जल प्रदूषण (Water Pollution)
जल प्रदूषण के स्रोत (Sources of Water Pollution)
- घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्टों का जलस्रोतों में मिलना,
- कृषि में प्रयुक्त उर्वरक एवं खरपतवार युक्त जल का नदी में मिलना,
- तेल अधिप्लाव,
- रेडियोसक्रिय तत्त्वों से युक्त रसायन का जलीय तंत्र तक पहुँचना,
- विद्युत ऊर्जा केंद्र से निकले उच्च तापयुक्त जल का जल स्रोत में निकास,
- नहाने व कपड़े धोने के लिये नदी जल का प्रयोग
तेल अधिप्लाव नियंत्रण के उपाय (Control Measures of Oil Spills)
- (i) बूम (Booms): इसमें (तेल क्षेत्र जैविक में) एक प्रकार की दीवार बना दी जाती है।
- (ii) सोरबेन्ट्स (Sorbents): यह एक तरीका है जिसमें या तो अवशोषण या सोखने द्वारा तेल को हटाया जाता है।
- (iii) स्कीमर (Skimmers): यह एक प्रकार के वैक्यूम क्लीनर के समान है जो तेल को खींचता है।
जल प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Water Pollution)
- प्रदूषित पदार्थों के आधिक्य के कारण जल में घुली हुई ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen: DO) की मात्रा घट जाती है, जिससे कुछ संवेदी जीवों जैसे प्लवक, मोलस्क एवं कुछ मछलियों की मृत्यु हो जाती है। मात्र कुछ सहनशील प्रजातियाँ जैसे एनेलीड तथा कुछ कीट ही कम DO में जीवित रह पाते हैं। ऐसे जीवों को प्रदूषित जल की सूचक प्रजातियों (Indicator Species) के रूप में पहचाना जाता है।
- जैवनाशक (Biocides), पॉली क्लोरीनेटेड बाईफिनाइल्स (PCBs) और भारी धातुएँ, जैसे- पारा, सीसा, कैडमियम, तांबा, चांदी आदि, जीवों की विभिन्न प्रजातियों को सीधे ही नष्ट कर देती है
- उच्च तापमान पर जल में ऑक्सीजन का विलयन कम होता है। अत: उद्योगों से निकले अपशिष्ट गर्म जल को जब जलाशयों में डाला जाता है तो वह उनकी DO की मात्रा को कम कर देता है। DO की मात्रा लवणता बढ़ने पर घटती है तथा दाब के बढ़ने पर बढ़ती है।
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- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भारत में फ्लोराइड, जिंक, क्रोमियम, भारी धातुएँ (पारा, यूरेनियम, कैडमियम आदि) को पेयजल प्रदूषण के लिये उत्तरदायी माना है।
- EPA 2010 राष्ट्रीय झील आकलन में भारत की 20 प्रतिशत झीलों में उच्च मात्रा में नाइट्रोजन और फास्फोरस प्रदूषक पाए गए। इससे जलीय पारितंत्र पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
- जलीय पारितंत्र में सुपोषण, जैव आवर्द्धन आदि प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।
- प्रदूषित जल का प्रभाव प्रवाल भित्ति पर भी पड़ता है, इससे प्रवाल विरंजन की घटना में बढ़ोतरी होती है।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव (Effects on Human Health)
- प्रदूषित जल में उपस्थित वायरस, जीवाणुओं, परजीवियों एवं कृमियों के कारण संक्रमण जन्य रोगों, जैसे- पीलिया, हैजा, टाइफाइड, अतिसार, हेपेटाइटिस, किडनी खराब आदि का खतरा रहता है। यह संक्रमित जल पीने, नहाने, खाना बनाने आदि के लिये अनुपयुक्त होता है।
- भारी धातुओं से युक्त जल के प्रयोग से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं। पारायुक्त जल से प्रभावित मछलियों के सेवन से 1956 में जापान में मिनामाटा बीमारी से अनेक लोगों की मौत हो गई थी। अपशिष्ट जल में उपस्थित पारा मिश्रण सूक्ष्म जैविक क्रियाओं द्वारा अत्यधिक विषैले पदार्थ मिथाइल पारा (Methyl Mercury) में बदल जाता है जिससे अंगों, होंठ, जीभ आदि में संवेदनशून्यता; बहरापन, आँखों का धुंधलापन एवं मानसिक असंतुलन हो जाता है।
