ओजोन परत क्या है? ओजोन परत किसे कहते हैं? प्रभाव, क्षरण , कारण , उपाय | ozone layer in hindi | ojon parat

ओज़ोन परत (Ozone Layer)

पृथ्वी ग्रह के वायुमंडल में गैसों की एक नाजुक पेटी पाई जाती है, जो पृथ्वी के लिये प्राकृतिक सनस्क्रीन का कार्य करती है और उसे सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों (खासकर UV-B) से बचाती है। हालाँकि, ओजोन गैस की एक और परत पृथ्वी के वायुमंडल की निचली परत क्षोभमंडल में भी पाई जाती है परंतु यह मनुष्य के लिये हानिकारक होती है।
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ओजोन गैस वायुमंडल में 2 अलग-अलग स्तरों पर पाई जाती है
  1. समतापमंडल
  2. क्षोभमंडल

समतापमंडल (Stratosphere)
ओज़ोन का अधिकांश भाग (करीब 90%) समतापमंडल की निचली परत में 15 से 30 किमी. के बीच पाया जाता है। समतापमंडल की सीमा 10 से 17 कि.मी. के ऊपर से 50 कि.मी. तक होती है। इस क्षेत्र की ओजोन को ही सामान्यतः हम ओजोन परत (Ozone Layer) कहते हैं। समतापमंडल में ओजोन का निर्माण लगातार पराबैंगनी किरणों (लघु तरंगदैर्ध्य) द्वारा होता रहता है।
समतापमंडल का ओजोन अच्छा ओज़ोन कहलाता है, क्योंकि यह सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों (95%) को अवशोषित कर, पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करता है।
इसलिये इसे 'पृथ्वी का रक्षा कवच' या 'पृथ्वी का छाता' कहते हैं।

क्षोभमंडल (Troposphere)
इस मंडल में ओज़ोन का बाकी भाग (10%) पाया जाता है जो वायुमंडल का निचला स्तर है। क्षोभमंडल का ओज़ोन बुरा ओज़ोन कहलाता है क्योंकि यह वायु प्रदूषित करता है एवं स्मॉग के निर्माण में मदद करता है जो श्वसन के लिये अच्छा नहीं होता।

ओजोन परत की खोज

सन् 1913 में भौतिकी के वैज्ञानिकों ने ओजोन परत की खोज की थी इनके अनुसार सर्य से आने वाले प्रकाश का स्पेक्ट्रम लेकर उसका अध्ययन किया तो पाया कि इस स्पेक्ट्रम के कुछ स्थान पर काले रंग के धब्बे जैसे पाये गये थे तथा एक निश्चित तरंगदैर्ध्य से कम का कोई भी विकिरण पृथ्वी तक नहीं पहुंच रहा था, यह भाग तरंगदैर्ध्य आधार पर UV क्षेत्र या अल्ट्रावायलेट भाग कहलाता है, यह इस कारण था कि कोई तत्व इन पराबैंगनी विकिरणों को अवशोषित कर लेता है इसी कारण से बनने वाले स्पेक्ट्रम में ये काले भाग या काले स्पॉट के रूप में दिखाई देते है तथा इस क्षेत्र में कोई भी विकिरण दिखाई नहीं देते है।
सूर्य से आने वाले प्रकाश का लिए गये स्पेक्ट्रम में जो भाग नहीं दिख रहा था वह ओजोन के गुणधर्मो के समान था जिससे वैज्ञानिको द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया कि वायुमण्डल में पराबैंगनी किरणों का अवशोषित करने वाला यह तत्व ओजोन है। तथा इस ओजोन परत का निर्माण सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के कारण ही होता है। पराबैंगनी किरणें जब सामान्य O2 अणु से मिलती है तो ये O2 को परमाणुओं में विभक्त कर देती है, मुक्त ऑक्सीजन अन्य दूसरे ऑक्सीजन अणु के साथ रासायनिक क्रिया द्वारा जुडकर ओजोन अणु (O3) का निर्माण करता है।
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और मुक्त हुई ऑक्सीजन फिर से ऑक्सीजन परमाणु के साथ मिलकर ओजोन अणु का निर्माण करती है, तथा ओजोन अणु पुनः पराबैंगनी किरणें अवशोषित कर ऑक्सीजन परमाणु व ऑक्सीजन अणु में टूट जाती है। और ये चक्र निरन्तर इसी तरह चलता है।


