संयुक्त राष्ट्र संघ - स्थापना, उद्देश्य, सदस्यता, सिद्धान्त, संरचनात्मक स्वरूप | sanyukt rashtra sangh

संयुक्त राष्ट्र संघ

प्रथम विश्व युद्ध के भीषण नर-संहार के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना की गयी। इसकी स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा सद्भावना की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के प्रयत्न से अन्तर्राज्य विवादों का समाधान करने, आक्रामक कार्रवाइयों के विरूद्ध सदस्य राज्यों को सुरक्षा प्रदान करने, युद्ध को रोकने तथा विश्व शान्ति कायम रखने की विस्तृत व्यवस्था की गयी थी। राष्ट्र संघ के प्रेरणा स्रोत, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने इसके विधान को 'शान्ति का विधान' और 'शान्ति की निश्चित गारंटी' माना।
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दक्षिणी अफ्रीका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जनरल एभट्स ने राष्ट्र संघ के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों और संस्थाओं में आन्तरिक रूपान्तर की आशा व्यक्त की। लेकिन ये सभी आशाएँ आदर्श-मात्र बनकर रह गयीं। जैसे-जैसे समय बीतता गया और परीक्षा की घड़ी आयी, राष्ट्र संघ एक शक्तिहीन संस्था साबित हुई।
इसके आदर्शों की अवहेलना कर जापान ने मंचूरिया पर और इटली ने अबीसीनिया पर आक्रमण किये, परन्तु राष्ट संघ उनके विरूद्ध कछ भी नहीं कर सका। उसकी निष्क्रियता तथा शक्तिहीनता से तानाशाही शासकों जिन्हें राष्ट्र संघ के उच्च आदर्शों में विश्वास नहीं था, की महत्त्वाकांक्षाओं को काफी बल मिला। वे मनमानी करने लगे। उनकी आक्रामक नीतियों का परिणाम यह हुआ कि 1939 में द्वितीय महायुद्ध का प्रारम्भ हुआ। राष्ट्रसंघ जिसका उद्देश्य विश्व को भावी युद्ध से बचाना था, द्वितीय महायुद्ध को रोकने में असफल रहा और महायुद्ध ने इस संख्या के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया।

इस प्रकार शांति-स्थापना के लिए राष्ट्र संघ के रूप में मानव का प्रथम प्रयास असफल हो गया। परन्तु इसकी असफलता से अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की उपयोगिता में अनास्था उत्पन्न नहीं हुई। यदि ऐसी बात होती तो महायद्ध के प्रारम्भ होते ही अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना के सारे प्रयास बन्द हो जाते। परन्तु जैसा कि गुड्स-पीड ने लिखा है : “अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के माध्यम से शांति और सुरक्षा की स्थापना की खोज द्वितीय महायुद्ध प्रारम्भ होते ही समाप्त नहीं हुई। वरन् युद्ध ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता को और भी व्यापक आधार प्रदान किया।" द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विश्व के समक्ष अनेक विकट समस्याएँ थीं परन्तु शांति की स्थापना की समस्या उनमें सबसे अधिक विकट थी। शांति स्थापित करने तथा उसके लिए स्थायी व्यवस्था करने का कार्य वैसे ही कठिन होता है परन्तु द्वितीय महायुद्ध के बाद यह काम और भी कठिन हो गया था।

अब तक इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर विध्वंसक युद्ध नहीं लड़ा गया था। इसमें आधुनिकतम तथा विनाशकारी अस्त्र शस्त्रों का इतना व्यापक स्तर पर प्रयोग हुआ था और उसके चलते दोनों पक्षों को जितनी हानी हुई थी, उसका अनुमान लगाना बड़ा कठिन है। इस कटु तथ्य ने विचारशील व्यक्तियों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि यदि स्थावी शांति स्थापित करने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया तो एक दिन सम्पूर्ण विश्व का अन्त हो जायेगा तथा मानवसभ्यता और संस्कृति अतीत की गाथा बन जायेगी। उनकी समझ में इस स्थिति से बचने का केवल एक ही उपाय था- शांति कायम रखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना करना।

परन्तु राष्ट्र संघ के अनुभव से यह ज्ञात हो गया था कि अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुव्यवस्था के लिए न केवल सामूहिक सुरक्षा-व्यवस्था आवश्यक है वरन् सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग भी आवश्यक है। अत: एक ओर विश्वयुद्ध को रोकने तथा शांति को कायम रखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता अनुभव की गयी, वहीं दूसरी ओर उस संगठन के द्वारा ऐसी परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक समझा गया जो विश्व शांति को ठोस आधार देने में सहायक हों। युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इसी अनुभव तथा कल्पना का परिणाम थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ऐसे समय में हुई जब द्वितीय महायुद्ध अपने भीषणतम रूप में सारे विश्व को आतंकित कर रहा था। जर्मनी, इटली और जापान धुरी-राष्ट्रों की सम्मिलित शक्ति का सामना करने में ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य मित्र राष्ट्रों की सारी शक्ति लगी हुई थी। यह युद्ध केवल कुछ राष्ट्रों की प्रतिष्ठा के लिए ही नहीं लड़ा जा रहा था। धुरी राष्ट्रों की बढ़ी हुई सैनिक शक्ति वास्तव में प्रजातन्त्र और मानव अधिकारों के लिए संकट थी। इस युद्ध में यदि धुरी-राष्ट्रों की विजय होती तो निश्चत ही समस्त विश्व पर उसका व्यापक प्रभाव पड़ता और सम्भव है स्वाधीनता और प्रजातन्त्र के ऊँचे आदर्शों को भारी आघात पहुंचता।

26 जून, 1945 को सेनफ्रांसिस्को में 50 देशों के प्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर किये और इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई।

परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना एकाएक हो गयी। वास्तव में यह वर्षों के विचार-विमर्श के बाद अस्तित्व में जैसाकि चेज ने लिखा है "किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते का निर्माण उतनी सावधानी के साथ नहीं किया गया था जितना संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का।" युद्ध के प्रारम्भ होते ही इसकी रचना के सम्बन्ध में विचार-विमर्श प्रारम्भ हो गया था। जैसे-जैसे युद्ध की भीषणता बढ़ती गयी वैसे-वैसे इस कार्य में तीव्रता आती गयी।
इस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के ध्येयों को स्पष्ट करने के लिए सरकारों द्वारा अनेक सम्मेलन बुलाये गये जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

