प्रकाश (Light) किसे कहते है ? | prakash kise kahate hain

प्रकाश (Light) किसे कहते है ?

प्रकाश (Light) किसे कहते है ?
प्रकाश (Light) किसे कहते है ?
प्रकाश (Light) : प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो हमारी आँखों को संवेदित करता है। प्रकाश स्रोत से निकलकर पहले वस्तु पर पड़ता है तथा इन वस्तुओं से लौटकर हमारी आँखों को संवेदित करके वस्तु की स्थिति का ज्ञान कराता है। तारा, सूर्य एवं अन्तरिक्ष के अन्य ग्रह प्रकाश के प्राकृतिक स्रोत है। तारों में हाइड्रोजन के संलयन से उत्पन्न ऊर्जा से वे प्रकाश एवं ऊष्मा का उत्सर्जन करते है। सूर्य 4 j 1026 जूल/सेकेण्ड की दर से ऊर्जा दे रहा है और 4 j 109 किग्रा/सेकेण्ड की दर से अपना द्रव्यमान कम कर रहा है। कुछ प्राणी (जुगनू आदि) भी प्रकाश का उत्सर्जन करते हैं ऐसे प्रकाश को जैन प्रकाश कहते है। माचिस, मोमबत्ती, विद्युत बल्ब आदि कृत्रिम प्रकाश

प्रकाश के आधार पर वस्तुओं के निम्न प्रकार -
  1. प्रदीप्त वस्तुएं (Luminous Bodies) : वे जो स्वयं के प्रकाश से प्रकाशित हों जैसे सूर्य, विद्युत, बल्ब आदि
  2. अप्रदीप्त वस्तुएं (Nonlumenous Bodies) : वे वस्तुएं जिनमें स्वयं का प्रकाश नहीं होता परन्तु प्रकाश पड़ने पर दिखाई देने लगती हैं जैसे : कुर्सी, मेज, किताब आदि।
  3. पारदर्शक वस्तुएं (Transparent Bodies) : जिनसे होकर प्रकाश किरणे पार निकल जाती हैं। जैसे : शीशा।
  4. अर्धपारदर्शक वस्तुएं (Translucent Bodies) : ऐसी वस्तुएँ जिन पर प्रकाश की किरणें पड़ने पर उका कुछ भाग अवशोषित हो जाता है तथा कुछ भाग बाहर निकल जाता है जेसे : तेल लगा हुआ कागज।
  5. अपारदर्शक वस्तुएं : ऐसी वस्तुएं जिनसे प्रकाश की किरणें बाहर नहीं पाती है जैसे धातुएं, लकड़ी आदि।

छाया (Shadow) : प्रकाश स्रोत के सामने किसी अपारदर्शक वस्तु को रखने से वस्तु के पीछे बनने वाली काली आकृति को छाया कहते है। यह प्रकाश स्रोत की आकृति पर निर्भर करता है। यदि स्रोत कोई बिन्दु स्रोत है तो बनने वाली छाया को प्रच्छाया (Umbra) और यदि वश्हत् स्रोत है तो बनने वाली छाया को उपछाया कहते है।

प्रकाश का संचरण (Propagation of Light) : प्रकाश किरणें यद्यपि सीधी रेखा में गमन करती है फिर भी अवरोधों के किनारे पर कुछ मुड़ती अवश्य है तरंग दैर्ध्य अत्यंत छोटी होने के कारण महसूस बहुत कम होती है। प्रकाश का अवरोधों के किनारे मुड़ने की घटना को प्रकाश का विवर्तन (Difraction) कहते है।

प्रकश की चाल (velocity of Light) : भिन्न भिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल भिन्न भिन्न होती है। वायु तथा निर्वात में प्रकाश की चाल सर्वाधिक होती है। चाल माध्यम के अपवर्तनाँक (ReFractive Indese) पर निर्भर करती है। जिस माध्यम का अपवर्तनाँक जितना अधिक होता है उसमें प्रकाश की चाल उतनी ही कम होती हैं किसी माध्यम में प्रकाश की चाल ज्ञात करने हेतु सूत्र μ u = c/ μ का प्रयोग करते हैं जहाँ u प्रकाश की चाल, ब प्रकाश की निर्वात में चाल तथा माध्यम का अपवर्तनाँक है।

विभिन्न माध्यमों में प्रकाश की चाल -
माध्यम
प्रकाश की चाल ( मी./सेकेण्ड)
निर्वात
3.00 X 108
पानी
2.25 X 108
काँच
2.00 X 108
तारपीन तेल में
2.04 X 108
नाइलोन
1.96 X 108

प्रथ्वी तक आने में सूर्य के प्रकाश को लगभग 500 सेकेंड या मिनट लगते हैं।

सूर्यग्रहण (Solar Eclipse) : जब चन्द्रमा, सूर्य तथा पृथ्वी के बीच आ जाती है तो सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाता हैं इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहते है। यह अमावस्या तिथि को ही हो सकता है।

