प्रबन्ध क्या है? | prabandh kya hai

प्रबन्ध क्या है?

प्रबन्ध को प्रभावशीलता एवं कार्यक्षमता से लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु कार्य कराने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस का उद्देश्य सर्वमान्य लक्ष्यों/उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु किए जाने वाले प्रयासों के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना होता है।
प्रबन्ध का इतिहास उतना ही पुराना है, जितनी की मानव सभ्यता क्योकि स्वयं मानव सभ्यता के विकास में कही न कही और किसी न किसी रूप मे प्रबन्ध का भी योगदान रहा है। इस प्रकार प्रबन्ध की अवधारणा मानवीय सभ्यता के साथ विकसित होती चली गयी जो आज आधुनिक प्रबन्ध के नाम से जानी जाती है। और वास्तव मे आज 'प्रबन्ध' ही व्यवसाय तथा उद्योग रूपी शरीर का मस्तिष्क अथवा उसकी जीवनदायी शक्ति है। यही वह जीवनवटी है जो संगठन को शक्ति देती है, संचालित करती है और नियंत्रण मे रखती है। अतः 'प्रबन्ध' आधुनिक व्यवस्थाओं, संगठनों को अपने लक्ष्य प्राप्ति की एक युक्ति है जिसके कुशल संचालन पर ही व्यवसाय की सफलता निर्भर करती है। इसलिए पीटर ड्रकर कहते है कि "प्रबन्ध ही प्रत्येक व्यापार का गतिशील एवं जीवनदायक तत्व होता है, उसके नेतृत्व के अभाव मे उत्पादन के साधन केवल, 'साधन' मात्रा रह जाते है, कभी उत्पादक नही बन पाते।"
prabandh kya hai
प्रबन्ध से तात्पर्य है कि कोई भी कार्य, कुशलता व मितव्ययिता पूर्वक कैसे किया जाये। वर्तमान जटिल व्यावसायिक युग में प्रबन्ध को अनेक अर्थो में प्रयुक्त किया जाता है। वास्तव मे प्रबन्ध दूसरो से काम लेने की एक युक्ति है। किसी उपक्रम मे श्रमिक कार्य करते है, इसमें प्रबन्ध को यह सोचना पड़ता है कि किस प्रकार श्रमिको से अच्छे ढंग से काम लिया जा सकता है। प्रबन्ध को यह निर्णय लेना पड़ता है कि वास्तव में क्या करना है और उसको करने का उत्तम तरीका क्या है कुछ व्यक्तियों ने इसे संकीर्ण अर्थ मे लिया है। जबकि बहुमान्य धारणा व्यापक अर्थ के पक्ष में है। संकीर्ण अर्थ में प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है और वह व्यक्ति जो दूसरे व्यक्ति से कार्य करा सकता है, प्रबन्ध कहलाता है। विस्तृत अर्थ में प्रबन्ध कला और विज्ञान दोनों है और यह निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न मानवीय प्रयासों से सम्बंध रखता है। जबकि थियों हेमेन ने प्रबंध को तीन अर्थो यथा प्रबन्ध अधिकारियों के अर्थ में, प्रबन्ध विज्ञान के अर्थ में एवं, प्रबन्ध प्रक्रिया के अर्थ में प्रयुक्त किया है।
"प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार प्रबन्ध का अभिप्राय सामान्यतः प्रबन्ध अधिकारियों से होता है। जिसके अंतर्गत संबंधित इकाई मे कार्य करने वाले लोगों के कार्यो पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है। द्वितीय दृष्टिकोण के अनुसार प्रबन्ध का अभिप्रायः एक ऐसे विज्ञान से है जिसमें व्यवसायिक नियोजन संगठन, संचालन, समन्वय, प्रेरणा, नियंत्रण आदि से संबंधित सिद्धांतों का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है। तृतीय दृष्टिकोण के अनुसार प्रबन्ध का आशय एक प्रक्रिया से है। जिसके अंतर्गत दूसरे लोगों के साथ मिल-जुलकर कार्य किया जाता है।"
  • किम्बॉल एवं किम्बॉल- के शब्दों में, "व्यापक रूप में प्रबन्ध का आशय उस कला से है। जिसके द्वारा किसी उद्योग मे मानव और माल को नियंत्रित करने के लिए अधिक सिद्धांतों को व्यवहार में लाया जाता है।"
  • जेम्स एवं लुण्डी के अनुसार- "प्रबन्ध मुख्य रूप से विशिष्ट उद्देश्यो की प्राप्ति के लिए दूसरों के प्रयत्नों को नियोजित, समन्वित, प्रेरित तथा नियंत्रित करने का कार्य है।"
  • हेनरी फेयोल के अनुसार- "प्रबन्ध को एक प्रक्रिया मानते हुए कहते है कि प्रबन्ध से आशय पूर्वानुमान लगाना, योजना बनाना, संगठन करना, आदेश देना, समन्वय करना व नियंत्रण स्थापित करना आदि है।"
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध का आशय उस कला से है जिसके द्वारा प्रशासन द्वारा निर्धारित नीतियों को कार्यान्वित किया जाता है तथा सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय क्रियाओं का निर्देशन, संचालन, नेतृत्व तथा नियंत्रण किया जाता है।

प्रभावशीलता तथा कार्यक्षमता में अन्तर
  • प्रभावशीलता गुणात्मक है जबकि कार्यक्षमता मात्रात्मक।
  • सही कार्य करना प्रभावशीलता को दर्शाता है जबकि कार्यों को सही से करना कार्यक्षमता को दर्शाता है।
  • एक व्यवसाय के लिए दोनो ही आवश्यक होते है तथा इन में संतुलन बनाये रखना भी अनिवार्य है जिससे प्रबन्ध लक्ष्यों (प्रभावशीलता) को न्यूनतम संसाधनों (कार्यक्षमता) से प्राप्त कर सकें।

प्रबन्ध की विशेषताएँ/लक्षण

प्रबन्ध सर्वमान्य/सार्वभौमिक है
इसका अर्थ है कि प्रबन्ध की आवश्यकता सभी प्रकार के संगठनों में होती है चाहे वे व्यावसायिक संगठन हों या सामाजिक अथवा राजनीतिक, छोटे हों या बड़े। प्रबन्ध की आवश्यकता विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पताल, बड़े संगठनों जैसे कि रिलाइन्स इन्डस्ट्रीज लिमिटेड या फिर आपके इलाके की छोटी-सी पंसारी की दुकान में भी होती है। अतः यह एक सार्वभौमिक क्रिया है जो कि सभी संगठनों में समान आवश्यक तत्व के रूप में है। 

प्रबन्ध उद्देश्यपूर्ण है
प्रत्येक संगठन की स्थापना कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए की जाती है। उदाहरण के लिए, एक व्यावसायिक संगठन का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभोपार्जन एवं/या उत्तम स्तर की वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन हो सकता है। संगठन का प्रबंध सदैव संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति पर केन्द्रित होता है। प्रबंध की सफलता इन उद्देश्यों की प्राप्ति से ही आंकी जाती है।

प्रबन्ध एक सतत् प्रक्रिया है
प्रबन्ध लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। जब तक संगठन रहता है, प्रबंध की प्रक्रिया सतत् रूप से चलती रहती है। प्रबन्ध के बिना संगठन का कोई कार्य नहीं हो सकता। उत्पादन, बिक्री, संग्रहण इत्यादि क्रियाएँ सभी के लिए प्रबन्ध
आवश्यक है। जब तक ये प्रक्रियाएं चलती हैं, प्रबन्ध की आवश्यकता बनी रहती है।

प्रबन्ध एक परस्पर जोड़ने वाली प्रक्रिया है
सभी कार्य, क्रियाएं एवं प्रक्रियाएं परस्परमिश्रित हैं। प्रबंधा का कार्य है उन्हें एकत्रित कर समन्वय द्वारा इच्छित उद्देश्यों की पूर्ति करना। मनुष्यों, मशीनों एवं समूह के रूप में वैयक्तिक प्रयासों के समन्वय के अभाव में
संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति करना असंभव कार्य होगा।

प्रबन्ध अमूर्त है
प्रबन्धा न तो वह स्थान है जहाँ बोर्ड की मीटिंग दिखाई जा रही है और न ही वह स्थान जहां प्रधानाचार्य को अपने कार्यालय में बैठे हुए दिखाया जा रहा है। प्रबंध एक ऐसी शक्ति है जिसे देखा नहीं जा सकता। उसकी उपस्थिति को केवल नियमों, उत्पाद, कार्य के वातावरण, आदि से महसूस किया जा सकता है।

प्रबन्ध बहुआयामी है
प्रबंध के लिए संगठन में बहुत प्रकार के क्षेत्रों का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि उसमें मनुष्य, मशीनों, माल के अतिरिक्त उत्पादन, वितरण, लेखा एवं अन्य कई कार्यों का समावेश है। इसलिए हम पाते हैं कि प्रबंध के सिद्धांत एवं तकनीक अध्ययन के बहुत-से क्षेत्रों जैसे कि इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, मनोशास्त्र, मानव विज्ञान, गणित एवं संस्कृति, इत्यादि से लिए गए हैं।