लंदन की घोषण
12 जून, 1941 को मित्र राष्ट्रों द्वारा एक घोषणा की गयी। चूंकि यह घोषणा लंदन में हुई थी, इसलिए इसे लंदन-घोषणा के नाम से जाना जाता है । इस घोषणा में भावी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के ध्येयों की ओर संकेत किया गया था। लंदन के सेन्ट जेम्स पैलेस में ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, चेकोस्लोवाकिया, ग्रीस, लक्जमबर्ग नीदरलैंड, नार्वे, पोलैंड, युगोस्लाविया तथा फ्रांस ने मिलकर इस घोषणा पर हस्ताक्षर किये।
इस घोषणा में निम्नलिखित दो बातों का उल्लेख था-
  1. स्थायी शांति का सही आधार है विश्व के स्वतन्त्र जनसमूहों में ऐच्छिक सहयोग-एक ऐसे विश्व में जो संघर्षों से रहित हो तथा जहाँ सभी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का उपयोग कर सकें।
  2. यह भी कहा गया कि घोषणा करने वाले राज्य आपस में तथा अन्य स्वतन्त्र लोगों के साथ युद्ध या शांति दोनों में मिलकर कार्य करें।
इस प्रकार चिरस्थायी शांति स्थापित करने का एकमात्र आधार स्वतन्त्र राष्ट्रों के सहयोग को माना गया।

एटलांटिक चार्टर
एक नयी विश्व-संस्था की स्थापना की दिशा में प्रथम प्रयास 14 अगस्त, 1941 को एटलांटिक घोषणा द्वारा उठाया गया। 9 अगस्त, 1941 को राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल को सुझाव दिया कि वे मिलकर एक घोषणा करें जिसमें कुछ व्यापक सिद्धान्तों का उल्लेख हो जो उनकी नीतियों को निर्देशित करें। 12 अगस्त, 1941 को रूजवेल्ट और चर्चिल, एटलांटिक महासागर में एक युद्धपोत पर मिले। आपस में विचार-विमर्श के बाद उन्होंने एक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये। 14 अगस्त, 1941 को उसकी घोषणा की गयी। यही घोषणा-पत्र एटलांटिक-चार्टर के नाम से विख्यात हुआ। एटलांटिक चार्टर एक सामान्य सिद्धान्तों की घोषणा थी जिन पर सुनहरे भविष्य की आशा आधारित थी।
एटलांटिक-चार्टर में एक प्रस्तावना और आठ खण्ड थे, जिनका उल्लेख निम्नलिखित रूप से किया जा रहा है-
  1. ब्रिटेन और अमेरिका अपना प्रादेशिक या अन्य प्रकार का विस्तार नहीं चाहते।
  2. वे विश्व में ऐसे क्षेत्रीय परिवर्तन देखना नहीं चाहते जो वहाँ की जनता की इच्छा के विरूद्ध हो।
  3. वे प्रत्येक राष्ट्र को अपनी शासन-प्रणाली चुनने के अधिकार के पक्ष में है। वे यह देखना चाहते है कि जिन राज्यों की स्वतन्त्रता छीन ली गयी है, उन्हें पुन: वापिस मिल जाय।
  4. वे यह प्रयत्न करेंगे कि सभी छोटे-बड़े राष्ट्रों को आर्थिक समृद्धि के लिए आवश्यक व्यापार और कच्चे माल की सुविधाएं समान रूप से प्राप्त हों।
  5. वे विश्व के सब देशों में आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहते हैं जिसके द्वारा श्रमिक स्तर, आर्थिक विकास और सामाजिक सुरक्षा बनी रहे।
  6. नाजी आक्रमण तथा अत्याचार के समाप्त होने के उपरांत वे ऐसी शांति-व्यवस्था देखना चाहते है, जिसमें सब राष्ट्रों की जनता अपने क्षेत्रों में भली प्रकार रह सके। उन्हें किसी प्रकार का भय न रहे तथा उनकी दैनिक आवश्यकताएँ भली प्रकार से पूरी हो सकें।
  7. वे ऐसी शांति-व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं जो सभी अन्तर-राज्यों को महासागरों और समुद्रों पर निर्बाध विचरण की स्वतन्त्रता प्रदान करे।
  8. वे चाहते हैं कि विश्व के सब राष्ट्रों को शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एक स्थायी सामान्य सुरक्षा की स्थापना के लिए निरस्त्रीकरण आवश्यक है।
एटलांटिक चार्टर द्वितीय महायुद्धकाल की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घोषणा थी। वेन्डेनबोश तथा होगन ने एटलांटिक चार्टर को "संयुक्त राष्ट्र संघ के सृजन में प्रथम पग कहा है।"

संयुक्त राष्ट्र घोषणा
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की दिशा में दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम संयुक्त राष्ट्र की घोषणा के रूप में उठाया गया। यह घोषणा 1 जनवरी, 1942 ई. को की गयी थी। यह युद्धकाल की दूसरी महत्त्वपूर्ण घोषणा थी। वेन्डेनबोश तथा होगन ने ठीक ही लिखा है  कि "यदि एटलांटिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थापित करने में प्रथम पग था तो 1 जनवरी, 1942 की संयक्त राष्ट्र संघ घोषणा दूसरा पग।" इस घोषणा पर 26 राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किये थे। इस घोषणा में एटलांटिक चार्टर के सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया गया था। इसमें यह प्रतिज्ञा की गयी थी कि घोषणा पर हस्ताक्षर करने वाली सरकारें कभी भी धुरी राष्ट्रों के साथ सन्धि नहीं करेंगी और उनके विरूद्ध अपनी सारी शक्ति लगा देंगी। इस प्रकार धुरी राष्ट्रों के विरूद्ध लड़ने वाले राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र की संज्ञा दी गयी। गेटेल ने ठीक ही लिखा है कि "जब मित्र राष्टों को यह विश्वास हो गया कि धुरी राष्ट्रों पर विजय पाना स्वतन्त्रता के लिए अनिवार्य है तो उन्होंने 1 जनवरी, 1942 को संयुक्त राष्ट्रों का एक संघ कायम किया।" इस घोषणा से संयुक्तराष्ट्रसंघ के अस्तित्व में आने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