- कैडमियम प्रदूषण से 'इटाई-इटाई' रोग हो जाता है जिससे हड्डियों एवं जोड़ों में तीव्र दर्द होता है तथा यकृत एवं फेफड़े का कैंसर हो जाता है।
- सीसा युक्त जल से एनीमिया, सिर दर्द, मांसपेशियों की कमजोरी एवं मसूड़ों में नीलापन आदि प्रभाव दिखाई देते हैं।
- एस्बेस्टस के रेशों से युक्त जल द्वारा एस्बेस्टोसिस (फेफड़े के कैंसर का एक रूप) रोग हो जाता है।
आर्थिक प्रभाव
जल प्रदूषण का नियंत्रण (Control of Water Pollution)
- घरेलू सीवेज: घरेलू सीवेज में 99.9% जल एवं 0.1% प्रदूषक होते हैं। शहरी क्षेत्रों के घरेलू सीवेज के 90% से अधिक प्रदूषकों को केंद्रीकृत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट द्वारा हटाया जा सकता है।
- औद्योगिक अपशिष्ट जल: कुछ उद्योगों द्वारा सामान्य विषाक्त प्रदूषकों का उत्सर्जन किया जाता है जिनका निपटान नगरपालिका द्वारा किया जा सकता है किंतु कुछ प्रदूषकों जैसे तेल, ग्रीस, भारी धातुओं आदि का निपटान विशेष निपटान संयंत्रों द्वारा किया जाना चाहिये। औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिये यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि वे कारखानों से निकले अपशिष्टों को बिना शोधित किये नदियों, झीलों एवं तालाबों में विसर्जित न करें।
- कृषि अपशिष्ट जल: कृषि क्षेत्र में अनेक अपरदन नियंत्रण प्रणालियों द्वारा जल के प्रवाह को कम किया जा सकता है। किसान उर्वरकों एवं कीटनाशकों का आवश्यकता से अधिक उपयोग न कर तथा जैव-उर्वरकों एवं जैव-कीटनाशकों का प्रयोग कर जल की गुणवत्ता को बनाए रख सकते हैं।
- आम जनता को जागरूक किया जाना चाहिये एवं जल प्रदूषण एवं उससे उत्पन्न कुप्रभावों से अवगत कराना चाहिये।
- सरकार को जल प्रदूषण के नियंत्रण के लिये प्रभावी कानून बनाना चाहिये। यद्यपि सरकार ने जल (संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1974 लागू किया था लेकिन इसे और अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
भूमिगत जल प्रदूषण (Ground
Water Pollution) औद्योगिक, नगरीय एवं कृषि
अपशिष्टों से युक्त जल के रिसकर भूमिगत जल से मिल जाने से भूमिगत जल संक्रमित हो
जाता है। स्वच्छ पानी की कुल मात्रा में भूमिगत जल लगभग 30 प्रतिशत है। भूमिगत
जल 1.5 बिलियन लोगों के लिये जल का प्राथमिक स्रोत है। भूमिगत जल में कमी मानव
के लिये कृषि समेत अन्य गतिविधियों के लिये विकट समस्या पैदा करती है। भूमिगत जल प्रदूषण का प्रभाव (Effects
of Ground Water Pollution) पेयजल
में नाइट्रेट की अधिक मात्रा से यह नवजात शिशुओं के हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर
मिथेमोग्लोबिन बनाता है जो ऑक्सीजन परिवहन में बाधा उत्पन्न करता है। इससे नवजात
शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। इस रोग को मिथेमोग्लोबीनेमिया या ब्लू बेबी
सिंड्रोम कहा जाता है। पेयजल
में फ्लोराइड की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक रोग हो जाता है जिससे दाँत एवं
हड्डियाँ कमज़ोर हो जाती हैं। आर्सेनिक
युक्त जल के प्रयोग से ब्लैक फुट नामक चर्म रोग हो जाता है। इसके अलावा आर्सेनिक
से डायरिया, हाइपरकिरेटोसिस, पेरिफेरल न्यूरीटिस तथा फेफड़े एवं त्वचा का कैंसर हो जाता है। |
जल निकायों का संरक्षण (Conservation of Water Bodies)
गंगा एक्शन प्लान (GAP)
राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (National River Conservation Plan)
- NRCP का उद्देश्य प्रदूषित नदियों के किनारे बसे विभिन्न शहरों में प्रदूषण उपशमन कार्यों के ज़रिये नदियों के जल की गुणवत्ता में सुधार करना है।
