस प्रकार, यह विभाजन एक नैतिक नियम है और प्रत्येक सदस्य इसके प्रति सचेत होता है। यह उन्हें अपने कर्त्तव्यों का ज्ञान कराता है जिसके आधार पर वे अपने पद और कार्यों में दृढ़ होते हैं। साधारणत: कर्त्तव्य-पालन न करने पर जाति से निष्कासन की व्यवस्था होती है या आर्थिक दण्ड दिया जाता है।

(2) ऊँच-नीच की परम्परा अथवा संस्तरण
जाति व्यवस्था में ऊँच-नीच की परम्परा स्थापित होती है जिसमें ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च होता है और निम्न स्तर शूद्र लोगों का होता है। क्षत्रिय व वैश्य लोगों की स्थिति क्रमश: इनके मध्य की होती है। पुन: ये चार वर्ण अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त हो गए हैं। हम की भावना सीमित होने से सदस्य केवल अपने खण्ड या जाति के लोगों को ही महत्त्व देते हैं और उनमें श्रेष्ठता की भावना भी जन्म लेती है। परन्तु कुछ ऐसी भी जातियाँ हैं जिनमें सामाजिक दूरी इतनी कम है कि उनमें ऊँच-नीच के आधार पर जो सामाजिक संरचना स्पष्ट हुई है वही संस्तरण परम्परा है। जातीय संस्तरण रक्त की पवित्रता, पूर्वजों के व्यवसाय के प्रति आस्था व अन्यों के साथ भोजन व पानी के प्रतिबन्ध आदि विचारों पर आधारित होती है।

(3) जन्म से जाति का निर्धारण
जाति व्यवस्था का निश्चय जन्म के साथ ही हो जाता है। व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसी जाति समूह में वह जीवनपर्यन्त रहता है। इस वातावरण को न तो धनाढ्यता अलग कर सकती है, न निर्धनता, न सफलता और न असफलता ही। जाति के ही वंशधर उस जाति के सदस्य माने जाते हैं। जाति से बहिष्कार द्वारा ही व्यक्ति निम्न जाति में जाता है, अन्य किसी भी कारक द्वारा व्यक्ति अपनी जाति की सदस्यता परिवर्तित नहीं कर सकता है। इस सन्दर्भ में ए० आर० वाडिया ने कहा है कि, “हिन्दू जन्म से हिन्दू हो सकता है। रूढ़िवादी जाति व्यवस्था के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति परिवर्तन के द्वारा हिन्दू नहीं हो सकता है।"

(4) भोजन और सामाजिक सहवास सम्बन्धी निषेध
भारतीय जाति व्यवस्था प्रत्येक जाति के सदस्यों के लिए अपने समूह के बाहर भोजन और सामाजिक सहवास पर नियन्त्रण रखती है। इन नियमों का बड़ी कठोरता से पालन किया जाता है। नगरीकरण और आवागमन के साधनों के विकास के कारण अब यह नियन्त्रण नगरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में ढीला होता जा रहा है, पर गाँवों में यह नियन्त्रण आज भी काफी मात्रा में देखा जा सकता है। प्रत्येक जाति में ऐसे नियम बड़े सूक्ष्म रूप से बनाए गए हैं जो यह निर्धारण करते हैं कि किसी जाति के सदस्य को (मुख्यत: जो ऊँची जातियों के हैं) कहाँ कच्चा भोजन करना है, कहाँ पक्का तथा कहाँ केवल जल ग्रहण करना है और कहाँ जल पीना भी निषिद्ध है। आधुनिक युग में यातायात के साधनों व शिक्षा में विकास के कारण और शासकीय प्रयत्नों आदि के कारण ये निषेध कमजोर होते जा रहे हैं। फिर भी, ग्रामीण भारत में आज की परिस्थिति में भी काफी हद तक ये सीमाएँ या निषेध प्रचलित हैं।