प्रबन्ध एक सामाजिक क्रिया है
प्रबंधा का सबसे प्रमुख अंग है समूह में कार्य कर रहे लोगों से व्यवहार। इसमें सम्मिलित हैं कार्य पर लगे लोगों का विकास एवं अभिप्रेरण एवं एक सामाजिक इकाई के रूप में उनकी संतुष्टि का ध्यान रखना। प्रबन्ध के सभी कार्य मुख्यतः मानवीय संबंधों से जुड़े हैं इसलिए उसे सामाजिक क्रिया कहना उचित है।

प्रबन्ध परिस्थिति पर आधारित है
प्रबन्धा में सलता परिस्थिति पर निर्भर है। अत:परिस्थिति अनुसार सफलता के स्तर बदलते रहते हैं। प्रबंध का कोई एक निश्चित सर्वोत्तम तरीका नहीं है। प्रबंधा की तकनीक एवं उसके सिद्धांत सापेक्ष हैं और सभी परिस्थितियों में समान रूप से सही नहीं हैं।
  • प्रबन्ध लक्ष्य प्रधान प्रक्रिया है जो संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है।
  • प्रबन्ध सर्वव्यापक है जो सभी प्रकार के संगठनों जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि के लिए आवश्यक होती है।
  • प्रबन्ध बहुआयामी गतिविधि है जो कार्यो, व्याक्तियों तथा परिचालनो के प्रबन्ध से सम्बन्धित होती है।
  • प्रबंध एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो तब तक चलती रहती है जब तक कि एक संगठन कुछ निर्धारित उद्देश्यों को पाने के लिए विद्यमान रहता है।
  • प्रबन्ध एक सामूहिक गतिविधि है। एक संगठन में अनेक व्यक्ति संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्य करते है। कोई भी प्रबन्धकीय निर्णय अकेले में नही लिये जा सकते है। उदाहरण के लिए, विपणन प्रबन्धक, वित्तीय प्रबन्धक से परामर्श करके ही साख सुविधा को बढ़ा सकता है। माल की आपूर्ति देने से पहले उत्पादन प्रबन्धक से परामर्श करना पड़ता है।
  • प्रबन्ध एक गत्यात्मक कार्य है जिसे परिवर्तनशील वातावरण के अनुरूप कार्य करना पड़ता है।
  • प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है जिसे देखा नही जा सकता परन्तु इसके प्रभाव को प्राप्त परिणामों से निर्धारित किया जा सकता है।

प्रबन्ध के उद्देश्य

  1. संगठनात्मक उद्देश्य
  2. सामाजिक उद्देश्य
  3. वैयक्तिक उददेश्य

संगठनात्मक उद्देश्य
  • जीवित रहना जिसके लिए पर्याप्त आय अर्जित करना अनिवार्य है।
  • लाभ अर्जित करना ताकि लागतों एवं जोखिमों को सहन किया जा सके।
  • विकास करना ताकि भविष्य में संगठन ओर अच्छे प्रकार से कार्य कर सकें।

सामाजिक उद्देश्य
सामाजिक उद्देश्य संगठन के समाज के प्रति समर्पण से सम्बन्धित होते है। एक व्यावसायिक संगठन के सामाजिक उद्देश्य निम्नलिखित होते है-
  • उचित कीमत पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं की आपूर्ति करना।
  • करों का ईमानदारी से भुगतान करना।
  • उत्पादन की पर्यावरण मित्र विधियों को अपनाना।
  • असामाजिक एवं अनुचित व्यापारिक व्यवहारों से बचना।
  • कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक एवं अच्छी कार्यदशाएं उपलब्ध कराना।

वैयक्तिक उददेश्य
ये उददेश्य संगठन के कर्मचारियों से सम्बन्धित होते है। प्रबन्ध को कर्मचारियों की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को पूर्ण करना पड़ता है जैसे उचित पारिश्रमिक, सामाजिक आवश्यकताएं, व्यक्तिगत वृद्धि एवं विकास सम्बन्धि आवश्यकताएं। प्रबन्ध को वैयक्तिक एवं संगठनात्मक उद्देश्यों में समन्वय रखना चाहिए।

प्रबन्ध का महत्व

प्रबन्ध का महत्व
आधुनिक युग में प्रबन्ध का अत्यधिक महत्व है। अच्छे प्रबन्ध के अभाव में निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त नही किया जा सकता, समाज का आर्थिक कल्याण कुशल प्रबन्ध पर ही निर्भर है, यह उद्योग रूपी शरीर का मस्तिष्क एवं प्राण है जिसके बिना उद्योग का संचालन असंभव है तथा प्रबन्ध संगठन की क्रियात्मक शक्ति है। अतः व्यावसायिक क्षेत्र में सुप्रबन्ध का न होना बालू मे मकान बनाने के समान है। इसके महत्व को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा गया है-
  1. व्यावसायिक संस्थाओं के लिए महत्व।
  2. समाज के लिए महत्व।
  3. राष्ट्र के लिए महत्व।

व्यावसायिक संस्थाओं के लिए महत्व
प्रबंध प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील जीवनदायी अंग है। उसकी भूमिका तथा महत्व को नीचे के कुछ शीर्षकों मे स्पष्ट करने का प्रयास करते है।
  • उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं का निर्धारण।
  • संस्था की सफलता तथा लक्ष्यों की प्राप्ति।
  • प्रतिस्पर्धा पर विजय।
  • मानवीय संसाधनों का विकास।
  • संकटों का निवारण।
  • संस्था की ख्याति।
  • साधनों का अनुकूलतम उपयोग।
  • जटिल व्यावसायिक समस्याओं का समाधान।
  • प्रभावकारी संगठन संरचना का निर्माण।
  • नवीन तकनीकों तथा प्रचलित विधियों मे समन्वय।
  • सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह।
  • सुदृढ़ औद्योगिक संबंधों की स्थापना- 'सुदृढ़ औद्योगिक संबंध संस्था की सफलता की आधारशिला है।
  • उत्पादकता मे अभिवृद्धि- बिआर्स से अनुसार, 'उत्पादकता पर सर्वाधिक प्रभाव डालने वाला एक तत्व दक्ष या कुशल प्रबंध ही
  • परिवर्तनों का प्रेरक एवं माध्यम-संक्षेप मे कुशल प्रबंध सदैव ही समयानुकुल परिवर्तन करत है तथा परिवर्तनों की प्रेरणा देता है।

समाज के लिए महत्व
हमारे समाज के मानवीय विकास में प्रबंध की क्रांतिकारी भूमिका है। यह मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के कारगर उपयोग से जीवन-स्तर में सुधार करने की हमारे युग की महान चुनौती को समझ सकता है इसके महत्व को निम्नलिखित कुछ शीर्षकों मे स्पष्ट करने का प्रयास करते है-
  • समान के विभिन्न वर्गों के हितों मे सामंजस्य।
  • रोजगार की उपलब्धि।
  • सामाजिक उत्थान में योगदान।।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं की उपलब्धि।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा।
  • जीवन-स्तर में सुधार-प्रबंध का उद्देश्य जनता के जीवन को ऊँचा करते हुए सम्पूर्ण समाज के जीवन की किस्म को सम्पन्न बनाना है।

राष्ट्र के लिए महत्व
कुशल प्रबंध का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान का हम निम्न कुछ शीर्षकों के अंतर्गत अध्ययन कर सकते है
  • भौतिक संसाधनों का सदुपयोग।
  • पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन।
  • संतुलित आर्थिक विकास।
  • देश की समृद्धि।
  • मानव संसाधनो का दुरूपयोग।
  • राष्ट्रीय योजनाओं में योगदान।
  • गरीबी का उन्मूलन।

अतः संक्षेप में प्रबन्ध के महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से भी स्पष्ट कर सकते है

न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन
आधुनिक प्रबन्ध की प्रणालियों के अध्ययन द्वारा हमें यह मालूम हो जाता है कि मानव, मशीन एवं माल मे कैसे उचित समन्वय स्थापित किया जाये जिससे न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन किया जा सके।

औद्योगिक विकास की गति में तीव्रता
उद्योगों की उत्पादन क्षमता तथा साधनों का पूर्ण उपयोग करने, उत्पादन लागत घटाने, वस्तुओं की किस्म में सुधार करने, अंततः औद्योगिक विकास की गति मे वृद्धि करने के सन्दर्भ में कुशल व्यावसायिक संगठन महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।

आर्थिक योजना की सफलता
कुशल प्रबन्ध के द्वारा आर्थिक विकास की योजनाओं को सफल बनाया जा सकता है। वास्तव मे आर्थिक नियोजन की सफलता बहुत कुछ कुशल प्रबन्ध पर निर्भर करती है।

बेरोजगारी की समस्या का समाधान
बेरोजगारी की समस्या का समाधान करने मे भी कुशल प्रबन्ध से काफी मदद मिलती है। देश मे जो नवीन उद्योग धंधे खुले है। उनका संचालन कुशल प्रबन्धको द्वारा ही किया जाता है।

संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति
किसी भी नवीन उपक्रम की स्थापना कुछ निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जाती है। कुशल प्रबन्धकों का संस्था के निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में विशेष महत्व होता है।

