पर्यावरण की परिभाषा
पर्यावरण की परिभाषाएँ
- फिटिंग के अनुसार - "पर्यावरण किसी जीवधारी को प्रभावित करने वाले समस्त कारकों का योग है।" (Environment is the sum total of all the factors that inefluence an organism-Fitting)
- हरकोविट्ज के अनुसार - "किसी जीवित तत्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाली समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।" (Envrionment is the sum total of all the external conditions and its influences on the external conditons and its influences ont he development cycle of biotic elements-Herkovitz)
- डगलस एवं रोमन हालैण्ड के अनुसार - “पर्यावरण उन सभी बाहरी शक्तियों एवं प्रभावों का वर्णन करता है, जो प्राणी जगत के जीवन, स्वभाव, व्यवहार, विकास और परिपक्वता को प्रभावित करता है।"
- रॉस के अनुसार - "पर्यावरण एक वाह्य शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।" (Environment is an extemal force which influences us.- Ross)
- बोरिंग के अनुसार - “एक व्यक्ति के पर्यावरण में वह सब कुछ सम्मिलित किया जाता है जो उसके जन्म से मृत्युपर्यन्त उसे प्रभावित करता है।"
- बुडबर्थ के अनुसार - "पर्यावरण शब्द का अभिप्राय उन सभी बाहरी शक्तियों और तत्वों से है, जो व्यक्ति को आजीवन प्रभावित करते हैं।"
- डेविस के अनुसार - पर्यावरण को मूर्त वस्तु न मानकर अमूर्त वस्तु मानी है। (Environment does not refer to anything tangible but to an abstraction.-Devis)
- अर्नेस्ट हैकेल के अनुसार - “पय्यावरण का तात्पर्य मनुष्य के चारों ओर पायी जाने वाली परिस्थितियों के उस समूह से है जो उसके जीवन और उसकी क्रियाओं पर प्रभाव डालती है।"
- एनास्टैसी के अनुसार - "पर्यावरण प्रत्येक वह वस्तु है जो जीन्स (Genes) के अतिरिक्त व्यक्ति को प्रभावित करती है।"
- प्रकाशः सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा मिलती है। हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हैं, जिससे वे स्वयं तथा अन्य जीवधारियों के लिए भोजन का संश्लेषण करते हैं।
- वर्षाः प्रत्येक जीवधारी के लिए पानी जरूरी होता है। अधिकतर जैव रासायनिक अभिक्रियाएं जलीय माध्यम में ही होती हैं। जल शरीर के तापमान का नियमन करने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त, जलाशय कई प्रकार के जलीय पौधों और जंतुओं के पर्यावास होते हैं।
- तापमानः तापमान पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक होता है, जिसका जीवों की उत्तरजीविता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जीव तापमान और आर्द्रता के केवल एक निश्चित परास तक ही सहन कर सकते हैं।
- वायुमंडल: पृथ्वी का वायुमंडल 21%ऑक्सीजन, 78% नाइट्रोजन और 0.03% कार्बन डाइऑक्साइड से बना होता है। कुछ अन्य निष्क्रिय गैस (0.03% आर्गन, निऑन आदि) भी होती है।
- अधःस्तरः जीव स्थलीय या जलीय हो सकते हैं। भूमि मिट्टी से ढकी होती है और बहुत तरह के सूक्ष्मजीवों, प्रोटोजोआ, फफूंद तथा छोटे जंतु (अकशेरुकी) इस पर पनपते हैं। पौधों की जड़ें जमीन में घुसकर, पानी तथा पोषक तत्वों की तलाश में मिट्टी से बाहर आ जाती हैं। स्थलीय जंतु भूमि पर रहते हैं। जलीय जीव-जंतु तथा सूक्ष्मजीव अलवणीय जल तथा समुद्र में भी रहते हैं। कुछ सूक्ष्मजीव समुद्र के नीचे गर्म पानी के निकास-रंध्रों में भी रहते हैं।
- हरे पौधेः प्रकाश संश्लेषण के द्वारा सभी जीवधारियों के लिए भोजन तैयार करते हैं।
- जंतुः एक ही स्पीशीज़ के प्राणी किसी विशेष प्रकार के पर्यावास पर ही पाये जाते हैं। वे अन्य स्पीशीजों के साथ भी रहते हैं। एक स्पीशीज दूसरी के लिए आहार बनाती है। सूक्ष्मजीव और फफूंद मरे हुऐ पौधों और जंतुओं में सड़न पैदा करते हैं जिससे मृत जीवाणुओं के शरीरों के भीतर विद्यमान पोषक तत्व बाहर आ जाते हैं जिन्हें पनपते पौधे दोबारा उपयोग में ले लेते हैं। इसीलिए जीवधारी की उत्तरजीविता के लिए पर्यावरण के सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार के घटकों की आवश्यकता रहती है। इसलिए जीवधारियों की उत्तरजीविता के लिए अपने वातावरण के साथ एक अत्यंत नाजुक संतुलित संबंध बनाये रखना अत्यंत जरूरी है।
पर्यावरण की संरचना
- स्थलमण्डलीय पर्यावरण
- वायुमण्डलीय पर्यावरण
- जलमण्डलीय पर्यावरण
- वानस्पतिक पर्यावरण (Floral Environment)
- जंतु पर्यावरण (Faunal Environment)
- जैव तत्त्व - इसके अन्तर्गत सभी जीवित वस्तुएँ शामिल हैं जो मनुष्य के साथ रहकर उसे प्रभावित करती हैं।
- अजैव तत्त्व - इसके अन्तर्गत मूलतः तीन वर्ग आते हैं- वायुमण्डल, जलमण्डल तथा स्थलमण्डल।
- मौसम विषयक - इसके अन्तर्गत वे स्थितियाँ सम्मिलित होती हैं जो हमें दिखती नहीं हैं या दिखती हैं तो उनका मूल स्रोत हमारे परिवेश से बाहर होता है। सामान्यतः ये वे तत्त्व हैं जो किसी स्थान विशेष की जलवायु का निर्माण करते हैं जैसे सूर्य का प्रकाश, वर्षा, आर्द्रता, तापमान, पवन की गति इत्यादि।
पर्यावरण का महत्व
- पर्यावरण मनुष्य को नवीकरणीय तथा गैर-नवीकरणीय दोनों संसाधन प्रदान करता है। नवीकरणीय संसाधन वे संसाधन हैं जिनकी समय के साथ पूर्ति हो जाती है तथा इसलिये बिना इस संभावना के उनका उपयोग किया जा सकता है कि इन संसाधनों का क्षय हो जायेगा अथवा ये समाप्त हो जायेंगे। नवीकरणीय संसाधनों के उदाहरणों में वनों में वृक्षों, महासागर में मछलियों आदि को सम्मिलित किया जाता है। दूसरी ओर, गैर-नवीकरणीय संसाधन वे संसाधन हैं जो खर्च हो जाने के कारण समय के साथ समाप्त हो जाते हैं अथवा उनका क्षय हो जाता है। गैर-नवीकरणीय संसाधनों के उदाहरणों में जीवाश्म ईंधन तथा खनिज, जैसे पैट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, कोयला आदि को सम्मिलित किया जाता है। इसलिये भावी पीढ़ियों की आवश्यकतओं को ध्यान में रखते हुए इन संसाधनों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिये।
- पर्यावरण हानिकारक अपशेषों तथा उप-उत्पादों को आत्मसात भी करता है अर्थात यह अपशेषों को पचाता है। चिमनियों तथा मोटर गाड़ियों के निकास-पाइपों से निकलने वाला धुआं, शहरों तथा नगरों के मल पदार्थ, औद्योगिक स्राव सभी को पर्यावरण आत्मसात कर लेता है। इन सभी अपशेषों तथा उप-उत्पादों का विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा आत्मसात तथा पुनर्चक्रीकरण किया जाता है।