(5) अन्तर्विवाह
सभी जातियाँ अन्तर्विवाही होती हैं अर्थात् जाति के सदस्यों को अपनी ही जाति में विवाह करना पड़ता है। यह निषेध आज बहुत जगहों में जाति तक नहीं वरन् उप-जाति तक सीमित हो गया है। जाति व्यवस्था के अनुसार अन्तर्जातीय विवाह अस्वीकृत हैं। वेस्टरमार्क (Westermarck) ने जाति व्यवस्था की इस विशेषता को इसका सार-तत्त्व माना है। घुरिये (Ghurye) का भी यही मत है कि जाति व्यवस्था का अन्तर्विवाही सिद्धान्त इतना कठोर है कि समाजशास्त्री इसे जाति व्यवस्था का प्रमुख तत्त्व मानते हैं। व्यावहारिक रूप में यह अन्तर्विवाह भी भौगोलिक सीमा के अन्तर्गत बँधा हुआ है। एक जाति की कई उप-जातियाँ होती हैं और प्राय: एक ही प्रान्त में रहने वाली उप-जातियों में विवाह होते हैं।

(6) परम्परागत पेशों का चुनाव
मुख्यत: सभी जातियों के कुछ निश्चित पेशे होते हैं और जाति के सदस्य अपने उन्हीं पैतृक पेशों को स्वीकार करते हैं। उन्हें छोड़ना उचित नहीं समझा जाता। कोई भी पेशा, चाहे वह व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति करे या न करे, उसे मानसिक सन्तोष हो या न हो; व्यक्ति को परम्परागत पेशों को ही अपनाना पड़ता है। साधारणत: लोग अपने पैतृक पेशे को ही अपनाना उचित समझते रहे हैं। पेशों का भी निर्धारण ऊँच-नीच के आधार पर होता रहा है। यदि उच्च जाति का कोई व्यक्ति निम्न जाति के पेशों को अपनाता है तो उनका जातीय विरोध होता रहा है। इसी प्रकार, निम्न जाति का सदस्य जब उच्च जाति के पेशों को अपनाता है तो उसका भी विरोध होता था। परन्तु आजकल इन नियमों में भी शिथिलता आ गई है।

(7) धार्मिक और सामाजिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार
जिस प्रकार जाति व्यवस्था में संस्तरण है ठीक उसी प्रकार इसमें धर्म और समाज सम्बन्धी निर्योग्यताएँ भी हैं। प्रत्येक मानव निवास की जगह में, मुख्यतः गाँवों में, यदि देखा जाए तो अछूतों और अन्य निम्न जातियों की निवास व्यवस्था गाँवों के छोर पर रहती थी। उनके धार्मिक और नागरिक अधिकार भी सीमित होते थे। इसके विपरीत, ऊँची जातियों को सभी अधिकार प्राप्त रहे हैं तथा धर्म की पूरी छूट थी। साधारणत: शारीरिक श्रम करने वाली जातियाँ निम्न समझी जाती रही हैं। त्रावनकोर के वैकम (Vaikam) गाँव की विशिष्ट गलियों में अछूत जातियों ने प्रवेश करने की स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए आन्दोलन किया था। परम्परागत रूप से दक्षिण भारत में तो ये निर्योग्यताएँ अपनी चरम सीमा पर रही हैं। वहाँ अछूतों को कुछ विशेष सड़कों पर चलने की मनाही थी। इतिहास इस बात का उदाहरण है कि पेशवाओं और मराठों ने पूना शहर के दरवाजों के भीतर मसार और मूंग जाति के लोगों का शाम तीन बजे से सुबह नौ बजे तक प्रवेश वर्जित कर दिया था। इसके अतिरिक्त, दक्षिण भारत में अछूत सवर्णों के ऊपर अपनी छाया नहीं डाल सकते थे तथा उनके सामने नहीं जा सकते थे। ब्लण्ट (Blunt) ने कहा है कि गुजरात में दलित जातियाँ अपने विशिष्ट चिह्न के रूप में सींग पहना करती थीं।