व्यक्तियों की योग्यता का विकास
प्रबन्ध दूसरों से काम कराने की एक कला है। प्रबन्ध से एक तरफ व्यक्तियों की कार्य कुशलता में वृद्धि होती है दूसरी तरफ उनके मनोबल में भी वृद्धि की जाती है। इस प्रकार प्रबन्ध के कारण व्यक्तियों की योग्यता का विकास होता है।

सामाजिक जीवन स्तर मे सुधार
अच्छा एवं कुशल प्रबन्ध रोजगार के साधनों मे वृद्धि करके प्रति व्यक्ति आय तथा उत्पादन बढ़ाने में सहायता प्रदान करता है। इससे सामाजिक जीवन स्तर में सुधार होता है।

गलाकाट प्रतियोगिता का सफलता से सामना
आज के युग में बाजार के विस्तार के साथ-साथ प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती जा रही है। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा का सफलता से सामना वही उत्पादक कर सकता है जिसके उत्पादों की लागत कम से कम होने के साथ किस्म भी अच्छी हो। प्रशासन एवं प्रबन्ध विज्ञान के सिद्धांतों का प्रयोग कर लागत मे काफी कमी लायी जा सकती है।

नवीन परिवर्तनों को उपक्रमों मे लागू करना
समय के साथ-साथ व्यावसायिक एवं औद्योगिक जगत में अनेक नवीन परिवर्तन हो रहे है। इस नवीन परिवर्तनों को संस्था में लागू करना बहुत जरूरी होता है। यह कार्य कुशल प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है।

श्रम समस्याओं का समाधान करना
श्रम की कुशलता मे वृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि उसकी समस्याओं का संतोषजनक ढंग से समाधान किया जाये तथा श्रम-पूंजी के अंतर को पाटा जाये। यह कार्य कुशल प्रबन्धक ही कर सकते है।

वस्तुओं एवं सेवाओं के विक्रय की आधुनिक पद्धतियों का विकास
प्रशासन एवं प्रबन्ध विज्ञान हमें यह भी बताता है कि शहरों एवं गांवो के अन्तिम उपभोक्ताओं के वस्तुएं किस पद्धति से बेची जा सकती है। आजकल वस्तुएं बेचने के लिए विक्रय की अनेक आधुनिक रीतियों का प्रयोग किया जाता है।

सामाजिक उत्तरदायित्वो को पूरा करना
प्रबन्धकों को व्यवसाय की स्थापना करने, उसके संचालन करने के अलावा अनेक सामाजिक उत्तरदायित्वों को भी पूरा करना पड़ता है। इस दृष्टि से भी प्रबन्ध का काफी महत्व है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि 'प्रबन्ध' की अवधारणा एक शाश्वत चलने वाली, प्रगतिशील तथा बहुआयामी अवधारणा है, जो संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति, संगठनात्मक विकास और उसे परिस्थितियों के अनुरूप ढालते हुए अधिकतम मानव कल्याण के लिए प्रयासरत रहती है। आज के आधुनिक और अल्याणकारी युग में प्रबन्ध प्रत्येक देश की अनिवार्य आवयकता बन चुका है। यह विकास का पर्याप्त और संगठन की सफलता का 'सिम्बोल' बन गया है। हालांकि प्रबन्ध सिद्धांतों में सार्वभौतिकता का अभाव, प्रबन्ध के सिद्धांतों व नियमों का स्थायी न होना और मानवीय आचरण में परिवर्तनों को समझने और उससे अनुकूलन करने में अक्षमता को लेकर आलोचना भी की जाती है। लेकिन ये कमियां ऐसी नही है जिससे प्रबन्ध का महत्व कम हो जाये, क्योकि प्रबन्ध की विशेषताओं का देखकर ही इसकी भूमिका स्पष्ट हो जाती है। यह बढ़ती हुई प्रतियागिता से मुकाबला करने में, उत्पादन के साधनों के प्रभावपूर्ण उपयोग करने में, उत्पादन के साधनों मे समन्वय करने में न्यूनतम लागत पर अधिकतम और श्रेष्ठतम उत्पादन करने मे तथा भविष्य के लिए सक्षम प्रबन्धक उपलब्ध कराने में अपना अमूल्य और बहुमुखीय योगदान देता है। अतः सफल प्रबन्ध के लिए उपयुक्त और श्रेष्ठ तकनीक अपनाते हुए उसे सर्वोत्तम परिणामोन्मुखी और अधिकतम मानवोन्मुखी बनाये जाने के प्रयत्न किये जाने चाहिए।
  • प्रबन्ध सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है।
  • प्रबन्ध कार्यक्षमता बढ़ाता है। इसके माध्यम से संसाधनों का उचित उपयोग सम्भव हो पाता है। जिससे लागतें कम होती है तथा उत्पादकता बढ़ती है।
  • प्रबन्ध गत्यात्मक संगठन का सृजन करता है। यह परिवर्तनशील पर्यावरण की चुनौतियों का सामना आसानी से कर सकता है।
  • प्रबन्ध वैयक्तिक उद्देश्यों को पाने में सहायता करता है। ये अभिप्रेरण एवं नेतृत्व के माध्यम से कर्मचारियों में समूह भावना का विकास करती है तथा व्यक्तिगत लक्ष्यों एवं संगठनात्मक लक्ष्यों में तालमेल बैठाता है।
  • प्रबन्ध समाज के विकास में सहायता करता है यह गुणात्मक माल एवं सेवाओं को प्रदान करके, रोजगार के अवसर सृजित करके, उत्पादन की नई तकनीकें बनाकर समाज के विकास के लिए कार्य करता है।

प्रबन्ध की प्रकृति

प्रबन्ध विज्ञान है या कला अथवा पेशा। कुछ विद्वान प्रबन्ध को कला बताते है क्योंकि प्रबन्धक ज्ञान एवं कौशल के व्यावहारिक प्रयोग से सम्बन्ध रखता है जबकि कुछ विद्वान इसे विज्ञान मानते है क्योंकि यह उचित रूप से जाँचे गये सिद्धान्तों का प्रतिनिधित्व करता है। कुछ इसे पेशा भी मानते है।

प्रबंध एक कला है
अध्ययन व अनुभव से प्राप्त ज्ञान या चातुर्य के उपयोग से कार्यों को करना ही कला है। प्रबंध कार्य में प्रबंधकीय ज्ञान, अध्ययन, अनुभव एवं चातुर्य का उपयोग किया जाता है। इनके व्यावहारिक उपयोग से संस्था के उद्देश्यों को अधिकांश सफलता के साथ किया जा सकता है। प्रबंधकीय ज्ञान का शिक्षण एवं प्रशिक्षण दिया जा सकता है, किन्तु प्रबंध मे सफलता तथा असफलता प्रत्येक व्यक्ति के चातुर्य, ज्ञान एवं अनुभव से प्राप्त होती है।

प्रबन्ध एक कला के रूप में
कला की कुछ विशेषताएं होती है जोकि निम्नलिखित है।
  • (क) सैद्धान्तिक ज्ञान :- जिस के लिए क्रमबद्ध एवं संगठित अध्ययन सामग्री उपलब्ध होनी आवश्यक है।
  • (ख) वैयक्तिक प्रयोग :- एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न प्रकार से कार्य करता है क्योकि प्रत्येक व्यक्ति की कार्य करने की शैली भिन्न होती है।
  • (ग) अभ्यास एवं सृजनशीलता पर आधारित :- कला में विद्यमान सैद्धान्तिक ज्ञान का सृजनशीलता अभ्यास समाहित होता है। एक कलाकार की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि उसने कितना अभ्यास किया है तथा वह कितना सृजनशील है।
प्रबन्ध में कला की सभी विशेषताएं समाहित होती है अतः इसे कला कहा जा सकता है।

प्रबंध एक विज्ञान है
विज्ञान ज्ञान की किसी भी शाखा का क्रमबद्ध अध्ययन है जिसमें कारण एवं परिणाम का संबंध पाया जाता है। जहां तक प्रबंध का प्रश्न है प्रबंध शुद्ध विज्ञान की श्रेणी में नहीं आता है। यह व्यावहारिक विज्ञान की श्रेणी में आता है। प्रबंध विज्ञान एक ऐसी विज्ञान है जिसके सिद्धांत वातावरण की परिस्थितियों तथा स्वयं प्रबंधकों के विचारों से प्रभावित होते है। प्रबंध कभी भी शुद्ध विज्ञान निम्नलिखित कारणों से नहीं बन सकता है
  • सिद्धांतों की सार्वभौतिकता का अभाव।
  • सर्वमान्य मान्यताओं का अभाव।
  • अचूक माप का अभाव।