मास्को घोषणा
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की दिशा में तीसरा प्रयास 30 अक्टूबर, 1943 को मास्को-घोषणा में उठाया गया। मास्को-सम्मेलन, युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों का प्रथम सम्मेलन था। इस सम्मेलन में अमरीकाी विदेश सचिव कार्डेल हल, ब्रिटिश विदेश मंत्री ईडेन, रूस के विदेश मंत्री मोलोतोव तथा चीन की ओर से फू पिगशूंग ने भाग लिया। इस बीच किसी प्रकार की दरार को रोकना था। मास्को-घोषणा में यह कहा गया कि चार महान शक्तियाँ (ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत रूस तथा चीन) अपने देशों तथा दूसरे साथी राज्यों की स्वतन्त्रता को आक्रमण के भय से सुरक्षित करने के उत्तरदायित्व को पहचान कर युद्ध को शीघ्रता से समाप्त करने और शस्त्रों पर कम-से-कम व्यय करके अन्तर्राष्ट्रीय शांति-व्यवस्था कायम करने की आवश्यकताओं को पहचान कर घोषित करती है कि उन्होंने शत्रुओं के विरूद्ध जो संयुक्त कार्य किया है वे उसे तब तक करती रहेंगी जब तक कि शांति और सुरक्षा स्थापित न हो जाय । इस घोषणा में यह भी कहा गया है कि वे शीघ्रातिशीघ्र एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की आवश्यकता अनुभव करती हैं। घोषणा में इस तरह के संगठन के आधारभूत सिद्धान्तों की भी चर्चा हुई। यह कहा गया कि इस तरह के संगठन में शांति-प्रेमी सब छोटे-बड़े राज्य सम्मिलित होंगे। यह संगठन राज्यों की सम्प्रभुता की समानता के सिद्धान्तों पर आधारित होगा। यह आशा की गयी कि भविष्य में शांति और सुरक्षा स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र सक्रिय भाग लेगा।

इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों का निरूपण मास्को-सम्मेलन में हुआ था। इसीलिए मास्को सम्मेलन को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की दिशा में प्रथम सक्रिय एवं व्यावहारिक प्रयास कहा गया है। जैसा कि एस.बी. क्रीलोव ने लिखा है कि "मास्को संयुक्त राष्ट्र संघ की जन्मभूमि बन गयी, क्योंकि वहीं पर सुरक्षा की स्थापना के निमित्त एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के निर्माण की घोषणा पर हस्ताक्षर किया गया था।

तेहरान सम्मेलन
मास्को-सम्मेलन के बाद ईरान की राजधानी तेहरान में संयुक्त राष्ट्र के तीन बड़े नेताओं चर्चिल, रूजवेल्ट तथा स्टालिन का एक सम्मेलन हुआ। सम्मेलन 28 नवम्बर, 1943 से 1 दिसम्बर, 1943 तक हुआ जो तेहरान सम्मेलन के नाम से विख्यात हुआ। यह द्वितीय युद्धकाल का प्रथम शिखर सम्मेलन था जिसमें तीनों राज्यों के अध्यक्ष सम्मिलित हुए। यह सम्मेलन इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह पहला अवसर था जब राष्ट्रपति रूजवेल्ट तथा मार्शल स्टालिन एक दूसरे के सम्पर्क में आये। सम्मेलन के अन्त में जारी संयुक्त विज्ञप्ति में कहा गया-"हम अपने इस निश्चय को व्यक्त करते है कि हमारे राष्ट्र युद्ध अथवा भावी शांति में एक-दूसरे के साथ सहयोग से कार्य करेंगे। हम अपने एवं संयुक्त राष्ट्रों के परम दायित्व को भली भाँति पहचानते है कि हमें एक ऐसी शांति की स्थापना करनी है जिसे विश्व के बहुसंख्यक लोगों की सद्भावना प्राप्त हो तथा जो अनेक पीढ़ियों तक युद्ध के कलंक और आतंक को मिटाने में समर्थ हो। अत्याचार, दासता, दमन तथा असहिष्णुता का अंत करने के लिए हम छोटे-बड़े, सभी राष्ट्रों का, जिनके निवासी हमारी तरह इन बुराइयों को मिटाना चाहते है, का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। हम ऐसे सभी राष्ट्रों का स्वागत करेंगे जो प्रजातान्त्रिक राज्यों के विश्व संघ में सम्मिलित होना चाहेंगे।"

डम्बार्टन ओक्स सम्मेलन
संयुक्त राष्ट्र संघ की रूपरेखा का निर्माण करने के लिए बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन 21 अगस्त, 1944 को वाशिंगटन के डम्बार्टन ऑक्स भवन में आयोजित किया गया जो 7 अक्टूबर, 1944 तक चला। इस सम्मेलन में यह स्वीकार किया गया कि संयुक्त राष्ट्र का कार्यक्षेत्र केवल अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखने तक ही सीमित न रखा जाय बल्कि उसका कार्य आर्थिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना भी होना चाहिए। प्रस्तावित विश्व संगठन के सन्दर्भ में सोवियत संघ का दृष्टिकोण था कि संयुक्त राष्ट्र में बड़ी शक्तियों की प्रभावशाली एवं निर्णयात्मक भूमिका को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया जाय। उसका विचार था कि वाद-विवाद करने वाली सभाओं में छोटे राष्ट्रों को भी समान अधिकार दिये जा सकते हैं । उसने इस बात पर जोर दिया कि शांति एवं सुरक्षा के क्षेत्र में सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए बड़ी शक्तियों का एकमत होना अत्यन्त आवश्यक है। डम्बार्टन ऑक्स प्रस्तावों में ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की कल्पना की गयी जिसमें पुराने राष्ट्र संघ के बहुत से तत्त्व पाये जाते थे, पर साथ ही उसमें कुछ ऐसे विचारों का समावेश भी था जिनसे उसकी त्रुटियों से सबक लिया जा सके। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों- महासभा, सुरक्षा परिषद्, सचिवालय एवं अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सम्बन्ध में निर्णय लिया गया।