वायुमंडलीय ओज़ोन का मापन

वायुमंडलीय ओजोन का मापन डॉबसन स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा किया जाता है एवं इसे डॉबसन यूनिट में व्यक्त किया जाता है। एक डॉबसन यूनिट, शुद्ध ओजोन की 0.01 मिलीमीटर की मोटाई के बराबर होती है। यह घनत्व ओज़ोन को धरातलीय स्तर के दबाव पर लाने से प्राप्त होता है। वायुमंडलीय ओज़ोन को निम्न मापकों द्वारा मापा जाता है -
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  • डॉबसन स्पेक्ट्रोमीटर (Dobson Spectrometer) द्वारा
  • फिल्टर ओज़ोन मीटर (Filter Ozone Meter-M83) द्वारा
  • टोटल ओजोन मैपिंग स्पेक्ट्रोमीटर (Total Ozone Mapping Spectrometer-TOMS) द्वारा
  • ओजोन छिद्र तकनीकी रूप से कोई छिद्र नहीं है जहाँ पर कोई ओज़ोन गैस उपस्थित नहीं होती बल्कि यह अंटार्कटिका के ऊपर समतापमंडल में ओजोन अपघटित क्षेत्र है जो दक्षिणी गोलार्द्ध में वसंत ऋतु (अगस्त-अक्तूबर) के शुरू होने पर घटित होता है।
  • वायुमंडल में ओज़ोन का औसत सांद्रण करीब 300 डॉबसन यूनिट है। कोई क्षेत्र जहाँ का सांद्रण 220 डॉबसन यूनिट से नीचे गिर जाता है वह ओजोन छिद्र का भाग माना जाता है।
चित्र में, नीले एवं बैंगनी रंग वाले क्षेत्र पर निम्न ओज़ोन के स्तर एवं हरे तथा पीले रंग वाली जगहों पर उच्च ओज़ोन का स्तर उपस्थित है।

ओज़ोन परत का पतला होना (Thinning of Ozone Layer)

1974 में रसायनविद् शेरवुड रॉलैण्ड एवं मारियो मोलिना ने पहली बार इंगित किया कि CFCs (क्लोरोफ्लोरोकार्बन) समतापमंडल के ओज़ोन के औसत सांद्रण में कमी ला रहे हैं। जोसेफ फरमन के नेतृत्व में ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण टीम ने 1985 में अंटार्कटिका के ऊपर वायुमंडलीय ओजोन की अल्पता का प्रत्यक्षदर्शी प्रमाण प्रस्तुत किया। जोसेफ फरमन ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर बताया कि अंटार्कटिका के ऊपर वायुमंडल में वसंतकाल में ओजोन परत में 40% क्षरण हो जाता है।
ओज़ोन विघटन का अवलोकन दक्षिणी ध्रुव से वसंत ऋतु अर्थात् सितंबर से नवंबर के बीच हर वर्ष किया गया। बाद में यह घटना ओज़ोन छिद्र (Ozone Hole) कहलाने लगी।

अंटार्कटिका के ऊपर सर्वाधिक ओज़ोन क्षरण का कारण

अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन क्षरण के तीन प्रमुख कारण हैं
  • ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल (PSCs)
  • ध्रुवीय भँवर (Polar Vortex)
  • सक्रिय क्लोरीन का प्रभाव (Active Chlorine Effect)

घुवीय समतापमंडलीय मेघ (Polar Stratospheric Cloud)
ध्रुवीय समतापमंडलीय मेघ नेक्रीऑस बादल (Nacreous Clouds) के नाम से भी जाने जाते हैं। इन मेघों की अवस्थिति पृथ्वी के समतापमंडल में उच्च तुंगता (High Altitude) पर होती है (~70,000 फीट)। सामान्यत: समतापमंडल में अत्यधिक शुष्कता पाए जाने के कारण यहाँ पर बादलों का निर्माण नहीं होता है लेकिन शीत ऋतु के समय इस ऊँचाई पर समतापमंडल का तापमान इतना कम हो जाता है कि बादलों का निर्माण भी संभव हो जाता है। इन बादलों के कण एकसमान आकार के एवं छोटे होते हैं जिनके द्वारा सूर्य के प्रकाश को एकसमान तरीके से परावर्तित किया जाता है। इस कारण ये बादल रंगीन होते हैं।
इन बादलों को 'मदर ऑफ पर्ल' (Mother of Pearl) भी कहा जाता है। ये बादल प्राकृतिक रूप से जल एवं नाइट्रिक अम्ल से निर्मित होते हैं। समतापमंडल में मानव द्वारा निस्सृत CFC के कारण क्लोरीन की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। इन बादलों के हिम रवे (Ice Crystals) ओजोन विघटन हेतु सतह प्रदान करते हैं, जिनसे समतापमंडलीय संरचना में परिवर्तन होता है। ये हिम रवे निष्क्रिय क्लोरीन को सक्रिय क्लोरीन में परिवर्तित कर देते हैं जो ओज़ोन क्षरण का कार्य शुरू कर देते हैं।

समतापमंडलीय बादल मुख्यतः 2 प्रकार के होते हैं-
  • Type 1 PSC- ये बादल नाइट्रिक एसिड ट्राईहाइड्रेट (NAT) से बने होते हैं। ये ठोस या द्रव रूप में हो सकते हैं। ये आवश्यक रूप से नेक्रीऑस बादल होते हैं।
  • Type 2 PSC- ये उतने सामान्य नहीं होते एवं निम्न तापमान पर जल-हिम रवों (Water Ice Crystal) से बने होते हैं। ये बादल दुर्लभ रूप से आर्कटिक में देखे जाते हैं।

ध्रुवीय भँवर (Polar Vortex)
वस्तुतः ध्रुवीय भँवर पवनों का एक पैटर्न है जो चक्रवातों के समान है एवं प्रत्येक वर्ष ध्रुवों के चारों ओर प्रवाहित होता है। ध्रुवीय भँवर का तापमान -80°C होता है जो ध्रुवीय समतापमंडलीय बादलों के निर्माण में सहायता करता है। ये ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल ओज़ोन विघटन हेतु जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि ये क्लोरीन यौगिकों के भंडार को स्वयं में समेटे रहते हैं। सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में इन क्लोरीन यौगिकों से क्लोरीन मुक्त होकर ओज़ोन का क्षरण करता है।