चन्द्र ग्रहण (Lumar Eclipse) : जब पृथ्वी, सूर्य तथा चन्द्रमा के बीच आ जाता है तब सूर्य से निकलने वाला प्रकाश चन्द्रमा पर नहीं पाता है ऐसी स्थिति चन्द्रग्रहण कहलाती है। यह पूर्णिमा को ही हो सकता है।

प्रकाश का परावर्तन (Reflection of Light) : जब प्रकाश किसी चिकने या चमकदार पृष्ठ पर पड़ता है तो इसक अधिकांश भाग विभिन्न दिशाओं में वापस लौट जाता है इस प्रकाश किसी पृष्ठ से टकराकर प्रकाश के वापस लौटने की घटना को प्रकाश का परावर्तन कहते हैं यदि पृष्ठ अपारदर्शक है तो इसका कुछ भाग अवशोषित हो जाता है यदि पारदर्शक है तो कुछ भाग पृष्ठ के पार निकल जाता है। चिकने व चमकदार पॉलिश किये सतह अधिकांश प्रकाश को परावर्तित कर देते हैं। समतल दर्पण प्रकाश का सबसे अच्छा परावर्तक होता है। परावर्तक पृष्ठ के लम्बवत् सीधी रेखा को अभिलम्ब तथा जो किरण परावर्तक तल पर आकर गिरती है उसे आपाती किरण एवं जो किरण परावर्तन के पश्चात् वापस लौट जाती है। उसे परावर्तित किरण कहते है। आपाती किरण व अभिलम्ब के बीच के कोण को आपतन कोण एवं अभिलम्ब एवं परावर्तित किरण के बीच के कोण को परावर्तन कोण कहते है।

प्रकाश का परावर्तन दो नियमों पर आधारित होता है :
  1. आपाती किरण, परावर्तित किरण व अभिलम्ब एक ही तल में होते है।
  2. आपतन कोण, परावर्तन कोण के बराबर होता है।

प्रकाश का अपवर्तन (Refraction of Light) : प्रकाश का एक मध्यम से दूसरे मध्यम में प्रकाश करते समय, दूसरे माध्यम की सीमा पर अपने रेखीय पथ से विचलित होने की घटना का प्रकाश का अपवर्तन कहते है।
जब प्रकाश की किरण विरल माध्यम से सधन माध्यम में प्रवेश करती है तो किरण सधन माध्यम के पृष्ठ से अभिलम्ब की ओर मुड़ जाती है। जब किरण सधन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती है तो विरल माध्यम के पृष्ठ से ही अभिलम्ब से दूर हट जाती है। लेकिन जो किरण लम्बवत् किसी भी माध्यम में प्रवेश करती है वह किसी भी तरफ न झुककर सीधे निकल जाती है। प्रकाश के अपवर्तन का कारण भिन्न भिन्न माध्यमों में वेग का भिन्न भिन्न होना है।
किसी माध्यम का अपवर्तनांक भिन्न रंगों के प्रकाश के लिए भिन्न भिन्न होता है। प्रकाश की तरंग दैर्ध्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता है। दश्श्य प्रकाश में लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैगनी रंग का सबसे अधिक होता है कारण लाल रंग की तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक व बैगनी रंग की सबसे कम होती है। ताप बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता है। दश्श्य प्रकाश में लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैगनी रंग का सबसे अधिक होता है कारण लाल रंग की तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक व बैगनी रंग की सबसे कम होती है। ताप बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम होता जाता हैं अपवर्तन की क्रिया में प्रकाश की चाल, तरंगदैर्ध्य तथा तीव्रता बदल जाती है परन्तु आवृत्ति नहीं बदलती है।
अपवर्तन के कारण ही पानी में डूबी हुई कोई लकड़ी या चम्मच बाहर से देखने पर टेढ़ी दिखती है। रात्रि में तारों का टिमटिमाना, तालाब की गहराई कम प्रतीत होना, सूर्य का क्षितिज के नीचे होने पर भी दिखाई देना आदि अपवर्तन के कारण होते है। जल में किसी वस्तु की आभासी गहराई ज्ञात होने पर इसमें जल के अपवर्तनांक का गुणा कर देने से वास्तविक गहराई का पता चल जाता है।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन (Total Internal Reflection) : जब प्रकाश सधन माध्यम से विरल माध्यम से प्रवेश करता है तो अपवर्तित किरण अभिलम्ब से दूर हटती जाती है। जैसे आपतन कोण का मान बढ़ाने जाते है अपवर्तित किरण अभिलम्ब से दूर हटती जाती है एक स्थिति ऐसी आती है जब आपतन कोण के लिए अपवर्तन कोण का मान 90% हो जाता है। ऐसी स्थिति जिसमें अपवर्तित कोण का मान 90% हो वह आपतन कोण क्रान्तिक कोण कहलाता है। जब आपतित कोण को क्रान्तिक कोण से और बड़ा कर दिया जाता है तो किरण पुनः उसी माध्यम में लौट जाती है जिस माध्यम से चली थी इसी घटना को प्रकाश का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते है। इसके बहुत से उदाहरण हैं जैसे हीरे का चमकना, गर्म व ठण्डे प्रदेशों में मरीचिका (Looming) का दिखायी देना, टूटे कांच का अधिक चमकना, आंशिक जल से भरी परखनली को जल में डुबाने पर चांदी की तरह चमकना आदि है।
मेडिकल, प्रकाशीय सिग्नल के संचरण, विद्युत सिग्नलों को भेजने व प्राप्त करने में आप्टिकल फाइबर का उपयोग होता है जो पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है।