- पर्यावरण जैव-विविधता द्वारा जीवन को भी धारित करता हैं। जीवन के विभिन्न रूपों पर पर्यावरण के दबाव द्वारा उत्पन्न आनुवंशिक विभिन्नताएं जीवन के उन रूपों का अनुकूलन करने, विकसित होने तथा आनुवंशिक विभिन्नताएं उत्पन्न करने की अनुमति देती हैं जो कठोर पर्यावरण में जीवित रह सकें। अतः पर्यावरण जीवन के विभिन्न रूपों तथा अजैव घटकों में सम्बन्ध उत्पन्न करता है, उसको बनाये रखता है तथा जीवन को धारित करता है। इसलिये पर्यावरण को सुरक्षित रखकर जीवन के इन विभिन्न रूपों को सुरक्षित रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- पर्यावरण के जीव विज्ञान से सम्बन्धित महत्व के अतिरिक्त, पर्यावरण सौंदर्यकला की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह हमें दृष्य तथा दृश्यभूमि प्रदान करता है, जो हमारे लिये अमूल्य हैं तथा प्रायः सारे विश्व में मानवीय संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
क्या आप जानते हैं? चालू अनुमानों के आधार पर संसार का सारा निष्कर्षण योग्य
कोयला, तेल, प्राकृतिक
गैस तथा यूरेनियम-235
के भंडार अर्थात हमारे ऊर्जा के सभी वर्तमान स्रोत लगभग 50-75 वर्षों के
अन्दर समाप्त हो जायेंगे। |
पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएं
पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार
- वायु प्रदूषण
- जल प्रदूषण
- ध्वनि प्रदूषण
- मृदा प्रदूषण
- जैव-प्रदूषण
- रेडियोधर्मी प्रदूषण
- प्लास्टिक प्रदूषण
- कीटनाशक प्रदूषण
वायु प्रदूषण
क्या आप जानते है? विश्व स्वास्थ्य संगठन
का कहना है कि प्रत्येक वर्ष 24 लाख लोगों की प्रत्यक्ष रूप से वायु प्रदूषण से
संबंधित कारणों से मृत्यु हो जाती है। प्रत्येक वर्ष पूरे विश्व में मोटर गाड़ी
दुर्घटनाओं की अपेक्षा अधिक मृत्यु वायु प्रदूषण से जुड़ी होती हैं। |
- वायु प्रदूषण के प्रमुख कृत्रिम स्रोतों (मानव द्वारा होने वाले) में सम्मिलित हैं :
- ऊर्जा संयत्रों, फैक्ट्रियों, शवदाह गृहों तथा भट्टियों आदि से निकलने वाला धुआं।
- वाहनों तथा मोटर गाड़ियों जैसे कार, बस, बाइक, वायुयान, जलयान आदि से निकली गैस।
- रासायनिक पदार्थ जैसे कीटनाशक और उर्वरक तथा कृषि तथा अन्य कृषि संबंधित क्रियाओं की धूल।
- रंग-रोगन से धुआं, बालों के स्प्रे, वार्निश, एरोसौल स्प्रे तथा अन्य विलायक।
- गड्ढ़ों में व्यर्थ पदार्थों का जमाव जो मीथेन उत्पन्न करता है तथा जो वैश्विक उष्णता में भी योगदान देता है।
- प्राकृतिक स्रोतों आमतौर पर बंजर भूमि से धूल
- जानवरों द्वारा भोजन के पाचन में निकलने वाली मीथेन, उदाहरण के लिये बैलों द्वारा।
- जंगलों की आग से धुआं, पदार्थों के कण तथा कार्बन मोनोआक्साइड।
- ज्वालामुखी गतिविधियां, जो सल्फर, क्लोराइड तथा राख के कण उत्पन्न करती हैं।
जल प्रदूषण
- मल उपचार संयंत्रों तथा नगरों और कस्बों से मल पदार्थों के पाइपों से निस्सारण।
- फैक्ट्रियों द्वारा जल स्रोतों में छोड़े जाने वाले औद्योगिक स्राव।
- कृषि भूमि से रसायन जैसे कीटनाशक तथा उर्वरक जो खेतों से बहने वाले पदार्थों का निर्माण करते हैं का निकास।
- नगरों में बरसाती नालों से प्रदूषित वर्षा जल।
- ऊर्जा संयंत्रों द्वारा जल में गर्म अथवा रेडियोधर्मी जल को छोड़ना।
- तेल के जहाजों से तेल का छलकना तथा रिसाव।
- जल स्रोतों में शैवालों की वृद्धि।
ध्वनि प्रदूषण
- मोटर गाड़ी यातायात जैसे कार, बसें, हवाई जहाज, रेल गाड़ियां आदि।
- औद्योगिक प्रक्रियाएं जैसे पत्थर का चूरा बनाना, इस्पात पत्तियां बनाना, लकड़ी चीरना, छपाई करना आदि।
- सड़कों, पुलों, इमारतों आदि पर निर्माण कार्य।
- घरों से विभिन्न प्रकार की ध्वनियां जैसे स्टीरियो, टेलीविजन आदि।
- उपभोक्ता उत्पाद जैसे एयर कन्डीशनर, रैफ्रीजरेटर आदि।
- प्रत्यक्ष प्रभाव
- अप्रत्यक्ष प्रभाव
मृदा प्रदूषण
- जैविक स्त्रोत : मृदा अपरदन के जैव स्त्रोत या कारकों के अंतर्गत उन सूक्ष्म जीवों तथा अवांछित पौधे को सम्मिलित किया जाता है जो मिट्टियों की गुणवत्ता तथा उर्वरता को कम करते हैं।
- मिट्टियों में पहले से मौजूद रोगजनक सूक्ष्म जीव,
- पालतू मवेशियों द्वारा गोबर आदि के माध्यम से परित्यक्त रोगजनक सूक्ष्म जीव,
- मनुष्यों द्वारा परित्यक्त रोगजनक सूक्ष्म जीव तथा
- आंतो में रहने वाली बैक्टीरिया तथा प्रोटोजोवा
- वायुजनित स्त्रोत : ये वास्तव में वायु के प्रदूषण ही होते हैं। जिनका मानव ज्वालामुखियों (कारखानों की चिमनियों), स्वचालित वाहनों, ताप शक्ति, संयंत्रों तथा घरेलू स्त्रोत से वायुमंडल में उत्सर्जन होता है। इन प्रदूषकों का बाद में धरातलीय सतह पर अवपात होता है तथा ये विषाक्त प्रदूषक मिट्टियों में पंहुचकर उन्हें प्रदूषित कर देते हैं।
- प्राकृतिक स्त्रोत : मृदा प्रदूषक के भौतिक स्त्रोत का संबंध प्राकृतिक एवं मानव-जनित स्त्रोतों से, मृदा- अपरदन तथा उससे जनित मृदा- अवनयन से होता है। अर्थात् अपरदन के कारण मृदा की गुणवत्ता में भारी कमी होती है। मिट्टियों के अपरदन के लिए उत्तरदायी प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत निम्न को सम्मिलित किया जाता है:
- वर्ष की मात्रा तथा तीव्रता, तापमान तथा हवा, सैलिकीय कारक, वानस्पतिक आवरण आदि।
- जैवनाशी रसायन स्त्रोत : मृदा प्रदूषण का सर्वाधिक खतरनाक प्रदूषण विभिन्न प्रकार के जैवनाशी रसायन (कीटनाशी, रोगनाशी तथा शाकनाशी कृत्रिम रसायन) हैं। जिनके कारण बैक्टीरिया सहित सूक्ष्म जीव विनष्ट हो जाते हैं। परिणामस्वरूप मिट्टियों की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ जाती है। ज्ञातव्य है कि जैवनाशी रसायन पहले मिट्टयों में स्थित कीटाणुओं तथा अवांछित पौधों को विनष्ट करते हैं। तत्पश्चात् मिट्टियों की गुणवत्ता को कम करते हैं।
- जैवनाशी रसायनों को रेंगती मृत्यु कहा जाता है।
संवर्ग | भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशत |
सकल कृषि रहित बंजर निम्नीकृत भूमि | 17.98 |
बंजर व कृषि आरोग्य बंजर | 2.18 |
प्राकृतिक कारकों जनित निम्नीकृत भूमि | 2.4 |
प्राकृतिक तथा मानव जनित निम्नीकृत भूमि | 7.51 |
मनुष्य जनित निम्नीकृत भूमि | 5.88 |
सकल निम्नीकृत कृषि रहित भूमि | 15.58 |
- जब मिट्टी में ऐसे तत्व चले जाएं जो उसके लिए हानिकारक हों तो उसे मृदा प्रदूषण कहा जाता है। सामान्य रुप से भूमि का भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी परिवर्तन जिसका प्रभाव मानव व अन्य जीवों पर पड़े अथवा भूमि की प्राकृतिक दशाओं गुणवत्ता व उपयोगिता में कमी आये, भूमि प्रदूषण कहलाता है।
- धरती के प्रदूषकों की उड़ती हुई धूल हमारे शरीर में दमा और गले के अनेक रोगों को जन्म देती है।
- कीटनाशक औषधियों के अत्यधिक प्रयोग से मछलियाँ और पक्षियों पर बड़े घातक प्रभाव देखने को मिले हैं। अनेक पक्षी एवं मछलियाँ इनके प्रभाव से मर चुकी हैं।
- भूमि प्रदूषण से अनेक रोगों को जीवाणुओं और विषाणुओं का जन्म होता है। जो मानव में अनेक प्रकार के रोग पैदा करते हैं।
- खानों से हुए भूमि के दुरूपयोग से, अनेक बांध बनने से, नदियों का रास्ता बदलने से भूमि कटाव और बाढ़ों की समस्या हमारे सामने आ खड़ी हुई है।
- पृथ्वी पर एकत्रिक कूड़े-करकट के ढेर जब सड़ने लगते हैं तो उनसे ऐसी दुर्गंध आती है। कि हमारा जीवन दूभर हो जाता है यह दुर्गंध अनेक रोगों को जन्म देती है।