सक्रिय क्लोरीन का प्रभाव (Active Chlorine Effects)
क्लोरीन के भंडार (Reservoir) जो कि हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) एवं क्लोरीन नाइट्रेट (CINO3/CIONO2) के रूप में होते हैं, वे स्थिर यौगिक होते हैं एवं क्लोरीन को किसी भी अभिक्रिया में भाग लेने के लिये पहले इन भंडारों से मुक्त होना पड़ता है। PSC के हिम कण इस क्लोरीन को उसके भंडार से मुक्त करने हेतु सतह प्रदान करते हैं।

जाड़ों के समय अंटार्कटिका में ओज़ोन परत की स्थिति (Status of Ozone Layer During Winters)
शीत ऋतु आते-आते हवा अत्यधिक ठंडी होनी शुरू हो जाती है एवं तापमान -80°C तक पहुँच जाता है। यह निम्न तापमान ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल के निर्माण का कारण बनता है।
इस निम्न तापमान द्वारा ध्रुवीय भँवर (Polar Vortex) स्थिर होता है जो कि तेज़ी से घूमती हुई हवा का घेरा होता है। पूरे ध्रुवीय क्षेत्र में शीत ऋतु में यह भँवर स्थिर रहता है। इन भँवरों के कारण तापमान इतना गिर जाता है कि ध्रुवीय समतापमंडलीय बादलों का निर्माण होने लगता है। ये ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल ओजोन हितैषी क्लोरीन (अक्रिय क्लोरीन) को सक्रिय क्लोरीन में बदलने हेतु उपयुक्त सतह उपलब्ध कराते हैं, जिससे आण्विक क्लोरीन (Molecular Chlorine) का निर्माण होता है।
सितंबर में जब ऑस्ट्रल वसंत शुरू होता है तब ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल गायब हो जाते हैं क्योंकि सूर्य के प्रकाश के लौटने से तापमान में वृद्धि शुरू हो जाती है।

वसंत के समय अंटार्कटिका में ओज़ोन परत की स्थिति (Status of Ozone Layer During Spring)
वंसत में जब सूर्य का प्रकाश तीव्र होता है तो आण्विक क्लोरीन (Molecular Chlorine) दो क्लोरीन परमाणुओं में टूट जाता है जो तेजी से ओजोन क्षरण शुरू कर देते हैं। इस कारण अंटार्कटिका के ऊपर हर वसंत में ओजोन की सांद्रता में कमी आती है। यही अंटार्कटिका ओजोन छिद्र कहलाता है। अक्तूबर के समय ओज़ोन अपने निम्नतम स्तर पर पहुँच जाता है। नवम्बर में ध्रुवीय भँवर टूटता है एवं मध्य अक्षांश में अंटार्कटिका के समतापमंडल में ओज़ोन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।

समतापमंडलीय ओज़ोन परत अपघटन का प्रभाव (Effects of Decomposition of Stratospheric Ozone)
समतापमंडलीय ओजोन परत सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों (220-320 nm तरंगदैर्ध्य) को अवशोषित कर लेती है। अगर यह ओज़ोन परत विघटित हो जाए तो ज्यादा पराबैंगनी किरणें पृथ्वी तक पहुँचेगीं। ज्यादा मात्रा में पराबैंगनी किरणों का सामना करने से जैवमंडल पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि UV-B (290-320 nm) किरणें ज्यादा मात्रा में पृथ्वी की सतह तक आएंगी। इस कारण पृथ्वी के जीवमंडल पर निम्न प्रभाव पड़ेगा

समुद्री पारितंत्र पर प्रभाव (Effects on Marine Ecosystem)
फाइटोप्लैंकटन जलीय आहार जाल के आधार का निर्माण करते हैं। UV-B विकिरण की ज्यादा मात्रा फाइटोप्लैंकटन के उत्पादन में कमी लाती है। सौर्यिक UV-B विकिरण द्वारा मछली, श्रिम्प (Shrimp), केकड़ा (Crab), उभयचर (Amphibians) एवं दूसरे जानवरों के पूर्व विकासीय चरणों (Early Developmental Stages ) को क्षति पहुँचती है, जिस कारण लार्वा का विकास प्रभावित होता है फाइटोप्लैंकटन की संख्या में कमी से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ेगी जिससे वैश्विक तापन में वृद्धि होगी।

ओजोन प्रभामंडल (Ozone Halo)