प्रतिबिम्ब (Image) जब कोई वस्तु दर्पण के सामने रखी जाती है तो वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणें दर्पण के तल से परावर्तित होकर दर्शक की आंखों पर पड़ती हैं जिससे दर्शक को वस्तु की आकृति दिखाई देती है इस आकृति को ही वस्तु का प्रतिबिम्ब कहते है।

किसी स्रोत से चलने वाली प्रकाश किरणें किसी तल से परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् जिस बिन्दु पर मिलती है। वह बिंदु स्रोत का वास्तविक प्रतिबिम्ब कहलाता है तथा प्रकाश किरणें परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् जिस बिंदु से फैलती हुई प्रतीत हो वह बिन्दु स्रोत का आभासी प्रतिबिम्ब कहलाता है। आभासी प्रतिबिम्ब को परदे पर नहीं लिया जा सकता है। जब कि वास्तविक प्रतिबिम्ब को पर्दे पर लिया जा सकता है।

समतल दर्पण से बना वस्तु का प्रतिबिम्ब दर्पण के पीछे उतनी ही दूरी पर बनता है जितनी दूरी पर वस्तु दर्पण के सामने रखी होती है। दर्पण में बने प्रतिबिम्ब में पाश्र्व उम्क्रमण होता है अर्थात् दर्पण के सामने खड़ा व्यक्ति यदि अपना बायां हाथ उठाता है तो प्रतिबिम्ब में उसका दायां हाथ उठता दिखेगा। दर्पण में वस्तु का सम्पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए कम से कम दर्पण की लम्बाई वस्तु की आधी होनी चाहिए। दर्पण के सामने यदि कोई व्यक्ति किसी चाल से पास या दूर जाता है तो उसे अपना अपना प्रतिबिम्ब दुगुनी चाल से पास या दूर प्रतीत होगा। यदि किसी कोण पर झुके हुए दो समतल दर्पणों के बीच कोई वस्तु रख दे तो उस वस्तु के कई प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते है।
प्रतिबिम्बों की संख्या दोनों दर्पणों के बीच बने कोण पर निर्भर करती है।
प्रतिबिम्बों की संख्या = 360
दर्पणों के बीच का कोण

यदि दो समतल दर्पण एक दूसरे के समानान्तर रख दिये जाय तो इनके बीच शून्य अंश का कोण बनेगा ओर दर्पणों के बीच रखी वस्तु के अनन्त प्रतिबिम्ब बनेंगे। बहुमूर्तिदर्शी के अन्दर दो समतल दर्पण 60% पर झुके होते हैं जिससे वस्तु के कई प्रतिबिम्ब दिखते है।

गोलीय दर्पण (Spherical Mirror) : गोलीय दर्पण किसी खोखले गोले के गोलीय पृष्ठ होते हैं। यह दो प्रकार के होते हैं। उत्तल एवं अवतल दर्पण। उभरे हुए तल वाले जिसमें पॉलिश अन्दर की ओर की जाती है उत्तल दर्पण, तथा दूसरा जिसका तल दबा होता है पॉलिश बाहरी सतह पर होती है अवतल दर्पण कहते है। उत्तर दर्पण में प्रकाश का परावर्तन उभरे हुए बाहरी सतह से एवं अवतल दर्पण में परावर्तन दबे हुए आंतरिक सतह से होता है।
  • गोलीय दर्पण (उत्तल या अवतल) के परावर्तक तल के मध्य बिंदु को दर्पण का ध्रुव कहते है।
  • दर्पण जिस गोले का भाग होता हैं उसके केन्द्र को दर्पण का वक्रता केन्द्र कहते है।
  • दर्पण के ध्रुव की वक्रता केन्द्र को मिलाने वाली रेखा को दर्पण का मुख्य अक्ष कहते है।
दर्पण के मुख्य अक्ष के समानान्तर आने वाली किरणें दर्पण से परावर्तन के पश्चात् जिस बिंदु पर मिलती हैं या मिलती प्रतीत होती है उस बिंदु को मुख्य फोकस (Principle Focus) कहते है। मुख्य फोकस तथा ध्रुव के बीच की दूरी को फोकस दूरी कहते हैं, फोकस दूरी ध्रुव व मुख्य फोकस के ठीक बीच में पड़ती है।