याल्टा-सम्मेलन
संयुक्त राष्ट्र के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय सोवियत संघ के प्रदेश क्रौमिया के याल्टा नगर में लिये गये। 4 फरवरी, 1944 को स्टालिन, चर्चिल तथा रूजवेल्ट का एक शिखर सम्मेलन याल्टा में प्रारम्भ हुआ। सुरक्षा परिषद् में मतदान प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण निर्णय याल्टा सम्मेलन में ही सम्भव हो सका। संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की दिशा में इस सम्मेलन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसमें उन बातों पर निर्णय सम्भव हो सका जिन पर डम्बार्टन आक्स सम्मेलन में निर्णय नहीं हो सका था। गुड्सपीड ने ठीक ही लिखा है, "याल्टा सम्मेलन में लिए गये निर्णयों ने डम्बार्टन ऑक्स प्रस्ताव की बहुत-सी त्रुटियों को दूर कर दिया।"

सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन
याल्टा सम्मेलन के निर्णय के अनुसार 25 अप्रैल, 1945 को अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को शहर में संयुक्त राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र को तैयार करना तथा संयुक्त राष्ट्र संघ को पूर्णतया स्थापित करना था। इस सम्मेलन में 51 राष्ट्र सम्मिलित हुए। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का प्रारूप तैयार किया और उसे स्वीकार किया। इस प्रारूप पर 26 जून, 1945 को हस्ताक्षर हुए। इसी दिन राष्ट्रपति ट्रमेन ने सम्मेलन में आये हुए प्रतिनिधियों को विदाई दी। विदाई-भाषण में प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कहा था : "संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर जिस पर आपने हस्ताक्षर किये है, ऐसा दृढ़ खम्भ है जिस पर हम एक सुदृढ़ विश्व का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए इतिहास आपका सम्मान करेगा। युरोप में विजय और जापान में अन्तिम विजय के बीच विश्व के सबसे अधिक विनाशकारी युद्ध के बीच आपने स्वयं युद्ध को जीत लिया है। पृथ्वी के समस्त राष्ट्रों की ओर से यह चार्टर इस महान् निष्ठा की घोषणा करता है कि युद्ध परम आवश्यक नहीं है और विश्व में शांति स्थापित हो सकती है। इस चार्टर से विश्व में शांति, सुरक्षा और मानव मात्र की उन्नति हो सकती है।" 24 अक्टूबर, 1945 को सदस्य राज्यों की स्वीकृति प्राप्त हो जाने के उपरांत संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर लागू हो गया। इसके साथ ही एक नयी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का निर्माण हुआ जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का नाम दिया गया हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य

संयुक्त राष्ट्र संघ का विधान प्रस्तावना से शुरू होता है। इसमें संघ के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों का वर्णन है। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों की विस्तृत चर्चा चार्टर के अनुच्छेद 1 तथा 2 में की गयी है। परन्तु प्रस्तावना में भी उनका संक्षिप्त उल्लेख मिलता है। मार्टिन एवं बेंटविच ने ठीक ही लिखा है : 'प्रस्तावना अनुच्छेद 1 और 2 का संक्षिप्त रूप है।' वस्तुतः इसमें उन समस्त राष्ट्रों का एक उद्देश्य निरूपित किया गया है, जिन्होंने आपस में मिलकर एक संघ की नींव डाली है। संघ के चार्टर की प्रस्तावना में कहा गया है कि “संयुक्त राष्ट्र हम लोगों ने यह दृढ़ निश्चित किया है कि-भावी पीढ़ियों को उस युद्ध की पीड़ा और कष्टों से बचाने का जिसके कारण हमारे जीवन में दो बार मानव जाति को अपार दु:ख भोगना पड़ा,

आधारभूत मानवीय अधिकारों, मानव प्रतिष्ठा और महत्त्व, स्त्री-पुरूषों तथा छोटे-बड़े राष्ट्रों के समान अधिकारों में अपनी निष्ठा की पुनः पुष्टि करने का, और ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने का, जिनसे सन्धियां एवं अन्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अन्तर्गत आने वाले उत्तरदायित्वों के प्रति न्याय और सम्मान का दृष्टिकोण ग्रहण किया जा सके,

स्वतन्त्रता के विस्तृत क्षेत्र में सामाजिक उत्थान एवं जीवन स्तर की उन्नति को प्रोत्साहित करेंगे और समाज को प्रगतिशील बनायेंगे एवं इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भले पड़ोसियों की भाँति एक-दूसरे के प्रति सहनशील बनने एवं शांति से रहने की भावना अपनायेंगे,

अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को स्थिर रखने के लिए अपनी शक्ति को संगठित करेंगे,

नियमों की स्वीकृति और विधानों की स्थापना द्वारा विश्वास दिलायेंगे कि सामान्य हितों की रक्षा के अतिरिक्त शस्त्र-बल का प्रयोग नहीं करेंगे और,
सबकी आर्थिक एवं सामाजिक उन्नति के लिए अन्तर्राष्ट्रीय साधनों का उपयोग करेंगे।"

इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हमने मिलकर प्रयत्न करने का निश्चय किया है। इसीलिए हमारी सरकारें अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से सेन फ्रांसिस्कों नगर में इकट्ठी हुई। प्रतिनिधियों ने अपने अधिकार-पत्र दिखाए हैं, जिनको ठीक और उसी रूप में पाया गया है और उन्होंने संयुक्त राष्ट्रों के इस घोषणा-पत्र को मान लिया है, और इसकी रूह से वे अब एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ की स्थापना करते हैं, जिसका नाम संयुक्त राष्ट्र संघ होगा।