ओजोन विघटन की घटना अब अनजान नहीं रही परंतु 2005 में कनाडा के टोरंटो विश्वविद्यालय के रसायन एवं भौतिक विभाग के एक अध्ययन दल (जे.डब्ल्यू. केन्टमूर, जॉन सेम्पल) द्वारा तिब्बत पठार के चारों तरफ अतिरिक्त ओजोन की उपस्थिति की बात सामने आई। ओजोन के एक सांद्रित घेरे को पठार के चारों तरफ, समुद्र स्तर से 4000 मी. की ऊँचाई पर पाया गया जिसमें पठार के ऊपर केन्द्रीय भाग में ओज़ोन की कम मात्रा एवं परिधि के चारों ओर अतिरिक्त ओजोन का छल्ला उपस्थित है। इस ओजोन की सांद्रता भारी रूप से प्रदूषित शहरों की ओज़ोन सांद्रता की तरह थी जिसमें पठार के ऊपर केन्द्रीय भाग में ओजोन की कम मात्रा एवं परिधि के चारों ओर अतिरिक्त ओजोन का छल्ला उपस्थित है।
जब किसी स्थान के ऊपर समतापमंडल में ओजोन का सांद्रण अधिक होता है एवं अंदर तथा बाहर की ओर कम होता है तो ऐसी स्थिति को ओज़ोन हैलो (प्रभामंडल) कहते हैं। इसकी स्थिति ओजोन क्षरण के विपरीत होती है। ओज़ोन एक उच्च रूप से परिवर्तनशील गैस है जिसके उच्च सांद्रण से कफिंग (Coughing), सीने में दर्द (Chest Pain) एवं फेफड़ों की भीतरी दीवारों को क्षति होती है। इसी कारण पर्वतारोहियों को एवरेस्ट के ऊपरी भाग के नज़दीक साँस लेने में समस्या होती है।
भूटान के येली ला दरें से गुज़रने पर पाया गया कि 3,000 -5,000 मीटर की तुंगता (Altitude) पर ओज़ोन का स्तर बढ़ रहा है जबकि सामान्य रूप से तुंगता में वृद्धि होने पर प्रदूषण स्तर में कमी आती है।

वनस्पति पर प्रभाव (Effects on Vegetation)

UV-B विकिरण के बढ़े हुए स्तर के प्रति अनुकूलन की क्षमता के बावजूद, पौधों की वृद्धि UV-B विकिरण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है। जिन फसलों में रासायनिक उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाता है वे अधिक पराबैंगनी विकिरण के कारण झुलस जाएंगी। तापमान में वृद्धि के कारण जलीय सतह तथा मृदा की नमी के वाष्पीकरण से फसलें सूखने लगेंगी।

प्रत्यक्ष प्रभाव
UV-B विकिरण द्वारा पौधों की शारीरिक एवं विकासीय प्रक्रिया प्रभावित होती है। यहाँ तक कि सूर्य के प्रकाश में उपस्थित UV-B की मात्रा द्वारा भी ये प्रभावित हो जाते हैं। हालाँकि इस स्थिति से निबटने हेतु उनके पास विकसित तंत्र होता है परंतु लंबे समय तक UV-B किरणों के अनावृत (Exposure) होने से पौधों की वृद्धि रुक जाती है एवं उन्हें गंभीर क्षति पहुँचती है। रोगों के प्रति प्रतिरोधकता कम हो जाती है, जैसे मटर एवं बंदगोभी।

अप्रत्यक्ष प्रभाव
UV-B विकिरण के कारण
  • पौधों के आकार में परिवर्तन
  • पौधों में पोषक तत्त्वों के वितरण में परिवर्तन
  • विकासीय समय में परिवर्तन
अंततः फसल उत्पादन में कमी, बीजों की क्षति, फसल की गुणवत्ता में कमी एवं पत्तियों की क्षति जैसे प्रभाव सामने आते हैं।

मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव (Effects on Human Health)

UV-B विकिरण के अधिक मात्रा में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने से तापमान में वृद्धि होगी जिससे नॉन मेलानोमा त्वचा कैंसर (Non- Melanoma Skin Cancer) में वृद्धि होगी।
अत्यधिक पराबैंगनी विकिरण के कारण प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया में वृद्धि होने के कारण श्वसन तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। साथ ही फसलों एवं जलीय आहार के प्रभावित होने से मानव के लिये खाद्य संकट उत्पन्न होगा।
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  • UV-B विकिरण आनुवंशिक पदार्थ (DNA) को प्रभावित करता है, जिससे जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation) एवं आनुवंशिक दोष (Genetic Defect) पैदा हो सकते हैं।
  • त्वचा कैंसर में वृद्धि होगी।
  • मोतियाबिंद एवं अन्य नेत्र दोष
  • प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System) का कमज़ोर होना
  • सन बर्न (Sunburn)

जैव भू-रासायनिक चक्र पर प्रभाव (Effects on Bio Geo-chemical Cycle)
सौर्यिक पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि स्थलीय एवं जलीय जैव भू-रासायनिक चक्र को प्रभावित करती है, जिससे दोनों स्रोतों में परिवर्तन होता है एवं ग्रीनहाउस गैसों के भण्डारगृह भी प्रभावित होते हैं। इन सबके कारण जलवायु परिवर्तन जैसी घटना में वृद्धि होती है।

पदार्थों पर प्रभाव (Effects on matters )
पेंट, प्लास्टिक, सिंथेटिक पॉलीमर का तीव्र अपघटन होता है।

क्षोभमंडलीय ओज़ोन गैस का प्रभाव (Effects of Troposphere Ozone Gas)

क्षोभमंडल में अवस्थित ओजोन हरे पौधों, वन एवं मनुष्यों हेतु हानिकारक एवं जहरीला होता है। यह पौधों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के अंतर्ग्रहण में कमी लाता है जिससे वैश्विक तापन में वृद्धि होती है। वॉलेटाइल ऑर्गेनिक कम्पाउण्ड्स (VOCs), सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में NOx से प्रतिक्रिया कर ओजोन का निर्माण करता है जो कि फोटोकेमिकल स्मॉग (Photochemical Smog) के निर्माण हेतु उत्तरदायी होता है, जिससे दृश्यता में कमी आती है एवं आँखों में जलन एवं पानी का आना श्वसन से जुड़ी समस्याएँ (श्वसन ट्रैक्ट में सूजन, अस्थमा, साँस लेने में दिक्कत) तथा आँख, नाक एवं गले की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। रबर, कपड़ों, पेंट एवं अनावृत सतहों पर भी इसका हानिकारक प्रभाव होता है।