- भूमि के दुरुपयोग और नदियों और सागरों के किनारों को प्रदूषित करने से अनेक जीव-जन्तुओं को खतरा पैदा हो गया है।
- भूमि प्रदूषण का प्रभाव पेड़-पौधों पर भी पड़ा है। फलों और सब्जियों की गुणवत्ता में अंतर आने लगा हैं।
- पृथ्वी पर जंगलों के काटने से वन्य जीवन पर बड़े घातक प्रभाव हुए है। अनेक जंगली जानवर विलुप्त हो गये हैं। और कुछ के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है।
- भूमि प्रबन्धन (Land Management) के अपनाना चाहिए।
- ठोस पदार्थों को गलाकर इसके चक्रीकरण (Cyclin) पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
- रासायनिक उर्वकों, कीटनाशियों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए।
- ठोस तथा अनिम्नीकरण योग्य पदार्थों, जैसे- लोहा, तांबा, कांच, पॉलिथीन को मिट्टी में नहीं दबाना चाहिए।
- गोबर, मानव मल-मूत्र के बायोगैस के रूप में प्रयोग पर बल देना चाहिए।
- कीटनाशियों के स्थान पर जैव-कीटनाशियों के प्रयोग पर बल देना चाहिए।
- अपशिष्ट पदार्थों को ढेर के रूप में इकट्ठा करके और उसमें आग लगाकर गंदगी से छुटकारा पाया जा सकता है।
- मोटर वाहनों के टूटे हुए भागों को पुनः प्रयोग करने का तरीका बहुत प्रभावशाली है। कांच एल्यूमिनियम, लोहा, तांबा, आदि को पुनः पिघलाकर प्रयोग कर सकते हैं।
- मृदा अपरदन (Soil Erosion) को रोकने की विधियों का प्रयोग करना चाहिए।
- ठोस पदार्थों, जैस-कागज, रबड, गन्ने, चीथड़े आदि को जलाकर भूमि (मृदा) प्रदूषण पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
- कूड़े को जमीन में दबाकर उसमें मुक्ति पायी जा सकती है। दबा हुआ कूड़ा कुछ समय में मिट्टी में परिवर्तित हो जाता है।
जैव-प्रदूषण
- सन् 1846 में जीनीय एकरूपता के कारण (Due to Genetic Uniformity) यूरोप में आलू की समस्त फसल नष्ट हो गयी जिसके फलस्वरूप 10 लाख लोगों की मृत्यु हो गयी और 15 लाख लोग अन्यत्र पलायन कर गये। चूँकि सारी आलू में एक ही प्रकार का जीन था। अतः सब एक ही प्रकार के रोगाणुओं द्वारा संक्रमि होकर नष्ट हो गयी।
- सन् 1984 ई. में फ्लोरिडा में जीनीय एकरूपता के कारण खट्टे फलों (Citrus Fruit) की सारी फसलें एक ही प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा संक्रमित होकर नष्ट हो गयीं, अतः इस जैवीय प्रदूषण को दूर करने के लिए एक करोड़ अस्सी लाख पेड़ों को मजबूरन काट कर गिरा देना पड़ा।
- अब इस जैव प्रदूषण को जैव हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।
- अक्टूबर, 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका के समाचार पत्र 'सन' के फोटो सम्पादक बॉब स्टीवेंस की एंथ्राक्स (Anthrax) नामक रोग से हुई मृत्य ने जैव प्रदूषण को जैव आतंक (Bio Terrorism) का दर्जा दिला दिया। बाद में न केवल अमेरिका बल्कि भारत, पाकिस्तान तथा अन्य देशों में भी एंथ्राक्स बैक्टीरिया से प्रदूषित लिफाफे लोगों के पास पहुँचने लगे और कई देशों के लोग इस जैव-आतंक से भयाक्रान्त हो गये।
- जैव-प्रदूषण के माध्य से फैलाये जा सकने वाले घातक रोगों में एंथ्राक्स, बोटुलिज्म, प्लेग, चेचक, टुयुलरेमिया एवं विषाणुवी रक्त स्रावी ज्वर प्रमुख हैं।
- 1519 ई. में स्पेन की सेना ने मैक्सिको में चेचक के विषाणुओं का प्रदूषण फैला दिया जिसके फलस्वरूप वहाँ की आधी आबादी समाप्त हो गयी।
- 1530 ई. में स्पेन ने पुनः मैक्सिको में चेचक, गलसुआ (Mumps), खसरा (Measles) आदि बीमारियों का प्रदूषण फैलाया जिसके कारण लाखों मारे गये।
- 1754-1767 की अवधि में ब्रिटेन की सेना ने चेचक के मरीजों द्वारा ओढ़े गये कम्बलों को उत्तरी अमेरिका के लोगों में बँटवा दिये जिसके कारण वहाँ का एक वृहत जन-समूह काल कवलित हुआ।
- 1939-45 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना ने चीन के कुछ क्षेत्रों में प्लेग के पिस्सुओं द्वारा प्लेग फैला दिया।
- 2001 में एक आतंकवादी संगठन ने अमेरिका, भारत और पाकिस्तान आदि देशों में एन्थ्राक्स के बीजाणुओं को, पत्रों के लिफाफे में भरकर जैव-प्रदूषण फैलाने का प्रयास किया जिसके कारण अमेरिका में कई लोगों की मृत्यु हो गयी।
- बीमारियाँ फैलाने वाले रोगाणुओं पर अध्ययन, अनुसंधान तथा परीक्षण करने के लिए रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (DRDO) ने 1972 में ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में एक प्रयोगशाला स्थापित किया।
- भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सन् 2000 में राष्ट्रीय डिजीज सर्विलेंस प्रोग्राम आरम्भ किया। ज्ञातव्य है कि इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेबल डिसीजेज चौकसी का कार्य कर रहा है और इसमें मिलिटरी इंटेलिजेंस, बार्डर सिक्योरिटी फोर्स, इन्डो-तिब्बत बार्डर पुलिस तथा स्पेशल सर्विस ब्यूरो आदि संगठन मदद कर रहे हैं।
- 1925 में रासायनिक और जैविक हथियारों का निषेध करने के लिए 'जेनेवा प्रोटोकॉल' पर हस्ताक्षर किया गया था।
- 10 अप्रैल, 1972 को सभी प्रकार के हथियारों को निषिद्ध करने के लिए 'जैव हथियार सभा' के प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किये गये। यह BWC 1975 से प्रभावी हुई।
रेडियोधर्मी प्रदूषण
- रेडियोधर्मी पदार्थों का प्रयोग परमाणु हथियारों में तो होता ही है, ये अनुसंधान कार्यों और चिकित्सा जगत में भी प्रयुक्त होते हैं। विविध प्रयोजनों में इन परमाणु घटकों के उपयोग के कारण बड़ी मात्रा में परमाणु कचरा भी उत्पन्न होता है, जो उतना ही घातक होता है, जितने कि स्वयं परमाणु घातक होते हैं। इस कचरे ने पर्यावरण से जुड़ी अनेक समस्याएँ पैदा की हैं। अन्य प्रकार के प्रदूषणों की अपेक्षा रेडियाधर्मी प्रदूषण कहीं ज्यादा घातक होता है, क्योंकि हजारों वर्षों तक इसका प्रभाव वातावरण में बना रहता है। यह इतना अधिक घातक होता है कि इसका प्रभाव बढ़ने पर यह समूचे पारिस्थितिकी तंत्र तक को नष्ट कर सकता है। इसीलिये अब यह एक वैश्विक जिम्मेदारी बनती है कि पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिये या तो रेडियोधर्मी पदार्थों के उपयोग को पूर्णतः बन्द किया जाये या इसे सुरक्षित ढंग से न्यूनतम स्तर पर लाया जाये।
- रेडियोधर्मी प्रदूषण के मुख्यतः दो स्त्रोत हैं। ये हैं- प्राकृतिक स्त्रोंत व मानव निर्मित स्त्रोंत। इनमें मानव निर्मित स्त्रोत अधिक खतरनाक हैं। वस्तुतः रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्राकृतिक स्त्रोत परिणाम की दृष्टि से घातक नहीं होते तथा इनसे न के बराबर हानि होती है। ऐसा इसलिये है कि इनकी प्रक्रियाएँ प्राकृतिक स्तर पर घटित होती हैं, जो कि मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होती हैं, जबकि मानव निर्मित स्त्रोतों के दुष्परिणाम व्यापक होते हैं।
- परमाणु विस्फोट (Nuclear Explosion)
- परमाणु ऊर्जा संयंत्र (Nuclear Power Plants)