संक्षेप में चार्टर के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के चार प्रमुख उद्देश्य हैं-
  1. सामूहिक व्यवस्था द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा कायम रखना और आक्रामक प्रवृत्तियों को नियन्त्रण में रखना,
  2. अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण समाधान करना,
  3. राष्ट्रों के आत्म-निर्णय और उपनिवेशवाद विघटन की प्रक्रिया को गति देना,
  4. सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित एवं पुष्ट करना।
सारांश में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग, एकता तथा विश्व शान्ति की स्थापना करना इसका प्रमुख लक्ष्य है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के दूसरे इकाई में सदस्यता से सम्बन्धित उपबंध है। इसमें दो प्रकार की सदस्यता का प्रावधान है। प्रारम्भिक सदस्यता तथा निर्वाचित अथवा बाद में अर्जित सदस्यता। प्रारम्भिक तथा बाद में सदस्यता अर्जित करने वाले राज्यों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों को समान अधिकार तथा दायित्व प्रदान किये गये हैं। अन्तर केवल यह है कि जहाँ प्रारम्भिक सदस्यों को अपने अधिकार के रूप में संघ में शामिल होने का अवसर मिला वहाँ, सदस्यता अर्जित करने वाले राज्य को अपने आप सदस्यता प्राप्त नहीं होती है। सदस्य होने के पूर्व उन्हें कुछ शर्तों को पूरा करना होता है और तब कहीं उन्हें संघ की सदस्यता प्राप्त होती है। चार्टर की तीसरी धारा के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रारम्भिक सदस्य वे थे जिन्होंने सेन फ्रांसिस्कों सम्मेलन में भाग लिया था अथवा 1 जनवरी, 1942 के संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किया था अथवा संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर करके धारा 110 के अनुसार उसकी संपुष्टि की थी। ऐसे राज्यों की संख्या 51 थी। उनमें से 50 राज्यों ने सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था और संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर अपना हस्ताक्षर किया था। केवल पोलैण्ड के लिए एक विशेष व्यवस्था की गयी थी। पोलैण्ड सेन फ्रांसिस्कों सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ था क्योंकि सम्मेलन में उसे आमंत्रित नहीं किया गया था। फिर भी उसे संघ का प्रारम्भिक सदस्य बनाया गया क्योंकि 1 जनवरी, 1942 के संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र पर उसने हस्ताक्षर किया था। इस प्रकार प्रारम्भिक सदस्यों की संख्या 51 हो गयी। इन सदस्यों के अलावा दूसरे देशों को भी संघ की सदस्यता प्रदान की गयी है लेकिन उन्हें प्रारम्भिक सदस्य नहीं वरन् बाद में प्रविष्ट सदस्य कहा जाता है। प्रविष्ट सदस्य उन राज्यों को कहा जाता है जिन्होंने न तो सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लिया था और न संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर करके उसकी संपुष्टि की थी, किन्तु शांतिप्रिय होने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में विश्वास रखने के कारण बाद में सदस्यता प्राप्त की है। आज कल ऐसे सदस्यों की संख्या में काफी वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या लगभग विश्वव्यापी हो गयी है। वर्तमान में इसकी सदस्य संख्या 192 हो गई है।

सदस्यता-प्राप्ति की शर्ते
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की धारा 4 में सदस्यता ग्रहण की शर्तों का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता उन सभी शांतिप्रिय राष्ट्रों के लिए खुली होगी जो संघ के उत्तरदायित्वों को स्वीकार करें और जो संघ के निर्णयानुसार इन उत्तरदायित्वों को पूरा करने के योग्य और इसके लिए तैयार हो। सदस्यता सम्बन्धी निर्णयों के लिए सुरक्षा परिषद् के पाँचों स्थायी सदस्यों की सहमति और आम सभा में दो-तिहाई बहुमत का समर्थन आवश्यक रखा गया। दूसरे शब्दों में, सदस्यता को उन मामलों में रखा गया जिनके लिए बड़ी शक्तियों का एकमत होना आवश्यक था। इस प्रकार चार्टर की व्यवस्था के अनुसार सदस्यता-सम्बन्धी निर्णय लेने का अधिकार आमसभा और सुरक्षा परिषद् को प्राप्त है। यदि वे सद्भावनापूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सदस्यता के लिए अभ्यर्थी राज्य शांतिप्रिय है और चार्टर के अनुबन्धों के आधारों को मानने की इच्छा अथवा सामर्थ्य रखता है तो उसे नया सदस्य बनाया जा सकता है। इस प्रकार जैसाकि केल्सन ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में नया सदस्य बनाने का अधिकार सुरक्षा परिषद् तथा आम सभा की स्वेच्छा पर छोड़ दिया गया है।

सदस्यता प्रदान करने की रीति
सर्वप्रथम, सदस्यता के लिए इच्छुक राज्य के आवेदन-पत्र पर सुरक्षा परिषद् विचार करती है। आवेदन पर विचार करने के बाद सुरक्षा परिषद् अपनी सिफारिश पेश करती है। सुरक्षा परिषद् की सिफारिश के लिए उसके 15 सदस्यों में से 9 सदस्यों का एकमत होना आवश्यक है जिनमें पाँच स्थायी सदस्यों का मतैक्य अनिवार्य है। इस प्रकार सदस्यता के प्रश्न पर सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों को निषेधाधिकार प्राप्त है । यदि स्थायी सदस्यों में से कोई भी सदस्य किसी राज्य को नहीं चाहता है तो वह सदस्य नहीं हो सकता।

सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा निर्णय लेती है। यदि सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर महासभा ने अपने दो-तिहाई बहुमत से निर्णय ले लिया तो आवेदनकर्ता राज्य उसी दिन से संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन जाता है जिस दिन महासभा ने निर्णय लिया हो। इस प्रकार हम देखते है कि सदस्यता प्रदान करने के प्रश्न पर आरम्भन तथा निर्णय का अधिकार सुरक्षा परिषद् को एवं अनुसमर्थन का अधिकार आमसभा को प्राप्त है। किसी राज्य को सदस्य बनाने के सम्बन्ध में महासभा उस समय तक निर्णय नहीं कर सकती जब तक सुरक्षा परिषद की संस्तुति या अनुमोदन नहीं हो, जिसके लिए उसके पाँच स्थायी सदस्यों का मतैक्य अनिवार्य है।

राष्ट्र संघ की तुलना में संयुक्त राष्ट्र संघ सदस्यता की दृष्टि से एक विश्वव्यापी संगठन है जहाँ सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 51 थी वहां आजकल सदस्य संख्या 192 तक पहुँच गयी है।