ओज़ोन क्षरण नियंत्रण हेतु अंतर्राष्ट्रीय प्रयास

1970 एवं 1980 के दशक से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की ओज़ोन विघटनकारी पदार्थों (ODS) द्वारा ओजोन परत को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति के प्रति चिंता बढ़ गई। 1985 में ओजोन परत की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु वियना कन्वेंशन हुआ। इस सहयोग की परिणति 1987 में ओजोन परत क्षयकारी पदार्थों पर नियंत्रण हेतु मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के रूप में हुई।

वियना कन्वेंशन (Vienna Convention)
ओजोन परत की सुरक्षा हेतु विश्वस्तर पर वियना कन्वेंशन को 1985 में अपनाया गया एवं 1988 में यह कार्यविधि में आया। यह एक बहुपक्षीय पर्यावरणीय समझौता (Multilateral Environment Agreement) है एवं इसे अक्सर फ्रेमवर्क कन्वेंशन के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि वैश्विक ओजोन परत की सुरक्षा हेतु किये गए प्रयासों के लिये इसने एक फ्रेमवर्क का काम किया है। 2009 में वियना कन्वेंशन सार्वभौमिक सत्यापन (Universal Ratification) को प्राप्त करने वाला पहला कन्वेंशन बन गया। हालाँकि, वियना कन्वेंशन के अंतर्गत CFCs के उपयोग में कमी लाने हेतु किसी के लिये कोई बाध्यकारी नियम नहीं है। इन्हें मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में जगह दी गई है।

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जिसे ओजोन परत क्षरण हेतु जिम्मेदार पदार्थों के उत्पादन एवं उपभोग में कमी लाने हेतु तैयार किया गया था ताकि उन पदार्थों की वातावरण में उपलब्धता कम हो एवं पृथ्वी की नाजुक ओजोन परत को सुरक्षित किया जा सके।
मूल मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को 16 सितम्बर, 1987 को अपनाया गया जो 1 जनवरी, 1989 से प्रभावी रूप से कार्य करने लगा। इस समझौते में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने प्रमुख भूमिका निभाई है।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल उत्सर्जन के आधार पर एक बाध्यकारी समझौता है। मूल मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल 1987 के तहत विकसित देशों को 2000 तक CFC का उपयोग एवं उत्पादन पूरी तरह से प्रतिबंधित करने को कहा गया (मिथाइल क्लोरोफॉर्म 2005)। जिसमें विकसित देशों को 1994 तक अपने उपभोग एवं उत्पादन को 1986 के स्तर के 80% तक लाते हुए 2000 तक पूरी तरह से बंद कर देना था।
विकासशील देशों को CFC का उत्पादन एवं उपभोग 2010 तक बंद करने का समय दिया गया था। इसके तहत उन विकासशील देशों को छूट मिली है, जिनका वार्षिक उत्सर्जन (नियंत्रित पदार्थ का) 0.3 कि.ग्रा. प्रति व्यक्ति है। बाद में इसमें कई संशोधन भी हुए यथा- लंदन संशोधन (1990), कोपेनहेगन संशोधन (1992), तथा अमेरिका एवं कनाडा आदि देशों द्वारा प्रस्तावित HFC संशोधन आदि।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा कृषि, उपभोक्ता एवं औद्योगिक क्षेत्र में उपयोग में आने वाले ओजोन विघटनकारी पदार्थों की खपत एवं कुल वैश्विक उत्पादन में उल्लेखनीय कमी आई है । 2010 से प्रोटोकॉल का एजेंडा HCFC (Hydrochlorofluorocarbons) को धीरे-धीरे बाहर करने पर केंद्रित हो गया है।
2015 में दुबई में आयोजित 27वें MOP में HFCs (हाइड्रोफ्लोरोकार्बन) दुबई पाथ वे (Dubai Pathway) को अपनाया गया है। एक अध्ययन के अनुसार मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के अंतर्गत HFCs की कमी इस सदी के अंत तक 0.5°C वैश्विक तापमान में कमी ला देगी, जो ओजोन परत के संरक्षण में भी मदद करेगी।