(8) आर्थिक असमानता
जाति व्यवस्था में आर्थिक असमानता का भी समावेश है। जाति व्यवस्था के निर्माण के साथ-साथ यह भावना भी चली कि जो निम्न है उसे कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। निम्न जाति के कार्य, चाहे वह जीवन-यापन के लिए कितने ही उपयोगी क्यों न हों, मूल्यों की दृष्टि से हीन समझे जाते रहे हैं। इस प्रकार उनकी आय, सम्पत्ति और सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी बहुत कम रही हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का सदा से अभाव रहा है।
परम्परागत रूप से भारतीय जाति व्यवस्था की यह विशेषता रही है कि सामान्यत: उच्च जातियों की आर्थिक स्थिति भी उच्च रही है और निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति भी निम्न रही है।
किसी भी संस्था या समाज की इकाई का अस्तित्व तब तक बना रहता है जब तक कि वह समाज की किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति में सहायक हो। जब यही संस्था या इकाई समाज के लिए अकार्यात्मक (Dysfunctional) हो जाती है तो उसे या तो नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करना पड़ता है अथवा ऐसा न करने पर उसके विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। कई बार परिवर्तन की नवीन शक्तियाँ उपयोगी संस्थाओं व इकाइयों में भी ऐसे अवगुण भर देती हैं कि उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। क्या जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था समाप्त हो रही है? जाति व्यवस्था की समाप्ति या इसका भविष्य इसके द्वारा किए जाने वाले प्रकार्यों तथा अकार्यों पर निर्भर करता है।

जाति और वर्ण में अन्तर

जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय समाज में चार वर्ण हैं। वर्णों का पहला उल्लेख ऋग्वेद में हैं, यानी लगभग 1500 ईसा पूर्व वैदिक काल में वर्ण थे। वर्ण का आशय रंग से हैं। प्रारम्भ में अछूत नहीं थे। वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ में कठोर नहीं थी। वैदिक काल के बाद में यानी 1000 ई.पू. शुद्रों का उल्लेख है। इस भाँति 1000 ई. पू. वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ हुई। ई. पू. दूसरी शताब्दी और उसके बाद विभिन्न व्यवसायों के कारण कई औद्योगिक समूह उत्पन्न हुए। देखा जाय तो वर्ण व्यवस्था भारतीय व्यवस्था का केवल पुस्तकीय दृष्टिकोण है। जबकि जाति व्यवस्था आज व्यावहारिक रूप में देखने को मिलती है। आज वर्ण नहीं मिलते, जातियाँ मिलती हैं। वर्ण तो केवल चार हैं लेकिन जातियाँ 4000 हैं। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में कोई 200 जातियाँ मिलती हैं। जातियों का सोपान सम्पूर्ण भारत में मिलता है यानी ब्राह्मण सबसे ऊपर फिर क्षत्रिय, वैश्य और अंतिम स्थान पर शुद्र हैं। जातियों की यह सोपानिक व्यवस्था सारे देश में समान है लेकिन विभिन्न स्थानों पर यह सोपान बदल भी जाता है, आज की बदलती स्थिति कहीं पर ब्राह्मण शीर्ष स्थान पर है, दूसरे क्षेत्रों में कोई अन्य जाति जैसे कि राजपूत शीर्ष स्थान पर हैं। ऐसे भी स्थान हैं, जहाँ दलितों को ऊँचा स्थान मिलता है। आज की परिस्थिति में धर्मनिरपेक्ष लक्षण अर्थात् आर्थिक और राजनीतिक शक्ति किसी भी जाति को शीर्ष स्थान दे देती है। वर्ण व्यवस्था में ऐसा नहीं है। धार्मिक आधारों पर उच्च स्थान वर्गों में होता है जबकि अछूतों का वर्ण व्यवस्था में अनिवार्य रूप से निम्न स्थान होता है। देश में कहीं भी उच्च जातियाँ सोपान में ऊपर नहीं समझी जाती। इसलिए किसी भी वर्ण और जाति को समान नहीं समझना चाहिए।