दर्पणों की पहचान : दर्पणों को दो विधियों से पहचानते है।
  1. स्पर्श करके : यदि परावर्तक तल एकदम समतल है तो दर्पण समतल, यदि परावर्तक तल बीच में उभरा तो उत्तल और यदि परावर्तक जल बीच में दबा हुआ है तो दर्पण अवतल दर्पण होगा।
  2. प्रतिबिम्ब को देख करके : यदि दर्पण में बना प्रतिबिम्ब वस्तु को दर्पण से दूर ले जाने पर छोटा होता जाता है। तो दर्पण उत्तल होगा, यदि वस्तु का प्रतिबिम्ब सीधा है व वस्तु दूर ले जाने पर बढ़ता जाता है तो दर्पण अवतल होगा और यदि प्रतिबिम्ब का आकार स्थिर रहता है तो दर्पण समतल दर्पण होगा।
गोलीय दर्पणों के उपयोग -
  1. अवतल दर्पण : सूर्य से आती हुई किरणें दर्पण से परावर्तित होकर फोकस दूरी पर मिलती हैं इसका उपयोग कर सूर्य से प्राप्त ऊष्मा को एकत्रित करने में सोलर कुकर में किया जाता है क्योंकि इससे काफी मात्रा में ऊष्मा को एकत्रित किया जा सकता है। आकाशीय पिण्डों, तारों आदि की फोटोग्राफी करने के लिए परावर्तक दूरदर्शी में बड़े बड़े अवतल दर्पणों का उपयोग होता है। कान, नाक व गले के आंतरिक भागों की जाँच के लिए भी इसका उपयोग होता है क्योंकि यदि कोई वस्तु अवतल दर्पण के समीप उसकी फोकस दूरी से कम दूरी पर स्थिर की जाती है तो वस्तु का सीधा, आभासी व वस्तु के आकार से बड़ा प्रतिबिम्ब बनता है। सर्चलाइट तथा मोटरगाड़ियों के हेडलाइट में परवलयाकार अवतल दर्पण प्रयुक्त होता है क्योंकि इसके समीप लगे बल्ब से निकलने वाली प्रकाश किरणें दर्पण से परावर्तित होकर तीव्रता की किरणों में परिवर्तित हो जाती है।
  2. उत्तल दर्पण : उत्तल दर्पण में वस्तु का प्रतिबिम्ब आभासी एवं वस्तु से छोटा एवं सीधा होता है। अर्थात् उत्तल दर्पण में काफी बड़े क्षेत्र की वस्तु का प्रतिबिम्ब छोटे क्षेत्र में बन जाता है। स्पष्ट है कि उत्तल दर्पण का दर्शष्टि क्षेत्र अधिक होता है इसका उपयोग मोटर गाडियों में चालक के बगल पीछे के दश्श्यों को देखने के लिए किया जाता है। सड़क पर लगे परावर्तक लैम्पों में भी इसका उपयोग होता है क्योंकि ये प्रकाश को अधिक क्षेत्र में फैलाते हैं। 
लेन्स (Lenses) : दो तलों से घिरा जिसके दोनों तल दो गोलों के पारदर्शक खण्ड होते हैं लेंस कहलाता है। इनका उपयोग सभी प्रकाशीय यन्त्रों जैसे : कैमरा, प्रोजेक्टर्स, टेलिस्कोप एवं सूक्ष्मदर्शी आदि में किया जाता है। ये काँच (मुख्यत:) या प्लास्टिक के बने होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं। उत्तल लेंस एवं अवतल लेंस।

उत्तल लेंस (Convest Lens): उत्तल लेंस बीच में मोटा तथा किनारों पर पतला होता है। उत्तल लेंस अनन्त से आने वाली किरणो को सिकोड़ता है इसीलिए इसे अभिसारी कहते हैं। उत्तल लेंस तीन प्रकार के होते हैं उभयोत्तल, समतल उत्तल, अवतलोत्तल लेंस।

अवतल लेंस (Concave Lens): यह बीच में पतला एवं किनारों पर मोटा होता है। अवतल लेंस अनन्त से आने वाली किरणों को फैलाता है इसे अपसारी लेंस (Diverging Lens) भी कहते है। यह भी तीन प्रकार के होते हैं ।
उभयावत्तत, समतल अवतलत तथा उत्तलावतल लेंस।
लेंस के दोनों तलों के वक्रता केंद्रों को जोड़ने वाली रेखा लेंस का मुख्य अक्ष कहलाती है। लेंसों में दो फोकस तथा दो वक्रता केन्द्र होते हैं। लेंस के द्वितीय फोकस को मुख्य फोकस भी कहते हैं। उत्तल लेंस में फोकस वास्तविक तथा अवतल लेंस में आभासीं होता है। उत्तल लेंस की फोकस दूरी को धनात्मक तथा अवतल लेंस की ऋणात्मक होती है।
लेंस के मध्य में स्थित बिन्दु को लेंस का प्राकाशिक केंद्र कहते हैं। यदि लेंस के दोनों ओर का माध्यम एक समान हो तो लेंस की दोनों फोकस दूरियाँ बराबर होती है।