किगाली समझौता
रवांडा के किगाली में अक्तूबर 2016 (MOP 28) में 197 देशों ने हाइड्रोफ्लोरो कार्बन (HFC) श्रेणी के ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन को कम करने के लिये एक ऐतिहासिक समझौता किया है। इसमें वर्ष 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग में 0.5 डिग्री सेल्सियस तक कमी लाने का लक्ष्य रखा गया है । किगाली समझौता 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, जिसमें केवल ओजोन परत के क्षरण के लिये ज़िम्मेदार गैसें शामिल थीं, में संशोधन कर ग्लोबल वार्मिंग के लिये ज़िम्मेदार गैसों को भी शामिल करता है। संशोधित मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल 2019 से सदस्य देशों के लिये बाध्यकारी हो जाएगा।
सभी हस्त कर्त्ता देशों को HFCs की कटौती की अलग-अलग समय-सीमा के साथ तीन समूहों में विभाजित किया गया है:
  • पहला समूह : इसमें अमेरिका और यूरोपीय संघ (EU) के देश शामिल हैं। वे 2018 तक HFCs के उत्पादन और खपत को स्थिर कर लेंगे तथा 2036 तक इसे 2012 के स्तर से लगभग 15% कम करेंगे। 
  • दूसरा समूह : इसमें चीन, ब्राजील और संपूर्ण अफ्रीका के देश शामिल हैं। वे 2024 तक HFCs के उपयोग को स्थिर कर 2045 तक इसे 2021 के स्तर से 20% तक कम कर देंगे।
  • तीसरा समूह : इसमें भारत, पाकिस्तान, ईरान, सऊदी अरब आदि देश शामिल हैं। वे 2028 तक HFCs के उपयोग को स्थिर कर 2047 तक इसे 2025 के स्तर से 15% तक कम करेंगे।

ओजोन परत के अपक्षय के कारण

ओजोन परत (O3) को मानव तथा प्राकृतिक-दोनों कारणों से नष्ट किया जा सकता है:-

(i) प्राकृतिक कारण : प्रकृति से उत्पन्न कई पदार्थ समतापमंडलीय ओजोन को नष्ट कर देते हैं। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण यौगिक हैं:-
हाइड्रोजन आक्साइड (HOX), मीथेन (CH4), हाइड्रोजन गैस (H2), नाइट्रोजन आक्साइड (NOX), क्लोरीन मोनोआक्साइड (CIO), ज्वालामुखी फटने के समय, क्लोरीन की महत्वपूर्ण मात्रा समतापमंडल में छोड़ी जा सकती है। समतापमंडल के छोटे कण जिन्हें समतापमंडलीय एअरोसोल कहा जाता है, भी ओजोन के विनाश का कारण बन सकता है।

(ii) मानव गतिविधियों से संबंधित कारण : ऐसी घटना, जिससे वायु मंडल में क्लोरीन परमाणु उत्सर्जित होते है वह ओजोन-विनाश का गंभीर कारण बन सकते है क्योंकि समतापमंडल में क्लोरीन परमाणु बड़ी कुशलता से ओजोन को नष्ट कर सकते हैं। इन ऐजेंटों में से सबसे विनाशकारी मनुष्य द्वारा निर्मित क्लोरोफ्लोरोकार्बन (Chlorofluoro carbons, CFCs) हैं जिनका प्रयोग व्यापक रूप से प्रयोग प्रशीतलन (Refrigerants) में तथा छिड़काव करने वाली बोतलों को दाबानुकूलित करने के लिये किया जाता है। समतापमंडल में CFCs में क्लोरीन परमाणु ओजोन के साथ प्रतिक्रिया करके क्लोरीन मोनोआक्साइड और आक्सीजन अणु बन जाते हैं।

महत्वपूर्ण ओजोन क्षयकारी रसायन और उनका उपयोग

यौगिक का नाम

उपयोग में

CFCs

प्रशीतलन, एयरोसोल, फॉम, खाद्यों को ठंडा करने. वार्मिंग उपकरणों (ऊष्मा प्रदान करने वाले उपकरण), सौंदर्य प्रसाधन, ऊष्मा को पहचानने वाले विलायक, प्रशीतलक, अग्निशमन

आक्सीजन

अग्नि शमन

HCFC -22

प्रशीतलक, एयरोसोल, फॉम, अग्निशमन

मिथाईल क्लोरोफोर्म

विलायक

कार्बन टेट्राक्लोराइड

विलायक


ओजोन परत के रिक्तीकरण रोकने के उपाय

वैश्विक जागरूकता तथा विश्व समुदाय की जागरूकता के लिए हेलसिंकी (1989), मांट्रियल (1990s) के अधिवेशन और प्रोटोकाल के रूप में इस मोर्चे पर कुछ महत्वपूर्ण सफलता मिली है। CFCs तथा अन्य ओजोन को नष्ट करने वाले अन्य रसायनों के उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की जा रही है। इसके अतिरिक्त क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFCs) के लिये एक विकल्प के रूप में हाइड्रोक्लोरिक फ्लोरोकार्बन के प्रयोग की अस्थाई आधार पर सिफारिश की जा रही है क्योंकि CFCs की तुलना में HCFCs ओजोन परत को अपेक्षाकृत कम हानि पहुंचा रहे हैंकिन्तु वे भी ओजोन परत को पूरी तरह सुरक्षित नहीं कर सकते।

ओजोन O3 परत अपक्षय का प्रभाव

हम ओजोन छिद्र के विषय में इतने चिंतित क्यों हैं? इसका कारण है कि ओजोन कवच के बिना घातक पराबैंगनी विकिरण वातावरण को बेध कर धरती की सतह पर पहुँच जायेगा। UV विकिरण की एक छोटी मात्रा में विकिरण मनुष्यों तथा अन्य जीवों के लिये आवश्यक है जैसे कि UV-बी विटामिन डी के संश्लेषण को बढ़ावा देता है। UV विकिरण जर्मनाशी के रूप में सूक्ष्मजीवों को नियंत्रित करने का कार्य भी करते हैं। यद्यपि UV की बढ़ी हुई खुराक जीवित जीवों के लिये बहुत अधिक खतरनाक होती है।