- रेडियो आइसोटोप (Radio Isotopes)
- अल्फा किरणें (Alfa Rays) - ये वे हीलियम नाभिक होते हैं, जिनका घनत्व हाइड्रोजन की अपेक्षा चार गुना अधिक होता है तथा ये किसी आयोनाइज्ड हाइड्रोजन अणु की अपेक्षा दो गुना आवेशित हो सकते हैं। इनकी भेदक शक्ति बीटा और गामा किरणों की तुलना में निम्न होती है, जबकि ये उच्च शक्ति वाले ऑयनीकरण माध्यम होते हैं। इनका विकिरण काफी घातक होता है तथा मनुष्य यदि लंबे समय तक इनके संपर्क में रहता है, तो ये मानव त्वचा को इस हद तक जला सकती है कि फिर उनका उपचार संभव नहीं रह जाता है।
- बीटा किरणें (Beta Rays) - ये नकारात्मक रूप से आवेशित कण होते हैं। ये अति वेगमान होती हैं। वेग के संदर्भ में इनकी तुलना प्रकाश की गति से की जा सकती है। ये किसी गैस का आयनीकरण (ionise) करने में सक्षम होती हैं। अल्फा कणों की तुलना में बीटा कणों की भेदक शक्ति 100 गुना अधिक होती है। इनका दीर्घकालिक संपर्क मानव त्वचा को इस हद तक झुलसा सकता है कि फिर उसका उपचार संभव नहीं रह जाता।
- गामा किरणें (Gamma Rays) - प्रकाश एवं एक्स किरणों के समान प्रकृति वाली गामा किरणें विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं, हालांकि एक्स किरणों की तुलना में ये अत्यंत सूक्ष्म दैर्ध्य तरंगें (Shorter Wavelengths) होती हैं। एक अल्फा एवं बीटा कणों का उत्सर्जन किसी नाभिक को उत्तेजित अवस्था में पहुंचाता है। जैसेाजैसे नाभिक सामान्य अवस्था में आता है, वैसे-वैसे अतिरिक्त ऊर्जा उसमें से गामा किरणों के रूप में बाहर आती है। इनमें अत्यंत न्यून ऑयनीकरण शक्ति (llonization Power) होती है। रेडियोध र्मी पदार्थों से निकलने वाली तीनों प्रकार के विकिरणों में गामा किरणें सर्वाधिक शक्तिशाली भेदक होती हैं। ये बहुत शक्तिशाली किरणें होती हैं, जिनकी जैविक तंतुओं पर तीव्र प्रतिक्रिया होती है। इनका प्रयोग कैंसर व ट्यूमर जैसी बीमारियों के उपचार में किया जाता है।
- विकिरण की अल्पमात्र से त्वचा जल सकती है, जिसके परिणामस्वरूप आगे चलकर त्वचा का कैंसर हो सकता है।
- विकिरण की एक साधारण सी मात्रा भी हड्डियों की मज्जा को हानि पहुंचा सकती है, जिससे ल्यूकेमिया अथवा रक्त कैंसर (Blood Cancer) जैसी गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं।
- विकिरण के साथ सत्त संपर्क में रहने के कारण आनुवांशिक संरचना में असमानतायें विकसित हो सकती हैं, यानी डीएनए की संरचना में परिवर्तन हो सकता है। इसे वैज्ञानिक भाषा में म्यूटेशन (Mutation) कहा जाता है, जो भावी पीढ़ियों में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है।
- रेडियोधर्मी यौगिक किसी भोजन श्रृंखला द्वारा पशुओं के शरीर में एकत्र हो सकते हैं। समय के साथ इनकी सघनता बढ़ती जाती है। इस प्रक्रिया को जैविक बहुगुणन (Biological Magnification) कहा जाता है, जो समय के साथ-साथ संबंधित अवयव के लिये घातक सिद्ध होता है।
- जीवित अवयवों के कुछ अंग जैसे- लसीका पर्व (Lymph Nodes), तिल्ली (Spleen) अस्थि मज्जा (Bone Marrow) आदि विकिरण के प्रति अत्यंत संवेदनशील होते हैं। दीर्घकालिक संपर्क के कारण ये शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) को पूर्णत: नष्ट कर देते हैं।
- लंबे समय तक विकिरण के संपर्क में रहने वाली माँ एक अपाहिज बच्चे को जन्म दे सकती है। कारण, विकिरण उसके भ्रूण पर दुष्प्रभाव डालता है।
- रेम्स नामक इकाई का प्रयोग जैविक हानियों के मापन हेतु किया जाता है। यदि विकिरण की मात्रा 0 से 25 रेम्स तक होती है, तो इसका कोई अवलोकनीय प्रभाव नहीं होता है। यदि इसकी मात्रा 25 से 50 तक होती है, तो श्वेत रक्त कणिकाओं में कमी आने लगती है। यदि विकिरण के मात्रा 50 से 100 रेम्स होती है, तो श्वेत रक्त कणिकाओं में ज्यादा कमी होने लगती है। यदि विकिरण (वमन) आना शुरू हो जाता है। यदि विकिरण की मात्रा 200 से 500 तक होती है, तो रक्त की नसें फटने लगती हैं तथा अल्सर की समस्या हो सकती है। 500 रेम्स से अधिक विकिरण की मात्रा मौत का कारण बन सकती है।
- परिरोध (Confinenment)
- वाष्पीकरण एवं फलाव (Evaporation and Dispersion)
- विलंबीकरण एवं क्षय (Delay and Decay)
- परिरोध (Confinement) : रेडियोधर्मी कचरे के प्रबंधन के लिये अधिकांश देश इस विधि को अपना रहे हैं। इसके अन्तर्गत सावधानीपूर्वक चुने गये ऐसे पदार्थों के लिये वृहदाकार टंकियों का निर्माण किया जाता है, जिनमें रिसाव की गुंजाइश न रहे और घातक तत्वों का मिश्रण पर्यावरण में न हो पाये। ये टंकियाँ सामान्यतः स्टेनलेस स्टील से निर्मित होती हैं। इनमें किसी भी प्रकार का रिसाव पता चलने पर फौरन रोकथाम के उपाय करते हये सावधानियाँ बरती जाती हैं।
- वाष्पीकरण एवं फैलाव (Evaporation and Dispersion) : इस विधि को रेडियोधर्मी कचरे के प्रबंध न की सबसे सरल विधि माना जाता है। जैसा कि नाम से ही विदित होता है, इसमें वाष्पीकरण द्वारा कचरे का निस्तारण किया जाता है। हालांकि यह विधि अत्यंत खर्चीली पड़ती है तथा इसमें ऊर्जा का व्यय भी अत्यधि क होता हैं इसके बाद भी कुछ कचरा तरल रूप में बचा रहता है, जिसके निस्तारण की आवश्यकता होती है। कुछ देशों में इस तरह कचरे को भी वाष्पीकृत किया जाता है और उसके बाद बचे अवशेष को सीमेंट में मिला दिया जाता है। इसके बाद से कांच के मिश्रण के साथ मिलाकर खुले हुये तारकोल में मिला दिया जाता है फिर अंतिम चरण में इसे ठोस कचरे के रूप में जमीन के भीतर काफी गहराई में दबा दिया जाता है।
- विलंबीकरण एवं क्षय (Delay and Decoy) : इस विधि का प्रयोग उन रेडियोधर्मी तत्वों पर किया जाता है, जो कम समय तक बने रहते हैं। इन्हे विषहीनबनाकर अपने आप ही क्षय होने के लिये समय पर छोड़ दिया जाता है।
- संपूर्ण विश्व में किसी भी राष्ट्र के लिये परमाणु हथियारों के विकास एवं निर्माण को शत प्रतिशत प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिये।
- रेडियोधर्मी कचरे के निस्तारण में उच्च कोटि के सतर्कता बरती जानी चाहिये तथा समुचित वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिये जिससे इनके द्वारा पर्यावरण दूषित न हो सके।
- सभी परमाणु रियेक्टरों का समुचित एवं पर्याप्त रखरखाव किया जाना चाहिये जिससे इनसे किसी प्रकार के रेडियोधर्मी पदार्थो का रिसाव न हो और न ही वहाँ कार्यरत कर्मचारियों की किसी लापरवाही से किसी प्रकार की दुर्घटना घटित हो सके।
- प्रयोगशालाओं में प्रयोग में लाये जाने वाले रेडियो आइसोटोपों को अत्यन्त सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाना चाहिये। पर्यावरण में इनका विस्तारण करने के पूर्व इन्हें समुचित रूप से निष्क्रिय किया जाना चाहिये।
- वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार के पॉलीमरों की पहचान रेडियोधर्मी पदार्थों से सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम पदार्थो के रूप में की है। इसके अलावा कई ऐसी विधियों का भी विकास किया गया है जिनसे इन पॉलीमर की रेडियों विकिरण को अधिकाधिक सहन करने की क्षमता स्थाई रूप से बनी रह सके और इनमें न्यूनतम रासायनिक परिवर्तन हो सके।
- रेडियो आइसोटोप के उत्पादन को यथासंभव सीमित कर दिया जाना चाहिये क्योंकि एक बार इनका उत्पादन हो जाने पर वर्तमान समय में ज्ञात तकनीकों द्वारा ये पूर्णतः हानिरहित नहीं हो सकते।
- जहाँ कहीं भी रेडियोधर्मी प्रदूषण बहुत अधिक मात्रा में हो, ऊँची चिमनियों तथा कर्मचारियों के लिये हवादार वातावरण का ध्यान रखा जाना चाहिये। इससे रेडियोधर्मी प्रदूषकों का निस्तारण प्रभावशाली विधि से किया जा सकता है।
- नये परमाणु ऊर्जा संयंत्र की स्थापना के समय स्थापना स्थल, संयंत्र की डिजाइन, संचालन प्रक्रिया, निकलने वाले कचरे का निस्तारण, निस्तारण स्थल आदि के सम्बन्ध में गहन सर्वेक्षण पहले से ही कर लिया जाना चाहिये। इसके साथ-साथ ऐसे संयंत्रों के पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ सकने वाले दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन भी किया जाना चाहिये।
- रेडियो विकिरण से बचने का सर्वोत्तम उपाय समुचित कवच धारण करना होता है। श्रमिकों को मास्क, दस्तानों, जूतों तथा टोपी आदि का प्रयोग करना चाहिये जो ऐसे पदार्थों द्वारा निर्मित हों जिनपर परमाणु नाभिकों को प्रभाव न पड़ता हो अथवा न्यूनतम दुष्प्रभाव हो।
- रेडियोर्मी संयंत्र संचालन के दौरान रेडियोधर्मी यौगिकों से श्रमिकों को एक सुरक्षित दूरी सदैव बनाये रखनी चाहिये।
- रेडियो नाभिकों से लगी हुई किसी भी प्रकार की चोट सदैव मात्रा आधारित होती है। अतः किसी भी रेडियो नाभिक यौगिक का सामना किये जाने में यथासंभव कमी लाई जानी चाहिये तथा जहाँ तक हो सके कार्य को पॉली आधार पर किया जाना चाहिये।
- परमाणु संयंत्रों में उच्चस्तरीय निगरानी को सदैव बनाये रखा जाना चाहिये जिससे उनका सामना करने की स्थिति का कभी भी निर्धारित सीमा का उल्लंघन न होने पाये। रेडियोधर्मिता सुरक्षा पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग (आई.सी.आर. पी.) ने श्वास अथवा भोजन के लिये ऐसी अधिकतम स्वीकृत सांद्रता का सुझाव दिया है जिसे कठोरता से अनुसरण किया जाना चाहिये।
- रेडियोग्राफी के समय किसी भी व्यक्ति को समुचित लेड तथा रबर का ऐप्रन तथा दस्ताने पहनने चाहिये।
प्लास्टिक प्रदूषण
- आज प्लास्टिक प्रदूषण की एक भयावह तस्वीर हमारे सामने है। यह एक वैश्विक समस्या है। समूचे विश्व में हर साल अरबों की संख्या में खाली प्लास्टिक के थैले फेंक दिये जाते हैं। नाले-नालियों में जाकर ये उनके प्रवाह को अवरूद्ध कर देते हैं। इनकी सफाई तो खर्चीली पड़ती ही है, जल के साथ बहकर ये अंततः नदियों व समुद्रों में पहुंच जाते हैं। चूंकि ये प्राकृतिक रूप से विघटित नहीं होते, इसलिये नदियों, समुद्रों आदि के जीवन व पर्यावरण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं।
- प्लास्टिक प्रदूषण के कारण आये दिन वैश्विक स्तर पर लाखों की संख्या में पक्षियों आदि की मौत की खबरें तो मिलती ही हैं, ये प्रदूषण व्हेल, सील तथा कछुओं आदि की मौत का भी कारण बनता है। ये प्लास्टिक के अंशों को निगलने के कारण काल का ग्रास बनते हैं।
- आज विश्व का लगभग प्रत्येक देश प्लास्टिक से उत्पन्न प्रदूषण की विनाशकारी समस्या को झेनल रहा है। भारत में तो स्थितियाँ कुछ ज्यादा ही बदतर हैं। यहाँ प्लास्टिक की थैलियों को खाने से गायों और आवारा पशुओं के मरने के समाचार रोज मिला करते हैं।
- थर्मोप्लास्टिक (Thermoplastic)
- थर्मोसेटिंग (Thermosetting)
- पॉलीथाइलिन (Polyethylene)
- पॉली विनाइल क्लोराइड (Poly Vinyl Chloride - PVc)
- पॉलीप्रापीलीन (Polypropylene)
- पॉलीस्टीरीन (Polystyrene)
- बेकलाइट (Bakelite)
- मेलामाइन (Malamine)
- पॉलिएस्टर (Polyesters)
- एपाक्सी रेसिन (Epoxy Resin)
- पॉलीएथाइलिन टेरेफथालेट (पी.ई.टी.): शामिल पेय पदार्थो, पेयजल, खाद्य तेलों, शराब, सौन्दर्य प्रसाधनों की बोतलें तथा औषधियों की पैकिंग में प्रयुक्त पारदर्शी सफेद अथवा रंगीन बोतलें
- हाई डेन्सिटी पॉलीएथाइलिन (एच.डी.पी.ई.): यह अर्द्धपारदर्शी अथवा अपारदर्शी होती है तथा मोड़ने पर टूटती नहीं। कड़े प्रकार के कंटेनर, थैले, दूध अथवा जूस के जग, डिटर्जेंट की बोतलों तथा मोटर आयल के डिब्बों के निर्माण में इसका प्रयोग अधिक किया जाता है।
- पॉली विनाइल क्लोराइड (पी.वी.सी.): यह रंगहीन, सफेद पन्नी होती है जिसे शैमपू, मिनरल वाटर, शराब, घरेलू रसायनों आदि की बोतलों पर एक फिल्म की तरह से चढ़ा कर पैकिंग की जाती है।
- लो डेन्सिटी पॉलीएथाइलिन (एल.डी.पी.ई.): यह लचीली, चिकनी एवं मुलायम होती है तथा इसे खाद्य सामग्री, ड्राइक्लीनर्स बैग, कूड़ा के थैलों, आईसक्रीम ट्यूब आदि में प्रयोग में लाया जाता है।
- पॉलीप्रापीलीन (पी.पी.): यह पारदर्शक, साफ एवं अपारदर्शी, कठोर अथवा मुलायम सभी प्रकार की हो सकती है। दूध के डिब्बों, बोतलों के ढक्कनों आदि में इसका उपयोग किया जाता है।
- पॉलीस्टीरीन (पी.एस.): यह लचीली होती है परन्तु अधिक मोड़ने पर टूट जाती है। मांस ट्रे, अंडों के डिब्बों, काफी कप तथा पारदर्शी कैंडी के पैकिंग हेतु इनका उपयोग किया जाता है।
- मिश्रित प्लास्टिकः इसमें प्लास्टिक के कई प्रकार कसे घटक मिश्रित होते हैं जो उपयोग के अनुसार निर्धारित होते हैं। इनसे चटनी तथा अन्य सामग्री आदि की दबाकर निकालने योग्य बोतलें आदि बनाई जाती हैं।
- सभी प्रकार के कैरीबैक के निर्माण में।
- पानी की टंकियों, पाइपों तथा अन्य नल सम्बन्धी अन्य उपकरणों के निर्माण।
- मिनरल पाटर, पेय पदार्थों, दूध, बिस्टिक, खाद्य तेल, अनाज आदि खाद्य सामग्री की पैकिंग में।
- दैनिक उपयोग की वस्तुओं जैसे टूथ ब्रश, टूथपेस्ट टयूब, शैम्पू बॉटल, चश्मे तथा कंघी आदि में।
- दवाइयों तथा उनके डिब्बों, रक्त भण्डारण थैलों, तरल ग्लूकोज आदि में।
- विभिन्न आकार में ढाले गये फर्नीचरों जैसे-मेज, कुर्सी, अलमारी, दरवाजे इत्यादि में।
- वाहनों, हवाई जहाजों तथा अन्य उपकरणों के हिस्सों के निर्माण में।
- इलेक्ट्रिक सामग्री, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, टेलीविजन, रेडियो, कम्प्यूटर तथा टेलीफोन आदि के निर्माण में।
- कृषि में उत्पादन की मात्रा को बढ़ाने के लिये मृदा से जल के वाष्पोर्त्सजन को रोकने हेतु आच्छादित की जाने वाली कृत्रिम घास आदि के निर्माण में
- खिलौनों, डापर, क्रेडिट कार्ड आदि में। यहाँ यह जान लेना जरूरी होगा कि वैश्विक स्तर पर न्यूनतम प्रति व्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग जहाँ 18.0 किलोग्राम है, वहीं इसके रीसाइकिलिंग की दर 15.2% है। ठोस अपशिष्ट में वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक के अंश 7.0% तक पाये जाते हैं।