लेंस की क्षमता (Power of a Pens): उत्तल लेंस में जब प्रकाश किरणें मुख्य के समानान्तर चलती हुई लेंस पर आपतित होती हैं तो यह लेंस अपवर्तन के पश्चात् उन किरणों को मुख्य अक्ष की ओर मोड़ देता है तथा अवतल लेंस इन किरणों को मुख्य अक्ष से दूर हटा देता है इस प्रकार लेंस का कार्य उस पर आपतित होने वाली किरणों को मोड़ना है, इसी को लेंस की क्षमता कहते हैं। जो लेंस किरणों को जितना अधिक मोडता है उसकी क्षमता उतनी ही अधिक होती है। कम फोकस दूरी के लेंसो की क्षमता अधिक तथा फोकस दूरी के लेंसो की क्षमता कम होती है। लेंस की क्षमता का मात्रक डायोप्टर (Dioptre) है। उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक एवं अवतल लेंस की ऋणात्मक होती है। दो लेंसों को सटाकर रखने पर उनकी क्षमताएं जुड़ जाती है। जब समान फोकस दूरी के उत्तल व अवतल लेंसों को परस्पर मिलाया जाता है तो ये समतल काँच की भाँति व्यवहार करते हैं इनकी क्षमता शून्य एवं फोकस दूरी अनन्त होती है।
लेंस को किसी द्रव में डुबोने पर लेंस की फोकस दूरी व क्षमता दोनों परिवर्तित हो जाती है।
यदि ऐसे द्रव में किसी लेंस के डुबोया जाय जिसका अपवर्तनाँक लेंस के अपवर्तनाँक से कम हो तो लेंस की फोकस दूरी बढ़ती है और क्षमता घट जाती है। परन्तु लेंस की प्रकृति अपरिवर्तित रहती है।
यदि ऐसे द्रव में लेंस को डुबोया जाय जिसका अपवर्तनाँक लेंस के अपवर्तनाँक के बराबर हो तो लेंस की फोकस दूरी अनन्त व क्षमता शून्य हो जाती है और लेंस समतल प्लेट की भाँति व्यवहार करेगा व दिखाई नहीं देगा।
यदि ऐसे द्रव में किसी लेंस को डुबोया जाय कि जिसका अपवर्तनाँक लेंस के अपवर्तनाँक से अधिक हो तो लेंस की प्रकृति बदल जायेगी। इसी कारण पानी में डूबा हवा का बुलबुला (उत्तल प्रकृति है) अवतल लेंस की भाँति व्यवहार करता हैं क्योंकि जल का अपवर्तनाँक हवा से अधिक होता है।

प्रकाश का वर्ण विक्षेपण (Dispersion of light) : सूर्य का प्रकाश जब किसी प्रिज्म से गुजरता है तब अपवर्तन के कारण प्रिज्म के आधार की आरे झुकने के साथ साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बँट जाता है। इस प्रकार प्राप्त रंगों के समूह को वर्णक्रम (Spectrum) कहते है। तथा प्रकाश के विभिन्न रंगों में विभक्त होने की वर्ण विक्षेपण कहते है। सूर्य के प्रकाश से प्राप्त रंगों में बैगनी रंग का विक्षेपण अधिक होने के कारण सबसे नीचे तथा लाल रंग का विक्षेपण कम होने के कारण सबसे ऊपर प्राप्त होता है। नीचे से ऊपर की ओर विभिन्न रंगों का क्रम क्रमशः बैगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी तथा लाल है। इसे संक्षेप में बैजनीहपीनाला (VIBGYOR) कहते है।
लालरंग की तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक व अपवर्तनाँक सबसे कम तथा वेग भी सर्वाधिक होता है। बैगनी रंग के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य सबसे कम व वेग भी सर्वाधिक होता है। बैगनी रंग के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य सबसे कम व वेग भी कम होता है क्योंकि इसका अपवर्तनाँक अधिक होता है। प्रकाश की तरंग दैर्ध्य को एंग्स्ट्राम में मापते है। किसी पदार्थ में जैसे जैसे प्रकाश के रंगों का अपवर्तनाँक बढ़ता जाता है वैसे माध्यम में उसकी चाल कम होती जाती है।

इन्द्र धनुष (Rainbow) : इन्द्र धनुष बनने का कारण परावर्तन , पूर्ण आंतरिक परावर्तन तथा अपवर्तन है। इन्द्रधनुष हमेशा सूर्य के विपरीत दिशा में दिखायी देती हैं और यह प्रात: पश्चिम में एवं सायंकाल पूर्व दिशा में ही दिखायी देती। है। इन्द्र धनुष दो प्रकार की होती है। प्राथमिक एवं द्वितीयक।
जब बूदों पर आपतित सूर्य किरणों को दो बार अपर्वन तथा एक बार परावर्तन होता है तो प्राथमिक इन्द्रधनुष बनता है। इसमें लालरंग बाहर और बैगनी रंग अन्दर की ओर होता है।
जब बूदों पर आपतित सूर्य किरणों का दो बार अपवर्तन तथा दो बार परावर्तन हो तो द्वितीयक इन्द्रधनुष बनता है। इसमें लालरंग अन्दर की ओर कुद धुंधला दिखायी देता है।