मानव पर हानिकारक प्रभाव
  • त्वचा कैंसर के प्रति अतिसंवेदनशीलता में वृद्धि
  • मोतियाबिंद में वृद्धि
  • DNA की क्षति
  • कॉर्निया की क्षति
  • नेत्र संबंधी रोगों का कारण
  • मानव प्रतिरोधी तंत्र का कमजोर होना

पौधों पर हानिकारक प्रभाव
  • प्रकाश संश्लेषण का संदमन
  • उपापचय क्रिया का संदमन
  • वृद्धि का रुकना
  • कोशिकाओं का नष्ट होना
  • उत्परिवर्तन का कारण
  • वन-उत्पादकता में कमी होना

अन्य जीवों पर हानिकारक प्रभाव
  • समुद्री/अलवणीय जल जीव UV-किरणों के प्रति अति संवेदनशील होते हैं।
  • मछली के लार्वा बहुत संवेदनशील होते हैं।
  • प्लवक समष्टि बुरी तरह नष्ट हो जाती है।
  • मछली/श्रिम्प/झींगों के लार्वे प्रभावित होते हैं।

निर्जीव पदार्थों पर हानिकारक प्रभाव
  • पेंट के झड़ने को बढ़ावा मिलता है।
  • प्लास्टिक के टूटने को बढ़ावा मिलता है।
  • वायुमंडल में तापमान-प्रवणता स्तर प्रभावित होता है।
  • वायुमंडलीय परिसंचरण प्रणाली प्रभावित होती है, जलवायवीय बदलाव होते हैं।

भारत एवं ओजोन परत संरक्षण

भारत ने ओज़ोन परत के संरक्षण हेतु 1991 में वियना कन्वेंशन पर हस्ताक्षर एवं सत्यापन किया तथा मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों के संबंध में 1992 में हस्ताक्षर किया। भारत ने कोपेनहेगन, मॉन्ट्रियल एवं बीजिंग संशोधन (2003) में इसे सत्यापित किया।
1993 से भारत सरकार द्वारा ओज़ोन विघटनकारी पदार्थों को धीरे-धीरे बाहर करने में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Development Programme) ने काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
भारत CFC-11, CFC-12, CFC-113, Halon-1211, Halon-1301, HCFC-22, Carbontetrachloride (CC14), Methyl Chloroform,Methyl Bromide का उत्पादन करता है।
ये ओजोन क्षरण पदार्थ हैं जो विभिन्न कार्यों में मानव द्वारा प्रयोग किये जाते हैं। भारत को इनमें से कई के लिये छूट प्राप्त है जिनका उपयोग वह चिकित्सा क्षेत्र हेतु मीटर्ड डोज इनहेलर्स (Metered Dose Inhalers - MDIs) के उत्पादन एवं निर्यात में करता है।
भारत सिर्फ फार्मास्यूटिकल ग्रेड CFC को छोड़कर, जो MDIs के उत्पादन में अस्थमा एवं COPD (Chronic Obstructive Pulmonary Disease) रोगियों के लिये प्रयोग किया जाता है, CFCs, CI4, एवं हैलॉन का उत्पादन एवं खपत 1 जनवरी, 2010 से धीरे-धीरे समाप्त कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के सहयोग से MDIs का निर्माण भी ओजोन हितैषी विकल्पों द्वारा किया जा रहा है। UNDP भारत सरकार को HCFCs को धीरे-धीरे 2030 तक बाहर करने में मदद कर रहा है जो कि भारत द्वारा मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
कार्बन टेट्राक्लोराइड, जो कि एक हानिकारक रसायन है, का उपयोग देश में इस्पात बनाने वाली इकाइयों द्वारा किया जाता है। आज कई स्टील कंपनियाँ जिनमें सार्वजनिक कंपनियाँ भी शामिल हैं, वे टेट्राक्लोरोइथेन का उपयोग कर रही हैं जो कि पर्यावरण हेतु कम हानिकारक है।
1993 में एक विस्तृत इंडिया कंट्री प्रोग्राम, ओजोन विघटनकारी पदार्थों को धीरे-धीरे बाहर करने के लिये लाया गया ताकि राष्ट्रीय औद्योगिक विकास रणनीति के अनुसार ओज़ोन विघटनकारी पदार्थों को बाहर किया जा सके। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक ओज़ोन सेल (Ozone Cell) भी स्थापित किया है ताकि 2010 तक ओजोन विघटनकारी पदार्थों को धीरे-धीरे बाहर कर इंडिया कंट्री प्रोग्राम को क्रियान्वित किया जाए। प्रोटोकॉल के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु भारत सरकार (गैर ओजोन विघटनकारी पदार्थों की प्रौद्योगिकी के लिये तैयार किये सामानों के निर्यात पर) ने सीमा एवं केन्द्रीय उत्पाद शुल्क से पूर्ण छूट दी है।