सदस्यों का निलम्बन
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में किसी सदस्य के सदस्यता के निलंबन तथा निष्कासन की व्यवस्था का उल्लेख नहीं मिलता है। धारा 1 यह उपबंधित करती है कि सुरक्षा परिषद् द्वारा जिन सदस्यों के विरूद्ध निरोधात्मक दंडात्मक कार्रवाई की गयी है उन्हें महासभा सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर दो-तिहाई बहुमत से निलम्बित कर सकती है। बाद में उपर्युक्त समझे जाने पर सदस्यता पुनः लौटाई जा सकती है। दोनों के लिए सुरक्षा परिषद् की अनुशंसा आवश्यक होगी। चार्टर की धारा 6 में यह कहा गया है कि चार्टर के सिद्धान्तों का लगातार उल्लंघन करने वाले सदस्य राज्य को विश्व संस्था से निष्कासित भी किया जा सकता है। परन्तु यह सुरक्षा परिषद् की अनुशंसा पर महासभा के निर्णय से होगा। इस प्रकार चार्टर में सदस्य राज्यों के निलम्बन तथा निष्कासन दोनों की व्यवस्था है। उदाहरण के लिए 22 सितम्बर, 1922 को पूर्व युगोस्लाविया को सुरक्षा परिषद् की सिफारिश पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता से वंचित कर दिया गया था। महासभा में 2 नवम्बर, 2000 को नए लोकतान्त्रिक यूगोस्लाविया को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता पुनः देने की अनुमति दे दी।

सदस्यता का प्रत्याहरण
संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के प्रत्याहार के सम्बन्ध में चार्टर मौन है। यह सदस्यों की सदस्यता के प्रत्याहार करने की न तो आज्ञा देता है और न मना करता है । सेन फ्रांसिस्को सम्मेलन में इस विषय पर काफी बहस हुई थी। कतिपय राज्य इस पक्ष में थे कि सदस्यों की सदस्यता की वापसी के लिए निषेध कर लिया जाये। दूसरी ओर, कतिपय अन्य राज्य इस पक्ष में थे कि यदि सदस्यों के लिए चार्टर में किये गये संशोधनों को स्वीकार करना असम्भव हो जाता है तो ऐसे सदस्यों को अपनी सदस्यता वापस लेने का अधिकार होना चाहिए। अन्त में यह तय किया गया कि इस विषय में कोई व्यक्त प्रावधान न रखे जायें जिसके अनुसार विशेष परिस्थितियों में सदस्य अपनी सदस्यता वापस ले सकते है। इस प्रकार चार्टर में सदस्यता-परित्याग की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। परन्तु इस विषय पर विचार करने के लिए नियुक्त समिति ने एक औपचारिक घोषणा प्रसारित कर इस बात की पुष्टि की कि यदि कोई सदस्य राज्य अपवादजनक परिस्थिति में सदस्यता परित्याग की विवशता का अनुभव करता है और अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाये रखने का भार अन्य राष्ट्रों पर छोड़ने के लिए तैयार है तो संघ उस राज्य को अपना सहयोग बनाये रखने के लिए बाध्य नहीं करेगा। साथ-साथ यह भी कहा गया कि यदि किसी सदस्य राज्य संयुक्त राष्ट्र का उत्तरदायित्व और अधिकार परिवर्तित कर दिया हो, जिसे वह राज्य स्वीकार नहीं करता हो तो उसे संस्था में रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। सारांश यह कि यद्यपि चार्टर में सदस्यता परित्याग की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है परन्तु प्रकारान्तर से उपर्युक्त व्याख्या के माध्यम से सदस्यता-परित्याग के अधिकार को मान्यता देने का प्रयास किया गया है। पिछले 60 वर्षों के जीवन काल में केवल इण्डोनेशिया ने सन् 1965 में संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता का प्रत्याहार किया था, परन्तु 28 दिसम्बर, 1966 को इण्डोनेशिया पुनः संयुक्त राष्ट्र संघ में लौट आया। इससे इस संस्था का महत्त्व तथा उपयोगिता स्वतः उजागर होती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त करने के नियमों का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि ऐसा युद्ध के उद्देश्यों एवं मनोविज्ञान के प्रभाव में ही किया गया था। सेनफ्रांसिस्को सम्मेलन में यद्यपि इस बात पर चर्चा की गयी थी कि संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता को विश्वव्यापी बना दिया जाय परन्तु जब चार्टर पर अन्तिम रूप से विचार किया गया तब यह निश्चय किया गया कि संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता किसी भी देश के व्यवहार के आधार पर अर्जित की जानी चाहिए एवं साथ ही यह भी तय किया गया कि यदि कोई भी सदस्य राष्ट्र लगातार संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धान्तों की अवहेलना करता रहेगा तो उसे सदस्यता से वंचित किया जा सकता है या उसकी सुविधाओं को समाप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता की शर्ते है 'शान्तिप्रियता', 'उत्तरदायित्वों को निभाने के योग्य एवं इच्छुक' हों। इससे यह स्पष्ट है कि राष्ट्रसंघ की सदस्यता के लिए नैतिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। व्यवहार में, संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता का राजनीतिकरण कर दिया था। नये राज्यों को सदस्यता प्रदान करने में महा शक्तियों का ही प्रभाव रहा है। महा शक्तियों ने अपने इस अधिकार का विश्व में अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने में खुलकर प्रयोग किया। शीत-युद्ध में महा शक्तियों ने एक-दूसरे के समर्थक राष्ट्रों को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश करने का अवसर नहीं दिया। साम्यवादी चीन 1949 से 1971 तक संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता केवल इस कारण प्राप्त नहीं कर सका क्योंकि संयुक्त राज्य अमरीका उसका विरोधी था। परन्तु जब अमरीका के राष्ट्रीय एवं आर्थिक हितों ने मांग की तो उसने विरोध करना बन्द कर दिया और साम्यवादी चीन 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया।

गैर सदस्य राज्य
कुछ देश ऐसे भी हैं जिन्होंने अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त नहीं की है। स्विट्जरलैण्ड पूर्ण तटस्थता को स्वीकार करने के कारण स्वयं सदस्य नहीं बनना चाहता हैं। ताइवान को राष्ट्रवादी चीन भी कहा जाता है। जब साम्यवादी चीन को संघ एवं सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बनाया गया तो ताइवान को अल्वानिया के प्रस्तावानुसार संयुक्त संघ की प्राथमिक सदस्यता से भी निष्कासित कर दिया गया। ताइवान से आग्रह किया गया कि वह 'ताइवान' नाम से संघ का सदस्य बनना स्वीकार करे, लेकिन उसे यह निर्णय स्वीकार नहीं था।