प्रकाश का प्रकीर्णन (Scattering of Light) : जब सूर्य का प्रकाश वायुमण्डल से गुजरता है तो प्रकाश वायुमण्डल में उपस्थित कणों द्वारा विभिन्न दिशाओं में फैल जाता है, इसी प्रक्रिया को प्रकाश का प्रकीर्णन कहते है। किसी रंग का प्रकीर्णन उसकी तरंग दैर्ध्य पर निर्भर करता हैं। जिस रंग के प्रकाश की तरंग दैर्ध्य कम होती है उसका प्रकीर्णन अधिक तथा अधिक तरंग दैर्ध्व वाले का प्रकीर्णन कम होता है। सूर्य के प्रकाश में बैगनी रंग का तरंग दैर्ध्य सबसे कम होने के कारण प्रकीर्णन सर्वाधिक तथा लाल रंग की तरंग दैर्ध्य सर्वाधिक होने के कारण प्रकीर्णन सबसे कम होता है।
बैगनी रंग का प्रकीर्णन सर्वाधिक होने के कारण ही आकाश नीला दिखाई देता है। ओर लाल रंग के प्रकीर्णन कम होने के कारण ही डूबते व उगते समय सूर्य लाल दिखाई देता है क्योंकि अन्य रंगों का प्रकीर्णन हो जाता है। प्रकीर्णन के कारण ही समुद्र का पानी भी नीला दिखाई देता है। अन्तरिक्ष से अन्तरिक्ष यात्रियों को आकाश काला दिखाई देता है क्योंकि वहां वायुमण्डल न होने के कारण प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं होता है। चन्द्रमा से भी आकाश काला ही दिखाई देता हैं।

वस्तुओं का रंग (Colour of Objects) : प्रकाश किरों जब वस्तुओं पर पड़ती हैं तो वे वस्तु से परावर्तित होकर देखने वाले की आँखों में प्रवेश करती है और वस्तु दिखाई देने लगती है। वस्तुएं प्रकाश का कुछ भाग परावर्तित करती हैं तथा कुछ भाग अवशोषित करती है प्रकाश का परावर्तित भाग ही वस्तुओं का रंग निर्धारित करता हैं। जैसे गुलाब की पत्तियाँ हरे रंग को तथा पंखुड़ियाँ लाल प्रकाश को परावर्तित करने के कारण हरी एवं लाल दिखती है। शेष प्रकाश को अवशोषित कर लेती हैं। यदि गुलाब को हरे प्रकाश में देखा जाय तो पत्तियां हरी एवं पंखुड़ियां काली दिखाई देती है वह उस रंग के प्रकाश को परावर्तित तथा शेष रंगों के प्रकाश को अवशोषित कर लेती है।

रंगों का मिश्रण : 
नीले लाल एवं हरे रंगों को उपयुक्त मात्रा में मिलाकर अन्य रंगों को प्राप्त किया जा सकता है। इन्हें प्राथमिक रंग कहते हैं रंगीन टेलीविजन में इन्हीं का प्रयोग किया जाता है। पीला, मैजेंटा, पीकॉक ब्लू को द्वितीयक रंग कहते है। जिन दो रंगों को परस्पर मिलाने से सफेद प्रकाश उत्पन्न होता है उन्हें पूरक रंग (Complementary Colour) कहते है।

आँख (Eye) : शरीर का महत्वपूर्ण अंग एक कैमरे की तरह कार्य करता है। बाहरी भाग दश्ढपटल नामक कठोर अपारदर्शी झिल्ली से ढकी रहती है दश्ढपटल के पीछे उभरा हुआ भाग कार्निया कहलाता है। (नेत्रदान में कार्निया ही निकाली जाती है।) कार्निया के पीछे नेत्रोद (Aqucous Humour) नामक पारदर्शी द्रव भरा होता है। कार्निया के पीछे स्थित पर्दा आइरिस आँख में प्रवेश करने वाले प्रकाश को नियंत्रित करता है जो कम प्रकाश में फैल एवं अधिक प्रकाश में सिकुड़ जाता है। इसी लिए बाहर से कम प्रकाश वाले कमरे में प्रवेश करने पर कुछ देर तक हमें कम दिखाई देता है। पुतली के पीछे स्थित लेंस द्वारा वस्तु का उल्टा, छोटा तथा वास्तविक प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। आँख में स्थित पेशियाँ लेंस पर दबाव डाल कर पृष्ठ की वक्रता को घटाती बढ़ाती रहती है। जिससे फोकस दूरी भी कम ज्यादा होती रहती है। एक्टकपटल (Choroid) प्रकाश का अवशोषण कर लेता है और प्रकाश का परावर्तन नहीं हो पाता है। किसी वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणें कार्निया तथा नेत्रोद से गुजरने के पश्चात् लेंस पर पड़ती हैं लेंस से अपवर्तित होकर काँचाभ द्रव से होती हुई रेटिना पर पड़ती हैं रेटिना पर वस्तु का उल्टा एवं वास्तविक प्रतिबिम्ब बनता है। प्रतिबिम्ब बनने का संदेश बनने का संदेश दृश्य तंलिकाओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचता है और वस्तु दर्शक को दिखायी देने लगती है।