- प्लास्टिक नैसगिर्कक रूप से विघटित होने वाला पदार्थ नहीं है। एक बार निर्मित हो जाने के बाद यह प्रकृति में स्थाई तौर पर बना रहता है और प्रकृति में इसे नष्ट कर सकने में सक्षम किसी सूक्ष्म जीवाणु के अस्तित्व के अभाव में यह कभी भी नष्ट नहीं होता। अतः इसके कारण गंभीर पारिस्थितिकीय असंतुलन तथा पर्यावरण में प्रदूषण फैलता है।
- इसके घुलनशील अथवा प्राकृतिक रूप से विघटित न हो सकने के कारण यह नालों एवं नदियों में जमा हो जाता है जिससे जलप्रवाह के अवरूद्ध होने के कारण जलभराव की समस्या उत्पन्न हो जाती है तथा साथ ही स्वास्थ्य सम्बन्धी सफाई आदि की समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।
- जाम हो चुके सीवर के ठहरे हुये पानी में मच्छरों के पैदा होने से मच्छरजनित रोग जैसे मलेरिया, डेंगू आदि फैलना आरंभ हो जाता है।
- समुद्री पर्यावरण में प्लास्टिक का कचरा फेंके जाने से सामुद्रिक पारिस्थितिकी को हानि पहुंचती है। समुद्री जीव इनका उपभोग कर लेते हैं जिनके परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हो जाती है।
- प्लास्टिक उद्योग में कार्यरत् श्रमिकों के स्वास्थ्य पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है और उनके फेफड़े, किडनी तथा स्नायुतंत्र दुष्प्रभावित होते हैं।
- निम्न गुणवत्तायुक्त प्लास्टिक पैकिंग सामग्री पैक किये जाने वाले भोजन एवं औषधियों के साथ रसायनिक प्रतिक्रिया करके उन्हें दूषित एवं खराब कर सकती है जिससे उपयोगकर्ताओं हेतु खतरा उत्पन्न हो जाता है।
- प्लास्टिक को जलाये जाने से निकलने वाली विषाक्त गैसों के परिणामस्वरूप गंभीर वायु प्रदूषण की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- प्लास्टिक प्रदूषण की भयावह तस्वीर को समझने के लिये यह जान लेना जरूरी होगा कि वर्तमान समय में पूरी पृथ्वी पर लगभग 1500 लाख टन प्लास्टिक एकत्रित हो चुका है, जो पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहा है। अकेले अमेरिका में लगभग 4 करोड़ से भी अधिक प्लास्टिक की बोतलें या तो गड्डों में दबाई जाती हैं अथवा इन्हें कचरे के ढेरों में फेंक दिया है। वर्ष 2004 तक पूरे विश्व में लगभग 3150 लाख कम्प्यूटर प्रयोग से बाहर होने के कारण कबाड़ में तब्दील हो चुके थे, जिनसे 20 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न हो चका था। वर्ष 2013 तक स्थिति क्या बन रही है. यह इस आंकड़े के आधार पर समझा जा सकता है। प्लास्टिक प्रदूषण समूचे जीवमण्डल को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है, यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा।
- कछुएँ : समुद्र में पाये जाने वाले सभी प्रकार के कछुए आज अनेक कारणोंवश संकटग्रस्त प्रजातियों में गिने जाते हैं। इन कारणों में से एक प्रमुख कारण प्लास्टिक की समस्या है। कछुए अधिकतर मछली पकड़ने वाले जाल में फंस जाते हैं। इसके अलावा कई मृत कछुओं के पेट से प्लास्टिक के थैले भी पाये गये हैं। ऐसा अनुमान है कि पूर्ण पारदर्शी पतली प्लस्टिक के ये थैले जब समुद्र में फेंक दिये जाते हैं तो समुद्री जल में ये 'जेली फिश' जैसे प्रतीत होने लगते हैं जिसके धोखे में कछुये इनका भोजन कर लेते हैं। इस प्रकार प्लास्टिक को खा लिये जाने से उनका श्वसन तंत्र अवरूद्ध हो जाता है और वे मर जाते हैं। हवाई द्वीप में एक मृत कछुएँ के पेट से प्लास्टिक थैले के अनेक टुकड़े निकाले गये थे।
- स्तनपाई : हाल ही की एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष लगभग 1 लाख समुद्री स्तनपाई प्लास्टिक तथा प्लास्टिक के जाल में फंसने एवं उसे खा लेने के परिणामस्वरूप मर जाते हैं। जब सील मछली किसी प्लास्टिक का कोई बड़ा टुकड़ा खा लेती है तो ये डूबने अथवा भूख के कारण मर जाती है। इसी प्रकार अनेक अन्य स्तनपाई प्लास्टिक से लगने वाले घावों, रक्त प्रवाह, दम घुटने एवं भूख से मर जाते हैं।
- समुद्री पक्षी : आज तक पूरे विश्व में समुद्री पक्षियों की लगभग 75 प्रजातियाँ प्लास्टिक को खाने के लिये जानी जाती हैं। हाल कसे ही एक अध्ययन के अनुसार दक्षिण अफ्रीका के मैरियन आइसलैण्ड में ब्लू पीटरेल चिक्स नामक पक्षियों का परीक्षण किया गया और उनमें से 90% के पेट में प्लास्टिक के अवशेष पाये गये। पक्षियों के पेट में पहुंचाने वाला प्लास्टिक कभी हजम नहीं होता है। यह उनकी पाचन क्रिया को दुष्प्रभावित करता है, फलतः उनकी मौत हो जाती है।
- प्लास्टिक को जलाए जाने से इससे डाइऑक्सीन नामक अत्यन्त विषैली गैस निकलती है जो पर्यावरण में लंबे समय तक बनी रह जाने वाली होती है तथा मनुष्यों एवं पशुओं के शरीर में उनके श्वांस के साथ प्रवेश करके वसा तंतुओं में एकत्रित हो जाती है जिसके परिणामसवरूप कैंसर, शारीरिक कुविकास एवं अन्य रोग एवं समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।
- प्लास्टिक को गड्डों में गाड़ दिए जाने से पर्यावरण को हानि पहुँचती है। ऐसा सिद्ध हो चुका है कि अभी तक पर्यावरण में कोई भी ऐसा सूक्ष्म जीवाणु उपलब्ध नहीं है जो प्लास्टिक का विघटन करने में सक्षम हो, अतः यह कभी भी नष्ट नहीं होती तथा सदैव वातावरण में बनी रहती है। इसके परिणामस्वरूप मृदा के अनुपजाऊ होने, पारिस्थितिक असंतुलन, पानी के विषाक्त होने जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगती है।
- कुछ विकसित देशों में आजकल पैथालेट्स नाम से ज्ञात प्लास्टिक गलाने वाले माध्यम का उपयोग प्लास्टिक को गढ्ढों में भरते समय किया जाने लगा है। ये पैथालेट्स भूगर्भीय जल को विषाक्त कर सकते हैं। अनुसंधान से यह पता चला है कि ये पैथालेट्स महिलाओं के हारमोन एस्ट्रोजेन की नकल तैयार कर सकते हैं तथा पुरूषों में नपुंसकता, कन्याओं में शीघ्र यौवन का विकास तथा जन्मजात विकारों जैसे पुरूषों के विकृत प्रजनन अंगों जैसी समस्याएं उत्पन्न कर सकते हैं।
- रिसाइकिल किए गए प्लास्टिक दोने विशुद्ध पॉलीमर नहीं उपलब्ध करा सकते।
- ऐसे प्लास्टिक के दोने स्वास्थ्य सम्बन्धी ख़तरों को ध्यान में रखे बिना ही उपयोग में लाए जाते है।
- रिसाइकिल की गई एक ही प्रकार की प्लास्टिक को निम्न प्रकार के उपभोक्ता सामग्री के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
- इन्जेक्शन मोल्डेड बेकरी ट्रे, कालीन, वस्त्रों एवं कपड़े के धागे।
- लांड्री सामग्री. मोबिल आयल के लिए डिब्बे . ढाले गए टब तथा कृषि हेतु पाइप इत्यादि।
- खेल के मैदान के विभिन्न उपकरण, फिल्म तथा हवा भरने योग्य सामग्री।
- थैले तथा कम्पोस्ट के डिब्बे।
- आटोमोबाइल पार्ट्स, कालीन, बैटरी के खोल, कपड़े तथा पैकिंग फिल्म इत्यादि।
- कार्यालय सामग्री, वीडियो कैसेट आदि।
- पार्कों की बंच एवं मेज।
- घरेलू तथा कार्यालय फर्नीचर।
- कचरे के डिब्बे।
- बगीचे की बाड़ तथा जल भरने के स्थान से जल को रोकने के लिए बाड़।
- जेटी के निर्माण,
- गाड़ियों के रोकने के संकेत।