सरकारी भाषाएँ
संयुक्त राज्य के चार्टर के द्वारा चीनी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रूसी तथा स्पेनिश भाषाओं को साधारण सभा (उसकी सभी समितियों तथा उप-समितियों सहित) सुरक्षा परिषद् तथा न्यास परिषद् की सरकारी भाषाओं के रूप में स्वीकार किया गया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्त

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की प्रस्तावना तथा अनुच्छेद 1 में संघ के उद्देश्यों की चर्चा की गयी है। उनकी पूर्ति के लिए सदस्यों के मार्ग-दर्शन हेतु कतिपय सिद्धान्तों का प्रतिपादन अनिवार्य था, अत: चार्टर के अनुच्छेद 2 उन सिद्धान्तों की चर्चा करता है जिन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की नींव रखी गयी है। ये सिद्धान्त उन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के समान है जो संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके सदस्य राज्यों का मार्गदर्शन करेंगे।
अनुच्छेद 2 में कहा गया है कि धारा 1 में वर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संघ तथा इसके सदस्य निम्नलिखित सिद्धान्तों के अनुरूप कार्य करेंगे-
  1. इस संघ का आधार सभी सदस्य राज्यों की प्रभुता-सम्पन्न तथा समानता का सिद्धान्त है।
  2. सभी सदस्य अपने उन सब दायित्वों को ईमानदारी के साथ निभायेंगे, जिन्हें उन्होंने वर्तमान चार्टर के अनुसार स्वीकृति प्रदान की है, ताकि सबको इस बात का विश्वास हो जाय कि सदस्य होने के जो भी अधिकार और लाभ है, वे उनको मिलेंगे।
  3. सभी सदस्य अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से इस प्रकार तय करेंगे कि विश्व की सुरक्षा, शांति और न्याय संकट में न पड़े।
  4. सभी सदस्य अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों में किसी राज्य की अखण्डता, राजनीतिक स्वाधीनता के विरूद्ध न तो धमकी देंगे और न बल का प्रयोग करेंगे और कोई भी ऐसा काम न करेंगे जो संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयोजनों से मेल नहीं खाता हो।
  5. सभी सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसी हर कार्यवाही में सब तरह की सहायता देंगे जो वर्तमान चार्टर के अनुसार हो और ऐसे किसी भी राज्य की मदद न करेंगे जिसके विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ लागू कराने या प्रतिबंध की कोई कार्रवाई कर रहा हो।
  6. यह संघ इस बात का विश्वास दिलायेगा कि जो राज्य संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य नहीं है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए जहाँ तक आवश्यक हो, इन्हीं सिद्धान्तों का पालन करेंगे।
  7. वर्तमान चार्टर में जो कुछ कहा गया है उसे संयुक्त राष्ट्र संघ किसी भी राज्य के उन मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकारी नहीं होगा, जो निश्चित रूप से उन राज्यों के घरेलू क्षेत्राधिकार आते हों। न किसी सदस्य के लिए यह आवश्यक होगा कि ऐसे मामलों को वर्तमान चार्टर के अधीन समाधान करने के लिए रखें।
चार्टर के अनुच्छेद 2 में जिन मौलिक सिद्धान्तों की चर्चा की गयी है, उन्हें निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रख सकते हैं-

सार्वभौमिक समानता
संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रथम आधारभूत सिद्धान्त यह है कि इसके सभी सदस्य राष्ट्र सार्वभौम शक्ति-सम्पन्न और समान है। इस सिद्धान्त में दो बातें कही गयी हैं- पहली 'सार्वभौम शक्ति-सम्पन्न' और दूसरी 'समानता'। सामान्यतया सार्वभौम शक्ति-सम्पन्न का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक राज्य अपने भौगोलिक क्षेत्र के अन्तर्गत सर्वोच्च है और उसमें उसकी आज्ञा ही सर्वोपरि है। इसके अन्तर्गत रहने वाले किसी भी व्यक्ति अथवा व्यक्ति समुदाय को उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। यह सम्प्रभुता का आन्तरिक पक्ष हुआ। इसका बाह्य पक्ष भी है जिसका अर्थ यह है कि आन्तरिक सर्वोच्चता के अतिरिक्त बाह्य क्षेत्र में भी राज्य पूर्णतः स्वतन्त्र है। वह किसी भी बाह्य शक्ति के नियन्त्रण से मुक्त है। 'समानता' से तात्पर्य यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य के रूप में भी राज्य समान है। संयुक्त राष्ट्र संघ में छोटे-बड़े सभी राज्य समान है।

परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई भी सदस्य राज्य उक्त अर्थ में सम्प्रभुता-सम्पन्न नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा संघ के चार्टर के विभिन्न उपबंधों के द्वारा उनकी निर्बाध सम्प्रभुता सीमित हो जाती है। जैसा कि मार्टिन और बेंटविच ने लिखा है : “संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य राज्यों की सम्प्रभुता सीमित है। चार्टर पर हस्ताक्षर करके उन्होंने अपने कुछ ऐसे अधिकार, जिन्हें वे इससे पहले अपनी स्वेच्छा से प्रयुक्त कर सकते थे, संयुक्त राष्ट्र संघ को हस्तान्तरित कर दिये हैं।"

जहाँ तक राज्यों की समानता का प्रश्न है, संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्तर्गत इसका बहुत सीमा तक पालन किया गया है। उदाहरण के लिए, महासभा में सभी सदस्य राज्यों को समानता का दर्जा प्राप्त है।

सद्भावना
संयुक्त राष्ट्र संघ का दूसरा आधारभूत सिद्धान्त यह है कि सब राष्ट्र चार्टर के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए वचनबद्ध है। यह कोई नवीन विचार नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय विधि का यह एक प्रमुख सिद्धान्त है कि सन्धि-जनित कर्तव्यों तथा दायित्व का पालन अवश्य किया जाना चाहिए। परन्तु चार्टर में इस सिद्धान्त को रखने का आशय यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अपने आदर्शों के पालन में तभी तक सफल हो सकता है जब तक इसके सभी सदस्य-राष्ट्र अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक पालन करें।