प्रबन्ध एक विज्ञान के रूप में
विज्ञान किसी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान होता है जो सही निष्कर्ष निकालने वाले निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होता है, जिनकी जाँच की जा सकती है। विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएं होती है।
  • ज्ञान का क्रमबद्ध रूप जो सिद्धान्तों, अभ्यासों एवं प्रयोगों पर आधारित होता है।
  • प्रयोग एवं अवलोकल पर आधारित सिद्धान्त
  • सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त जिन्हें कही भी तथा कभी भी सिद्ध किया जा सकता है।
  • कारण एवं प्रभाव सम्बन्ध। विज्ञान में सभी चरों का कारण एवं प्रभाव सम्बन्ध होता है।
प्रबन्ध में भी सिद्धान्तों एवं नियमों का क्रमबद्ध रूप विद्यमान होता है जो संगठनात्मक अभ्यासों को समझने में सहायक होते है। प्रबन्ध के अपने सिद्धान्त जो कारण एवं प्रभाव में सम्बन्ध स्थापित करते है परन्तु विज्ञान की तरह ये सिद्धान्त स्टीक नही होते इनमें परिस्थिति के अनुसार सुधार किया जा सकता है अतः प्रबन्ध विशुद्ध विज्ञान न हो कर सामाजिक विज्ञान है।

प्रबन्ध एक पेशा है
पेशे की विशेषता होती है कि इसके लिए एक प्रकार के विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि आवश्यक है। प्रबंध एक विशिष्ट विज्ञान है, उसकी एक तकनीक है, उसका एक तन्त्र है। इस विशिष्ट विज्ञान की जानकारी और गहन अध्ययन के बिना कोई व्यक्ति प्रबंधक नही बन सकता। अतः आज का प्रबंध निश्चित रूप से एक पेशा है।

पेशें के रूप में प्रबन्ध
पेशा एक व्यवसाय है जो विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण द्वारा संपोषित होता है, जिसमें प्रवेश प्रतिबन्धित है।
इसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार है-
  • ज्ञान का सुपरिभाषित निकाय
  • प्रतिबंधित प्रवेश
  • सेवा उद्देश्य
  • नीति संहिता का अस्तित्व
  • पेशेवर संघो की उपस्थिति

प्रबन्ध मानवीय तथा भौतिक साधनों मे समन्वय स्थापित करता है
कुशल प्रबन्धक मानव मशीन तथा अन्य साधनों को समन्वित कर एक प्रभावपूर्ण उपक्रम को जन्म देता है। तथा उनकी उत्पादकता में वृद्धि करता है कास्ट एवं रोजेविंग के अनुसार प्रबन्धकों की आवश्यकता मनुष्य, मशीन, माल, धन, समय और स्थान के असंगठित संसाधनों को एक उपयोगी तथा प्रभावापूर्ण उद्यम में बदलने के लिए पड़ती है।

प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है
प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है, जो प्रत्येक संस्था मे चाहे वह सामाजिक संस्था हो अथवा धार्मिक या राजनीतिक हो अथवा व्यावसायिक समान रूप से सम्पन्न की जाती है। प्रबन्ध के सिद्धांत समान रूप से किसी मंदिर, क्लब, श्रमसंघ, स्थानीय संस्था आदि पर लागू होते है।

प्रबन्ध की विषय वस्तु मनुष्य है
प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है, क्योकि प्रबन्ध के कार्य मौलिक रूप से मानवीय क्रियाओं से संबधित है प्रबन्ध के द्वारा ही मानव क्रियाओं, नियोजित, संगठित, निर्देशित, समन्वित, प्रेरित तथा नियन्त्रित किया जाता है। चूंकि प्रबन्ध की विषय वस्तु मनुष्य है। अतः इसके सिद्धांत निश्चित एवं अकाट्य नही बन सकते। प्रबन्ध के सिद्धांत मूल रूप से व्यावहारिक सिद्धांत हो और मनुष्य के स्वभाव के अनुसार बदलते रहते है।

प्रबन्ध के कुछ सामाजिक दायित्व भी है
अपने महत्व के कारण प्रबन्ध आज समाज का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। आज प्रबन्ध के कुछ सामाजिक दायित्व भी पैदा हो गये है और प्रबन्धक इनकी अवहेलना नही कर सकता। यह कहा जाने लगा है कि प्रबन्ध केवल नियोक्त का प्रतिनिधि नही अपितु सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधि है। प्रबन्ध के ग्राहकों कर्मचारियों, पूर्तिकर्ताओं, नियोक्ता, सरकार तथा समाज के प्रति अनेक उत्तरदायित्व होते है।

अन्य
  • प्रबन्ध संगठनात्मक पदसोपान के समस्त स्तरों पर पाया जाता है।
  • प्रबन्ध में पूर्व निर्धारित उद्देश्यो की समय पर प्राप्ति अनिवार्य है।
  • प्रबन्ध की प्रकृति समग्रतावादी होती है अर्थात वह समस्त उपव्यस्थाओं पर ध्यान केन्द्रित करता है, किसी एक 'सेक्टर' पर नही।

प्रबन्ध के स्तर

उच्चस्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य
उद्देश्य निर्धारित करना, योजनाओं और नीतियों का ढांचा तैयार करना, एवं दूसरे लोगों के प्रयासों को निर्देशन और नेतृत्व प्रदान करना।

मध्य स्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य
उच्च स्तर द्वारा बनाई गई योजनाओं और नीतियों का निष्पादन करना। उच्च एवं निम्न स्तरीय प्रबन्ध के बीच कडी का कार्य करना। यह संसाधनों को एकत्रित एवं संगठित करते है।

निम्न स्तरीय प्रबन्ध के प्रमुख कार्य
इस समूह के प्रबंधक वास्तव में उच्च और मध्य स्तरीय प्रबन्ध की योजनाओं के अनुसार क्रियाओं का निष्पादन करते हैं या कार्य करते है। उत्पादन की मात्रा, गुणवत्ता, श्रमिकों के बीच अनुशासन बनाएं रखने के लिए उत्तरदायी होते है।

प्रबन्ध के कार्य

मानव निपुणता एवं साधनों के उपयोग के लिए सामूहिक प्रयासों द्वारा अपेक्षित लक्ष्यों की कल्पना करने तथा उनको प्राप्त करने से संबंधित कार्य निष्पत्ति ही प्रबन्ध है। अर्थात प्रबंध एक विकासशील विज्ञान है, फलस्वरूप इसके कार्य बदलते रहते है। प्रबन्ध की कार्यात्मक अवधारणा के विचारकों ने इसकों प्रबन्ध करने, योजना बनाने, संगठन करने एवं नियोजित करने की समन्वित क्रिया के रूप में परिभाषित करते है। अतः संक्षेप मे प्रबन्ध अनेक कार्यों का सम्पादक करता है। इनमें कुछ मुख्य कार्य निम्नलिखित है-

नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन एवं नियंत्रण।
  • नियोजन :- "क्या करना है, कैसे करना है, कब करना है और किसके द्वारा किया जाएगा। इसके बारे में पहले से निर्णय करना। नियोजन का आशय संस्था के उद्देश्यों, नीतियों एवं कार्यक्रमों को निश्चित करने और उनकी पूर्ति के लिए कार्यविधियों का चुनाव करने से है। बिना योजना बनाये कार्य प्रारम्भ करना अनिश्चितता तथा असफलताओ को न्योता देना होता है। किसी भी व्यवसाय में चाहे वह छोटा हो या बड़ा योजना बनाना आवश्यक है। प्रबन्धको के लिए व्यवसाय के संचालन की योजना बनाना उनके प्रबन्ध कार्यों का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। क्योकि इसी के आधार पर अन्य कार्य कुशलतापूर्वक पूरे किये जा सकते है।
  • नव प्रवर्तन : आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञ नवप्रवर्तन को भी प्रबन्ध का कार्य मानते है। नवीन विचारों का सृजन ही वास्तव मे नवप्रवर्तन है। प्रबन्ध के नवप्रवर्तन संबंधी कार्य पर ड्रकर ने सबसे अधिक जोर दिया है। प्रबन्धकों को संस्था के उद्देश्य प्राप्त करने तक ही अपने कर्तव्यों की समाप्ति नही समझना चाहिए। उन्हें संस्था के विकास तथा नवीन परिवर्तन लाने पर भी जोर देना चाहिए प्रबन्धक को समय के साथ-साथ कदम मिलाकर आगे बढ़ना चाहिए तथा उसे प्रगतिशील विचारों का होना चाहिए।
  • संगठन :- क्रियाओं को संगठित करना और योजनाओं के निष्पादन के लिए संगठन के ढाँचे को स्थापित करना। नियोजन के पश्चात प्रशासन द्वारा निर्धारित नीतियों को कार्यान्वित करके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रबन्ध वर्ग संगठन की व्यवस्था करता है बिना स्वस्थ संगठन के योजनाओं को अच्छी तरह से कार्यान्वित नही किया जा सकता है। प्रबन्ध संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न क्रियाओं का निर्धारण एवं वर्गीकरण करके उन्हें करने हेतु योग्य अधिकारियों को सौंप देता है।
  • संचालन : प्रबन्ध मूलतः दूसरों से काम कराने की एक कला है। संगठन को क्रियाशील करने तथा निरंतर रखने के लिए कुशल संचालन अति आवश्यक होता है। संस्था के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रबन्ध संगठन में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक निर्देशन देता है। संचालन का उद्देश्य निर्देशन द्वारा समय, श्रम एवं पूँजी के अपव्यय को रोका जाना है।
  • निर्णय लेना : निर्णय लेना तथा नेतृत्व करना भी प्रबन्ध का कार्य है। ड्रकर ने इस संबंध में कहा है कि प्रबन्धक जो कुछ करता है, वह निर्णय लेकर करता है। व्यवसाय की स्थापना से लेकर उसके समापन तक प्रबन्धकों को अनेक निर्णय लेने पड़ते है। सामान्यतया प्रबन्धक जो भी कार्य करते है, वह निर्णय पर आधारित रहते है। संख्या के उद्देश्यों को कुशलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए विभिन्न वैकल्पिक उपायों में से सर्वोत्तम उपाय का चुनाव करना ही निर्णय लेना कहलाता है।
  • नियुक्तिकरण :- इसका अभिप्राय भर्ती करने, प्रवर्तन, वृद्धि इत्यादि का निर्णय करने, कार्य का निष्पादन, मूल्यांकन एवं कर्मचारियों का व्यक्तिगत रिकार्ड बनाए रखने से है।
  • निर्देशन :- नियुक्ति के पश्चात कर्मचारियों को सूचना. मार्गदर्शन देना. प्रेरित करना, पर्यवेक्षण करना तथा उनके साथ सम्प्रेषण करना।
  • प्रेरणा या कार्य मे प्रवृत्त करना : किसी भी संख्या को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रबन्ध को कर्मचारियों मे मन में कार्य के प्रति रूचि उत्पन्न करके उसे बढ़ाने का कार्य करना पड़ता है। इसी को प्रेरणा कहा जाता है। प्रबन्ध का यह कार्य है कि वह श्रमिकों को उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा दे। वास्तव मे प्रेरणा के आधार पर ही किसी निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। प्रेरणा के अंतर्गत कर्मचारियों के वैज्ञानिकों का चयन कार्य सिखाने, मैत्रीपूर्ण, सहयोगी एवं गतिशील वातावरण उत्पन्न करने तथा व्यक्ति को आत्मविकास के लिए प्रोत्साहन देने पर बल दिया जाता है।
  • नियन्त्रण :- वास्तविक कार्य निष्पादन की नियोजित कार्य निष्पादन के साथ मेल करना तथा अन्तर (यदि है तो) के कारणों का पता लगाकर शोधक मापो का सुझाव देना। मनुष्य से गलती होना स्वाभाविक है। किन्तु गलतियों को उचित नियंत्रण के माध्यम से न्यूनतम किया जा सकता है। नियंत्रण प्रबन्ध का अंतिम शस्त्र है। बिना नियंत्रण के प्रबंधक को यह पता नही चलता कि सारा संगठन किस दिशा मे जा रहा है। सरल शब्दों में नियंत्रण का अर्थ है ऐसे उपाय करना जिससे संस्था के व्यवसाय को योजनाओं के अनुसार चलाया जा सके और यदि उसमें कही कोई अन्तर आ जाये तो सुधारात्मक कदम उठाकर उसे योजना की दिशा में मोड़ दिया जा सके।
  • निर्देशन : सफल कर्यान्वयन के लिए श्रमिकों को समय-समय पर आदेश-निर्देश व मार्गदर्शन देना भी प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्रबन्ध दूसरों से कार्य कराने की कला है, जिसे निश्चित सीमा रेखा में बांध पाना संभव नही है, क्योकि प्रबन्ध एक ऐसा नवीन तथा विकासशील विज्ञान है, जिसके कुछ कार्यों को निश्चित कर दिया गया है तथा कुछ कार्य विकास की गति मे है तथा कुछ कार्यो का निर्धारण भविष्य की परिस्थितियो पर रहेगा। अतः प्रबन्ध के कार्यों को भी बदलती हुई परिस्थितियों के संदर्भ मे ही परिभाषित करना समीचीन होगा।
  • कर्मचारियों की नियुक्ति : प्रबन्ध संस्था के विभिन्न पदो का उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए विभिन्न अधिकारियों के चुनाव एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था करता है। ताकि निश्चित योजनाओं को क्रियान्वित किया जा सके। योग्य, कुशल एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों के बिना किसी संख्या का प्रबन्ध निष्क्रिय हो जाता है।
  • सन्देशवाहन : समाचारों का आदान-प्रदान ही संदशवाहन कहलाता है। संदेशवाहन को हम प्रबन्ध का सहायक कार्य कह सकते है। इसके माध्यम से ही प्रबन्ध अपने विचारों से अधीनस्थों को अवगत कराता है। उन्हें आदेश देता है, कार्य के आवंटन की सूचना देता है। संदेशवाहन प्रबन्ध को क्रियाशील रखता है।
  • समन्वय :- एक शक्ति जो प्रबन्ध के सभी कार्यो को सुचारू रूप से चलाती एवं एक धागे में बांध कर रखती है। किसी भी संस्था के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा नीतियों को कर्यान्वित करने के लिए विभिन्न विभागों तथा विभिन्न कर्मचारियों के कार्यो में समन्वय होना चाहिए। ई.एफ.एल. ब्रेच के अनुसार, व्यावसायिक संस्था के विभिन्न सदस्यों के मध्य इस ढंग से कार्य का आवन्टन करना कि उनमें परस्पर सहयोग एवं सद्भावना बनी रहे, समन्वय कहलाता है। समन्वय प्रबन्ध कला का जार है। प्रबन्ध का कोई कार्य क्यो न हो, चाहे नियोजन हो, संगठन हो, नियुक्ति करना हो, आदेश देना हो, सभी में समन्वय की आवश्यकता होती है।

प्रबन्ध के सिद्धान्त

प्रबन्ध के सिद्धान्त आधारभूत सत्य का कथन होते है जो प्रबन्धकीय निर्णय एवं कार्यो हेतु मार्गदर्शन करते है। ये उन घटनाओं के अवलोकन एवं विश्लेषण के आधार पर बनाये जाते है जिनका प्रबन्धकों द्वारा वास्तविक कार्य व्यवहार में सामना किया जाता है। ये मानवीय व्यवहारों से सम्बन्धित होते है अतः ये विज्ञान के सिद्धान्तों से भिन्न होते है। ये प्रबन्ध की तकनीकों से भी भिन्न होते है। जहाँ तकनीकें कार्य करने के तरीकों से सम्बन्धित होती है वही सिद्धान्त कार्यों हेतु मार्गदर्शन करते है तथा निर्णयों में सहायक होते है।

प्रबन्ध के सिद्धान्तों की प्रकृति
  1. ये सार्वभौमिक होते है क्योंकि इन्हें सभी प्रकार के संगठनों में प्रयोग किया जाता है।
  2. ये कार्य करने के लिए दिशा निर्देश होते है परन्तु ये पूर्वनिर्मित समाधान नही बताते क्योंकि वास्तविक व्यावसायिक स्थितियाँ जटिल एवं गत्यात्मक होती है।
  3. ये सिद्धान्त अनुभवों एवं तथ्यों के अवलोकन के आधार पर विकसित किए जाते है।
  4. ये लोचशील होते है जिन्हें परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित करके प्रयोग किया जा सकता है।
  5. इन की प्रकृति मुख्य रूप से व्यावहारिक होती है क्योंकि इनका उद्देश्य प्राणियों के व्यवहार को प्रभावित करना होता है।
  6. इनके द्वारा कारण एवं प्रभाव में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है तथा ये निर्णयों के परिणामों को बताते है।
  7. ये आकस्मिक होते है जिनका प्रयोग विद्यमान परिस्थिति के अनुसार किया जाता है।

प्रबन्ध के सिद्धान्तों का महत्व
ये प्रबन्धकों को उपयोगी अन्तर्दृष्टि प्रदान करते है जिससे वे विवेकपूर्ण तरीके से प्रबन्धकीय निर्णय ले सकते है।
इनकी सहायता से संगठन के मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग सम्भव होतो है।
ये प्रबन्धकों को व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक रूप से समस्या समाधान के उपाय करने में सक्षम बनाते है।
ये वातावरण की परिवर्तनीय आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होते है।
ये व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सहायता करते है।
ये प्रबन्धकीय प्रशिक्षण, शिक्षा एवं शोध हेतु आधार उपलब्ध कराते है।

टेलर का वैज्ञानिक प्रबन्ध

एफ. डब्लयू टेलर (1856-1915) एक अमेरिकी इन्जीनियर थे जिन्होंने कार्य को करने के लिए वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित नियमों को अपनाने पर बल दिया। उन्होनें कार्य को सर्वोत्तम तरीके से करने की वैज्ञानिक विधि का अध्ययन किया जिससे कार्यक्षमता एवं उत्पादन बढे तथा लागत में कमी हो सके।
वैज्ञानिक प्रबन्ध ठीक से यह जानने की कला है कि आप अपने कर्मचारियों से क्या करवाना चाहते है तथा वे कैसे कार्य को सर्वोत्तम एवं न्यूनतम लागत पर करते है।

वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त
  • विज्ञान, न कि अंगूठा टेक शासन : इस सिद्धान्त के अनुसार निर्णय तथ्यों पर आधारित होने चाहिए न की अंगूठा टेक नियमों पर अर्थात् संगठन में किये जाने वाले प्रत्येक कार्य वैज्ञानिक जाँच पर आधारित होना चाहिए न कि अन्तर्दृष्टि व निजी विचार।
  • मधुरता न कि विवाद : इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्ध एवं श्रमिकों में विश्वास एवं समझदारी होनी चाहिए। उन्हें एक-दूसरे के प्रति सकारात्मक सोच विकसित करनी चाहिए जिससे वे एक टीम के रूप में कार्य कर सके।
  • सहयोग न कि व्यक्तिवाद : यह सिद्धान्त मधुरता, न कि विवाद का संशोधित रूप है। इसके अनुसार संगठन में श्रमिकों एवं प्रबन्धकों के बीच सहयोग होना चाहिए जिससे कार्य को सरलता से किया जा सके।
  • अधिकतम कार्यक्षमता एवं श्रमिकों का विकास : टेलर के अनुसार श्रमिकों का चयन कार्य की आवश्यकता के अनुसार क्षमता एवं योग्यता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए तथा उनकी कार्यक्षमता एवं कुशलता बढ़ाने हेतु उन्हें उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

वैज्ञानिक प्रबन्ध की तकनीके

क्रियात्मक फौरमैनशिप
इस का उद्देश्य विशेषज्ञ फोरमैन नियुक्त करके श्रमिकों के पर्यवेक्षण की गुणवत्ता बढ़ाना है। उनके अनुसार नियोजन को निष्पादन से अलग रखना चाहिए तथा नियंत्रण हेतु आठ फोरमैन होने चाहिए जिनमें से चार नियोजन विभाग तथा चार उत्पादन विभाग के अधिन होने चाहिए। इन सभी के द्वारा प्रत्येक श्रमिक का पर्यवेक्षण करना चाहिए जिससे श्रमिकों के कार्य की गुणवत्ता बढ़ सके।

कार्य का मानकीकरण एवं सरलीकरण
कार्य के मानकीकरण का आशय मानक उपकरणों, विधियों, प्रक्रियाओं को अपनाने तथा आकार, प्रकार, गुण, वचन, मापों आदि को निर्धारित करने से है। इससे संसाधनों की बर्बादी कम होती है तथा कार्य की गुणवत्ता बढ़ती है। कार्य को उत्पाद की अनावश्यक विविधताओं को समाप्त करके सरल बनाया जा सकता है।

विधि अध्ययन
यह एक कार्य को करने की विधियों से सम्बन्धित होता है। इसके अन्तर्गत उत्पादन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है जिससे कार्य को करने की सर्वोत्तम विधि का पता लगाया जा सके।

गति अध्ययन
इसके अन्तर्गत कार्य को करने में कर्मचारी की गतियों का अध्ययन किया जाता है ताकि उनकी अनावश्यक गतियों को रोका जा सके।

समय अध्ययन
यह तकनीक कार्य को करने में लगने वाले मानक समय का निर्धारण करने में सहायता करती है।

थकान अध्ययन
इससे यह तय किया जाता है कि मध्यान्तर कितनी बार एवं कितने समय के लिए हो ताकि कर्मचारी उचित प्रकार से कार्य कर सके।

विभेदात्मक कार्य मजदूरी प्रणाली
यह मजदूरी भुगतान की ऐसी विधि है जिसमें श्रमिकों को उनकी कार्यक्षमता के अनुसार भुगतान किया जाता है। मानक स्तर तक या अधिक कार्य करने वाले श्रमिकों को अधिक तथा मानक स्तर से कम कार्य करने वाले श्रमिकों को कम पारिश्रमिक मिलता है।

मानसिक क्रांति
इसके द्वारा श्रमिकों व प्रबन्धकों की एक-दूसरे के प्रति सोच को बदलने पर जोर दिया गया हैं। जिससे संगठन में परस्पर विश्वास की भावना उत्पन्न हो सके तथा उत्पादन को बढ़ाया जा सके।

फेयोल के प्रबन्ध सिद्धान्त
फेयोल को आधुनिक प्रबन्ध सिद्धान्त का जनक माना जाता है इनके द्वारा प्रबन्ध के 14 सिद्धान्त दिए गए है जिन्हें सभी प्रकार के प्रशासनिक कार्यों तथा आर्थिक, वैज्ञानिक या राजनीतिक मानवीय गतिविधियों में सामान्य रूप से लागू किया जा सकता है। फेयोल द्वारा दिए गए 14 सिद्धान्त निम्नलिखित है।

कार्य का विभाजन
कार्य को छोटे-छोट भागों में बाँट कर, व्यक्तियों को उनकी योग्यता, क्षमता एवं अनुभवों के आधार पर दिया जाता है। बार-बार एक ही कार्य को करने से कर्मचारी उसमें वि प्राप्त कर लेता है परिणामस्वरूप उसकी कार्यक्षमता बढ़ती है।

अधिकार एवं उत्तरदायित्व
प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व सह-सम्बन्धित है। अधिकार का आशय निर्णय लेने की शक्ति से है तथा उत्तरदायित्व का आशय कार्य के सम्बन्ध में दायित्व से है। उत्तरदायित्व , अधिकार का स्वाभाविक परिणाम है। पर्याप्त अधिकार देकर अधीनस्थों से कार्य को प्रभावी रूप से कराया जा सकता है।

अनुशासन
अनुशासन का आशय संगठन की व्यवस्थित कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से चलाने के लिए संगठन के नियमों का पालन करने से है। एक संगठन को उचित प्रकार से चलाने के लिए अनुशासन अत्याधिक आवश्यक होता है। यह कार्यक्षमता बढ़ाने में भी सहयोग करता है।

आदेश की एकता
इस सिद्धान्त के अनुसार अधीनस्थ को केवल एक वरिष्ठ से आदेश प्राप्त होने चाहिए तथा उसी के प्रति उसे जवाब देय होना चाहिए। इससे उत्तरदायित्व निर्धारण में भी सहायता मिलती है।

निर्देश की एकता
यह सिद्धान्त कार्य की एकता तथा समन्वय को सुनिश्चित करता है। इसके अनुसार समान गतिविधियों को एक ही समूह में रखना चाहिए तथा उनके कार्य की एक ही योजना होनी चाहिए।

सामूहिक हित से व्यक्तिगत हित का कम महत्व होना
व्यावसायिक उद्यम व्यक्तिगत कर्मचारियों से अधिक महत्वपूर्ण होता है इसलिए व्यावसायिक संगठन के हित को व्यक्तियों के निजी हितों से ऊपर माना जाना चाहिए।

कर्मचारियों का पारिश्रमिक
इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मचारियों को उचित वेतन दिया जाना चाहिए जिससे वे सन्तुष्ट हो सके तथा अधिकतम कार्य कर सके।

केन्द्रीयकरण एवं विकेन्द्रीकरण
केन्द्रीयकरण के अन्तर्गत महत्वपूर्ण निर्णय उच्च प्रबन्धकों द्वारा किए जाते है जबकि विकेन्द्रीकरण के अन्तर्गत निर्णय लेने का अधिकार निम्नस्तर तक फैला होता है। इनके बीच उचित संतुलन होना चाहिए।

सोपान श्रृंखला
यह प्राधिकार की रेखा है जो आदेश की श्रृंखला तथा संदेशवाहन की श्रृंखला के रूप में कार्य करती है। उच्च स्तर से दिये गये निर्देश तथा आदेश मध्य स्तर के माध्यम से निम्न स्तर पर पहुँचते हैं। इस श्रृंखला का उपयोग करने से संगठन में आदेश की एकता आती है तथा दोहरे आदेशों के भ्रम से छुटकारा मिलता है।

उचित व्यवस्था
इस सिद्धान्त के अनुसार सही कार्य पर सही व्यक्ति को होना चाहिए इससे कार्यक्षमता तथा संसाधनों का प्रभावी उपयोग होता है।

समता
कर्मचारियों के साथ न्याय, उदारता, मैत्रीपूर्ण एवं समानता का व्यवहार करना चाहिए जिससे इन का अधिकतम योगदान प्राप्त हो सके।

कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थायित्व
इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मचारियों के कार्यकाल में स्थायित्व होना चाहिए। उन्हें बार-2 पद से नही हटाया जाना चाहिए तथा उन्हें कार्य की सुरक्षा का विश्वास दिलाया जाना चाहिए ताकि उनका अधिकतम योगदान मिल सके। 

पहल
पहल का आशय कोई कार्य किये जाने की आज्ञा लेने से पूर्व कुछ करने से लगाया जाता है। कर्मचारियों को सभी स्तरों पर सम्बन्धित कार्य के बारे में पहल करने की अनुमति होनी चाहिए। इससे वे प्रेरित एवं सन्तुष्ट होते है।

सहयोग की भावना
इसका आशय सामूहिक प्रयासों में तालमेल तथा परस्पर समझदारी से है। इससे कर्मचारियों में सुदृढ़ता आती है। इसे उचित संदेशवाहन एवं समन्वय से प्राप्त किया जा सकता है।