- रफ्तार अवरोधक
- जूते, ब्रशों के दस्ते इत्यादि।
- स्टार्च बैग : इनमें उच्च क्षमतायुक्त पॉलीमर के साथ 10 से 90 प्रतिशत तक स्टार्च मिलाया गया हो सकता है। इनके विघटन काल की निर्भरता इनमें मिलाए गए स्टार्च की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि इनमें 60% से अधिक स्टार्च मिलाया गया है तो ये सहजतापूर्वक धुल जात हैं। शतप्रतिशत मकई के स्टार्च से निर्मित बैग जिनमें लचीलापन बनाए रखने के लिए वनस्पति तेलों को मिश्रित किया जाता है, 10 दिन से एक माह में जल अथवा मिट्टी में विघटित हो जाते हैं। यदि इन्हें पशुओं द्वारा खा भी लिया जाता है तो पशु आसानी से इन्हें पचा सकते हैं।
- ग्रीन बैग : ये पॉलीप्रापीलीन रेशों के द्वारा निर्मित होते हैं। इन बैगों में प्लास्टिक थैलों की अपेक्षा अधिक समाना ढोया जा सकता है और ये बार-बार उपयोग में भी लाए जा सकते हैं। ग्रीन बैग को गढ्ढों में नहीं फेंका जाना चाहिए और न ही इन्हें समुद्र में फेंकना चाहिए क्योंकि ये आसानी से नष्ट नहीं होते। परंतु ये जेली फिश के समान प्रतीत न होने के कारण ये समुद्री जीवों को अधिक हानि नहीं पहुँचाते।
- कैलिको बैग : ये बैग कपास से बने होते हैं तथा बार-बार उपयोग में लाए जा सकते हैं तथा प्लास्टिक बैग की अपेक्षा अधिक वजन उठाए जाने के योग्य होते हैं। ये गढ्ढों में आसानी से विघटित नहीं होते तथा समुद्र में ये एक दिन में डूब जाते हैं तथा समुद्र में तैरते नहीं हैं।
- फेंकी गई प्लास्टिक की रिसाइक्लिग की जानी चाहिए।
- प्रत्येक मनुष्य को पैकेजिंग के काम में लाई और फेंक दी जाने वाली प्लास्टिक के उपयोग में यथासंभव कमी लानी चाहिए।
- ऐसे उत्पादों को खरीदना चाहिए जिनकी पैकेजिंग में कम से कम प्लास्टिक का उपयोग किया गया हो तथा ग्राहकों को अपने निजी कपड़े के बैग आदि का उपयोग किसी भी प्रकार के प्लास्टिक के पदार्थ को सीवर, नदियों के किनारे अथवा समुद्र के आसपास नहीं फेंका जाना चाहिए।
- प्रत्येक शहर के नगर निगम अधिकारियों का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वे प्राकृतिक रूप से विघटित होने तथा न हो सकने योग्य कूड़े के लिए अलग-अलग कूड़ेदानों की व्यवस्था करें। इस प्रकार एकत्रित की गई समस्त प्लास्टिक को रिसाइक्लिग के लिए भेजा जाना चाहिए।
- जनसाधारण में प्लास्टिक से उत्पन्न खतरों के प्रति सघन जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए जिसे स्कूल स्तर से प्रारंभ कर समस्त बाजारों एवं कार्यालयों में कार्यरत् जनता तक प्रचारित एवं प्रसारित किया जाना चाहिए। नागरिकों में अपने शहर एवं देश के पर्यावरण की रक्षा के उत्तरदायित्वों का प्रचार किया जाना चाहिए।
- परिवार के प्रत्येक सदस्य को प्राकृतिक रूप से विघटित हो सकने योग्य तथा विघटित न हो सकने योग्य अलग-अलग कूडेदान के उपयोग के विषय में शिक्षित किया जाना चाहिए। जिससे कचरे को सही तरीके से छाँटने में सहायता प्राप्त हो सके।
- पेट्रोकेमिकल औद्योगिक इकाईयों तथा प्लास्टिक वस्तुओं के समस्त प्रमुख निर्माताओं को अपने उत्पादों में प्रयुक्त प्लास्टिक के रिसाइक्लिंग के तरीकों को आम जनता को सूचित करने हेतु बाध्य किया जाना चाहिए।
- समस्त प्रकार के रिसाइक्लिंग एवं ठोस अपशिष्ट निस्तारण परियोजनाओं के सफल संचालन हेतु बैंकों तथा अन्य सरकारी संस्थाओं को आगे आकर अधिक से अधिक सहायता उपलब्ध करानी चाहिए। समयानुसार एवं निरंतर आधार पर तथा विशेष रूप से मानसून के मौसम के पहले सीवर तथा नालों की समुचित सफाई की जानी चाहिए।
- वस्तुतः प्लास्टिक जिस तरह से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो चुका है, उसे देखते हुए इसे एकदम से तो जीवन से निकाला नहीं जा सकता, किंतु समझदारी भरे उपाय कर इस समस्या को एक सीमा तक नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है। इसके लिए हमें तीन कदम मजबूती से बढ़ाने होंगे। पहला कदम यह होना चाहिए कि हम प्लास्टिक के उपयोग को न्यूनतम स्तर पर लाएं और इसके उपयोग में कमी लाएं। दूसरा कदम हमें प्लास्टिक के सामानों के पुनः इस्तेमाल की ओर बढ़ना होगा। यानी इन्हें कचरे में फेंकने के बजाय घरेलू कामों में हम इनका पुनउँपयोग करें। तीसरा कदम है पुनचक्रण (Recycling) जिसके बारे में पहले ही काफी कुछ बताया जा चुका है।
- प्लास्टिक निर्माण में प्रयुक्त कच्चे माल को तैयार माल में परिवर्तित करने में ऊर्जा की खपत बहुत कम मात्रा में होती है।
- कागज के थैलों के निर्माण में प्रयुक्त ऊर्जा के मुकाबले प्लास्टिक थैलों के निर्माण में मात्र 1/3 ऊर्जा ही व्यय होती है।
- प्लास्टिक के विभिन्न प्रकार के उपयोगों से बनाए गए उपकरणों की सहायता से होने वाली कार्यक्षमता में वृद्धि के कारण लगभग 530 करोड़ यूनिट बिजली की बचत होती है।
- प्लास्टिक से बने हुए बोरे, जूट अथवा कागज के बोरों की तुलना में बड़ी मात्रा में पैकिंग करने से 40% कम ऊर्जा की खपत करते हैं।
- घरों में दूध पहुँचाते में प्रयुक्त प्लास्टिक बैग शीशे की बोतलों की तुलना में मात्र 1/10 हिस्सा ही ऊर्जा का उपयोग करते हैं।
- जलापूर्ति करने वाले लोहे के पाइपों की तुलना में पी.वी. सी. पाइप उनके निर्माण में अधिक उपयोगी एवं ऊर्जा की बचत करने वाले होते हैं।
- प्लास्टिक के कुछ अनोखे गुण जैसे रगड़ प्रतिरोधक, रासायन प्रतिरोधक, कम रखरखाव लागत तथा टिकाऊपन आदि होते हैं। इनकी देखभाल करना अन्य धातुओं अथवा पदार्थों की तुलना में सहज एवं सरल होता है।
- सन् 1992 में किए गए एक अध्ययन से यह पता चला है कि शीशे, कागज अथवा धातुओं के स्थान पर प्लास्टिक का पैकिंग में उपयोग किए जाने के कारण अमेरिका में 336 ट्रिलियन यूनिट ऊर्जा बचाई गई। यह मात्रा लागभग 580 लाख बैरल तेल अथवा 3250 क्यूबिक फिट प्राकृतिक गैस अथवा 32 करोड़ पाउंड कोयले के बराबर होती है।
कीटनाशक प्रदूषण
- अकार्बनिक कीटनाशक (Inorganic Pesticides) : सोडियम फ्लोराइड, सोडियम फ्लोसिलिकेट, साइरोलाइट, लाइम सल्फर आदि प्रमुख अकार्बनिक कीटनाशक हैं। यद्यपि इनका प्रयोग लंबे समय से हो रहा है। परंतु लंबे समय तक प्रकृति में बने रहने तथा कीटों के अलावा अन्य जीव-जंतुओं एवं मनुष्यों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण इनका उपयोग कम होने लगा है।
- कार्बनिक कीटनाशक (Organic Pesticides) : कार्बनिक कीटनाशक अधिक प्रभावी, प्रकृति में कम समय तक बने रहने वाले (Less Persistent) तथा मात्र अपने निर्देशित लक्ष्य को ही प्रभावित करते हैं। इसीलिए इनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है।
- वानस्पतिक (Botanical) - निकोटीन (C10H14N2) पाइरेथ्रिन रोटेनन (C23H22O6) इत्यादि तथा
- सूक्ष्म जीवाणु (Microbial) - जैसे बी.टी, सी.पी.वी. इत्यादि।
- (1) क्लोरिनेटेड हाइड्रोकार्बन
- (2) आर्गेनो फास्फोरस यौगिक
- (3) कार्बामेट
- (4) कृत्रिम पाइरेथ्राइड्स
- (5) आई.जी.आर.