आँख की समंजन क्षमता (Power of accommodation) : स्पष्ट देखने के लिए आवश्यक है कि वस्तु से चलने वाली किरणें रेटिना पर ही केन्द्रित हो, किरणों के आगे पीछे केन्द्रित होने पर वस्तु दिखायी नहीं देगी। वस्तु को धीरे धीरे आँख के समीप लायें व फोकस दूरी को उतनी ही रखें तो वस्तु से चलने वाली किरणें रेटिना के पीछे फोकस होने लगेगी और वस्तु दिखायी नहीं देगी। वस्तु को ज्यो ज्यो आँख के पास लाते है पक्ष्माभिकी पेशियाँ, लेंस की फोकस दूरी को कम करके, ऐसे समायोजित कर देती हैं कि वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटिना पर ही बनता रहे। इस प्रकार आँख की पेशियों द्वारा नेत्र की फोकस दूरी के समायोजन के गुण को ‘नेत्र की समंजन क्षमता' कहते है।
नेत्र के सामने की वह निकटतम दूरी जहाँ पर रखी वस्तु नेत्र को स्पष्ट दिखायी देती है नेत्र की स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी कहलाती है सामान्य आँख के लिए यह 25 सेमी होती है। इसे आँख का निकट बिन्दु कहते है। निकट बिन्दु की तरह दूर बिन्दु भी होता है सामान्य आँख के लिए यह अनन्त होती है। मनुष्य की आँख का विस्तार 25 सेमी से लेकर अनन्त तक होता है।

निकट दृष्टि दोष (Myopia) : इसमें व्यक्ति को पास की वस्तुएँ स्पष्ट दिखाई देती है किंतु एक निश्चित दूरी से अधिक दूरी की वस्तुए स्पष्ट नहीं दिखती इसमें वस्तु का प्रतिबिम्ब आँख के रेटिना पर कुछ आगे बन जाता है। इसके निवारण हेतु अवतल लेंस का प्रयोग किया जाता है क्योंकि अवतल लेंस किरणों को फैलाकर रेटिना पर केन्द्रित कर देता है।

दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) : इसमें व्यक्ति को दूर की वस्तुएं तो स्पष्ट दिखायी देती हैं परन्तु पास की वस्तुएं नहीं दिखायी देती हैं इसमें प्रतिबिम्ब रेटिना पर न बनकर कुछ पीछे बनने लगता है। इसके निवारणार्थ उत्तल लेंस का प्रयोग किया जाता है क्योंकि उत्तल लेंस किरणों को सिकोड़ कर रेटिना पर केन्द्रित कर देता हैं
प्रकाश का विवर्तन (Diffraction of light) : प्रकाश के अवरोधों के किनारों पर मुड़ने की घटना को प्रकाश का विवर्तन कहते है। विवर्तन के कारण अवरोध की छाया के किनारे तीक्ष्ण नहीं होते। इसी कारण दूरदर्शी में तारो की प्रतिबिम्ब तीक्ष्ण बिन्दुओं के रुप में न दिखायी देकर अस्पष्ट धब्बों के रुप में दिखायी देते हैं। प्रकाश का विवर्तन अवरोध के आकार पर निर्भर करता हैं यदि अवरोध का आकार प्रकाश की तरंग दैर्ध्य की कोटि का है तो विवर्तन स्पष्ट होता है। यदि अवरोध का आकार प्रकाश की तरंग दैर्ध्य की तुलना में बहुत बड़ा है तो विवर्तन उपेक्षणीय होगा। विवर्तन प्रकाश के तंरंग प्रकृति की पुष्टि करता है। ध्वनि तरंगें अवरोधों से आसानी से मुड़ जाती हैं और श्रोता तक पहुँच जाती है।