विवादों का शांतिपूर्ण समाधान
संयुक्त राष्ट्र संघ का तीसरा आधारभूत सिद्धान्त यह है कि सभी सदस्य-राष्ट्र अपने पारस्परिक विवादों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करेंगे चार्टर के अनुच्छेद 2 (3) में कहा गया है कि सभी सदस्य राज्य इस बात के लिए वचनबद्ध हैं कि वे अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से इस प्रकार समापन करेंगे कि विश्व की सुरक्षा, शांति और न्याय संकट में न पड़े। चार्टर के छठे इकाई में, अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की प्रक्रियाएँ निश्चित की गई हैं। इसमें विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की विभिन्न रीतियों का उल्लेख है, जैसे, वार्ता, जाँच, मध्यस्थता, सौमनस्य, पंच निर्णय, न्यायिक समझौते तथा प्रादेशिक व्यवस्थाएं आदि। यदि सुरक्षा परिषद् यह उचित समझे तो विवादों के निपटारे की उचित प्रक्रिया या निर्णय की शर्ते तय कर सकती है। चार्टर के मौलिक सिद्धान्तों में इस सिद्धान्त को शामिल करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि शांतिपूर्ण ढंग से अपने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा सदस्य राज्यों का प्रमुख दायित्व है।

धमकी अथवा बल प्रयोग नहीं
संयुक्त राष्ट्र संघ का चौथा आधारभूत सिद्धान्त यह है कि कोई भी सदस्य-राज्य किसी देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के विरूद्ध न तो शक्ति का प्रयोग करेगा और न धमकी देगा और न ऐसा आचरण करेगा जो संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के प्रतिकूल हो। इस प्रकार धमकी अथवा बल प्रयोग का चार्टर में निषेध किया गया है। परन्तु, कुछ अवस्थाओं में बल प्रयोग को वैधानिक बतलाया गया है। उदाहरणार्थ, यदि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् किसी आक्रामक राष्ट्र के विरूद्ध कोई सशस्त्र कार्रवाई करती है तो सदस्य राज्यों के लिए उस कार्रवाई में शामिल होना आवश्यक है। चार्टर की धारा 43(1) यह व्यवस्था करती है कि "अन्तर्राष्ट्रीय शांति सुरक्षा को बनाये रखने में योगदान करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य सुरक्षा परिषद् की माँग पर
और विशेष समझौते या समझौतों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने के प्रयोजन के लिए आवश्यक, अपनी सशस्त्र सेनाएँ, सहायता एवं सुविधाओं, जिनमें पारगमन के अधिकार भी सम्मिलित है, उपलब्ध कराने का दायित्व लेते है।" इसी प्रकार धारा 51 के अन्तर्गत सभी सदस्य राज्यों को आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त है।

सहायता
संयुक्त राष्ट्र संघ का पाँचवाँ मूलभूत सिद्धान्त यह है कि जब अपने चार्टर के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ किसी सदस्य राष्ट्र या अन्य के विरुद्ध कोई कार्रवाई करेगा तो सब सदस्य राष्ट्र उसे सब प्रकार की सहायता देने के लिए वचनबद्ध है और वे किसी ऐसे देश की सहायता नहीं करेंगे जिसके विरूद्ध संघ द्वारा शांति और सरक्षा के निमित्त कोई कार्रवाई की जा रही है। इस प्रकार यह सिद्धान्त सदस्य राष्ट्रों का संघ की समस्त कार्रवाइयों में सहायता प्रदान करने का दायित्व निर्धारित करता है।
यदि संघ द्वारा अनुशासित कार्रवाई की जा रही हो और इस हेतु सदस्य राज्यों से सहायता मांगी जा रही हो तो ऐसी स्थिति में उनका दायित्व है कि वे सभी प्रकार की सुविधा तथा सहायता संघ को प्रदान करेंगे।

गैर-सदस्य-राज्यों से सम्बद्ध सिद्धान्त
संयुक्त राष्ट्र संघ का छठा सिद्धान्त, गैर-सदस्य राज्यों से सम्बद्ध है। चार्टर की धारा 2(6) में कहा गया है कि शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए, जहाँ तक आवश्यक होगा, यह संस्था व्यवस्था करेगी कि जो देश इसके सदस्य नहीं है, वे चार्टर के सिद्धान्तों के अनुसार आचरण करेंगे। यह सिद्धान्त संयुक्त राष्ट्र के क्षेत्र को विश्वव्यापी बनाने का प्रयास करता है।

घरेलू क्षेत्राधिका
संयुक्त राष्ट्र संघ का सातवाँ सिद्धान्त सदस्य राज्यों के गृह अथवा आन्तरिक मामले से सम्बद्ध है। चार्टर की धारा 2 के सातवें खण्ड में कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ किसी भी देश के ऐसे मामले में इस्तक्षेप नहीं करेगा, जिसका सम्बन्ध उसके आन्तरिक अथवा गृह क्षेत्र से है। इस प्रकार यह अनुच्छेद स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ को किसी देश के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं देता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ का संरचनात्मक स्वरूप

चार्टर के अध्याय 3 के अनुच्छेद 7 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ का कार्य छ: प्रमुख अंगों द्वारा निष्पादित किया जाता है।
  • महासभा
  • सुरक्षा परिषद्
  • न्यास परिषद्
  • आर्थिक और सामाजिक परिषद्
  • सचिवालय
  • अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय

सारांश

संयुक्त राष्ट्र संघ भी द्वितीय महायुद्ध की उपज है। द्वितीय महायुद्ध के दौरान घटने वाली घटनाओं ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना को सम्भव बनाया। जैसा कि गुड्सपीड ने ठीक ही लिखा है, "जिस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध ने राष्ट्र संघ की स्थापना की प्रेरणा दी थी उसी प्रकार द्वितीय महायुद्ध ने नये संगठन की स्थापना की प्रेरणा दी।" इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए की गई है। अत: यह विश्व समाज का प्रतीक है।

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