जाति और वर्ग में अन्तर

जाति एक वंशागत समूह है, और वर्ग को प्रकृति निरपेक्षता की है। वर्ग व्यवस्था में बहिर्विवाह और अन्तर्विवाह होते हैं। इसमें गतिशीलता ऊपर की ओर होती है या नीचे की ओर। इसमें व्यक्ति जिसमें पैदा हुआ है- उसमें रह सकता है तथा यह अनिवार्य रूप से एक सामाजिक और आर्थिक समूह है। भारत में सामान्यतया तीन वर्ग पाये जाते हैं: उच्च, मध्यम एवं निम्न। प्रत्येक वर्ग दो भागों में बंटा होता है। एक भाग उच्च होता है तो दूसरा निम्न। इसी प्रकार उच्च मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग। इसी तरह उच्च निम्न वर्ग और निम्न, निम्न वर्ग। वर्ग और जाति में बहुत बड़ा अन्तर यह है कि जाति कर्मकाण्ड पर निर्भर होती है जबकि वर्ग धर्मनिरपेक्ष होता है। कर्मकाण्ड में उच्चता का कारण धार्मिक मिथक है और धर्मनिरपेक्ष वर्णों का आशय आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक है। वर्ग चेतना पाई जाती है लेकिन जाति चेतना नहीं। अस्तु, शहरी क्षेत्रों में जातियों को भी आर्थिक दृष्टि से देखा जाता है।

जाति व्यवस्था में परिवर्तन

जाति व्यवस्था में सामान्य परिवर्तन पिछली दो शताब्दियों में आए हैं। इनमें विशेष परिवर्तन पचास वर्षों में आया है। इस परिवर्तन के कारण संस्कृतीकरण, पाश्चात्यकरण आधुनिकीकरण, प्रभव जाति, औद्योगीकरण, नगरीकरण. प्रजातान्त्रिक महत्वपूर्ण है।
जाति व्यवस्था में आने वाले परिवर्तन को निम्न बिन्दुओं में रखा जा सकता है:-

(1) संस्कृतीकरण
यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें निम्न जाति के लोग ऊँची जातियों के व्यवहार, प्रतिमान, जीवन पद्धति, संस्कृति आदि का अनुकरण करते हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें अपने अपवित्र व्यवसाय और अपवित्र आदतों को जैसे कि मांसाहार और मद्यमान छोड़ना पड़ता है। पिछले दिनों में अछूतों को इस तरह सांस्कृतिक सुधार करने का अवसर नहीं था। केवल मध्यम वर्ग की जातियाँ ही यह सुधार कर सकती थी।
संस्कृतिकरण के लिए एक जाति में दशाएँ होनी चाहिए:-
  • (क) जातियों में सवर्ण जाति होने की संभावना हो
  • (ख) इस जाति की आर्थिक अवस्था बढ़िया होनी चाहिए
  • (ग) इस जाति के खाते में कुछ ऐसे मिथक होने चाहिए, जो उन्हें ऊँचा स्थान दे सकें।
इस भाँति संस्कृतिकरण में व्यक्ति में सुधार होना महत्वपूर्ण नहीं है, सम्पूर्ण समूह में सुधार होना चाहिए। संस्कृतिकरण एक लम्बी प्रक्रिया है, इसमें परिवर्तन एकाएक नहीं आता। व्यक्ति का परिवर्तन तो प्रस्थितिजनक होता है। आवश्यक यह है कि एक निश्चित जाति का सम्पूर्ण जाति व्यवस्था में विलय। इस भाँति इस प्रक्रिया में निम्न जातियाँ देश के विभिन्न भागों में छोटी स्थिति से उच्च स्थिति को प्राप्त करते हैं।

आगरा के जाटव अपने आपको 1940 के दशक में ऊँचा बनाना चाहते थे। जाति से वे चमार हैं। ब्रिटिश युग में एक समय ऐसा था जब जूतों की मांग बढ़ गयी थी। इस काल में जाटव आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गये। उनकी स्थिति क्षत्रियों के बराबर हो गयी। इन जाटवों ने एक मिथक प्रसारित किया: रामायण काल में जिसे स्वामी आत्माराम ने लिखा था कि जाटव त्रेता युग में क्षत्रीय थे। जब परशुराम क्षत्रियों का संहार कर रहे थे, तब जाटव जंगल में छिप गये और अपने आपको बचाने के लिए वे जानवर की खाल के साथ काम करने लगे। जब उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो गयी तब उन्होंने खाल के धन्धे को अपना लिया। अब क्योंकि जाटव पैसे वाले हो गये हैं वे अपने आपको क्षत्रीय कहते हैं। हुआ यूँ कि जाटव वास्तव में क्षत्रीय थे और परशुराम के क्षत्रिय संहार से बचने के लिए चमार हो गये। लेकिन चमार के धन्धे में उन्हें लाभ था, इसलिए आज वे अपने आप को क्षत्रीय बताते हैं। आगरा के स्थानीय जाटवों ने इसे स्वीकार नहीं किया, बाद में ये स्थानीय जाटव संगठित हो गये और इन्होंने अपने आपको राजनीति के क्षेत्र में एक वोट बैंक के रूप में स्थापित किया। इस भाँति असफल संस्कृतिकरण ने जाटवों के लिए उच्च गतिविधि का रास्ता खोल दिया।