- NRC के तहत किये गए प्रदूषण उपशमन कार्यों में खुले नालों से नदियों में आ रहे कचरे को रोकने के लिये मल व्यवस्था प्रणाली बनाना, गंदे जल के शोधन के लिये जल शोधन संयंत्र लगाना, नदी किनारे शौच पर प्रतिबंध, नदी तट एवं स्नान घाटों का सुधार, सहभागिता, जागरुकता इत्यादि शामिल हैं।
- भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) के आदेश पर पर्यावरण शोध प्रयोगशाला (ERL) लखनऊ ने जल की गुणवत्ता के परीक्षणोपरांत जल को पांच श्रेणियों में विभक्त किया है-
- वर्ग A (Category A) - पीने के लिये उपयुक्त
- वर्ग B (Category B) - स्नान, तैराकी और मनोरंजन के लिये उपयुक्त
- वर्ग C (Category C) - पारम्परिक उपचार के बाद पीने योग्य
- वर्ग D (Category D) - वन्यजीव और मछलियों के लिये उपयुक्त
- वर्ग E (Category E) - सिंचाई, औद्योगिक शीतलन और अपशिष्ट निपटान हेतु उपयुक्त
क्र.सं. |
नदी |
क्र.सं. |
नदी |
1. |
अडयार |
21. |
महानंदा |
2. |
बेतवा |
22. |
मिंद्यौला |
3. |
ब्यास |
23. |
मूसी |
4. |
बीहर |
24. |
नर्मदा |
5. |
भद्रा |
25. |
पेन्नार |
6. |
ब्राह्मणी |
26. |
पंबा |
7. |
कावेरी |
27. |
पंच
गंगा |
8. |
कूम |
28. |
रानी
चियू |
9. |
चंबल |
29. |
साबरमती |
10. |
दामोदर |
30. |
सतलज |
11. |
दीफू
और धनश्री |
31. |
स्वर्णरेखा |
12. |
घग्गर |
32. |
ताप्ती |
13. |
गोदावरी |
33. |
तापी |
14. |
गोमती |
34. |
तुंगा |
15. |
खान |
35. |
तुंगभद्रा |
16. |
कृष्णा |
36. |
ताम्रबरनी |
17. |
क्षिप्रा |
37. |
वैगाई |
18. |
महानदी |
38. |
वैन्नार |
19. |
मंदाकिनी |
39. |
वेनगंगा |
20. |
मांडवी |
40. |
यमुना |
जलीय पारिस्थितिकी प्रणाली के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय योजना (National Plan for Conservation of Aquatic Ecosystem : NPCA)
- राष्ट्रीय नम भूमि संरक्षण कार्यक्रम
- राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना
जल (प्रदूषण नियंत्रण एवं रोकथाम) अधिनियम 1974, Water (Prevention and Control of Pollution) Act 1974
- केंद्र सरकार को जल प्रदूषण संबंधी सलाह देना।
- राज्य बोर्डों के कार्यों का एकीकरण।
- राज्य बोर्डों को जल प्रदूषण जाँच और शोध-कार्य में सहायता प्रदान करना।
- जल प्रदूषण विशेषज्ञों की ट्रेनिंग।
- जल प्रदूषण संबंधी जानकारी संचार माध्यमों द्वारा जनसाधारण को प्रदान करना।
- संबंधित तकनीकी व सांख्यिकी सूचना को एकत्र, एकीकृत एवं प्रकाशित करना।,,
- सरकार की सहायता से जल प्रदूषकों का मानक तय करना तथा समय-समय पर उन्हें पुनरीक्षित करना।
- जल प्रदूषण रोकने के लिये राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम चलाना।
- राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कार्य राज्य सरकार के जल प्रदूषण रोकने के कार्यक्रम का संचालन।
- राज्य सरकार को जल प्रदूषण संबंधी सलाह देना।
- राज्य स्तर पर जल प्रदूषण संबंधी सूचनाएँ एकत्र करना एवं उन्हें प्रकाशित करना।
- जल प्रदूषण रोकने के लिये अनुसंधान कराना।
- विशेषज्ञों की ट्रेनिंग में केंद्रीय बोर्ड की सहायता करना।
- सीवेज तथा उत्स्गों का उपचार की दृष्टि से निरीक्षण करना।
- जल प्रदूषण के मानक स्थापित एवं पुनरीक्षित करना।
- जल उपचार के कारगर व सस्ते तरीके निकालना।
- सीवेज तथा उत्सर्ग के उपयोग-प्रयोग ज्ञात करना, सीवेज एवं उत्सर्ग हटाने के उचित तरीके निकालना।
- उपचार के मानक स्थापित करना, सरकार को उन उद्योगों की जानकारी देना, जो हानिकारक उत्सर्ग बाहर छोड़ रहे हों।