टेलर तथा फेयोल के सिद्धान्तों में अन्तर
टेलर ने मुख्य रूप से कार्य, श्रमिकों एवं पर्यवेक्षको के सम्बन्ध में सुझाव दिये है जबकि फेयोल ने प्रशासन या प्रबन्धकों की कार्यक्षमता के बारे में सुझाव दिये है।
  • टेलर ने कार्य एवं उपकरणों के मानकीकरण पर अधिक बल दिया है जबकि फेयोल ने सामान्य प्रबन्ध के सिद्धान्तों तथा प्रबन्धकों के कार्यों पर अधिक बल दिया है।
  • टेलर ने "वैज्ञानिक प्रबन्धा" पदों की अभिव्यक्ति की है जबकि फेयोल ने "प्रशासन के सामान्य सिद्धान्तों" की अभिव्यक्ति की है।

प्रबन्ध की पोस्डकॉर्ब तकनीक

वर्तमान युग प्रबन्ध आधारित है। बिना सुनियोजित प्रबन्ध के कोई भी संगठन न तो अपने संसाधनों का उपयोग कर पाता है और न ही अपने उद्देश्यों की प्राप्ति। अतः प्रबन्ध अनिवार्य है लेकिन 'प्रबन्ध' के अंतर्गत कौन-कौन से कार्यो को सम्मिलित किया जाये, इस पर विद्वानो मे मतैक्य नही है, क्योकि विभिन्न विद्वानो द्वारा प्रबन्ध के भिन्न-भिन्न कार्य बतलाये गये है। इन सभी में अत्याधिक चर्चित एवं मान्य दृष्टिकोण लूथर गुलिक द्वारा प्रतिपादित 'POSDCORB' शब्दावली है। अर्थात प्रबन्धकीय कार्यों को व्यवस्थित एवं पूर्णता प्रदान करने के लिए लूथर गुलिक ने समस्त प्रबन्धकीय कार्यो/प्रक्रियाओं को 'पोस्डकॉर्ब' मे समायोजित करने की चेष्टा की है, जो अत्यधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
'POSDCORB' शब्द अंग्रेजी के सात अक्षरों के मेल से निर्मित किया गया जो सात शब्दों के प्रथम अक्षर के द्योतक है। जो संक्षेप मे नियोजन, संगठन, कार्मिक, निर्देशन, समन्वय, प्रतिवेदन तथा बजट कार्यो को क्रियात्मक रूप में वर्णित करता है। वस्तुतः पोस्डकॉर्ब किसी कार्यपालन अधिकारी/प्रबन्धक द्वारा किए जाने वाले कार्यो को बताता है। इनकी व्याख्या निम्न प्रकार है

P-Plannig (योजना बनाना)
प्रत्येक संगठन में कार्यकुशलता रखने के लिए संसाधनों का समुचित उपयोग आवश्यक है। अतः इस हेतु समयानुरूप योजना की रूप रेखा, निर्माण तथा कार्यनीति का निर्धारण करना ही नियोजन है।

O-Organisin (संगठित करना)
इसका तात्पर्य संगठन निर्माण नही बल्कि उद्देश्यनुरूप कार्यो तथा प्रक्रियाओं का व्यवस्थिकरण है जिससे कि समस्त मानवीय एवं भौतिक संसाधनों को उपयोग में लाया जा सके।

S-Staffing (कार्मिकों की व्यवस्था करना)
सांगठनिक, आवश्यकतानुरूप कार्मियों की भर्ती, प्रशिक्षण, वर्गीकरण, वेतन, पदोन्नति स्थानांतरण आदि कार्य इसमें आते है।

D-Directing (निर्देश देना)
प्रक्रिया के व्यवस्थित संचालन हेतु उच्च अधिकारी द्वारा समय-समय पर अधीनस्थ को निर्देशित किया जाता है।

C-Co-ordination (समन्वय करना)
सांगठनिक एक रूपता को बनाये रखने तथा कार्यो मे जटिलता, बिखराव, अतिराव तथा इनसे आने वाली समस्याओं को रोकने हेतु या कम करने हेतु समन्वय आवश्यक है।

R-Reporting (प्रतिवेदन देना)
उच्च एवं अधीनस्थों के मध्य समन्वय बनाये रखने तथा संगठन को प्रगति शील बनाये रखने हेतु निम्न से शीर्ष की ओर प्रतिवेदन प्रेषित करना आवश्यक है।

B-Budgeting (बजट बनाना)
समस्त प्रबंधकीय प्रक्रियाओं का संचालन वित्त पर निर्भर करता है अतः बजट निर्माण द्वारा आय-व्यय का आंकलन करना आवश्यकह है।

अतः गुलिक द्वारा दर्शायी गयी इन प्रबंधकीय प्रक्रियाओं का उपयोग सभी प्रकार के संगठन में देखा जा सकता है। किन्तु इन का अनिवार्यतः होना ही आवश्यक नही है बल्कि ये तो प्रबन्धन का विश्लेषण मात्र है।

आलोचना
POSDCORB दृष्टिकोण की सर्वस्वीकार्यता के बावजूद इसकी कुछ सीमाएं भी है, जो निम्न प्रकार है- 
  • प्रबन्ध के समस्त आयामों को पूरा नही करता क्योकि इसमे नीति निर्माण, कानून निर्माण, निर्णयन, जनसम्पर्क जैसी प्रमुख प्रक्रियाओं का वर्णन नही है।
  • प्रबन्धन की पोस्डकॉर्ब प्रक्रियाएं सभी प्रकार के समूहों जैसे परिवार, दुकान, मित्रसमूह आदि में देखी जा सकती है। अतः यह विशिष्ट तकनीक नही कही जा सकती बल्कि एक सामान्य अवधारणा मात्र है।
  • प्रबंधन का मूल उद्देश्य मितव्ययिता एवं दक्षता के साथ लोकहित एवं कल्याणकारी कार्यो को पूरा करना है जिनका उल्लेख POSDCORB में नही है।
  • मानव संबंधी विचारको के दृष्टिकोण मे पोस्डकॉर्ब मात्र निर्जीव मशीनीय तंत्र मात्र है। जहां मानवीय संवेदनाओ की अवेहलना की गयी है। जबकि प्रक्रियाओं का संचालन एक कला है जहां मानव के सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक व्यवहार को देखा जा सकता है।
  • लेविस मेरियस ने कहा कि यह सिद्धांत अत्यन्त स्वेच्छाचारी, काल्पनिक एवं संकुचित है, जिसमें प्रशासन के वास्तविक तत्वों को कोई स्थान नही दिया गया है।
निष्कर्षत : कहा जा सकता है कि 'पोस्डकॉर्ब' 'प्रबन्ध' के संकुचित दायरे की व्याख्या करता है। और इसे पूर्ण नही माना जा सकता साथ ही इसे मशीनीकृत दृष्टिकोण की संज्ञा दी जाती है जो मानवीय तत्व की अवहेलना करता है। बावजूद इसके यह आज भी 'प्रबन्ध' कार्यो का आधार बना हुआ है, जिसकी पुष्टि एवं महत्व इसके सतत् प्रयोग से सिद्ध हो जाती है। अतः यह प्रबन्ध का महत्वपूर्ण उपकरण है।

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध (एम.बी.ओ.) तकनीक

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध का संक्षिप्त नाम एम.बी.ओ. है। यह एक अमेरिकी अवधारणा है जिसके प्रतिपादक पीटर एफ. ड्रकर माने जाते है। एम.बी.ओ. आधुनिक प्रबन्ध की एक तकनीक या एक दर्शन या एक उपागम के रूप में लोकप्रिय हो चुका है। प्रबन्ध चिन्तन के पितामह पीटर एफ. ड्रकर ने अपनी पुस्तक The Practice of Management के माध्यम से एम.बी.ओ. दर्शन की ओर लोगों का ध्यान अपनी ओर खीचा तथा इसे स्वनियंत्रण के साथ जोड़ते हुए स्पष्ट किया कि किसी भी संगठन के अन्दर कार्यरत श्रमिको द्वारा किए जाने वाले सभी कृत्यों का सीधा संबंध उस संगठन के व्यावसायिक लक्ष्यों की ओर होना चाहिए।
"एम.बी.ओ. एक व्यापक प्रबन्ध की व्यवस्था है, जो बहुत-सी मुख्य प्रबन्धकीय गतिविधियों को व्यवस्थित ढंग से एकीकृत करती है। ऐसा संगठनात्मक उद्देश्यों की प्रभावी तथा कुशलतापूर्वक प्राप्ति के लिए चेतनापूर्ण निर्देशन के द्वारा किया जाता है।" इस प्रकार उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध वह तकनीक है जो संगठन के सभी प्रयासों को लक्ष्य प्राप्ति की ओर निर्देशित करती है।।
एम.बी.ओ. वह दर्शन या उपागम है जो यह निश्चित करता है कि संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति मे कार्मिकी के कार्यो तथा गतिविधियों को कैसे जोड़ा जाए। एम.बी.ओ. का दर्शन इस तथ्य पर आधारित है कि प्रत्येक कार्मिक विशेषतया उच्चा प्रबन्धकों को यह बोध हो कि उसके संगठन के लक्ष्य उससे किस प्रकार के कार्य निष्पादन की अपेक्षा करते है।