ओजोन प्रकोष्ठ

ओजोन परत को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से 1985 में 'ओजोन क्षरण पदार्थो' (ओजोन डिप्लीटिंग सब्सटेंस - ODS) पर 'विएना समझौता' प्रथम सार्थक प्रसास था। बाद में 1987 में 'मांट्रियल संधि प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें भारत ने भी भाग लिया था। इसी संधि प्रस्ताव के तहत 'ओजोन क्षरण पदार्थो' भाग लिया था। इसी संधि प्रस्ताव के तहत' ओजोन क्षरण पदार्थों' (ODS) को चरणबद्ध ढंग से समाप्त किए जाने और ओजोन एवं ऐसे पदार्थों से संबंधित जानकारी प्रदान करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने एक 'ओजोन प्रकोष्ठ' की स्थापना की है। यह प्रकोष्ठ उद्योगों में ओजोन से संबंधित जागरूकता पैदा करने के लिए उनके कार्यशालाएं और गोष्ठियां आयोजित करता है तथा ओजोन संबंधित विषयों पर एक द्विमासी न्यूजलेटर प्रकाशित करता है।


स्मरणीय तथ्य
  • ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल में समतापमंडल के निचले भाग में उपस्थित ओजोन गैस की एक मेखला है। यह अपनी विशेष रासायनिक प्रकृति के चलते सूर्य से आने वाली खतरनाक पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी पर जीवन की रक्षा करती है।
  • वायुमंडल में ओज़ोन की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह पराबैंगनी A,पराबैंगनी-B और पराबैंगनी-C विकिरण को सोख लेता है।
  • 1985 में अंटार्कटिक (द. ध्रुवीय क्षेत्र) में ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा ओजोन छिद्र की पहचान की गई।
  • ओज़ोन क्षरण के प्राकृतिक कारकों में पराबैंगनी किरणों द्वारा ओजोन से प्रतिक्रिया एवं सौर कलंक चक्र को शामिल किया जाता है।
  • ओजोन क्षरण के मानव जनित कारकों के अंतर्गत- क्लोरीन, ब्रोमीन जैसे ओज़ोन विनाशक परमाणुओं को धारण करने वाले पदार्थों को रखा जाता है (ओज़ोन विघटनकारी पदार्थ)।
  • क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) सर्वाधिक क्षमता वाला एवं सबसे प्रमुख ओजोन विघटनकारी पदार्थ है जिसके रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर आदि में प्रशीतक व अन्य कई मानव उपयोग होते हैं। इसके अलावा HCFCs, हैलॉन,
  • HBFCs एवं अन्य कुछ पदार्थ भी ओजोन विघटनकारी पदार्थों की सूची में शामिल किए जाते हैं। 
  • ओजोन परत का 90 प्रतिशत हिस्सा समतापमंडल की निचली परत में पाया जाता है। यह सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करने के कारण 'अच्छा ओजोन' कहलाता है।
  • ओज़ोन परत का शेष 10 प्रतिशत हिस्सा क्षोभमंडल के अंतर्गत पाया जाता है। यह स्मॉग व वायु प्रदुषण का निर्माण कर मानव स्वास्थ्य समेत समस्त जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है अतः इसे 'बुरा ओजोन' कहा जाता है।
  • वायुमंडलीय ओज़ोन का मापन डॉबसन स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा किया जाता है एवं इसे डॉबसन यूनिट में व्यक्त किया जाता है।
  • वायुमंडल में ओजोन का औसत सांद्रण करीब 300 डॉबसन यूनिट है। कोई क्षेत्र जहाँ का सांद्रण 220 डॉबसन यूनिट से नीचे गिर जाता है वो ओजोन छिद्र का भाग माना जाता है।
  • ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल, ध्रुवीय भँवर एवं सक्रिय क्लोरीन का प्रभाव, अंटार्कटिका के ऊपर सर्वाधिक ओज़ोन क्षरण के कारण हैं।
  • ध्रुवीय समतापमंडलीय बादलों को 'मदर ऑफ पर्ल' भी कहते हैं।
  • ओज़ोन परत के विघटन के मानव स्वास्थ्य एवं वनस्पति समेत संपूर्ण जीवन पर पराबैंगनी किरणों के चलते कई नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं। इसमें पौधों की प्रतिरोधक क्षमता एवं विकास में कमी एवं अन्य पादप समस्या के साथ ही मानव को आनुवंशिक दोषों के अलावा त्वचा कैंसर, नेत्र संबंधी समस्याएँ, प्रतिरक्षा तंत्र में कमजोरी आदि कई नकारात्मक प्रभावों का सामना करना पड़ेगा।
  • 1985 में ओजोन परत की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु वियना कन्वेंशन हुआ। इस सहयोग की परिणति 1987 में ओजोन परत क्षयकारी पदार्थों पर नियंत्रण हेतु मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर के रूप में हुई।
  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ओजोन विघटनकारी पदार्थों के उत्सर्जन पर रोक हेतु एक बाध्यकारी समझौता है। मूल समझौते में CFC के उत्सर्जन पर विकसित देशों को वर्ष 2000 तक एवं विकासशील देशों को 2010 तक पूर्णतया रोकथाम का प्रावधान था।
  • दुबई में 27वें मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल सम्मेलन (नवंबर 2015) सुपर हरितगृह गैस HFCs के उत्सर्जन पर पूर्णतया रोकथाम हेतु 197 राष्ट्र सहमत हुए। इससे जलवायु परिवर्तन में भी कमी लाई जा सकेगी।
  • भारत ओजोन परत के बचाव हेतु राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय प्रयत्नों में शामिल रहा है। वियना कन्वेंशन एवं मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर (क्रमश: 1991 एवं 1992) से लेकर 2016 के किगाली समझौते तक भारत अपनी भागीदारी कर रहा है।

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