(2) पश्चिमीकरण
पश्चिमीकरण का आशय पश्चिमी जीवन पद्धति, भाषा, पोशाक और व्यवहार के प्रतिमान को कहते हैं। भारत में ब्रिटिश प्रभाव देखने को मिलता है।
पश्चिमीकरण के निम्न लक्षण है:-
  1. विवेकपूर्ण दृष्टिकोण अर्थात, वैज्ञानिक और लक्ष्यपरक नजरिया
  2. भौतिक प्रगति में रुचि
  3. आज के भारत में संचार प्रक्रिया और मास मीडिया में विश्वास
  4. अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा
  5. उच्च सामाजिक गतिशीलता।
उच्च जातियों ने पहले अपने स्वयं का पश्चिमीकरण किया। बाद में निम्न जातियों ने भी पश्चिमीकरण को अपनाया। इस प्रक्रिया ने जाति की कठोरता को बदल दिया और यह लचीली व्यवस्था बन गई खास करके ऐसा नगरीय क्षेत्रों में हुआ।

(3) आधुनिकीकरण
यह ऐसी प्रक्रिया है, जिसका भरोसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण में है। इस प्रक्रिया में विवेकपूर्ण अभिवृत्तियाँ होती हैं। उच्च सामाजिक गतिशीलता होती है। सम्पूर्ण जनसमूह का परिवर्तन होता है। लोगों का स्वतन्त्रता में विश्वास होता है, समानता और बंधुत्व आते हैं, इस प्रक्रिया में लोग भागीदारी करते हैं। आधुनिकीकरण में संस्थाओं, संरचनाओं, अभिवृत्तियों आदि के क्षेत्र में सामाजिक-सांस्कृतिक और वैयक्तिक स्तर पर परिवर्तन आता है। शहरों में जातियाँ धीरे-धीरे वर्ग बन रही है। हमारे यहाँ मध्यम वर्ग राष्ट्रीय दृष्टिकोण एवं नये उद्देश्यों को लेकर आगे आ रही है। आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण की तुलना में अधिक विशाल अवधारणा है। कोई भी एक संस्कृति पश्चिमी मूल्यों को लेकर अपने आपको आधुनिक कर सकती है। हमारे देश के लिए यह कहा जा सकता है कि हम परम्पराओं को छोड़े बिना भी आधुनिक हो सकते हैं। हमारी जाति वयवस्था ने कई आधुनिक तौर-तरीकों को अपना लिया है। ऐसा करने में हमने लोगों को शिक्षा-दीक्षा दी है, औपचारिक संगठन बनाये हैं तथा लोगों को यह चेतना दी है कि हम आधुनिक हो रहे हैं।

(4) प्रभवजाति
20वीं शताब्दी में प्रभवजाति की अवधारणा ग्रामीण अध्ययनों के परिणामस्वरूप हमारे सामने आयी है। इसका मतलब हैं कि गाँव की कुछ जातियाँ आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रभावी हो जाती हैं और वे एक क्षेत्र विशेष में महत्वपूर्ण समझी जाती हैं।
सामान्यतया प्रभव जाति वह है, जिसके पास (क) अपने क्षेत्र में कृषि भूमि अधिक होती है, दूसरे शब्दों में यह जाति आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होती है। (ख) प्रभव जाति राजनैतिक रूप में यानी वोट बैंक की तरह शक्तिशाली होती है। (ग) इस जाति की जनसंख्या अधिक होती है। (घ) इस जाति का कर्मकाण्ड में ऊँचा स्थान होता है। (ङ) इस जाति में अंग्रेजी माध्यम से पढ़े-लिखे लोग होते हैं। (च) यह जाति कृषि के क्षेत्र में अग्रणी होती है। (छ) यह जाति शारीरिक दृष्टि से बाहुबलियों की होती है। यह होते हुए भी प्रभव जाति का दायरा केवल उच्च जातियों तक ही नहीं होता। प्रभव जाति निम्न जातियों में भी पायी जाती है।