प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण (Interfernce of light) : जब समान आवृत्ति व समान आयाम की दो प्रकाश तरंगे तो मूलतः एक ही प्रकाश स्रोत से एक ही दिशा में संचरित होती हैं तो माध्यम के कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम व कुछ बिन्दुओं पर तीव्रता न्यूनतम पायी जाती है। इस घटना को ही प्रकाश तरंगों का व्यतिकरण कहते है। जिन बिन्दुओं पर प्रकाश की तीव्रता अधिकतम होती है वहाँ हुए व्यतिकरण को संयोजी व्यतिकरण (Constructive Interference) तथा जिन बिन्दुओं पर तीव्रता न्यूनतम होती है वहाँ हुए व्यतिकरण को विनाशी व्यतिकरण (Destructive Interference) कहते है। दो स्वतंत्र स्रोतों से निकले प्रकाश तरंगों में व्यतिकरण की घटना नहीं होती है। जल की सतह पर फैले मिट्टी के तेल तथा साबुन के बुलबुलों का रंगीन दिखाई देना व्यतिकरण का उदाहरा है।
व्यक्तिकरण में शून्य तीव्रता वाले स्थानों की ऊर्जा नष्ट नहीं होती बल्कि जितनी ऊर्जा नष्ट होती है उतनी ही ऊर्जा अधिकतम तीव्रता वाले स्थानों पर प्रकट हो जाती है।

प्रकाश तरंगों का ध्रुवण (Polarisation of light waves) : प्रकाश तरंगें एक प्रकर की विद्युत चुम्बकीय तरंगे हैं।
जिनमें विद्युत व चुम्बकीय क्षेत्र एक दूसरे के लम्वत् होते हैं व तरंगों के संचरण की दिशा के लम्वत् तलों में कम्पन करते हैं प्रकाश के संचरण के लिए विद्युत कम्पन ही मुख्य रुप में उत्तरदायी होते हैं चूँकि प्रकाश तरंगें अनुप्रस्थ तरंगें हैं अतः ये विद्युत कम्पन तरंग संचरण की दिशा के लम्वत् होते है। जब ये कम्पन तल में स्थित हर दिशा में यादश्च्छ रुप से वितरित होते है तो ऐसी तरंग को अध्रुवित तरंग और यदि विद्युत कम्पन तल में सभी दिशाओं में समान रुप से वितरित न होकर एक ही दिशा में हो तो प्रकाश तरंगों को धूवित तरंगे कहते है।

दर्शन कोण (VisualAngle) : वस्तु आँख पर जितना कोण बनाती है, उसे दर्शन कोण कहते हैं वस्तु का आकार इसी पर निर्भर करता है। दर्शन कोण बड़ा होने पर वस्तु बड़ी तथा छोटा होने पर छोटी दिखाई देगी। दूरदर्शी व सूक्ष्म दशी द्वारा दर्शन कोण बढ़ाकर वस्तु का आभासी आकार बढाया जा सकता है।

सरल सूक्ष्मदर्शी (Simple Microscope) : यह ऐसा यंत्र है जिसकी सहायता से सूक्ष्म वस्तुओं को देख सकते हैं। इसमें छोटी फोकस दूरी का उत्तल लेंस लगा होता है। जब कोई वस्तु इसमें लगे लेंस के सामने इसकी प कम दूरी पर रखते है तब वस्तु का आभासी, सीधा व बड़ा प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। इसका उपयोग जीवाणुओं को देखने, फिंगरप्रिंट की जाँच व छोटे पैमाने को पढने में किया जाता है। अति सूक्ष्म कणे को देखने के लिए इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी का उपयोग होता है। जिसमें प्रकाश किरणें के स्थान पर इलेक्ट्रान पुंजों का प्रयोग होता है। यह साधारण सूक्ष्मदर्शी की अपेक्षा वस्तुओं का आकार 5000 गुना बड़ा दिखाती है।

संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (Compounal Microscope) : सरल सूक्ष्मदर्शी से अधिक आवर्धक क्षमता प्राप्ति हेतु संयुक्त सूक्ष्म दर्शी का उपयोग किया जाता है। इसमें दो उत्तल लेंस लगे होते हैं एक को अभिदश्श्यक (Objective) व दूसरे को नेत्रिका (Eye Piece) कहते है। नेत्रिका तथा अभिदश्श्यक में जितनी ही कम फोकस दूरी के लेंसों का उपयोग होता है। सूक्ष्मदर्शी की आवर्धन क्षमता उतनी ही अधिक होती है। इसका उपयोग सूक्ष्म वनस्पतियों एवं जन्तुओं को देखने तथा खून व बलगम की जाँच में किया जाता है।

दूरदर्शी (Telescope) : इसका उपयोग आकाशीय पिण्डों चन्द्रमा, तारों एवं अन्य ग्रहों आदि को देखने में किया जाता है। इसमें दो उत्तल लेंस एक अभिदृश्यक पर एवं दूसरा नेत्रिका पर लगे होते है। अभिदृश्यक लेंस एक बेलनाकार नली के एक किनारे पर तथा नेत्रिका लेंस नली के दूसरे किनारे पर लगा होता है। बड़े लेंसों के निर्माण में कठिनाई को दशष्टिगम करके परावर्तक दूरदर्शी बनाया जा रहा है जिसमें अवतल दर्पण का प्रयोग परावर्तक तल के रुप में होता है। कुछ दूरदर्शियों में परवलयाकार दर्पण का भी प्रयोग हो रहा है।

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