- पशुओं पर दुष्प्रभाव : डीडीटी तथा इसके जैसे अन्य यौगिकों के पक्षियों के प्राकृतिक आवास के समीप छिड़काव किए जाने के परिणामस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में पक्षियों एवं स्तनपाइयों के मारे जाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। इनके दुष्प्रभावों के कारण पक्षियों के चूजे मर जाते हैं। इसके अतिरिक्त ये कीटनाशक भोजन के माध्यम से पक्षियों के शरीर में प्रवेश पा जाते हैं। सारस, बगुला तथा जल कौवे जैसे पक्षियों तथा उनके अंडों के खोलों पर इन कीटनाशकों के गंभीर दुष्प्रभावों को विभिन्न परीक्षणों मे दर्ज किया गया है। इन खोलों के कैल्सियम में आर्गेनोक्लोरीन यौगिकों के जमाव पाए गए हैं। इन रासायनिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप ये खोल कमजोर हो जाते हैं तथा अंडों में से बच्चों के पोषित होकर बाहर निकाल पाने के पूर्व ही अंडे फूट जाते हैं।
- मृदा पर प्रभाव : भूमि अथवा मृदा के एक वर्ग मीटर क्षेत्र में लगभग 9 लाख प्रकार के कशेरूका विहीन (बिना रीढ़ की हड्डी वाले) जीव निवास करते हैं। ये जहीव मृदा को उपजाऊ शक्ति प्रदान करते हैं। ऐसे जीवों में शामिल हैंकोलेम्बोला, माइट, सिम्फिलिड, केंचुआ आदि। कीटनाशकों के प्रयोग से ये जीव समाप्त हो जाते हैं जिससे भूमि अनुपजाऊ हो जाती है। साथ ही नाइट्रोजन को संशोधित करने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा कम हो जाती है तथा पौधों का विकास रूक जाता है।
- फफूंद नाशक (Fungicides) : ऐसे यौगिक आरगैनो फास्फोरस यौगिकों की अपेक्षा कम जहरीले होते हैं परन्तु जिनमें पारा एवं तांबे का घटकों के रूप में उपयोग किया गया हो, अत्यधिक विषैले हो जाते हैं तथा स्थाई प्रकृति के होते हैं। विभिन्न प्रकार के स्वपोषित जीव इनके द्वारा नष्ट हो जाते हैं। इन रसायनों को अत्यधिक उपयोग मृदा की उपजाऊ शक्ति को भी कम करता है।
- शाक नाशक (Herbicides) : इनके प्रयोग से बड़ी संख्या में पशुओं की मृत्यु होती है। क्योंकि पशुओं एवं अन्य जीवों द्वारा पत्तों एवं शाकों के उपभोग किये जाने पर इनके दुष्प्रभाव इन पर पड़ते हैं। सिमाजीन नामक शाक नाशक के उपयोग से बहुत बड़ी मात्रा में लाभदायक कीट, उनके अंडे, केंचुए इत्यादि के नष्ट होने की जानकारियाँ मिलती हैं,
- जैव आवर्धन (Biomaginification) : अधिकांश कीटनाशक सहजता से न तो नष्ट होते हैं और न ही पशुओं के द्वारा पचाये जा सकते हैं अतः ये पशुओं के शरीर की कोशिकाओं में एकत्रित हो जाते हैं और इनकी सान्द्रता धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। सान्द्रता की प्रक्रिया उच्च पोषण स्तर पर और अधिक तीव्र हो जाती है। इस प्रकार कीटनाशकों के बहुत अधिक खतरनाक स्तर प्राप्त कर लेने के बाद उच्च पोषण स्तर के पशुओं के मरने एवं नष्ट हो जाने का खतरा उत्पन्न कर देती है जिससे जैव आवर्धन की प्रक्रिया दुष्प्रभावित होती है।
- प्रतिरोधक क्षमता का विकास : निरंतर प्रयोग के कारण कीटों में इन कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती जाती है जिससे कीटनाशकों की मात्रा और बढ़ाते जाते हैं जो घातक हो जाता है।
- गैरलक्षित प्रजातियों का उन्मूलन (Elimination of Non-Target Species) : इनके प्रयोग से ऐसी प्रजातियाँ एवं जीव भी नष्ट हो जाते हैं जो लाभदायी होते हैं। इससे प्राकृतिक परजीवियों के समूल नष्ट होने एवं पारिस्थितिकीय असंतुलन का खतरा पैदा हो जाता है।
- कीटों का जैविक नियंत्रण (Biological Control of Pests) : कीटों की संख्या को जैविक नियंत्रण एक ऐसी प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत कीटों की संख्या को प्रकृति में उपस्थित इनके प्राकृतिक परभक्षियों एवं परजीवियों के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इससे पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचाता। विश्व में जैविक नियंत्रण के अनेकों सफल एवं उत्साहवर्धक उदाहरण सामने आ चुके हैं जो जैविक नियंत्रण में निहित अपार संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं।
- जैविक नियंत्रण माध्यम के मात्र एक बार क्रियाशील कर दिये जाने के बाद यह स्वयं गतिशील रहता है तथा नये कीटों को नष्ट कर देता है।
- एक छोटे क्षेत्र में ऐसे जैविक नियंत्रण माध्यमों को स्थापित करके बड़े क्षेत्र में कीटों पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है।
- मात्र लक्षित प्रजातियों को ही जैविक नियंत्रण माध्यमों के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसे माध्यम अन्य प्रजातियों के लिये किसी प्रकार का खतरा उत्पन्न नहीं करते।
- इनका किसी प्रकार का कोई विषैला दुष्प्रभाव नहीं होता।
- यह विधि अत्यंत सस्ती एवं दीर्घकालिक परिणाम प्रदान करने वाली है।
- किसी भी जैविक नियंत्रण माध्यम को किसी भी खेत अथवा क्षेत्र में लागू किये जाने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिये कि ऐसे माध्यम मात्र लक्षित प्रजाति वाले कीटों को ही अपना शिकार बनाएं।
- जैविक नियंत्रण माध्यमों का खेतों में वास्तविक उपयोग में लाये जाने के पूर्व प्रयोगशाला अथवा अन्य उपयुक्त स्थानों पर भली-भांति परीक्षण कर लिया जाना चाहिये। यह निश्चित किया जाना भी अनिवार्य होता है कि ऐसे माध्यमों से कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं को किसी प्रकार की हानि न पहुंचने पाये क्योंकि एक बार यदि ये प्राकृतिक शत्रु नष्ट हो जाते हैं तो कीटों का नियंत्रण करना अत्यंत कठिन हो सकता है।
- जिस परभक्षी को सक्रिय किया जाये उनका समुचित निरीक्षण करते रहना भी अत्यंत अनिवार्य होता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे सुरक्षा की जाने वाली फसल के अतिरिक्त अन्य प्रकार की फसलों के
- लिये स्वयं ही कीट न बन जाये।
- जिस पर्यावरण में ऐसे जैविक कीटनाशक माध्यमों को सक्रिय किया जाना है वह इनकी उत्तरजीविता एवं बहुगुणित होने हेतु अनुकूल होना चाहिये।
- वायरस - न्यूक्लिर पॉली वायरस, साइटो प्लास्मिक पॉली वायरस तथा एंटोमोपॉक्स इत्यादि।
- बैक्टीरिया - बेसिलियस थुरिनजियनेसिस, स्टैप्टोमाइसिस अवेरमिटालिस इत्यादि।
- प्रोटोजोआ - नोसेमा यूओक्यूस्टे।
- फुगी - व्यूवेरिया बैसियाना, मेड्रीरिझियम एस.पी. इत्यादि।
- किसी भी कीटनाशक के चयन के पूर्व अत्यधिक सतर्कता की आवश्यकता होती है जिससे यह किसी भी कृषि व्यवस्था को व्यापक तौर पर दुष्प्रभाव न कर सके।
- किसी भी एकीकृत नियंत्रण उपाय को अपनाए जाने से पूर्व कीटों के जीवविज्ञान का गहन अध्ययन किया जाना अनिवार्य होता है। इससे कीट नियंत्रण की लागत एवं समय को बचाया जा सकता है।
- जैविक नियंत्रण एकीकृत कीट प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण अंग है। कीटों पर नियंत्रण करने हेतु जैविक नियंत्रण प्रणलियों को यथासंभव अपनाया जाना चाहिए।
- विभिन्न प्रकार की कीट प्रतिरोधी फसलों को विकसित किया जाना चाहिए।
- फसल चक्रानुक्रमण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जिससे फसल विशेष को नष्ट करने वाले कीट पनप न सकें।