(5) औद्योगीकरण और नगरीकरण
इन दोनों प्रक्रियाओं ने जाति व्यवस्था को प्रभावित किया है। लोगों का स्थानान्तरण गाँवों से शहरों की ओर औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण हुआ है। शहरों में जाति के सख्त नियमों का पालन करना संभव नहीं है। आज के समय में शहरों में कुछ ऐसे स्थान हैं जैसे कि बस, रेल, होटल, ऑफिस, कैन्टीन आदि जहाँ जाति के प्रतिबन्धों को लागू करना संभव नहीं है। इसी कारण जाति को एक लचीला समूह बना दिया गया है।

(6) प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण
पंचायतराज, स्वायत्तशासी संगठनों के गाँवों में स्थापित होने से स्थिति बदल गयी है। पंचायती राज में आरक्षण है और इसने निम्न जातियों को सशक्त बना दिया है।

(7) जाति एवं राजनीति
जाति एवं राजनीति का सम्बन्ध कोई आज से नहीं है। वर्ण व्यवस्था के युग में ब्राह्मणों का प्रभावी होना सामान्य बात थी। यह कहा जाता है कि जाति एवं राजनीति का चोली दामन का साथ है। राजनीति जातियों को वोट बैंक में बदल देती है। अब जातियों को राजनीति के साथ में जोड़ा जाता है। जाति एवं राजनीति के सम्बन्ध में निम्न जातियों को शक्तिशाली बना दिया है। अब जातियों को चुनाव के माध्यम से अपने आपको ताकतवर बनाने का अवसर मिल गया है। दलित जाति इसका प्रमाण है। जहाँ दलित प्रभावशाली हैं वहाँ विभिन्न राज्यों में दलितों में धड़बन्दी हो गयी है। इस धड़बन्दी के कारण निम्न जातियाँ उच्च जातियों के साथ संघर्ष में भी आ जाती हैं। देश के कई क्षेत्रों में उच्च व निम्न जातियाँ परस्पर विरोधी हैं। ऐसा लगता है कि यह संक्रमण काल है। अच्छी शिक्षा, जनजागृति के कार्यक्रम, रोजगार के अवसर, भारतीय समाज को एक उन्नत समाज की ओर ले जायेंगे।

(8) जाति और अर्थव्यवस्था
परम्परागत रूप से यह कहा जाता था कि विशेष प्रकार के आर्थिक क्षेत्र में जाति व्यवस्था भारतीय समाज के लिए उपयुक्त थी। यह और कुछ न होकर जजमानी व्यवस्था थी। यह व्यवस्था परम्परागत थी। जजमानी व्यवस्था में जो सेवा देने वाली जातियाँ थी, वे कमीन थी। कमीन उच्च जातियों यानी जजमान को सेवा देती थी। कमीन के पास धन्धों की विशेष कुशलता थी और इसे देने के बदले में जजमान उन्हें यानी कमीनों को अनाज या नकद मुद्रा देते थे। इस तरह गाँवों में कमीन और जजमान के प्रकार्यात्मक सम्बन्ध थे। लेकिन बाजार अर्थव्यवस्था के प्रवेश और भूमि सुधारों ने जजमानी व्यवस्था को कमजोर कर दिया है।
इस तरह से जाति व्यवस्था में कई परिवर्तन आये हैं। शहरी क्षेत्रों में लोग जातियों के मानदण्डों को नहीं मानते। जाति के क्षेत्र में यदि कोई महत्वपूर्ण तथ्य बदलने से रह गया है तो यह अन्तर्वैवाहिकी है। आज भी जातियाँ अन्तर्विवाही समूह हैं। यह भी देखने में आया है कि अब अन्तर्जातीय और अन्तर्विवाह होने लगे हैं।

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