- बोर्ड के सदस्य, अधिकारी या अधिकृत व्यक्ति किसी भी उद्योग से उत्सर्जित जल का नमूना ले सकते हैं। बोर्ड के सदस्य, अधिकारी या अधिकृत व्यक्ति किसी भी उद्योग का निरीक्षण कर सकते हैं। किसी व्यक्ति को जानबूझकर कोई विषाक्त, नशीला पदार्थ किसी जल धारा में निर्गत करने का अधिकार नहीं है। नियमों का उल्लंघन करने पर तीन माह की कैद या जुर्माने अथवा दोनों का प्रावधान है। कंपनियों तथा सरकारी संस्थाओं द्वारा नियमों का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है।
नमामि गंगे कार्यक्रम
- सीवरेज ट्रीटमेंट
- वनीकरण
- जनजागरूकता
- नदी सतह की सफाई
- रिवर फ्रंट डेवलपमेंट
- जैवविविधता का विकास
- गंगा ग्राम योजना
- औद्योगिक प्रवाह निगरानी
समुद्री प्रदूषण (Marine Pollution)
समुद्री प्रदूषण के कारण (Causes of Marine Pollution)
- नदियों एवं वर्षा जल द्वारा लाया गया सीवेज, कृषि अपशिष्ट, कूड़ा-करकट, कीटनाशक एवं उर्वरक, भारी धातुएँ, प्लास्टिक आदि समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करते हैं।
- समुद्र में तेल एवं पेट्रोलियम पदार्थों का विसर्जन एवं रेडियोएक्टिव अपशिष्टों की डंपिंग से भी समुद्री प्रदूषण में वृद्धि होती है।
- विषाक्त रसायन एवं भारी धातुएँ जो औद्योगिक अपशिष्टों के साथ आकर समुद्र में मिल जाती हैं, समुद्री पारिस्थितिकी को नष्ट करती हैं।
- वहाँ गहरे सागर एवं सागर तल में खनन से भारी धातुओं का जमाव हो जाता है। इसके कारण उस स्थान पर विषाक्त प्रभाव पड़ता है एवं सागरीय पारिस्थितिक तंत्र के लिये स्थायी एवं गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है।
- वायु प्रदूषण के परिणामस्वरूप अम्ल वर्षा होती है। यह अम्ल वर्षा समुद्र में हो तो समुद्री जीवों की मृत्यु हो जाती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण सागरीय जल का तापमान भी बढ़ रहा है जिससे सागरीय जल की जैव विविधता का ह्रास हो रहा है।
समुद्री प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Marine Pollution)
- तेल आप्लाव/तेल रिसाव (Oil Spills) सागरीय जीवों के गिल्स (Gills) एवं पंखों पर आवरण बनाकर उनके श्वसन एवं गति में बाधा उत्पन्न करते हैं।
- तेल रिसाव के कारण सागरीय जीव प्रवाल (Coral) के छिद्र बंद हो जाने से उसकी मृत्यु हो जाती है। प्रवाल भित्ति जैव विविधता से संपन्न होती है, अतः प्रवाल की मृत्यु से वहाँ की जैव विविधता नष्ट होने लगती है।
- समुद्री प्रदूषकों के अपघटन में ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। प्रदूषकों के कारण सागरीय जल में ऑक्सीजन का स्तर गिर जाता है। जिसके परिणामस्वरूप, सागरीय जीवों की संख्या में कमी आती है।
- कुछ विशेष औद्योगिक एवं कृषि कार्य में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशक एवं उर्वरक सागरीय जल में पहुंचकर सागरीय जीवों के वसा ऊतकों में संगृहीत होकर उनकी जनन क्षमता पर नकारात्मक असर डालते हैं। इससे उनकी संख्या में तीव्रता से कमी आती है।
- ये प्रदूषक सागरीय जीवों के शरीर में जमा होते जाते हैं। इस प्रकार ये खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर जाते हैं, जिसके कारण इन जीवों के सेवन से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है।
- विषैली धातु, प्रदूषित जल, अपशिष्ट तथा उर्वरकों का अप्रवाह नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा को बढ़ा देता है।
- नाइट्रोजन की अधिक मात्रा शैवाल की तीव्र वृद्धि करती है जो कि सूर्य के प्रकाश को रोकती है जिससे उपयोगी समुद्री घास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
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