M.B.O. की विशेषताएं
  • इसके उपक्रम का लक्ष्य तथा उसके अनुरूप विभिन्न विभागों के लिए लक्ष्य निर्धारित किये जाते है।
  • यह प्रबन्ध की विचारधारा, दृष्टिकोण या उपागम के साथ-साथ एक दर्शन है।
  • इसमें प्रत्येक प्रबन्धक का निष्पादन स्तर इस प्रकार से निश्चित किया जाता है कि वह संस्था के मूल उद्देश्यों की पूर्ति मे सहायक हो।
  • इसमें प्रत्येक प्रबन्ध के निष्पादन का मूल्यांकन उसके लिए निर्धारित लक्ष्यो के संदर्भ मे किया जाता है।
  • यह उपागम, संगठन के आन्तरिक नियंत्रण, एकीकरण सहित कार्मिकों के लिए स्वनियंत्रण का कार्य भी करता है। उद्देश्यों का निर्धारण सभी कार्मिक यथा संचालक, प्रबन्धक, सहायक प्रबन्धक व अधीनस्थ मिलकर करते है, अतः यह सहभागिता  पर आधारित तकनीक है।

M.B.O. के क्रियान्वयन हेतु निम्न चरण है-

उद्देश्य निर्धारण
चूंकि- मिशन (Mission) लक्ष्य (Aim), उद्देश्य (Objective), प्रायोजन (Purpose) ये शब्द समानार्थक के रूप में अपनाये जाते है किन्तु इनका अर्थ भिन्न होता है। अतः लक्ष्य अंतिम उद्देश्य है जबकि उद्देश्य-इकाई उद्देश्य के रूप में है। अतः लक्ष्य को प्राप्त करने तथा प्रभावी प्रबंधन हेतु उद्देश्य SMART होना चाहिए।
S = Specific (विशिष्ट)
M = Measurable (नापा या मापा जा सके)
A = Attainable (प्राप्त किया जा सकें)
R = Realistic (वास्तविकता का पुट हो)
T = Time bound (समयबद्ध हो)

महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान
परिणामों या प्रभावशीलता के आंकलन हेतु क्षेत्र विशेष को इंगित करना जैसे- लाभ देयता, गुडविल, नवाचार, उत्पादकता, संसाधन, गुणवत्ता, मूल्य सूचकांक, आदि। इनके आधार पर ही आगामी रणनीति का निर्माण संभव है।

अधीनस्थो हेतु उद्देश्यों का निर्धारण
संगठन के प्रत्येक स्तर पर कार्मिक एवं प्रबंधकों के उद्देश्यों (इकाई) का समायोजन ही अंतिम उद्देश्य या परिणाम होता है। अतः शीर्षस्थ एवं अधीनस्थ की सहमति के आधार पर इनका निर्माण किया जाता है।

संसाधन
उद्देश्य निर्धारण के पश्चात मानवीय एवं भौतिक संसाधनों को जुटाना एवं व्यवस्थित करना ताकि उद्देश्य प्राप्ति सुगम हो सके।

परिणामों (उद्देश्यों) की समीक्षा एवं मूल्यांकन
इसमें समय-समय पर की जाने वाली मीटिंग एवं मॉनिटरिंग आदि आते है। जिससे प्रक्रिया में आने वाली व्यवहारगत त्रुटियां एवं समस्याओं को दूर किया जा सके।

पुनर्चक्रीकरण या प्रतिपुष्टि (Recycling or Feedback)
लक्ष्य की प्राप्ति एवं नये लक्ष्यों के निर्धारण एवं उनकी सफलता का यह क्रम निरंतर चलता रहता है। इसी दौरान प्राप्त निष्कर्षों को उच्च स्तरों पर प्रेषित कर उनमें सुधार की गुंजाइश या प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जाती है जिसे प्रतिपुष्टि कहा जाता है।
यदि M.B.O. तकनीक का विशेषलण किया जाए तो ज्ञात होता है कि यह महज लक्ष्य प्राप्ति का साधन न रह कर, संगठनात्मक परिवर्तन एवं विकास का आधार बनाता है जो संगठन की साख के रूप में जाना जाता है। किन्तु इसकी कुछ सीमाएं भी है क्योकि इसक उपयोग मे अधिक समय, श्रम तथा बौद्धिकता की आवश्यकात होती है। जो हर समय संभव नही हो पाता है। यही नही समय-समय पर किया जाने वाला मूल्यांकन अधीनस्थों के मनोबल को गिरता है तथा उनकी कार्यबल (working spirite) पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। लम्बे समय से संगठन के साथ जुड़े कार्मिक भी संगठन के लक्ष्य एवं उद्देश्यों में अन्तर नही कर पाते है तथा व्यावहारिक पक्ष को कमजोर बनाते है।
उपरोक्त कमियो या सीमाओं के बावजूद भी इसका महत्व कम करना प्रबन्ध की इस महत्वपूर्ण तकनीक के साथ अन्याय होगा, क्योकि M.B.O. ऐसी अवधारणा है जिसमें संगठन के लक्ष्यों और उद्देश्यों को निर्धारित व निश्चित करने के लिए सामूहिक प्रयास किया जाता है, परिणाम स्वरूप कुशलता, उत्पादन, निष्पादन, प्रभावशीलता, स्पष्टता तथा सन्तुष्टि मे वृद्धि होने के अतिरिक्त संगठनात्मक परिवर्तन एवं विकास का आधार भी बनता है। अतः समय एवं परिस्थिति के अनुरूप उद्देश्यपूर्ण व प्रभावी के साथ-साथ एक व्यावहारिक प्रविधि भी सिद्ध हुई।

कुशल प्रबन्ध की कसौटियां क्या है?

आधुनिक कल्याणकारी राज्य में सरकार अधिकतम संख्या में अधिकतम कल्याण के लिए' बहुत से कार्य अपने हाथ मे लेती है जिसके परिणामस्वरूप इसका प्रबंधकीय क्षेत्र लगातार बढ़ रहा है। इस निपुण प्रबंध को कुशल प्रबंध कहा जाता है। समस्या यह है कि प्रबंध को इस निपुणता या कुशलता का परीक्षण कैसे किया जाए इस संदर्भ में निम्नलिखित कसोटियों के आधार पर कुशल प्रबंध का परीक्षण कर सकते है

संतोषजनक
सेवा संतोषजन सेवा से अभिप्राय न्यायोचित सेवा है अर्थात सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार। इसमें प्रबंध द्वारा उपलब्ध की जा रही किसी भी सेवा में किसी भी आधार पर भेदभाव नही किया जा सकता। इसमें समय पर सेवा उपलब्ध होनी चाहिए, पर्याप्त सेवा अर्थात सभी नागरिकों के लिए ठीक समय पर ठीक मात्रा में सप्लाई होनी चाहिए, लगातार सेवा अर्थात सहायता की अपेक्षा रखने वाले नागरिकों को सदा उपलब्ध सेवा इसमें प्रगतिशील सेवा अर्थात वह सेवा जो गुणात्मक दृष्टि से सुधार रही है।

उत्तरदायी निष्पादन
कुशल प्रबन्ध को निरंकुशता से बचना तथा प्रत्येक कार्य करते समय अपने उत्तरदायित्वों को ध्यान में रखना चाहिए। यह उत्तरदायित्व समाज के प्रति, शीर्ष अधिकारियों के प्रति नागरिकों के प्रति या विधायकों के प्रति हो सकते है।

तकनीकी उत्कृष्टता
एक कुशल प्रबंध को सदैव उन्नत तकनीकी के प्रयोग पर ध्यान देना चाहिए क्योकि तभी संगठन सामयिक एवं प्रासंगिक बना रह सकता है।

दक्षता
दक्षता के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के गुण जैसे कार्य में शीघ्रता, मितव्ययिता, उचित प्रक्रिया, साधनों का अधिकतम प्रयोग व मानव संतोष को प्राथमिकता आदि आते है।

निरंतरता
अर्थात प्रतिकूल परिस्थितियों यथा वर्षा, हिमपात, रात्रि दूर-दुर्गम, भौगोलिक विस्तार आदि अवरोधों को पार करते हुए संगठन को कार्य करना चाहिए।
मिलेट संतोषजनक सेवा व समय पर सेवा को सुप्रबंध की कसौटी मानते है। उन्होने तीन कसौटियों बताई है
  • संतोषजनक सेवा।
  • उत्तरदायित्व का पूर्ण निष्पदन।
  • उत्तम शासन जो उपयुक्त है।

गुलिक ने अच्छे प्रबन्ध की तीन कसोटियो का उल्लेख किया है-
  • तकनीकि रूप से कार्य संचालन को व्यवस्थित करना।
  • राजनीतिक उत्तरदायित्व निर्धारित करना।
  • जनता को स्वीकार्य तथा व्यावसायिक रूप से अनुमोदित एवं सामाजिक रूप से अनुमोदित व रचनात्मक कार्यों को प्राथमिकता देना।
इस प्रकार उक्त कसौटियों कुशल प्रबंध के लिए निर्णायक आधार प्रदान करती है। इनके आधार पर हम प्रबन्ध की कुशलता का परीक्षण अधिक तार्किक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से कर सकते है।

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